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।। ॐ ।। श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥ अन्य योगीजन श्रोत्रादिक (श्रोत्र, नेत्र, त्वचा, जिह्वा और नासिका) इन्द्रियों को संयमरूपी अग्नि में हवन करते हैं अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से समेटकर संयत कर लेते हैं। यहाँ आग नहीं जलती। जैसे अग्नि में डालने से हर वस्तु भस्मसात् हो जाती है, ठीक इसी प्रकार संयम भी एक अग्नि है जो इन्द्रियों के सम्पूर्ण बहिर्मुखी प्रवाह को दग्ध कर देता है। दूसरे योगी लोग शब्दादिक (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) विषयों को इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं अर्थात् उनका आशय बदलकर साधनापरक बना लेते हैं। साधक को संसार में रहकर ही तो भजन करना है। सांसारिक लोगों के भले-बुरे शब्द उससे टकराते ही रहते हैं। विषयोत्तेजक ऐसे शब्दों को सुनते ही साधक उनके आशय को योग, वैराग्य सहायक, वैराग्योत्तेजक भावों में बदलकर इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं। #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏
यथार्थ गीता - ١١،٠ ،٢ ٧١ ٧ ٧ ٢ ٥ ١ ப3 11 श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु " जुह्वति।। योगीजन श्रोत्रादिक (श्रोत्र, नेत्र त्वचा Gl6T और अ्य नासिका ) इन्द्रियोंको संयमरूपी अग्नि में हवन करते हैं अर्थात् इन्द्रियोंको विषयों से समेटकर संयत कर लेते हैं। यहाँ आग नहीं जलती। जैसे अग्नि में डालने से हर वस्तु भी एक  भस्मसात् हो जाती है॰ ठीक इसी प्रकार संयम  अग्नि है जो इन्द्रियों के सम्पूर्ण बहिर्मुखी प्रवाह को दग्ध  योगी लोग शब्दादिक (शब्द, स्पर्श, रूप करदेता है। दूसरे और गन्ध ) विषयों को इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर ب देने हैं अर्थात् उनका आशय बदलकर साधनापरक बना खव हैं। साधक को संसार में रहकर ही तो भजन करना है। मासारिक लोगों के भले बुरे शब्द उससे टकराते ही रहते है। विषयोत्तेजक ऐसे शब्दों को ही साधक उनके সুনন  को योग वैराग्य सहायक, वैराग्योत्तेजक भावों में 8থাম बदलकर इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं। ١١،٠ ،٢ ٧١ ٧ ٧ ٢ ٥ ١ ப3 11 श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु " जुह्वति।। योगीजन श्रोत्रादिक (श्रोत्र, नेत्र त्वचा Gl6T और अ्य नासिका ) इन्द्रियोंको संयमरूपी अग्नि में हवन करते हैं अर्थात् इन्द्रियोंको विषयों से समेटकर संयत कर लेते हैं। यहाँ आग नहीं जलती। जैसे अग्नि में डालने से हर वस्तु भी एक  भस्मसात् हो जाती है॰ ठीक इसी प्रकार संयम  अग्नि है जो इन्द्रियों के सम्पूर्ण बहिर्मुखी प्रवाह को दग्ध  योगी लोग शब्दादिक (शब्द, स्पर्श, रूप करदेता है। दूसरे और गन्ध ) विषयों को इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर ب देने हैं अर्थात् उनका आशय बदलकर साधनापरक बना खव हैं। साधक को संसार में रहकर ही तो भजन करना है। मासारिक लोगों के भले बुरे शब्द उससे टकराते ही रहते है। विषयोत्तेजक ऐसे शब्दों को ही साधक उनके সুনন  को योग वैराग्य सहायक, वैराग्योत्तेजक भावों में 8থাম बदलकर इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं। - ShareChat

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