स्त्री जब प्रेम में होती है
उसका रोम-रोम
डूबा होता है
प्रेम के अथाह समंदर में
जहाँ से कभी भी
वह उभरना नहीं चाहती।
शारीरिक आकर्षण
गठीला देह, कद, काठी
इन सबसे परे होता है
स्त्री का प्रेम भाव।
असल में स्त्री
सिर्फ़ पुरुष मन को देखती है
जहाँ आजीवन बसना चाहती है
उन आँखों को निहारती है
जिसमें दुनिया देखना चाहती है।
स्त्री कभी प्रेम के बदले
प्रेम को पाना नहीं चाहती
वह तो नि:स्वार्थ भाव से
प्रेम में समर्पित हो जाती है।
स्त्री का प्रेम क्षणिक नहीं होता
बिन देखे, बिन स्पर्श किये भी
वो आजीवन प्रेम कर सकती है।
सच तो यही है कि
स्त्री कभी प्रेम नहीं करती
वो प्रेम को जीती है !!!
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