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Jagdish Sharma
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Jagdish Sharma
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9 घंटे पहले
।। ॐ ।। इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥ इन्द्रिय और इन्द्रियों के भोगों में राग और द्वेष स्थित हैं। इन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्योंकि इस कल्याण-मार्ग में कर्मों से छूट जानेवाली प्रणाली में ये राग और द्वेष दुर्धर्ष शत्रु हैं, आराधना का अपहरण कर ले जाते हैं। जब शत्रु भीतर हैं तो बाहर कोई किसी से क्यों लड़ेगा? शत्रु तो इन्द्रिय और भोगों के संसर्ग में हैं, अन्तःकरण में हैं, अतः यह युद्ध भी अन्तःकरण का युद्ध है। क्योंकि शरीर ही क्षेत्र है, जिसमें सजातीय और विजातीय दोनों प्रवृत्तियाँ, विद्या और अविद्या रहती हैं, जो माया के दो अंग हैं। इन्हीं प्रवृत्तियों का पार पाना, सजातीय प्रवृत्ति को साधकर विजातीय का अन्त करना युद्ध है। विजातीय समाप्त होने पर सजातीय का उपयोग समाप्त हो जाता है। स्वरूप का स्पर्श करके सजातीय का भी उसके अन्तराल में विलय हो जाना, इस प्रकार प्रकृति का पार पाना युद्ध है, जो ध्यान में ही सम्भव है। राग और द्वेष के शमन में समय लगता है, इसलिये बहुत से साधक क्रिया को छोड़कर सहसा महापुरुष की नकल करने लग जाते हैं। श्रीकृष्ण इससे सावधान #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏 #❤️जीवन की सीख
Jagdish Sharma
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1 दिन पहले
।। ॐ ।। सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥ सभी प्राणी अपनी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। अपने स्वभाव से परवश होकर कर्म में भाग लेते हैं। प्रत्यक्षदर्शी ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। प्राणी अपने कर्मों में बरतते हैं और ज्ञानी अपने स्वरूप में। जैसा जिसकी प्रकृति का दबाव है, वैसा ही कार्य करता है। यह स्वयंसिद्ध है। इसमें निराकरण कोई क्या करेगा? यही कारण है कि सभी लोग मेरे मत के अनुसार कर्म में प्रवृत्त नहीं हो पाते। वे आशा, ममता, संताप का; दूसरे शब्दों में राग-द्वेष का त्याग नहीं कर पाते, जिससे कर्म का सम्यक् आचरण नहीं हो पाता। इसी को और स्पष्ट करते हैं और दूसरा कारण बताते हैं- #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏गीता ज्ञान🛕 #❤️जीवन की सीख
Jagdish Sharma
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2 दिन पहले
।। ॐ ।। ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्। सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥ जो दोषदृष्टिवाले 'अचेतसः' मोहनिशा में अचेत लोग मेरे इस मत के अनुसार नहीं बरतते अर्थात् ध्यानस्थ होकर आशा, ममता और सन्तापरहित होकर समर्पण के साथ युद्ध नहीं करते, 'सर्वज्ञानविमूढान्' - ज्ञान-पथ में सर्वथा मोहित उन लोगों को तू कल्याण से भ्रष्ट हुआ ही जान। जब यही सही है तो लोग करते क्यों नहीं? इस पर कहते हैं- "यथार्थ गीता" #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🙏गीता ज्ञान🛕 #यथार्थ गीता #🧘सदगुरु जी🙏 #❤️जीवन की सीख
Jagdish Sharma
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3 दिन पहले
।। ॐ ।। ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्। सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥ जो दोषदृष्टिवाले 'अचेतसः' मोहनिशा में अचेत लोग मेरे इस मत के अनुसार नहीं बरतते अर्थात् ध्यानस्थ होकर आशा, ममता और सन्तापरहित होकर समर्पण के साथ युद्ध नहीं करते, 'सर्वज्ञानविमूढान्' - ज्ञान-पथ में सर्वथा मोहित उन लोगों को तू कल्याण से भ्रष्ट हुआ ही जान। जब यही सही है तो लोग करते क्यों नहीं? इस पर कहते हैं-"यथार्थ गीता" #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏 #यथार्थ गीता
Jagdish Sharma
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5 दिन पहले
।। ॐ ।। मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥ इसलिये अर्जुन ! तू 'अध्यात्मचेतसा'- अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके, ध्यानस्थ होकर, सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। जब चित्त ध्यान में स्थित है, लेशमात्र भी कहीं आशा नहीं, कर्म में ममत्व नहीं है, असफलता का सन्ताप नहीं है तो वह पुरुष कौन-सा युद्ध करेगा? जब सब ओर से चित्त सिमटकर हृदय-देश में निरुद्ध होता जा रहा है तो वह लड़ेगा किसलिये, किससे और वहाँ है कौन? वास्तव में जब आप ध्यान में प्रवेश करेंगे तभी युद्ध का सही स्वरूप खड़ा होता है, तो काम-क्रोध, राग-द्वेष, आशा-तृष्णा इत्यादि विकारों का समूह विजातीय प्रवृत्तियाँ जो 'कुरु' कहलाती हैं, संसार में प्रवृत्ति देती ही रहती हैं। बाधा के रूप में भयंकर आक्रमण करती हैं। बस, इनका पार पाना ही युद्ध है। इनको मिटाते हुए अन्तरात्मा में सिमटते जाना, ध्यानस्थ होते जाना ही यथार्थ युद्ध है। इसी पर पुनः बल देते हैं- #यथार्थ गीता #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख
Jagdish Sharma
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6 दिन पहले
।। ॐ ।। प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु। तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में क्रमशः निर्मल गुणों की ओर उन्नति देखकर उनमें आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझनेवाले 'मन्दान्' - शिथिल प्रयत्नवालों को अच्छी प्रकार जाननेवाला ज्ञानी चलायमान न करे। उन्हें हतोत्साहित न करे बल्कि प्रोत्साहन दे; क्योंकि कर्म करके ही उन्हें परम नैष्कर्म्य की स्थिति को पाना है। अपनी शक्ति और स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत्त होनेवाले ज्ञानमार्गी साधकों को चाहिये कि कर्म को गुणों की देन मानें, अपने को कर्त्ता मानकर अहंकारी न बन जायें, निर्मल गुणों के प्राप्त होने पर भा उनम जासक्त न हा। किन्तु निष्काम कमयागा को कर्म और गुणों के विश्लेषण में समय देने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे तो बस समर्पण के साथ कर्म करते जाना है। कौन गुण आ-जा रहा है, यह देखना इष्ट की जिम्मेदारी हो जाती है। गुणों का परिवर्तन और क्रम-क्रम से उत्थान वह इष्ट की ही देन मानता है और कर्म होने को भी उन्हीं की देन मानता है। अतः कर्त्तापन का अहंकार या गुणों में आसक्ति होने की समस्या उसके लिये नहीं #🙏गीता ज्ञान🛕 #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🧘सदगुरु जी🙏 #❤️जीवन की सीख
Jagdish Sharma
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8 दिन पहले
।। ॐ ।। प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अह‌ङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ आरम्भ से पूर्तिपर्यन्त कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं फिर भी अहंकार से विशेष मूढ़ पुरुष 'मैं कर्त्ता हूँ'- ऐसा मान लेता है। यह कैसे माना जाय कि आराधना प्रकृति के गुणों द्वारा होती है? ऐसा किसने देखा? इस पर कहते हैं- #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏गीता ज्ञान🛕 #❤️जीवन की सीख
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