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Davinder Singh Rana
@rana_g
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Davinder Singh Rana
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8 घंटे पहले
*श्रीमद्वाल्मीकीय–रामायण* *पोस्ट–614* 🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟 *(उत्तरकाण्ड–सर्ग-71)* 🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹 *आज की कथा में:–शत्रुघ्न का थोड़े से सैनिकों के साथ अयोध्या को प्रस्थान, मार्ग में वाल्मीकि के आश्रम में रामचरित का गान सुनकर उन सबका आश्चर्य चकित होना* तदनन्तर बारहवें वर्ष में थोड़े-से सेवकों और सैनिकों को साथ ले शत्रुघ्न ने श्रीरामपालित अयोध्या को जाने का विचार किया। अतः अपने मुख्य-मुख्य मन्त्रियों तथा सेनापतियों को लौटाकर पुरी की रक्षा के लिये वहीं छोड़कर वे अच्छे-अच्छे घोड़े वाले सौ रथ साथ ले अयोध्या की ओर चल पड़े। महायशस्वी रघुकुलनन्दन शत्रुघ्न यात्रा करने के पश्चात् मार्ग में सात-आठ परिगणित स्थानों पर पड़ाव डालते हुए वाल्मीकि मुनि के आश्रम पर जा पहुँचे और रात में वहीं ठहरे। उन पुरुषप्रवर रघुवीर ने वाल्मीकिजी के चरणों में प्रणाम करके उनके हाथ से पाद्य और अर्घ्य आदि आतिथ्य-सत्कार की सामग्री ग्रहण की। वहाँ महर्षि वाल्मीकि ने महात्मा शत्रुघ्न को सुनाने के लिये भाँति-भाँति की सहस्रों सुमधुर कथाएँ कहीं। फिर वे लवणवध के विषय में बोले– वाल्मीकिजी ने कहा–‘लवणासुर को मारकर तुमने अत्यन्त दुष्कर कर्म किया है। सौम्य! महाबाहो ! लवणासुर के साथ युद्ध करके बहुत-से महाबली भूपाल सेना और सवारियों सहित मारे गये हैं। पुरुषश्रेष्ठ! वही पापी लवणासुर तुम्हारे द्वारा अनायास ही मार डाला गया। उसके कारण जगत् में जो भय छा गया था, वह तुम्हारे तेज से शान्त हो गया। रावण का घोर वध महान् प्रयत्न से किया गया था; परन्तु यह महान् कर्म तुमने बिना यत्न के ही सिद्ध कर दिया। लवणासुर के मारे जाने से देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई है। तुमने समस्त प्राणियों और सारे जगत् का प्रिय कार्य किया है। नरश्रेष्ठ! मैं इन्द्र की सभा में बैठा था। जब वह विमानाकार सभा युद्ध देखने के लिये आयी, तब वहीं बैठे-बैठे मैंने भी तुम्हारे और लवण के युद्ध को भलीभाँति देखा था। शत्रुघ्न ! मेरे हृदय में भी तुम्हारे लिये बड़ा प्रेम है। अत: मैं तुम्हारा मस्तक सूँघूँगा। यही स्नेह की पराकाष्ठा है।’ ऐसा कहकर परम बुद्धिमान् वाल्मीकि ने शत्रुघ्न का मस्तक सूँघा और उनका तथा उनके साथियों का आतिथ्य सत्कार किया। नरश्रेष्ठ शत्रुघ्न ने भोजन किया और उस समय श्रीरामचन्द्रजी के चरित्र का क्रमशः वर्णन सुना, जो गीत की मधुरता कारण बड़ा ही प्रिय एवं उत्तम जान पड़ता था। उस वेला में उन्हें जो रामचरित सुनने को मिला, वह पहले ही काव्यबद्ध कर लिया गया था। वह काव्यगान वीणा की लय के साथ हो रहा था। हृदय, कण्ठ और मूर्धा इन तीन स्थानों में मन्द, मध्यम और तार स्वर के भेद से उच्चारित हो रहा था। संस्कृत भाषा में निर्मित होकर व्याकरण, छन्द, काव्य और संगीत- शास्त्र के लक्षणों से सम्पन्न था और गानोचित ताल के साथ गाया गया था। उस काव्य के सभी अक्षर एवं वाक्य सच्ची घटना का प्रतिपादन करते थे और पहले जो वृत्तान्त घटित हो चुके थे, उनका यथार्थ परिचय दे रहे थे। वह अद्भुत काव्यगान सुनकर पुरुषसिंह शत्रुघ्न मूर्च्छित से हो गये। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वे दो घड़ी तक अचेत-से होकर बारम्बार लम्बी साँस खींचते रहे। उस गान में उन्होंने बीती हुई बातों को वर्तमान की भाँति सुना। राजा शत्रुघ्न के जो साथी थे, वे भी उस गीत-सम्पत्ति को सुनकर दीन और नतमस्तक हो बोले–‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है।’ शत्रुघ्न के जो सैनिक वहाँ मौजूद थे, वे परस्पर कहने लगे–‘यह क्या बात है ? हम लोग कहाँ हैं ? यह कोई स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं। जिन बातों को हम पहले देख चुके हैं, उन्हीं को इस आश्रम पर ज्यों-की-त्यों सुन रहे हैं। क्या इस उत्तम गीतबन्ध को हम लोग स्वप्न में सुन रहे हैं ?’ फिर अत्यन्त विस्मय में पड़कर वे शत्रुघ्न से बोले–‘नरश्रेष्ठ! आप इस विषय में मुनिवर वाल्मीकिजी से भलीभाँति पूछें।’ शत्रुघ्न ने कौतूहल में भरे हुए उन सब सैनिकों से कहा– शत्रुघ्नजी बोले–‘मुनि के इस आश्रम में ऐसी अनेक आश्चर्यजनक घटनाएँ होती रहती हैं। उनके विषय में उनसे कुछ पूछताछ करना हमारे लिये उचित नहीं है। कौतूहलवश महामुनि वाल्मीकि से इन बातों के विषय में जानना या पूछना उचित न होगा।’ अपने सैनिकों से ऐसा कहकर रघुकुलनन्दन शत्रुघ्न महर्षि को प्रणाम करके अपने खेमे में चले गये। इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के उत्तरकाण्ड में इकहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७१॥ राणा जी खेड़ांवाली🚩 ॐश्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #🎶जय श्री राम🚩 #🙏श्री राम भक्त हनुमान🚩 #🙏रामायण🕉 #श्री हरि
Davinder Singh Rana
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8 घंटे पहले
*श्रीमद्भागवत माहात्म्य* *अध्याय एक* *भक्ति नारद समागम* 🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄 पूर्वकालमें श्रीमद्भागवतके श्रवणसे ही राजा परीक्षित्‌की मुक्ति देखकर ब्रह्माजी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ था⁠। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनों को तौला ⁠।⁠।⁠ 18 ⁠।⁠। अन्य सभी साधन तौल में हलके पड़ गये, अपने महत्त्वके कारण भागवत ही सबसे भारी रहा⁠। यह देखकर सभी ऋषियों को बड़ा विस्मय हुआ ⁠।⁠।⁠ 19 ⁠।⁠। उन्होंने कलियुगमें इस भगवद्रूप भागवतशास्त्रको ही पढ़ने-सुनने से तत्काल मोक्ष देनेवाला निश्चय किया ⁠।⁠।⁠ 20 ⁠।⁠। सप्ताह-विधिसे श्रवण करनेपर यह निश्चय भक्ति प्रदान करता है⁠। पूर्व काल में इसे दयापरायण सनकादिने देवर्षि नारदको सुनाया था ⁠।⁠।⁠ 21 ⁠।⁠। यद्यपि देवर्षिने पहले ब्रह्माजीके मुखसे इसे श्रवण कर लिया था, तथापि सप्ताहश्रवणकी विधि तो उन्हें सनकादिने ही बतायी थी ⁠।⁠।⁠ 22 ⁠।⁠। शौनकजीने पूछा — सांसारिक प्रपंचसे मुक्त एवं विचरणशील नारदजी का सनकादिके साथ संयोग कहाँ हुआ और विधि-विधान के श्रवणमें उनकी प्रीति कैसे हुई? ⁠।⁠।⁠ 23 ⁠।⁠। सूतजीने कहा — अब मैं तुम्हें वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना अनन्य शिष्य जानकर एकान्त में सुनाया था ⁠।⁠।⁠ 24 ⁠।⁠। एक दिन विशालापुरीमें वे चारों निर्मल ऋषि सत्संगके लिये आये⁠। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा ⁠।⁠।⁠ 25 ।⁠। सनकादिने पूछा — ब्रह्मन्! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है? आप चिन्तातुर कैसे हैं? इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे हैं? और आपका आगमन कहाँ से हो रहा है? ⁠।⁠।⁠ 26 ⁠।⁠। इस समय तो आप उस पुरुष के समान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया हो; आप-जैसे आसक्तिरहित पुरुषों के लिये यह उचित नहीं है⁠। इसका कारण बताइये ⁠।⁠।⁠ 27 ।⁠। हरि ॐ नमो नारायण राणा जी खेड़ांवाली🚩1श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय एक - भक्ति नारद समागम नारदजीने कहा — मैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वी में आया था⁠। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक), हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थों में मैं इधर-उधर विचरता रहा; किन्तु मुझे कहीं भी मन को संतोष देने वाली शान्ति नहीं मिली⁠। इस समय अधर्म के सहायक कलि-युगने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है ⁠।⁠।⁠ 28 - 30⁠।⁠। अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है⁠। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालनेमें लगे हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रवग्रस्त (रोग और विकार) हो गये हैं⁠। जो साधु-संत कहे जाते हैं वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखने में तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्री-धन आदि सभी का परिग्रह करते हैं⁠। घरों में स्त्रियों का राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभसे लोग कन्या-विक्रय करते हैं और स्त्री-पुरुषों में कलह मचा रहता है ⁠।⁠।⁠ 31 – 33 ⁠।⁠। महात्माओं के आश्रम, तीर्थ और नदियों पर यवनों (विधर्मियों) का अधिकार हो गया है; उन दुष्टोंने बहुत-से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं ⁠।⁠।⁠ 34 ⁠।⁠। इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही है⁠। सारे साधन इस समय कलिरूप दावानलसे (जंगल में लगी आग) जलकर भस्म हो गये हैं ⁠।⁠।⁠ 35 ।⁠। इस कलियुग में सभी देश वासी बाजारोंमें अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मण लोग पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्या-वृत्ति से निर्वाह करने लगी हैं⁠।⁠। 36 ⁠।⁠। इस तरह कलियुग के दोष देखता और पृथ्वी पर विचरता हुआ मैं यमुनाजी के तटपर पहुँचा जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ हो चुकी हैं ⁠।⁠।⁠ 37 ⁠।⁠। मुनिवरो! सुनिये, वहाँ मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा⁠। वहाँ एक युवती स्त्री खिन्न मनसे बैठी थी ⁠।⁠।⁠ 38 ।⁠। उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े जोर-जोर से साँस ले रहे थे⁠। वह तरुणी (नवयुवती) उनकी सेवा करती हुई कभी उन्हें चेत कराने का प्रयत्न करती और कभी उनके आगे रोने लगती थी ⁠।⁠।⁠ 39 ।⁠। वह अपने शरीर के रक्षक परमात्मा को दशों दिशाओं में देख रही थी⁠। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा झल रही थीं और बार-बार समझाती जाती थीं ⁠।⁠।⁠ 40 ⁠।⁠। दूर से यह सब चरित देखकर मैं कुतूहल वश उसके पास चला गया⁠। मुझे देखकर वह युवती खड़ी हो गयी और बड़ी व्याकुल होकर कहने लगी ⁠।⁠।⁠ 41 ⁠।⁠। युवतीने कहा — अजी महात्माजी! क्षणभर ठहर जाइये और मेरी चिन्ता को भी नष्ट कर दीजिये⁠। आपका दर्शन तो संसार के सभी पापों को सर्वथा नष्ट कर देने वाला है ⁠।⁠। 42 ⁠⁠।⁠। आपके वचनों से मेरे दुःख की भी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी⁠। मनुष्य का जब बड़ा भाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं ⁠।⁠।⁠ 43 ⁠।⁠। हरि ॐ नमो नारायण राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🌸 जय श्री कृष्ण😇 #🕉️सनातन धर्म🚩
Davinder Singh Rana
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8 घंटे पहले
*श्रीमद्भागवत माहात्म्य* *अध्याय एक* *भक्ति नारद समागम* 🥬🥬🥬🥬🥬🥬🥬🥬🥬🥬🥬🥬 नारदजी कहते हैं — तब मैंने उस स्त्रीसे पूछा—देवि! तुम कौन हो? ये दोनों पुरुष तुम्हारे क्या होते हैं? और तुम्हारे पास ये कमलनयनी देवियाँ कौन हैं? तुम हमें विस्तारसे अपने दुःखका कारण बताओ ⁠।⁠।⁠ 44 ⁠।⁠। युवतीने कहा — मेरा नाम भक्ति है, ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र हैं⁠। समय के फेर से ही ये ऐसे जर्जर हो गये हैं ⁠।⁠।⁠ 45 ⁠।⁠। ये देवियाँ गंगाजी आदि नदियाँ हैं⁠। ये सब मेरी सेवा करने के लिये ही आयी हैं⁠। इस प्रकार साक्षात् देवियों के द्वारा सेवित होने पर भी मुझे सुख-शान्ति नहीं है ⁠।⁠।⁠ 46 ⁠।⁠। तपोधन! अब ध्यान देकर मेरा वृत्तान्त सुनिये⁠। मेरी कथा वैसे तो प्रसिद्ध है, फिर भी उसे सुनकर आप मुझे शान्ति प्रदान करें ⁠।⁠।⁠ 47 ।⁠। मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई; किन्तु गुजरात में मुझको बुढ़ापेने आ घेरा ⁠।⁠।⁠ 48 ⁠।⁠। वहाँ घोर कलियुग के प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अंग-भंग कर दिया⁠। चिरकालतक यह अवस्था रहने के कारण मैं अपने पुत्रों के साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी ⁠।⁠।⁠ 49 ⁠।⁠। अब जबसे मैं वृन्दावन आयी, तबसे पुनः परम सुन्दरी सुरूपवती नवयुवती हो गयी हूँ ⁠।⁠।⁠ 50 ⁠।⁠। किन्तु सामने पड़े हुए ये दोनों मेरे पुत्र थके-माँदे दुःखी हो रहे हैं⁠। अब मैं यह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूँ ⁠।⁠।⁠ 51 ।⁠। ये दोनों बूढ़े हो गये हैं — इसी दुःखसे मैं दुःखी हूँ⁠। मैं तरुणी (नवयुवती) क्यों और ये दोनों मेरे पुत्र बूढ़े क्यों? ⁠।⁠।⁠ 52 ⁠।⁠। हम तीनों साथ-साथ रहने वाले हैं⁠। फिर यह विपरीतता क्यों? होना तो यह चाहिये कि माता बूढ़ी हो और पुत्र तरुण ⁠।⁠।⁠ 53 ।⁠। इसीसे मैं आश्चर्यचकित चित्तसे अपनी इस अवस्था पर शोक करती रहती हूँ⁠। आप परम बुद्धिमान् एवं योगनिधि हैं; इसका क्या कारण हो सकता है, बताइये? ⁠।⁠।⁠ 54 ।⁠। नारदजीने कहा — साध्वि! मैं अपने हृदय में ज्ञानदृष्टि से तुम्हारे सम्पूर्ण दुःखका कारण देखता हूँ, तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये⁠। श्रीहरि तुम्हारा कल्याण करेंगे ⁠।⁠।⁠ 55 ⁠।⁠। हरि ॐ नमो नारायण राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #🌸 जय श्री कृष्ण😇
Davinder Singh Rana
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8 घंटे पहले
*महादेव_३* *|| सती-जन्म, तप तथा विवाह ||* 🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱 भगवान् शङ्करकी आज्ञा शिरोधार्य करके ब्रह्माजीने सृष्टिकार्य प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने सूक्ष्मभूत, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुद्र इत्यादिके साथ सप्तर्षियों तथा अपने मानसपुत्रोंको उत्पन्न किया। तत्पश्चात् अम्बिका एवं महादेवजीकी आज्ञासे उन्होंने दक्ष और वीरिणीकी सृष्टि की और उन्हें मैथुनी सृष्टि करनेका आदेश दिया। उन दोनोंने पहले हर्यश्व और शबलाश्व आदि नामसे सहस्त्रों पुत्र पैदा किये जो नारदजीके उपदेशसे संन्यासी हो गये। बादमें उन्हें कल्पान्तरमें साठ कन्याएँ हुई, जिनका विवाह भृगु, शिव, मरीचि आदि ऋषियोंके साथ सम्पन्न हुआ। ब्रह्माकी आराधनासे संतुष्ट होकर परमेश्वर शम्भुकी आदि शक्ति सतीदेवीने लोकहितका कार्य सम्पादित करनेके लिये दक्षके यहाँ अवतार लिया। पुत्रीका मनोहर मुख देखकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। दक्षने ब्राह्मणों तथा याचकोंको दान-मानसे संतुष्ट किया। भाँति-भाँतिके मङ्गल-कृत्योंके साथ नृत्य और गानके सुन्दर आयोजन किये गये। दक्षके महलमें जैसे खुशियोंका साम्राज्य ही उतर आया। देवताओंने पुष्पवर्षा की। दक्षने अपनी उस दिव्य कन्याका नाम 'उमा' रखा। परमेश्वर शिवकी अभिन्न स्वरूपा होनेके कारण वे बाल्यावस्थासे ही उनके ध्यानमें निमग्न रहा करती थीं। एक दिन देवर्षि नारद और पितामह ब्रह्माजी उस अद्भुत बालिकाके दर्शनकी इच्छासे दक्षके यहाँ आये। ब्रह्माजीने भगवती सतीसे कहा— 'जो केवल तुम्हें ही चाहते हैं और तुम्हारे मनमें भी जिनको पतिरूपमें प्राप्त करनेकी अभिलाषा है, उन्हीं महादेवजीकी तुम्हें तपस्या करनी चाहिये।' ऐसा कहकर ब्रह्माजी देवर्षि नारदके साथ अपने लोकको चले गये। युवावस्थामें प्रवेश करते ही भगवती सती अपनी माता वीरिणीसे अनुमति लेकर महेश्वर शिवको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये कठोर तपस्या करने लगीं। तपस्या करती हुई सती मूर्तिमती सिद्धिके समान दिखलायी देती थीं। भाँति-भाँतिके उपचारोंद्वारा महेश्वरकी साधनामें वे इस तरह लीन हो गयीं कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुधि न रही। भगवान् विष्णुके साथ सभी देवताओंने कैलास पहुँचकर भगवान् शिवसे कहा— 'महेश्वर ! महातेजस्विनी सती आपको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये कठोर तप कर रही हैं। हमलोगोंकी प्रार्थना है कि आप उन्हें पत्नीरूपमें स्वीकार करें।' देवताओंकी प्रार्थना सुनकर भगवान् महादेव सतीके समक्ष प्रकट हो गये। उनकी अङ्ग-कान्ति करोड़ों कामदेवोंको लज्जित कर रही थी। भगवती सतीने सौन्दर्यके धाम महेश्वर शिवकी वन्दना की। उस समय उनका मुख नारीसुलभ लज्जाके कारण झुका हुआ था। महादेवजीने कहा— 'उत्तम व्रतका पालन करनेवाली सती ! मैं तुमपर परम प्रसन्न हूँ। इसलिये तुम इच्छानुसार वर माँगो। शुभे ! तुम्हारा कल्याण हो।' सती बोलीं— 'प्रभो ! यदि आप मुझपर सचमुच प्रसन्न हैं तो वैवाहिक विधिसे मेरा पाणिग्रहण कर मुझ दासीको कृतार्थ करें।' 'ऐसा ही होगा' कहकर परमेश्वर शिव अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर शुभ लग्न और मुहूर्तमें प्रजापति दक्षने हर्षपूर्वक अपनी पुत्री सतीका हाथ भगवान् शङ्करके हाथोंमें दे दिया। महेश्वर शिवको अपनी कन्या प्रदान करके दक्ष कृतार्थ हो गये। समस्त देवताओं और ऋषि-मुनियोंके आनन्दकी सीमा न रही। विवाहोपरान्त दक्षसे विदा लेकर शिवाके साथ महादेव कैलास लौट आये। समस्त संसार सती और शिवके इस दिव्य मिलनसे आनन्दित हो गया। जय भोलेनाथ राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #हर हर महादेव
Davinder Singh Rana
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8 घंटे पहले
*भारत के 10 ऐसे मंदिर जहाँ भगवान नहीं किसी और की होती है पुजा* 🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪 भारत में आपने असंख्य मंदिर देखे होंगे और उनके बारे में आप ने सुना होगा जिनमे आप ने भगवान श्री राम, श्री कृष्‍ण , भोले बाबा , बालाजी, माता रानी आदि के मंदिर देखे होंगे लेकिन आज हम आप को कुछ ऐसे मंदिरों के बारे में बताने जा रहे हे जिनके बारे में शायद ही आप ने कभी सुना होगा . क्‍या आपने शकुनि का मंदिर या रावण का मंदिर देखा है। भारत देश में कई ऐसे मंदिर है जहां भगवान नहीं बल्‍कि इन लोगो की बड़ी श्रद्धा के साथ इनके भक्त पूजा करते हैं . 10 मंदिरों के बारे में बताने जा रहे हैं जहां भगवान नहीं इन लोगों की पूजा होती है ...... 1. शकुनि मंदिर....... महाभारत काल के शकुनि को कोन नहीं जानता हैं, इनके बारे में आप सभी भलीभांति से जानते हैं . लोगों ने शकुनि का मंदिर भी बना रखा हैं ..सुनने में आप को थोडा विचित्र लगे लेकिन यही सत्य हे और यह मंदिर केरल के कोलम जिले के पवितत्रेश्वरम में स्थित है । लोगो को मानना हे की भले ही शकुनि में बहुत बुराई थी लेकिन कुछ ऐसी बातें भी उसके व्‍यक्‍तित्‍व में थी जिसके कारण वो पूजनीय हैं। और इसी कारण से उनकी पूरी श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं। 2. दुर्योधन मंदिर........ कौरव वंश के सबसे बड़े पुत्र दुर्योधन थे, शकुनि मंदिर के पास ही दुर्योधन का भी मंदिर बना हुआ है और यह उनका एक मात्र मंदिर है। यहां के लोग दुर्योधन को पूजनीय मानते हैं। भारत में कई स्थानों पर इनकी लोग पूजा कते है । 3. हिडिंबा मंदिर........ हिडिंबा मंदिर एक अनोखा मंदिर हे जो मनाली में बना हुआ है। यहां पर लोग आज भी प्रसाद के रूप में अपना खून चढ़ाते हैं। 4. कर्ण का मंदिर...... सूत पुत्र के रूप में पहचान मिलने वाले दानी कर्ण का ये मंदिर उत्‍तरकाशी में बना, ये मंदिर लकड़ियों से बना हुआ है जो लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। इस मंदिर की एक और विशेषता ये भी है कि इसमें पांडवों के 6 छोटें मंदिर भी बने हुए हैं। 5. वाल्‍मिकी मंदिर....... भारत में वाल्‍मिकी जी के कई मंदिर बने हुए हैं लेकिन यह मंदिर लाहौर में बना हुआ है और सबसे बड़ी बात ये है की इस मंदिर में आज भी पूजा होती है । 6. द्रौपदी मंदिर....... भारत के सबसे पुराने मंदिरों में से एक द्रौपदी का मंदिर है जो बैंगलोर में स्‍थित है और ये मंदिर 800 साल पुराना है जिसका नाम धर्मराय स्वामी मंदिर है। 7. जटायू मंदिर....... रामायण के जटायू के बारे में तो आप ने जरुर सुना होगा , नासिक से 65 किलोमीटर दूर तातेत नाम की जगह पर जटायू का मंदिर बना हुआ है जिसे जटायू मोक्ष तीरथम के नाम से भी जाना जाता हैं, मंदिर के पास में एक नदी है जिसकी एक खासियत है कि इस नदी का पानी का स्तर पूरे वर्ष भर एक समान ही रहता है । ऐसी मान्यता है कि यही वो जगह है जहां पर जटायू ने अपने प्राण त्यागे थे और भगवान श्री राम ने अंतिम क्रिया-कर्म किया था। थिरुपुत्कुज्ही (Thiruputkuzhi) में भी एक जटायू मंदिर है। 8. गांधारी मंदिर........ कौरवो की मां गंधारी का 2008 में मैसूर में एक अनूठा मंदिर बनवाया गया था जिसकी लागत करीबन 2.5 करोड़ आई थी। 9. रावण मंदिर........ रावण का काकीनाड़ा नामक जगह पर मदिर है जो सबसे प्रसिद्ध मंदिर है जहां रावण को थगान की तरह पूजा की जाती है। मध्‍य प्रदेश में भी रावनग्राम रावना नाम का एक मंदिर है। 10. भीष्‍म मंदिर....... भीष्‍म पितामाह का एक मात्र मंदिर इलाहाबाद (प्रयाग) में है। पूरे देश में ये अनोखा मंदिर है। राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩
Davinder Singh Rana
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8 घंटे पहले
*बद्रीनाथ धाम की कथा…..* 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 एक समय की बात है,भगवान् विष्णु के मन में तप करने की इच्छा हुई। भगवान् विष्णु अपने तप करने हेतु स्थान खोजने लगे । खोजते-खोजते,भगवान् विष्णु अलकनंदा के समीप की जगह (केदार भूमि) में,पहुंच गये। उन्हें ये जगह बहुत भायी। नील कंठ पर्वत के समीप के स्थान (चरणपादुका ) में,भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतरण किया। इसके पश्चात,भगवान विष्णु बाल रूप में,गंगा और अलकनंदा नदी के संगम के समीप में क्रंदन करने लगे।उनका रुदन सुन कर माता पार्वती का ह्रदय द्रवित हो उठा । माता पार्वती और भगवान् शिव स्वयं उस बालक के समीप उपस्थित हो गए। माता ने पुछा की,हे बालक ! तुम्हे क्या चहिये? बालक ने तप करने हेतु वो जगह मांगी। भगवान् शिव ने तपस्या करने के लिय वह जगह बालक को दे दिया। इसके पश्चात भगवान विष्णु वहाँ तपस्या करने लगे।जब भगवान विष्णु तपस्या कर रहे थे। तब बहुत ही ज्यादा हिमपात होने लगा था। और भगवान विष्णु बर्फ में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का ह्रदय द्रवित हो गया। उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर (बद्री) के वृक्ष का रूप ले लिया । समस्त हिमपात को अपने ऊपर सहने लगी। और भगवान विष्णु को धुप,वर्षा और हिमपात से बचाने लगी। कई वर्षों बाद जब भगवान् विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया । तब भगवान् विष्णु ने देखा की माता लक्ष्मी बर्फ से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा की हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है, इसलिए इस धाम पर मेरी तुम्हारे साथ पूजा होगी। क्यूंकि तुमने मेरी रक्षा “बद्री” (बेर के वृक्ष) रूप में किया है। इसलिए आज से मुझे “बद्री के नाथ”,बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा। तब से इस धाम का नाम बद्रीनाथ है। बद्रीनारायण भगवान की जय राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #श्री हरि
Davinder Singh Rana
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8 घंटे पहले
*हनुमानजी की उत्पति के चार प्रमुख कारण : -* 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷 1) सत्यपथ नगरी के राजा केशरी और पटरानी अंजना के कोई संतान नहीं थी। इसलिए अंजना ने अपने पति की आज्ञा लेकर गंधमान पर्वत पर जा करके भगवान शिव की कठोरतपस्या की। बहुत दिनों की घोर तपस्या के बाद लोक-कल्याणकारी भगवान शिव जी प्रकट हुए और उन्होंने अंजना से वरदान माँगने को कहा। तब अंजना ने शिव जी के जैसा ही बली तथा तेजस्वी पुत्र का वरदान माँगा। तब महाराज शिव जी ने अंजना को वरदान दिया की उनके गर्भ से शिव जी हीं अवतार के रूप में जन्म लेंगेऐसा वरदन देकर शिव जी महाराज अंतर्ध्यान हो गये। 2) जलंधर नामक राक्षस का वध करने के लिये भगवान शिव को पवनदेव की शक्ति की आवश्यकता पड़ी। क्युंकि जलंधर बहुत ही तेज गति से आक्रमण करता था। भगवान शंकर के अनुरोध पर पवनदेव ने अपना पूरा बल, वेग भगवान शिव के साथ संलिष्ट कर दिया। उस वेग के सहयोग से ही भगवान शिव ने जलंधर का संहार किया। जलंधर के संहार के बाद शिव जी ने पवनदेव को उनकी शक्ति लौटा दी और उनसे वरदान माँगने को कहा। पवन देव ने भगवान शिव के अविचल भक्ति का वरदान माँगा। तब भगवान शिव ने पवनदेव से कहा कि इसके बदले में मैं तुम्हारा पुत्र होकर विश्व में कीर्ति फैलाऊँगा। 3) लंकाधिपति रावण के अत्याचार से समस्त संसार में हाहाकार मच गया। देवी-देवता भी उसकी शक्ति का लोहा मानते थे। पर्वताकार कुम्भकरण जब अपनी छ: महीने की निद्रा पूर्ण करके उठता था तो पृथ्वी के सम्स्त जीवों में हलचल मच जाती थी। रावण और कुम्भकरण भगवान शंकर के भक्त थे। रावण ने शिवजी को अपना शीश काटकर चढ़ाया था और ब्रह्मा जी का कठिन तप कर के यह वरदान प्राप्त किया था कि उसकी मृत्यु नर और वानर के अतिरिक्त किसी से भी न हो। हम काहु के मरहि ना मारे। वानर मनुज जाति दुउ टारे॥ इस बात को जानकर सभी देवताओं ने भगवान शिव की घोर तपस्या की। तब भगवान शिव ने उन्हें बताया कि वे वानर का अभिमान-शून्य रूप धारण करेंगे और श्री राम का अनुचर बनकर पृथ्वी पर अवतरित होंगे । 4) कौतुकी नगर में नारद द्वारा श्राप पा चुकने पर भगवान विष्णु सदा ही चिंतित रहते थे। रावण का अत्याचार बहुत बढ़ा चुका था। अब यह आवश्यक था कि भगवान विष्णु अपने प्रमुख सहायकों के साथ जन्म लेते और उस घोर पराक्रमी और अत्याचारी का विनाश करते। तब भगवान विष्णु ने शिव जी की अराधना करना प्रारम्भ कर दिय। विष्णु जी की अराधना से प्रसन्न हो कर शिव जी प्रकट हुए । तब विष्णु जी बोले- प्रभो! आप हमारे अराध्यदेव हैं, आप ही के द्वारा दिया गया अमोघ सुदर्शन चक्र ही हमारा रक्षक है। अब आपको भी हमारे साथ पृथ्वी पर अवतरित होना है जिससे रावण का नाश हो सके। भगवान शिव ने बताया कि प्रभो ! मैं तो सदा ही आपकी सेवा के लिये तैयार हूँ। मैने भी देवी अंजना को वरदान दिया है कि उन्हीं के गर्भ से पुत्र रूप मे मैं उत्पन्न होऊँगा। वैसे तो रावण मेरा भक्त ही है किंतु अहंकार के रंग में रंगकर वह भले-बुरे का ज्ञान भूल चुका है। जय महावीर हनुमान राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🙏श्री राम भक्त हनुमान🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩
Davinder Singh Rana
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8 घंटे पहले
*जानिये आत्मा नए शरीर में कैसे जाती है !* *गरुड़ जी ने भगवान श्री विष्णु से प्रश्न किया* 🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉 मृत्यु के बाद आत्मा कैसे शरीर के बाहर जाता है? कौन प्रेत का शरीर प्राप्त करता है? क्या भगवान के भक्त प्रेत योनि में प्रवेश करते हैं? भगवान विष्णु ने गरुड़ को उत्तर दिया -: (#गरुड़पुराण) मृत्यु के बाद आत्मा निम्न मार्गों से शरीर के बाहर जाता है- आँख, नाक या त्वचा पर स्थिर रंध्रों से (1) ज्ञानियों का आत्मा मस्तिस्क के उपरी सिरे से बाहर जाता है (2) पापियों का आत्मा उसके गुदा द्वार से बाहर जाता है (ऐसा पाया गया है कि कई लोग मृत्यु के समय मल त्याग करते हैं) यह आत्मा को शरीर से बाहर निकलने के मार्ग हैं। शरीर को त्यागने के बाद सूक्ष्म शरीर घर के अंदर कई दिनों तक रहता है। १. अग्नि में ३ तीन दिनों तक २. घर में स्थित जल में ३ दिनों तक जब मृत व्यक्ति का पुत्र १० दिनों तक मृत व्यक्ति के लिए उचित वैदिक अनुष्ठान करता है तब मृत व्यक्ति की आत्मा को दसवें दिन एक अल्पकालिक शरीर दिया जाता है जो अंगूठे के आकार का होता है। इस अल्पकालिक शरीर के रूप में वह आत्मा दसवें दिन यमलोक के लिए प्रस्थान करता है। तीन दिनों बाद अर्थात तेरहवें दिन वह यमलोक पहुंचता है। यमलोक में चित्रगुप्त जीव के सभी कर्मो का लेखा यमराज को प्रस्तुत करते हैं। उसके आधार पर यमराज जीव के लिए स्वर्गलोक या नरकलोक तय करते हैं। जीव अपने कर्मो के अनुसार स्वर्ग या नरक लोक में रहता है और फिर उसके बाद वह पृथ्वी पर पुनः एक नए शरीर के रूप में जन्म लेता है। 🔹प्रेत योनि में कौन जन्म लेता है? कुछ मनुष्य जो कुछ विशेष प्रकार का कर्म करते हैं वे यमराज द्वारा वापस पृथ्वी पर प्रेत योनि में भेजे जाते हैं जिसमे वे एक निश्चित समय तक रहते हैं। निम्न प्रकार के कर्म करने वाले लोग प्रेत योनि प्राप्त करते हैं। (1) विवाह के बाहर किसी से शारीरिक संबंध बनाना। (2) धोखाधड़ी या किसी की संपत्ति हड़प करना। ( 3) आत्म हत्या करना। ( 4) अकाल मृत्यु: जैसे किसी जानवर द्वारा या किसी दुर्घटना में मारा जाना आदि (अकाल मृत्यु स्वयं मनुष्य के कुछ विशेष कर्मो के कारण प्राप्त होते हैं) प्रेत योनि प्राप्त करने के पीछे के कारण की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है। जब कोई जीव मनुष्य शरीर धारण करता है तो उसके कर्मो आदि के अनुसार उसका एक समय तक पृथ्वी पर रहना अपेक्षित होता है। यमराज जब मनुष्य के सभी कर्मो की समीक्षा करते हैं और उसमे यह पाते हैं कि जीव उस अपेक्षित समय से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गया तब उस जीव को बाकि समय के लिए प्रेत योनि में व्यतीत करना पड़ता है। मान लें कि किसी मनुष्य का जीवन ८० वर्षों का बनता था, लेकिन उसने ७०वें साल में आत्महत्या कर ली, वैसी स्थिति में उसे १० सालों तक प्रेत योनि में व्यतीत करना पड़ेगा। प्रेत योनि एक सूक्ष्म शरीर होता है। प्रेत योनि में निवास करते समय मनुष्य की सभी इक्षाएं वैसी ही होती है जैसा उसका मनुष्य शरीर में था। यहाँ तक की भोजन आदि की इच्छाएं भी वही होती है। प्रेत योनि में वह सभी कुछ करना चाहता है लेकिन कर नहीं पाता क्योंकि उसके पास भौतिक शरीर नहीं होता।इसलिए अगर मनुष्य के रूप में उसकी कई इक्षाएं अपूर्ण रह गई हों तो प्रेत योनि में उस मनुष्य को अपनी इक्षाएं पूरी नहीं होने की पीड़ा झेलनी पड़ती है। जब प्रेत योनि में उसका समय समाप्त हो जाता है जितना कि मनुष्य के रूप में उसे पृथ्वी पर रहना था तब उस आत्मा को नया शरीर प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्यों को कभी आत्म हत्या जैसा कर्म नहीं करना चाहिए। यह तो आत्म हत्या के सन्दर्भ में था। लेकिन कुछ दूसरे पाप करने वाले भी प्रेत योनि में जाते हैं। उनका प्रेत योनि में रहने का समय उनके पाप के अनुसार होता है,जो ज्यादा पाप करते हैं वह लंबे समय तक प्रेत योनि में रहते हैं जहाँ वे अपनी इक्षाओं को पूरा करने के लिए तड़पते हैं। 🔹भगवान के भक्तों का क्या होता है? भगवान के भक्तों को मृत्यु के बाद किसी प्रकार की यातना नहीं झेलनी पड़ती। भगवान के भक्त को यमराज के दूत नहीं बल्कि भगवान के अपने दूत लेने आते हैं। भगवान के दूत उस जीवात्मा की घर के बाहर प्रतीक्षा करते हैं और बहुत आदर के साथ भगवान के धाम लेकर जाते हैं। जहाँ वह जन्म और बंधनों से मुक्त अलौकिक जीवन जीता है। भगवान ने श्रीमद भगवद गीता में यह वचन दिया है! “कौन्तेय प्रतिजानीहि न में भक्तः प्रणश्यति।” हे अर्जुन मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता..!! !! जय श्री कृष्ण !! !! राणा जी खेड़ांवाली!! #🕉️सनातन धर्म🚩
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