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कोलकाता से प्रकाशित 'विश्वमित्र' में मेरी कविता। आदरणीय संपादक जी का विशेष धन्यवाद। #मेरी कविता
मेरी कविता - वे स्त्रियां वे नींद में जागती हैं और हैं सपने ন্তুননী  वे गतिशील हैं कुम्भार की चाक जैसी उठ खडी होती हैं भोर के साथ और चलती हैं चाँद के पार चूल्हा , चौका और वर्तन है उनका संगीत परिवार की चाहत है उनकी संतुष्टि वे नहीं जाती होटल, रेस्तरां और सिनेमा  हैं चावल और दाल के दाने चुनती सूप की में उडा देती हैं मायके परछती 1 4d और कभी बचती नहीं दाल तो सुखी खाती हैं रोटिया जेठ की दोपहरी में तोड़ती हैं पत्थर पीठ पर बच्चों को लाद ढोती हैं ईँटें प्रभुनाथ शुक्ल वे पति को मानती है परमेश्वर जोड़ी बिछुवे , मांग भर सिंदूर और TT ন মিক্চ মিয়া ৪ हैं खुश भरे गोड़ के महावर से रहती नहीं वे जीवन की चकबेनियां वे नहीं करती स्री स्वतंत्रता की बात वेजब चलती हैं तो गढ़ती हैं वे नहीं होना चाहती बेड़ियों से आजाद एक परिवार, एक समाज और एक वे बस चाहती है परिवेश पीले हाथ, बहू की गोंद में নমিযা  ক वे समर्पित और संघर्षशील है ক্িলন্ধায়ো घर , परिवार , बच्चे और पति के लिए और शांत होती सांसों में पति का साथ विश्वमित्र   mz VAmula೦1 Dam' 49 3c2029 ا 0000 [ ~ वे स्त्रियां वे नींद में जागती हैं और हैं सपने ন্তুননী  वे गतिशील हैं कुम्भार की चाक जैसी उठ खडी होती हैं भोर के साथ और चलती हैं चाँद के पार चूल्हा , चौका और वर्तन है उनका संगीत परिवार की चाहत है उनकी संतुष्टि वे नहीं जाती होटल, रेस्तरां और सिनेमा  हैं चावल और दाल के दाने चुनती सूप की में उडा देती हैं मायके परछती 1 4d और कभी बचती नहीं दाल तो सुखी खाती हैं रोटिया जेठ की दोपहरी में तोड़ती हैं पत्थर पीठ पर बच्चों को लाद ढोती हैं ईँटें प्रभुनाथ शुक्ल वे पति को मानती है परमेश्वर जोड़ी बिछुवे , मांग भर सिंदूर और TT ন মিক্চ মিয়া ৪ हैं खुश भरे गोड़ के महावर से रहती नहीं वे जीवन की चकबेनियां वे नहीं करती स्री स्वतंत्रता की बात वेजब चलती हैं तो गढ़ती हैं वे नहीं होना चाहती बेड़ियों से आजाद एक परिवार, एक समाज और एक वे बस चाहती है परिवेश पीले हाथ, बहू की गोंद में নমিযা  ক वे समर्पित और संघर्षशील है ক্িলন্ধায়ো घर , परिवार , बच्चे और पति के लिए और शांत होती सांसों में पति का साथ विश्वमित्र   mz VAmula೦1 Dam' 49 3c2029 ا 0000 [ ~ - ShareChat

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