Krishna
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*आजादी के 78 साल और हमारी आजादी के मायने*
आज देश को आजाद हुए 78 साल हो चुके हैं और तथाकथित आजादी का 79वां वर्षगांठ मना रहे हैं। पर आज आजाद भारत की वास्तविक स्थित क्या है? आजादी से पहले भी सबको कुछ ना कुछ तो मिलता ही था और आज भी कुछ ना कुछ मिल ही रहा है, कह सकते हैं कि पहले से थोड़ा सा ज्यादा मिलता है, और आजादी से पहले चन्द लोगों का भला होता था और आज भी चन्द लोगों का ही भला हो रहा है। उन चन्द में आजादी से पहले की अपेक्षा थोड़ी सी बढ़ी है, बस इतना सा अंतर आया है । आज आजादी के 78 साल बाद, आजादी के मायने गरीबों के लिए भूख, बेरोजगारी और शोषण तथा अमीरों के लिए संपत्ति, सत्ता और विशेषाधिकार तक सिमट गए हैं। यह है भारत के संसदीय पूँजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था का असली चरित्र। इस तथाकथित आजादी की 79वां वर्षगांठ आप सभी को मुबारक।
भारत का संवैधानिक संसदीय लोकतंत्र एक व्यक्ति, एक वोट की बात तो करता है, लेकिन वास्तव में भारत का लोकतंत्र एक वोट, एक रुपया के सिद्धांत से चलता है। 2019 के चुनावों में कॉर्पोरेट्स ने 5,000+ करोड़ रुपये दान दिए। जो व्यापारी/पूंजीपति/उद्योगपति इतनी बड़ी रकम दान देगा तो निश्चित ही सत्ता में आने के बाद अपना भला चाहेगा ना! और अपने हितों के लिये अपने अनुसार नियम-कानून गढ़वायेगा या फिर अपने हितों के विपरीत बहुसंख्यक जनता के हितों के लिये बनवाएगा?
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR 2023) के मुताबिक विधायकों की औसत संपत्ति 38 करोड़ है, और संसद में 70% सदस्य करोड़पति हैं। जबकि इसके विपरीत 80 करोड़ भारतीय 5 किलो मुफ्त राशन पर निर्भर हैं। यही है भारत के संसदीय लोकतंत्र की असली हकीकत। जरा गौर फरमाएं जिस देश के संसद में 70% करोडपति हों, वो नियम-कानून अपने और अपने करोडपति मित्रों, दान देने वाले पूंजीपतियों के हितों के विपरीत जाकर बहुसंख्यक जनता के हितों के लिये बनाएंगे?
भारत की बहुसंख्यक जनता को लगता है कि यह बहुदलीय संसदीय व्यवस्था ही सच्चा लोकतंत्र है, और इसी व्यवस्था में ही उनका हित हो सकता है, यदि ऐसा होता तो आज आजादी के 78 वर्ष बीतने के बाद भी आज देश के नौजवान/किसान/छोटे व्यवसायी… आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होते किंतु इसके विपरीत जब आप उस सत्ताधारी पार्टी के कार्यकाल को देखेंगे तो हर बार से बुरी स्थिति बहुसंख्यक जनता की होती जाती है और हर चुनाव के कुछ समय बाद मेहनतकश जनता अपने आपको ठगा महसूस करती है और उसे लगता है कि इससे बेहतर तो पुरानी वाली पार्टी जो सत्ता में थी, वो बेहतर थी और हकीकत भी यही है कि महंगाई, कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, रोजगार… की स्थिति कई दशकों में सबसे बुरी होती गई है और अर्थव्यवस्था निरन्तर नकारात्मकताओं के गोते लगाती जा रही है। भारत के आजादी के समय डालर और रुपया में थोडा़ सा अन्तर था, 1 यूएस डालर बराबर तीन रूपया मगर आज रुपए की क्या स्थित है? जरा सोचिये कि लगातार इतनी खराब क्यों होती जा रही है? महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य… लगातार दयनीय दशा में अपने उच्चतम अवस्था पर क्यों हैं? मेहनतकश जनता के हालात किसी से छिपे नहीं है और ना ही किसी को बताने की जरूरत है कि आज आजादी के 78 साल बाद भी स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार की बात छोड़िये दो वक्त का संतुलित आहार तो बहुत दूर की बात भरपेट भोजन भी नसीब नहीं और इसके उलट राजनैतिक पार्टी जो सत्ता में आती है, अरबों-खरबों रुपए भर जमा कर लेती है। सत्ताधारी पार्टी के नेता तो छोड़िये विपक्ष के सांसद/विधायक भी अरबों रुपए जमा कर लेते हैं।
राजनैतिक पार्टी कितने भी नारे गढ़ ले चाहे गरीबी मिटाओ या अच्छे दिन के नारे लगा कर, सड़कों पर उछल-कूद मचा कर... रोजगार और आर्थिक सवालों से बचने की कोशिश करती है और भावनात्मक मुद्दे (जैसे मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान, गाय-गोबर-गंगा, पाकिस्तान-चीन-बांग्लादेश, राष्ट्रवाद…) उछलकर मेहनतकश जनता को वर्गीय एकता से दूर रखा जाता है। यह "झूठी चेतना" (false consciousness) का उदाहरण है।
महंगाई/बेरोजगारी/भ्रष्टाचार/स्वास्थ्य/शिक्षा… हमारे-आपके सामने खड़ा सबसे बड़ा सवाल है। आपको इससे जूझना ही होगा। आपके तथाकथित वोट से बने सत्ता और विपक्ष के सांसद/विधायक आपके अस्तित्व से जुड़े वास्तविक सवालों का जवाब खोजने में आपकी मदद नही करते, बल्कि मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान, गाय-गोबर-गंगा, पाकिस्तान-चीन-बांग्लादेश, राष्ट्रवाद… में जनता को जनता से आपसा में लड़ाकर सत्ता की मलाई चाट रहे हैं, क्योंकि वास्तव में वो आपके लिए नहीं है। वो सिर्फ अपने और पूंजीपति मित्रों की सेवा करने के लिये हैं। इसीलिये अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब और गरीब। आजादी के 78 साल बीतने के बाद भी मेहनतकश जनता को दो वक्त की रोटी के लाले पड़े हैं, तो निश्चित ही सोचना पड़ेगा कि ये आजादी, ये लोकतंत्र किसके लिये है? और इस लोकतंत्र की छत्र-छाया में कौन फल-फूल रहा है? अंग्रेजों के शासन में और तथाकथित आजादी वाले इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या और कितना डिफरेंस है?
किसी भी देश के लिये 78 साल कम नहीं होते। इस अवधि में कांग्रेस, बीजेपी, जनता दल… जो भी पार्टी सत्ता में रह चुकी हैं, की आर्थिक सफलताओं-विफलताओं का मूल्यांकन कर लें। आंकड़ों की बाजीगरी, बातों के बड़े-बड़े लच्छे आदि एक तरफ... जमीन सूंघते आर्थिक मानक दूसरी तरफ। कोई कितना भी ताकतवर हो, सूचना के स्रोतों पर कोई कितनी भी पहरेदारी बिठा दे, सच पर पर्दा डालने के लिये आंकड़ों में चाहे जितने उलटफेर किया हो या करता रहे... हकीकत तो जमीन पर आ ही जाती है, और इस निशान को शासक वर्ग मिटा नहीं सकता। सब आपके सामने है बस आँखें खोलकर वर्गिये दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है।
लगातार गिरती अर्थव्यवस्था, कोरोना कोई बहाना नहीं हो सकता क्योंकि कोरोना संकट के शुरू होने से पहले ही बेरोजगारी और आर्थिक गिरावटों के डरावने आंकड़े सामने आ चुके थे। जनवरी-फरवरी, 2020 के दौरान ही भारत में बेरोजगारी 45 वर्षों के उच्चतम स्तरों पर थी। उधर आर्थिक विकास की दर गिरनी शुरू हुई तो उठने का नाम ही नहीं ले रही है।
भारत में बीजेपी/नरेंद्र मोदी से ही नहीं, कांग्रेस, सपा, बसपा, आप, शिव सेना, राजद… संसदमार्गी कम्यूनिष्ट पार्टियों से भी रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और अर्थव्यवस्था… में विकास संबंधी उम्मीदें पालना बेमानी होंगी क्योंकि ये सब उसी पूँजीवादी व्यवस्था के मोहरे हैं, जिससे ये समस्यायें पैदा होती हैं। इस पूँजीवादी व्यवस्था में कोई भी पार्टी आ जाए महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार… खत्म नहीं कर सकती क्योंकि इस व्यवस्था से उपजी समस्या है। इस पूँजीवादी सड़ी गली व्यवस्था में कोई भी पार्टी सत्ता में आ जाए समस्याएं घटने के बजाए बढ़ेगी क्योंकि ट्रेन के ड्राइवर बदलने से कोई भी ट्रेन बुलेट ट्रेन/मैग्लेव ट्रेन नहीं हो पाएगी। बुलेट/मैग्लेव ट्रेन बनाने के लिये ड्राइवर नहीं व्यवस्था बदलनी पड़ेगी।
इस तथाकथिक लोकतंत्र में कहने को बहुसंख्यक मतदाता ही मालिक होता है। सुनने में कितना अच्छा लगता है, मगर इन तथाकथित मालिकों को इनसे वोट लेने के पश्चात दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंक देते हैं और जनता कैसी मालिक हैं? जिनके नौकर (सांसद, विधायक, ब्यूरोक्रेट्स आदि) मलाई काटते हैं और ये तथाकथित मालिक एक वक्त के भरपेट भोजन को तरस जाते हैं! आज देश के मालिक कहे जाने वाले बहुसंख्यक आबादी में से 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन पर निर्भर हैं।
पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन थोड़े से लोगोँ द्वारा थोड़े से लोगोँ के लिये ही होता है, इसलिये थोड़े से लोगों को ही रोजगार मिल पाता है और मजूरी उतना ही मिल पाती है जितना कि जीवन की गाड़ी चलाने के लिये ऑक्सीजन की तरह अनिवार्य हैं। आप स्वयं ही इसका मूल्यांकन कर सकते हैं और देख सकते हैं कि इस तथाकथित लोकतंत्र में कौन फल-फूल रहा है? और ये जेल-अदालत-सेना-पुलिस किसके लिये है?
यह पूँजीवादी लोकतंत्र पूंजीपतियों को कर छूट और सब्सिडी देता है, जबकि मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों (GST जैसे करों) का बोझ डालता है। ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के अनुसार, ऊपर 1% के पास 40% से अधिक संपत्ति है, जबकि नीचे 50% के पास मात्र 3% सम्पति है। यह असमानता इस पूँजीवादी व्यवस्था की देन है, जहां ब्रिटिश लूट को अब देशी पूंजीपति जारी रखे हुवे हैं। पहले गोरे लूटते और शोषण करते थे। अब गोरे के जगह काले लूट रहे हैं दोनों की लूट और शोषण में कोई अन्तर नहीं है।
पूँजीवादी लोकतंत्र केवल चुनावी छलावा है, जहां जनता को "मालिक" होने का भ्रम दिया जाता है, और कहा जाता है कि तुम्हारे वोट में बड़ी ताकत है, लेकिन वास्तविक शक्ति पूंजीपतियों के पास रहती है। भारत में सांसद, विधायक और ब्यूरोक्रेट्स पूंजीपती वर्ग के एजेंट हैं, जो मलाई काटते हैं जबकि मेहनतकश जनता एक वक्त के भोजन को तरस जाती है। यदि इस व्यवस्था में वोट देने वाली मेहनतकश जनता मालिक होती तो उनके बच्चे रोजगार के लिये संघर्ष नहीं करते और ना ही रोजगार मांगने पर लाठी खाते। हर हाथ को रोजगार होता। यदि मेरे हाथ वोट कर रहा है और मेरे वोट में ताकत है और मैं इस लोकतंत्र का मालिक हूँ तो फिर मेरे हाथ में कमसेकम दो वक्त का भरपेट भोजन तो होना ही चाहिये। ऐसे ताकत मिलने का और मालिक बनने का क्या फायदा जो दो वक्त के भोजन के लिये एक अदद रोजगार ना दे सके।
आजादी का अर्थ है- मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति। जब तक हमारी आवश्यकता अधूरी है तब तक हमारी आजादी भी अधूरी है। इन 78 सालों ने साबित कर दिया कि यह संवैधानिक लोकतंत्र मेहनतकश जनता के खून से सनी हुई पूँजी की तानाशाही है। आजादी का जश्न मनाना तब तक बेमानी है, जब तक:
- एक बच्चा भूख से मरता है।
- एक बच्चा कुपोषण का शिकार होकर मरने को मजबूर होता है।
- एक युवा रोजगार के अभाव में आत्महत्या करता है।
- एक मजदूर 12 घंटे काम के बाद भी गरीबी में जीता है।
- एक बेरोजगार व्यक्ति/गरीब परिवार अपने व अपने परिवार का महंगे इलाज के कारण इलाज ना हो पाने के अभाव में मरने को मजबूर होता है।
- किसान जो हमारा पेट भरने के लिये अन्न उगाता है, उसके फसल की लाभकारी मूल्य तो दूर की बात न्युनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिलता और आत्महत्या करने को मजबूर होता है।
हमारी आजादी का अर्थ तभी सार्थक होगा जब शोषणविहीन समाजवादी व्यवस्था स्थापित होगी, जहाँ उत्पादन मुनाफे के लिए नहीं, बल्कि समाज की जरूरतों के लिए होगा।
हमारा जीवन किसी मंदिर की भव्यता पर निर्भर नहीं करता, न ही किसी उपद्रवग्रस्त राज्य की राजनीतिक स्थिति के बदलने से हमारा जीवन बदलने वाला है। यह तो सिस्टम के आर्थिक नीतियों और उनके क्रियान्वयन से ही बदलेगा। मगर ये पूंजीवादी सत्ता आर्थिक नीतियों को बहुसंख्यक जनता के पक्ष में नहीं कर सकती। कोई पार्टी अपने एक-दो कार्यकाल में उमड़ती हुई जनभावनाओं की लहरों पर सवार होकर किन्हीं खास अर्थों में लोकप्रिय साबित तो हो सकती है, चुनावों में अपनी सफलता दुहरा सकती है। लेकिन भारत जैसे निर्धन बहुल देश में भावनाओं की लहरों पर कब तक सवारी करते रहे सकते हैं? पांच बरस, दस बरस, पंद्रह बरस...। इससे अधिक नहीं और अब समय आ गया है इस जनविरोधी पूँजीवादी सिस्टम को उखाड़ फेकने का और ये तभी सम्भव है, जब मेहनतकश जनता जाति-धर्म, रंग-भेद, नस्ल-क्षेत्र, भाषा… को दरकिनार कर एक होकर (जैसे 1857 की क्रांति में और दिल्ली किसान आन्दोलन में एक हो गये थे) अपने अधिकार के लिये सड़कों पर आ जाएं।
बहुसंख्यक जनता की मुक्ति का रास्ता चुनावी नाटकों से नहीं, बल्कि क्रांति से होकर गुजरता है और क्रांति का मतलब मौजूदा व्यवस्था में सम्पूर्ण आमूल चूल परिवर्तन और यह परिवर्तन चुनाव के जरिये नहीं आ सकता क्योंकि चुनाव से चेहरे बदलते हैं व्यवस्था नहीं और व्यवस्था परिवर्तन क्रांति से ही सम्भव है।
अब समय आ गया है, इस जनविरोधी सिस्टम को उखाड़ फेंकने का। मेहनतकश वर्ग, संगठित होकर, उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण हासिल करे और समाजवादी व्यवस्था स्थापित करे। जहां रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य… सबके लिए हों, न कि मुट्ठीभर के लिए। मार्क्स ने कहा है: "तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के अलावा कुछ नहीं है। जीतने के लिए सारा संसार है। दुनिया के मजदूरों एक हो!"
*अजय असुर*
*जनवादी किसान सभा*
#देशभक्त बनो, अंधभक्त नहीं #🇮🇳 देशभक्ति
#🫡स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं🤝
#संविधान बचाओ अभियान #सामाजिक परिवर्तन
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