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Saty praman hai shrimadbhagawat Gita ji me#📓 हिंदी साहित्य
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Saty praman hai #📓 हिंदी साहित्य
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Saty praman #📓 हिंदी साहित्य
📓 हिंदी साहित्य - संक्षिप्त गरुडपुराण [ धर्मकाण्ड ५८८ प्रभाते मलमूत्राभ्यां क्षुत्तृड्भ्यां मध्यगे रवौ। एवं ढोंगी व्यक्तिका अन्त्यजके समान परित्याग कर रात्रौ   मदननिद्राभ्यां बाध्यन्ते देना चाहिये। घरको वनके समान मानकर निर्वस्त्र মুনপাননা: Il और लज्जचारहित जो साधु गधे अन्य भाँति स्वदेहधनदारादिनिरताः মনতলন: पशुओंको इस जगत्में घूमते रहते हैं, क्या वे विरक्त होते हैं ? जायन्ते च म्रियन्ते च हा हन्ताज्ञानमोहिताः Il तस्मात्सङ्गः सदा त्याज्यः स चेत् त्यक्तुं नशक्यते। कदापि नहीं। यदि मिट्टी, भस्म तथा धूलका लेप करनेसे मनुष्य मुक्त हो सकता है तो क्या मिट्टी और महद्धिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम्।। भस्ममें ही नित्य रहनेवाला कुत्ता मुक्त नहीं हो (88/4?-46 ) सत्संग और विवेक - ये दो प्राणीके मलरहित जायगा ? वनवासी तापसजन घास, फूस, पत्ता तथा स्वस्थ दो नेत्र हैं। जिसके पास ये दोनों नहीं हैँ, वह जलका ही सेवन करते हैं॰ क्या इन्हीके समान वनमें मनुष्य अन्धा है। वह कुमार्गपर कैसे नहीं जायगा ?  रहनेवाले सियार, चूहे और मृगादि जीवजन्तु तपस्वी कुमार्गगामी होगा - हो सकते हैं ? जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त गङ्गा आदि अर्थात् वह अवश्य हो सत्सङ्गश्च   विवेकश्च निर्मलं पवित्रतम नदियोंमें रहनेवाले मेढक या मछलो आदि नयनद्वयम्। यस्य नास्ति नरः सोउन्धः कथं न स्यादमार्गगः II प्रमुख जलचर प्राणी योगी हो सकते हैं? कबूतर (४९ | ५७) | शिलाहार और चातक पक्षी कभी भी पृथ्वीका जल अपने अपने वर्णाश्रम-्धर्मको माननेवाले सभी नहीं पीते है॰ क्या उनका व्रती होना सम्भव है। अतः धर्मको नहीं जानते हैं किंतु वे दम्भके ये नित्यादिक कर्म लोकरञ्जनके कारक हैं। हे दूसरेके मानव वशीभूत हो जायँ तो अपना ही नाश करते हैं। खगेश्वर! मोक्षका कारण तो साक्षात् तत्त्वज्ञान है। व्रतचर्यादिमें लगे हुए प्रयासरत कुछ लोगोंसे क्या हे खगेश्वर ! षड्दर्शनरूपी महाकूपमें पशुके समान बनेगा ? क्योंकि अज्ञानसे स्वयं अपने आत्मतत्त्वको गिरे हुए मनुष्य पाशसे नियन्त्रित   पशुकी भाँति परमार्थको नर्हीं जानते। वेद-शास्त्रादिके ढके हुए लोग प्रचारक बनकर देश-  देशान्तरमें महासमुद्रमें इधर - उधरसे अनुमान लगानेवाले इस षड्दर्शनरूपी विचरण  करते हैँ । नाममात्रसे स्वयं संतुष्ट कर्मकाण्डमें लगे हुए मनुष्य तथा मन्त्रोच्चार एवं होमादिसे युक्त बन जाते हैं।जो वेद- तरंगसे ग्रस्त होकर कुतर्की आगम और पुराणका ज्ञाता परमार्थको नहीं जानता याज्ञिक यज्ञविस्तारके 84 मेरी भ्रमित द्वारा मायासे विमोहित मूढ़ लोग शरीरको सुखा देनेवाले | है उस कपटीका सब कथन कौवेका काँव-काँव ही है।यह ज्ञान है, यह जाननेके योग्य है॰ ऐसी चिन्तासे एकभक्त तथा उपवासादि नियमोंसे अपने पुण्यरूप भलीभाँति बेचैन तथा परमार्थतत्त्वसे अदृष्टकी कामना करते हैं। - दूर प्राणी शरीरकी ताड़ना मात्रसे अज्ञानीजन क्या मुक्ति रात शास्त्रका अध्ययन करता है। वाक्य ही छन्द है और उस छन्दसे गुम्फित काव्योंमें अलंकार  प्राप्त कर सकते हैँ ? क्या वामीको पीटनेसे महाविषधारी মুমীসিন सर्प मर सकता है? यह कदापि सम्भव नहीं है। होता है।इस चिन्तासे दुःखित मूर्ख व्यक्ति अत्यधिक धारण   व्याकुल हो जाता है। उस परमतत्त्वका अन्य ही अर्थ भार और मृगचर्मसे युक्त वेष जटाओंके दुःखित करनेवाले दाम्भिक ज्ञानियोंकी भाँति इस संसारमें| है; किंतु लोग उसका दूसरा अर्थ लगाकर भ्रमण करते हैं और लोगोंको भ्रमित करते हैं। होते हैं । शास्त्रोंका सद्भाव कुछ और ही है; किंतु वे उसकी व्याख्या उससे भिन्न ही करते हैं । उपदेशादिसे लौकिक सुखमें आसक्त ' मैँं ब्रह्मको जानता हूँ ' ऐसा कहनेवाले, कर्म तथा ब्रह्म - इन दोनोंसे श्रष्ट, दम्भी | रहित कुछ अहंकारी व्यक्ति उन्मनीभावकी बात संक्षिप्त गरुडपुराण [ धर्मकाण्ड ५८८ प्रभाते मलमूत्राभ्यां क्षुत्तृड्भ्यां मध्यगे रवौ। एवं ढोंगी व्यक्तिका अन्त्यजके समान परित्याग कर रात्रौ   मदननिद्राभ्यां बाध्यन्ते देना चाहिये। घरको वनके समान मानकर निर्वस्त्र মুনপাননা: Il और लज्जचारहित जो साधु गधे अन्य भाँति स्वदेहधनदारादिनिरताः মনতলন: पशुओंको इस जगत्में घूमते रहते हैं, क्या वे विरक्त होते हैं ? जायन्ते च म्रियन्ते च हा हन्ताज्ञानमोहिताः Il तस्मात्सङ्गः सदा त्याज्यः स चेत् त्यक्तुं नशक्यते। कदापि नहीं। यदि मिट्टी, भस्म तथा धूलका लेप करनेसे मनुष्य मुक्त हो सकता है तो क्या मिट्टी और महद्धिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम्।। भस्ममें ही नित्य रहनेवाला कुत्ता मुक्त नहीं हो (88/4?-46 ) सत्संग और विवेक - ये दो प्राणीके मलरहित जायगा ? वनवासी तापसजन घास, फूस, पत्ता तथा स्वस्थ दो नेत्र हैं। जिसके पास ये दोनों नहीं हैँ, वह जलका ही सेवन करते हैं॰ क्या इन्हीके समान वनमें मनुष्य अन्धा है। वह कुमार्गपर कैसे नहीं जायगा ?  रहनेवाले सियार, चूहे और मृगादि जीवजन्तु तपस्वी कुमार्गगामी होगा - हो सकते हैं ? जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त गङ्गा आदि अर्थात् वह अवश्य हो सत्सङ्गश्च   विवेकश्च निर्मलं पवित्रतम नदियोंमें रहनेवाले मेढक या मछलो आदि नयनद्वयम्। यस्य नास्ति नरः सोउन्धः कथं न स्यादमार्गगः II प्रमुख जलचर प्राणी योगी हो सकते हैं? कबूतर (४९ | ५७) | शिलाहार और चातक पक्षी कभी भी पृथ्वीका जल अपने अपने वर्णाश्रम-्धर्मको माननेवाले सभी नहीं पीते है॰ क्या उनका व्रती होना सम्भव है। अतः धर्मको नहीं जानते हैं किंतु वे दम्भके ये नित्यादिक कर्म लोकरञ्जनके कारक हैं। हे दूसरेके मानव वशीभूत हो जायँ तो अपना ही नाश करते हैं। खगेश्वर! मोक्षका कारण तो साक्षात् तत्त्वज्ञान है। व्रतचर्यादिमें लगे हुए प्रयासरत कुछ लोगोंसे क्या हे खगेश्वर ! षड्दर्शनरूपी महाकूपमें पशुके समान बनेगा ? क्योंकि अज्ञानसे स्वयं अपने आत्मतत्त्वको गिरे हुए मनुष्य पाशसे नियन्त्रित   पशुकी भाँति परमार्थको नर्हीं जानते। वेद-शास्त्रादिके ढके हुए लोग प्रचारक बनकर देश-  देशान्तरमें महासमुद्रमें इधर - उधरसे अनुमान लगानेवाले इस षड्दर्शनरूपी विचरण  करते हैँ । नाममात्रसे स्वयं संतुष्ट कर्मकाण्डमें लगे हुए मनुष्य तथा मन्त्रोच्चार एवं होमादिसे युक्त बन जाते हैं।जो वेद- तरंगसे ग्रस्त होकर कुतर्की आगम और पुराणका ज्ञाता परमार्थको नहीं जानता याज्ञिक यज्ञविस्तारके 84 मेरी भ्रमित द्वारा मायासे विमोहित मूढ़ लोग शरीरको सुखा देनेवाले | है उस कपटीका सब कथन कौवेका काँव-काँव ही है।यह ज्ञान है, यह जाननेके योग्य है॰ ऐसी चिन्तासे एकभक्त तथा उपवासादि नियमोंसे अपने पुण्यरूप भलीभाँति बेचैन तथा परमार्थतत्त्वसे अदृष्टकी कामना करते हैं। - दूर प्राणी शरीरकी ताड़ना मात्रसे अज्ञानीजन क्या मुक्ति रात शास्त्रका अध्ययन करता है। वाक्य ही छन्द है और उस छन्दसे गुम्फित काव्योंमें अलंकार  प्राप्त कर सकते हैँ ? क्या वामीको पीटनेसे महाविषधारी মুমীসিন सर्प मर सकता है? यह कदापि सम्भव नहीं है। होता है।इस चिन्तासे दुःखित मूर्ख व्यक्ति अत्यधिक धारण   व्याकुल हो जाता है। उस परमतत्त्वका अन्य ही अर्थ भार और मृगचर्मसे युक्त वेष जटाओंके दुःखित करनेवाले दाम्भिक ज्ञानियोंकी भाँति इस संसारमें| है; किंतु लोग उसका दूसरा अर्थ लगाकर भ्रमण करते हैं और लोगोंको भ्रमित करते हैं। होते हैं । शास्त्रोंका सद्भाव कुछ और ही है; किंतु वे उसकी व्याख्या उससे भिन्न ही करते हैं । उपदेशादिसे लौकिक सुखमें आसक्त ' मैँं ब्रह्मको जानता हूँ ' ऐसा कहनेवाले, कर्म तथा ब्रह्म - इन दोनोंसे श्रष्ट, दम्भी | रहित कुछ अहंकारी व्यक्ति उन्मनीभावकी बात - ShareChat
Sach praman #📓 हिंदी साहित्य
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📓 हिंदी साहित्य - संक्षिप्त गरुडपुराण [ धर्मकाण्ड ५८८ प्रभाते मलमूत्राभ्यां क्षुत्तृड्भ्यां मध्यगे रवौ। एवं ढोंगी व्यक्तिका अन्त्यजके समान परित्याग कर रात्रौ   मदननिद्राभ्यां बाध्यन्ते देना चाहिये। घरको वनके समान मानकर निर्वस्त्र মুনপাননা: Il और लज्जचारहित जो साधु गधे अन्य भाँति स्वदेहधनदारादिनिरताः মনতলন: पशुओंको इस जगत्में घूमते रहते हैं, क्या वे विरक्त होते हैं ? जायन्ते च म्रियन्ते च हा हन्ताज्ञानमोहिताः Il तस्मात्सङ्गः सदा त्याज्यः स चेत् त्यक्तुं नशक्यते। कदापि नहीं। यदि मिट्टी, भस्म तथा धूलका लेप करनेसे मनुष्य मुक्त हो सकता है तो क्या मिट्टी और महद्धिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम्।। भस्ममें ही नित्य रहनेवाला कुत्ता मुक्त नहीं हो (88/4?-46 ) सत्संग और विवेक - ये दो प्राणीके मलरहित जायगा ? वनवासी तापसजन घास, फूस, पत्ता तथा स्वस्थ दो नेत्र हैं। जिसके पास ये दोनों नहीं हैँ, वह जलका ही सेवन करते हैं॰ क्या इन्हीके समान वनमें मनुष्य अन्धा है। वह कुमार्गपर कैसे नहीं जायगा ?  रहनेवाले सियार, चूहे और मृगादि जीवजन्तु तपस्वी कुमार्गगामी होगा - हो सकते हैं ? जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त गङ्गा आदि अर्थात् वह अवश्य हो सत्सङ्गश्च   विवेकश्च निर्मलं पवित्रतम नदियोंमें रहनेवाले मेढक या मछलो आदि नयनद्वयम्। यस्य नास्ति नरः सोउन्धः कथं न स्यादमार्गगः II प्रमुख जलचर प्राणी योगी हो सकते हैं? कबूतर (४९ | ५७) | शिलाहार और चातक पक्षी कभी भी पृथ्वीका जल अपने अपने वर्णाश्रम-्धर्मको माननेवाले सभी नहीं पीते है॰ क्या उनका व्रती होना सम्भव है। अतः धर्मको नहीं जानते हैं किंतु वे दम्भके ये नित्यादिक कर्म लोकरञ्जनके कारक हैं। हे दूसरेके मानव वशीभूत हो जायँ तो अपना ही नाश करते हैं। खगेश्वर! मोक्षका कारण तो साक्षात् तत्त्वज्ञान है। व्रतचर्यादिमें लगे हुए प्रयासरत कुछ लोगोंसे क्या हे खगेश्वर ! षड्दर्शनरूपी महाकूपमें पशुके समान बनेगा ? क्योंकि अज्ञानसे स्वयं अपने आत्मतत्त्वको गिरे हुए मनुष्य पाशसे नियन्त्रित   पशुकी भाँति परमार्थको नर्हीं जानते। वेद-शास्त्रादिके ढके हुए लोग प्रचारक बनकर देश-  देशान्तरमें महासमुद्रमें इधर - उधरसे अनुमान लगानेवाले इस षड्दर्शनरूपी विचरण  करते हैँ । नाममात्रसे स्वयं संतुष्ट कर्मकाण्डमें लगे हुए मनुष्य तथा मन्त्रोच्चार एवं होमादिसे युक्त बन जाते हैं।जो वेद- तरंगसे ग्रस्त होकर कुतर्की आगम और पुराणका ज्ञाता परमार्थको नहीं जानता याज्ञिक यज्ञविस्तारके 84 मेरी भ्रमित द्वारा मायासे विमोहित मूढ़ लोग शरीरको सुखा देनेवाले | है उस कपटीका सब कथन कौवेका काँव-काँव ही है।यह ज्ञान है, यह जाननेके योग्य है॰ ऐसी चिन्तासे एकभक्त तथा उपवासादि नियमोंसे अपने पुण्यरूप भलीभाँति बेचैन तथा परमार्थतत्त्वसे अदृष्टकी कामना करते हैं। - दूर प्राणी शरीरकी ताड़ना मात्रसे अज्ञानीजन क्या मुक्ति रात शास्त्रका अध्ययन करता है। वाक्य ही छन्द है और उस छन्दसे गुम्फित काव्योंमें अलंकार  प्राप्त कर सकते हैँ ? क्या वामीको पीटनेसे महाविषधारी মুমীসিন सर्प मर सकता है? यह कदापि सम्भव नहीं है। होता है।इस चिन्तासे दुःखित मूर्ख व्यक्ति अत्यधिक धारण   व्याकुल हो जाता है। उस परमतत्त्वका अन्य ही अर्थ भार और मृगचर्मसे युक्त वेष जटाओंके दुःखित करनेवाले दाम्भिक ज्ञानियोंकी भाँति इस संसारमें| है; किंतु लोग उसका दूसरा अर्थ लगाकर भ्रमण करते हैं और लोगोंको भ्रमित करते हैं। होते हैं । शास्त्रोंका सद्भाव कुछ और ही है; किंतु वे उसकी व्याख्या उससे भिन्न ही करते हैं । उपदेशादिसे लौकिक सुखमें आसक्त ' मैँं ब्रह्मको जानता हूँ ' ऐसा कहनेवाले, कर्म तथा ब्रह्म - इन दोनोंसे श्रष्ट, दम्भी | रहित कुछ अहंकारी व्यक्ति उन्मनीभावकी बात संक्षिप्त गरुडपुराण [ धर्मकाण्ड ५८८ प्रभाते मलमूत्राभ्यां क्षुत्तृड्भ्यां मध्यगे रवौ। एवं ढोंगी व्यक्तिका अन्त्यजके समान परित्याग कर रात्रौ   मदननिद्राभ्यां बाध्यन्ते देना चाहिये। घरको वनके समान मानकर निर्वस्त्र মুনপাননা: Il और लज्जचारहित जो साधु गधे अन्य भाँति स्वदेहधनदारादिनिरताः মনতলন: पशुओंको इस जगत्में घूमते रहते हैं, क्या वे विरक्त होते हैं ? जायन्ते च म्रियन्ते च हा हन्ताज्ञानमोहिताः Il तस्मात्सङ्गः सदा त्याज्यः स चेत् त्यक्तुं नशक्यते। कदापि नहीं। यदि मिट्टी, भस्म तथा धूलका लेप करनेसे मनुष्य मुक्त हो सकता है तो क्या मिट्टी और महद्धिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम्।। भस्ममें ही नित्य रहनेवाला कुत्ता मुक्त नहीं हो (88/4?-46 ) सत्संग और विवेक - ये दो प्राणीके मलरहित जायगा ? वनवासी तापसजन घास, फूस, पत्ता तथा स्वस्थ दो नेत्र हैं। जिसके पास ये दोनों नहीं हैँ, वह जलका ही सेवन करते हैं॰ क्या इन्हीके समान वनमें मनुष्य अन्धा है। वह कुमार्गपर कैसे नहीं जायगा ?  रहनेवाले सियार, चूहे और मृगादि जीवजन्तु तपस्वी कुमार्गगामी होगा - हो सकते हैं ? जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त गङ्गा आदि अर्थात् वह अवश्य हो सत्सङ्गश्च   विवेकश्च निर्मलं पवित्रतम नदियोंमें रहनेवाले मेढक या मछलो आदि नयनद्वयम्। यस्य नास्ति नरः सोउन्धः कथं न स्यादमार्गगः II प्रमुख जलचर प्राणी योगी हो सकते हैं? कबूतर (४९ | ५७) | शिलाहार और चातक पक्षी कभी भी पृथ्वीका जल अपने अपने वर्णाश्रम-्धर्मको माननेवाले सभी नहीं पीते है॰ क्या उनका व्रती होना सम्भव है। अतः धर्मको नहीं जानते हैं किंतु वे दम्भके ये नित्यादिक कर्म लोकरञ्जनके कारक हैं। हे दूसरेके मानव वशीभूत हो जायँ तो अपना ही नाश करते हैं। खगेश्वर! मोक्षका कारण तो साक्षात् तत्त्वज्ञान है। व्रतचर्यादिमें लगे हुए प्रयासरत कुछ लोगोंसे क्या हे खगेश्वर ! षड्दर्शनरूपी महाकूपमें पशुके समान बनेगा ? क्योंकि अज्ञानसे स्वयं अपने आत्मतत्त्वको गिरे हुए मनुष्य पाशसे नियन्त्रित   पशुकी भाँति परमार्थको नर्हीं जानते। वेद-शास्त्रादिके ढके हुए लोग प्रचारक बनकर देश-  देशान्तरमें महासमुद्रमें इधर - उधरसे अनुमान लगानेवाले इस षड्दर्शनरूपी विचरण  करते हैँ । नाममात्रसे स्वयं संतुष्ट कर्मकाण्डमें लगे हुए मनुष्य तथा मन्त्रोच्चार एवं होमादिसे युक्त बन जाते हैं।जो वेद- तरंगसे ग्रस्त होकर कुतर्की आगम और पुराणका ज्ञाता परमार्थको नहीं जानता याज्ञिक यज्ञविस्तारके 84 मेरी भ्रमित द्वारा मायासे विमोहित मूढ़ लोग शरीरको सुखा देनेवाले | है उस कपटीका सब कथन कौवेका काँव-काँव ही है।यह ज्ञान है, यह जाननेके योग्य है॰ ऐसी चिन्तासे एकभक्त तथा उपवासादि नियमोंसे अपने पुण्यरूप भलीभाँति बेचैन तथा परमार्थतत्त्वसे अदृष्टकी कामना करते हैं। - दूर प्राणी शरीरकी ताड़ना मात्रसे अज्ञानीजन क्या मुक्ति रात शास्त्रका अध्ययन करता है। वाक्य ही छन्द है और उस छन्दसे गुम्फित काव्योंमें अलंकार  प्राप्त कर सकते हैँ ? क्या वामीको पीटनेसे महाविषधारी মুমীসিন सर्प मर सकता है? यह कदापि सम्भव नहीं है। होता है।इस चिन्तासे दुःखित मूर्ख व्यक्ति अत्यधिक धारण   व्याकुल हो जाता है। उस परमतत्त्वका अन्य ही अर्थ भार और मृगचर्मसे युक्त वेष जटाओंके दुःखित करनेवाले दाम्भिक ज्ञानियोंकी भाँति इस संसारमें| है; किंतु लोग उसका दूसरा अर्थ लगाकर भ्रमण करते हैं और लोगोंको भ्रमित करते हैं। होते हैं । शास्त्रोंका सद्भाव कुछ और ही है; किंतु वे उसकी व्याख्या उससे भिन्न ही करते हैं । उपदेशादिसे लौकिक सुखमें आसक्त ' मैँं ब्रह्मको जानता हूँ ' ऐसा कहनेवाले, कर्म तथा ब्रह्म - इन दोनोंसे श्रष्ट, दम्भी | रहित कुछ अहंकारी व्यक्ति उन्मनीभावकी बात - ShareChat
Jay bandi chod ki#📓 हिंदी साहित्य
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Sach praman #📓 हिंदी साहित्य
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Saty praman #📓 हिंदी साहित्य
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Saty #📓 हिंदी साहित्य
📓 हिंदी साहित्य - 80 Si   श्रीम द्वोस्वामी तुलसीदासविरचित श्रीरामचरितमानस [सचित्र , सटीक , बृहदाकार ] चपाई स्वर्ग का भोग भी अंत राम चासत नानस उततर काण्ड दुखदाई [ತತಾs Il ' एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं I। १ II  भावार्थः ्हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग  मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं वे मूर्ख अमृत को  लेते हैं Il ७ II  बदलकर विष ले गीताप्रेस, गोरखपुर 80 Si   श्रीम द्वोस्वामी तुलसीदासविरचित श्रीरामचरितमानस [सचित्र , सटीक , बृहदाकार ] चपाई स्वर्ग का भोग भी अंत राम चासत नानस उततर काण्ड दुखदाई [ತತಾs Il ' एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं I। १ II  भावार्थः ्हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग  मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं वे मूर्ख अमृत को  लेते हैं Il ७ II  बदलकर विष ले गीताप्रेस, गोरखपुर - ShareChat