।। ॐ ।।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
इन्द्रिय और इन्द्रियों के भोगों में राग और द्वेष स्थित हैं। इन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्योंकि इस कल्याण-मार्ग में कर्मों से छूट जानेवाली प्रणाली में ये राग और द्वेष दुर्धर्ष शत्रु हैं, आराधना का अपहरण कर ले जाते हैं। जब शत्रु भीतर हैं तो बाहर कोई किसी से क्यों लड़ेगा? शत्रु तो इन्द्रिय और भोगों के संसर्ग में हैं, अन्तःकरण में हैं, अतः यह युद्ध भी अन्तःकरण का युद्ध है। क्योंकि शरीर ही क्षेत्र है, जिसमें सजातीय और विजातीय दोनों प्रवृत्तियाँ, विद्या और अविद्या रहती हैं, जो माया के दो अंग हैं। इन्हीं प्रवृत्तियों का पार पाना, सजातीय प्रवृत्ति को साधकर विजातीय का अन्त करना युद्ध है। विजातीय समाप्त होने पर सजातीय का उपयोग समाप्त हो जाता है। स्वरूप का स्पर्श करके सजातीय का भी उसके अन्तराल में विलय हो जाना, इस प्रकार प्रकृति का पार पाना युद्ध है, जो ध्यान में ही सम्भव है।
राग और द्वेष के शमन में समय लगता है, इसलिये बहुत से साधक क्रिया को छोड़कर सहसा महापुरुष की नकल करने लग जाते हैं। श्रीकृष्ण इससे सावधान #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏 #❤️जीवन की सीख
