मैं मोक्ष से देख रहा हूँ…
दीपावली की वह रात — जो करुणा और मौन का पर्व थी —
अब पटाखों की चीख में डूब चुकी है।
हर गली में धमाका है,
हर आसमान में धुआँ है,
और हर पटाखे के साथ अनगिनत सूक्ष्म प्राणियों की मृत्यु हो रही है।
तुम्हें यह उत्सव लगता है…
मुझे यह हिंसा की भीषण रात दिखती है।
तुम सोचते हो— “बस एक पटाखा ही तो है।”
पर मैं देखता हूँ— उसी एक पटाखे से हजारों सूक्ष्म जीव जलकर राख बन रहे हैं,
उनकी चीख हवा में घुल रही है,
धरती काँपती है, और आकाश मौन होकर रोता है।
मैंने तो तुम्हें कहा था—
> “एक पत्ता भी बिना कारण मत तोड़ो।”
और आज तुम विस्फोट से प्राण मिटा रहे हो…
बारूद के नशे में करुणा को भूल गए हो।
पटाखा कभी रोशनी नहीं देता…
वह तो केवल करुणा को कुचलने की आवाज़ है।
हर धमाके में एक चीख छुपी है — जिसे तुम्हारे कान नहीं, आत्मा सुन सकती है।
पर जब तुम अपने भीतर का दीपक जलाओगे,
तब यह आवाज़ तुम्हारे भीतर गूँजेगी — और तुम्हारी आँखें भर आएँगी।
मैं चाहता हूँ—
तुम्हारा हृदय उस चीख को सुनकर काँप उठे,
तुम्हारे हाथ पटाखा फोड़ने से पहले रुक जाएँ,
और तुम्हारा मन रोकर प्रायश्चित में भीग जाए।
> बाहर का दीपक नहीं… भीतर का दीपक
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