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#❤️जीवन की सीख #😇 जीवन की प्रेरणादायी सीख #🙏कर्म क्या है❓ 🙏राम राम जी : CJC🙏 *एहसास अपनों का* ~~~~~~~~~~~~ “मम्मी, विनीत का ट्रांसफर अहमदाबाद हो गया है। इसी महीने हम यहाँ से शिफ्ट हो जाएँगे,” सुनंदा ने सरला जी से कहा। “अरे बेटा! तुम लोगों को लखनऊ आए तो अभी एक साल भी नहीं हुआ और फिर से पोस्टिंग बदल गई?” सरला जी आश्चर्यचकित होकर बोलीं। *“मम्मी, आप तो जानती हैं कि विनीत की नौकरी सेंट्रल गवर्नमेंट की है। शादी के इन छह सालों में यह तीसरी बार स्थानांतरण हुआ है। हमें लगा था कि लखनऊ में तो आप भी हैं, और विनीत के परिवार वाले भी करीब हैं, शायद कुछ साल यहीं रहेंगे… लेकिन इतनी जल्दी नई पोस्टिंग मिल जाएगी, यह तो नहीं लगा था,”* सुनंदा ने उदास होकर कहा। *“कोई बात नहीं बेटा, हिम्मत मत हारो। पहले अहमदाबाद में सामान सेट कर लो, बाद में हम सब तुम्हें मिलने आएँगे,”* सरला जी ने उनका मन बहलाने की कोशिश की। “हाँ मम्मी! आप सब — पापा, सिया, अंकित, चाचाजी, चाचीजी — सभी आना,” सुनंदा की आँखें चमक उठीं। *बीस दिन बाद, सुनंदा और विनीत अहमदाबाद पहुँच गए।* उनका सामान उसी दिन पैकर्स के ज़रिए आ गया। दिन में विनीत के ऑफिस के कुछ सहयोगियों ने मदद करके सभी सामान व्यवस्थित कर दिया। रसोई में भी लगभग सब कुछ लगा दिया गया। *लंच बाहर से ऑर्डर कर लिया गया था, और शाम को बाहर खाने की योजना थी।* जब सभी मददगार लौट चुके थे और विनीत नहाने चले गए, *तभी दरवाज़े पर डोरबेल बजी — टिंग-टांग, टिंग-टांग...* “यहाँ तो अभी तक कोई नहीं जानते हमें… कौन होगा?” सोचते हुए सुनंदा ने दरवाज़ा खोला। बाहर एक किशोरी लड़की ट्रे लिए खड़ी थी। *“जी, मैं अमायरा हूँ। हम ठीक सामने वाले फ्लैट में रहते हैं। मम्मी ने आपके लिए थोड़ा खाना भेजा है,”* लड़की बोली। “अरे बेटा, तुम्हारी मम्मी ने बिना वजह तकलीफ ली। हम लोग तो अभी बाहर खाने जा ही रहे थे,” सुनंदा बोलीं। *“दीदी, इसमें क्या तकलीफ है? सच कहूँ — जैसे ही मम्मी को पता चला कि आप लखनऊ से ट्रांसफर होकर यहाँ आ रहे हैं, वो बहुत खुश हुईं! बोलने लगीं — ‘हमारा लखनऊ ऐसा, हमारा लखनऊ वैसा…’ मम्मी खुद लखनऊ की रहने वाली हैं, इसलिए वहाँ की तारीफ करती रहती हैं,”* अमायरा मुस्कुराई और ट्रे आगे बढ़ा दी। “ओह! आपकी मम्मी लखनऊ की हैं? कहाँ से?” सुनंदा के चेहरे पर उत्सुकता झलक रही थी। “पता नहीं… मम्मी हमें वहाँ कभी नहीं ले गईं,” अमायरा ने जवाब दिया। *“अच्छा… खाने के लिए तुम्हारी मम्मी को मेरा शुक्रिया कहना। कल मैं खुद मिलूँगी,”* सुनंदा बोलीं। “ठीक है दीदी! यह लीजिए मेरा नंबर — 90**46**। कोई ज़रूरत हो तो बेझिझक कॉल कर लेना,” कहकर अमायरा चली गई। *अनजान शहर में ऐसा प्यारा पड़ोसी मिला, वो भी लखनऊ से जुड़ा हुआ — इस बात से सुनंदा के चेहरे पर खुशी छा गई।* जैसे ही विनीत आए, उन्होंने सारी बातें सुनाईं। विनीत भी प्रसन्न हुए। थोड़ी देर बाद सुनंदा ने खाना निकाला — आलू-मटर की रसीली सब्ज़ी, भरवां बैंगन, दही-बड़े, ताज़ी रोटियाँ, चावल और अंत में — मालपुआ! देखते ही दोनों खाने पर टूट पड़े। लेकिन *जैसे ही सुनंदा ने मालपुआ का पहला कौर लिया, उनका हाथ अचानक रुक गया। उनके मन में कोई याद ताज़ा हो गई — मानो कोई प्यार भरा स्पर्श उन्हें छू गया हो।* “क्या हुआ, सुनंदा? इतने में क्यों रुक गई?” विनीत ने पूछा। *“विनीत… यह मालपुआ… इसके स्वाद ने मुझे किसी की याद दिला दी। कहीं… ये वही तो नहीं?*” सुनंदा का गला भर आया। “साफ-साफ बोलो, पहेली मत बनाओ। किसकी याद आ गई तुम्हें?” *“मेरी एक बुआ थीं… उनका नाम था आस्था। जब मैं बारह साल की थी, तो उन्होंने अपनी मर्ज़ी से एक लड़के से शादी की। परिवार ने उन्हें घर या पति — एक चुनने को कहा, क्योंकि वो नीची जाति के थे। बुआ ने पति को चुना… लेकिन उसके बाद घर का दरवाज़ा उनके लिए कभी नहीं खुला। कई बार आईं, मगर कभी स्वीकार नहीं किया गया…”* “और आज मालपुआ खाकर…?” *“बुआ बहुत अच्छे मालपुआ बनाती थीं। मुझे बहुत प्यार करती थीं। उनके हाथ का मालपुआ आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। आज जब मैंने यह मालपुआ खाया, तो लगा जैसे उनकी ममता मेरे भीतर छू गई हो… विनीत, क्या अमायरा की मम्मी मेरी आस्था बुआ हो सकती हैं?”* “चलो, अभी रात हो रही है। कल सुबह बर्तन लौटाने जाना है, तब पता चल जाएगा,” विनीत ने कहा। “नहीं विनीत! मैं अभी जाऊँगी… बर्तन धोकर ले आती हूँ,” सुनंदा ने मनुहार की। *विनीत ने हाँ कर दी। रात के नौ बजे थे। सामने वाले फ्लैट की डोरबेल बजी…* जैसे ही दरवाज़ा खुला, सुनंदा की आँखें भर आईं। *महिला ने पहचाना नहीं — क्योंकि जब आस्था बुआ ने घर छोड़ा था, तब सुनंदा बस एक बारह साल की लड़की थी। अब वो तीस के आसपास की विवाहित महिला बन चुकी थी।* “शायद आप हमारे नए पड़ोसी हैं?” महिला ने बर्तन देखकर कहा। #👉 लोगों के लिए सीख👈 इतना सुनते ही सुनंदा के भीतर का बाँध टूट गया। *वो आगे बढ़ी और उनसे लिपट गई — “बुआ… मैं आपकी सुनंदा हूँ!”* आस्था बुआ पहले तो स्तब्ध रह गईं, *फिर धीरे-धीरे सुनंदा का चेहरा देखा… और फिर वो बालकपन की गोदी, वो ममता, वो प्यार — सब कुछ एक साथ लौट आया। दोनों की आँखों से आँसू बह निकले*। फूफा और अमायरा भी सब कुछ समझ गए। बातें हुईं… परिवार के सदस्यों के बारे में पूछा गया। *बाबा और दादी के निधन की खबर सुनकर बुआ की आँखें फिर भर आईं।* *_सुनंदा ने बताया कि पापा, चाचा, मम्मी — सभी उन्हें याद करते रहते हैं, खासकर रक्षाबंधन और भैयादूज पर।_* *अगले दिन, लखनऊ से सभी परिवार वाले अहमदाबाद आने वाले थे। फोन पर माफ़ी माँगी गई, मनाए गए, आँसू बहे… और घर में स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ आस्था बुआ मालपुआ बना रही थीं — अब सभी के लिए।* क्योंकि अंत में, एक मालपुआ ने ही बिखरे हुए परिवार को फिर से जोड़ दिया। *सचमुच! अपनों का एहसास इतना शक्तिशाली होता है कि एक स्वाद, एक स्पर्श, एक याद — सालों के अलगाव को पल भर में मिटा देता है।** दोस्तों, *रिश्तों की डोर समय, परिस्थितियों और अहंकार के कारण भले ही उलझ जाए, पर वह पूरी तरह टूटती नहीं और एक माफी, प्रेम और अपनापन भरा एहसास, वर्षों की दूरी को मिटा सकता है।* 👉इ मीडिया से साभार उद्धरित👈 #👌 अच्छी सोच👍
❤️जीवन की सीख - रिश्तों की डोर परिस्थितियों और समय अहंकार के कारण भले ही उलझ जाए॰ पर वह पूरी नहीं और एक टूटती గగౌ माफी॰ प्रेम और अपनापन भरा एहसास, वर्षों की दूरी को मिटा सकता है। रिश्तों की डोर परिस्थितियों और समय अहंकार के कारण भले ही उलझ जाए॰ पर वह पूरी नहीं और एक टूटती గగౌ माफी॰ प्रेम और अपनापन भरा एहसास, वर्षों की दूरी को मिटा सकता है। - ShareChat

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