#मथुरा #जय श्री कृष्ण
मथुरा पुरी का माहात्म्य
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मथुरा का देवता कौन है, क्षत्ता (द्वारपाल) कौन हैं,
उसकी रक्षा कौन करता है, चार कौन है, मन्त्रि प्रवर कौन हैं, किन-किन लोगों के द्वारा वहाँ भूमिका सेवन किया गया है?
साक्षात परिपूर्णतम "भगवान श्रीकृष्ण हरि मथुरा के स्वामी या देवता हैं।" भगवान केशव देव वहाँ के क्लेश नाशक हैं साक्षात भगवान ने कपिल नामक ब्राह्मण को अपनी वाराह मूर्ति प्रदान की थी,कपिल ने प्रसन्न होकर वह मूर्ति देवराज इन्द्र को दे दी, फिर समस्त लोकों को रुलाने वाला राक्षस राज रावण देवताओं को जीतकर उस मूर्ति का स्तवन करके उसे पुष्पक विमान पर रखकर लंका में ले आया उसकी पूजा करने लगा।
राघवेन्द्र श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त करके भगवान वाराह को प्रयत्न पूर्वक अयोध्यापुरी में ले आये और वहाँ उनकी अर्चना करते रहे, तत्पश्चात शत्रुघ्न श्रीराम की स्तुति करके उनकी आज्ञा से उस वाराह विग्रह को प्रयत्न पूर्वक महापुरी मथुरा में ले आये और वहाँ वाराह भगवान की स्थापना करके उनको प्रणाम किया, फिर समस्त मथुरा वासियों ने उन वरदायक भगवान की सेवा- पूजा प्रारम्भ की, वे ही ये साक्षात "कपिल - वाराह मथुरा पुरी में श्रेष्ठ मन्त्री माने गये हैं।"
"'भूतेश्वर' नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव मथुरा के द्वारपाल या क्षेत्रपाल हैं," वे पापियों को दण्ड देकर भक्ति के लिये उन्हें मन्त्रोपदेश करते हैं।
महाविद्या स्वरूपा दुर्गम कष्ट दूर करने वाली चण्डिका देवी दुर्गा सिंह पर आरूढ़ हो सदा मथुरापुरी की रक्षा करती हैं।
"नारद ही मथुरा के चार (गुप्तचर) हैं" और इधर-उधर लोगों पर दृष्टि रखकर सबकी बात महात्मा श्रीकृष्ण को बताते हैं, नगर के मध्य- भाग में स्थित शुभदायिनी करूणामयी मथुरा देवी समस्त भूखे लोगों को अन्न प्रदान करती हैं।
मथुरा में मरे हुए लोगों को विमानों द्वारा ले जाने लिये श्याम अंग वाले चार भुजाधारी श्रीकृष्ण पार्षद आते-जाते रहते हैं, महापुरी मथुरा, जिसके दर्शन मात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है, श्रीकृष्ण के अंग से प्रकट हुई है।
पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने मथुरा में आकर निराहार कहते हुए सौ दिव्य वर्षों तक तपस्या की उस समय वे परब्रह्म श्रीहरि के नाम का जप करते थे, इससे उन्हें स्वायम्भुव मनु जैसे प्रवीण पुत्र की प्राप्ति हुई।
"सतीपति देववर भूतेश मधुवन में एक सौ दिव्य वर्ष तक तप करके श्रीकृष्ण की कृपा से तत्काल मथुरा पुरी और माथुर मण्डल के "क्षेत्रपाल" हो गये।"
श्रीकृष्ण कृपा प्रसाद से ही नारद मथुरा मण्डल का चार बने हैं, और सदा भ्रमण करता रहते हैं, इसी प्रकार 'दुर्गा' मथुरा में जाती हैं और निश्चय ही श्रीकृष्ण सेवा करती हैं।
इन्द्र ने मथुरा में तप करके इन्द्रपद, सूर्य ने तप करके वैवस्वत मनु- जैसा पुत्र, कुबेर ने अक्षय निधि, वरूण ने पाश और मधुवन में तप करके सम्यक ध्रुवपद प्राप्त किया था।
यहीं तपस्या करके अम्बरीष ने मोक्ष पाया, राम ने अक्षय शक्ति एवं लवणासुर से विजय प्राप्त की, राजा रघु ने सिद्धि पायी तथा इसी मधुवन में तप करके चित्रकेतु ने भी अभीष्ट फल प्राप्त किया, यहीं के सुन्दर मधुवन में तप करके अत्यन्त बलिष्ठ हुए महासुर मधु ने माधवमास में मधुसूदन माधव के साथ युद्ध-भूमि में जाकर युद्ध किया,सप्तर्षियों ने मथुरा में आकर यहीं तपस्या करके योग सिद्धि प्राप्त की, पूर्वकाल में अन्य ऋषियों ने भी यहाँ तप करके सर्वतोमुखी सफलता पायी थी और गोकर्ण नामक वैश्य ने भी यहाँ तप करके महानिधि उपलब्ध की थी।
इसी शुभ मधुवन में लोकरावण रावण ने तपस्या करके स्वर्ग के देवताओं पर विजय पायी तथा राक्षसों को अधिकारी बनाकर मन्दिर निर्माण करके लंका में हो प्रतिष्ठित हो बड़ी शोभा प्राप्त की,यहीं सुन्दर मधुवन में तपस्या करके हस्तिनापुर के राजा शांतनु ने अत्यन्त साधु -शिरोमणि तथा तत्त्वार्थ सागर के कर्णधार भीष्म को पुत्र -रूप में प्राप्त किया, आदियुग में भगवान वराह ने महासागर के जल में जहाँ बड़ी ऊँची लहरें उठ रही थीं, डूबी हुई पृथ्वी को, जैसे हाथी सूँड से कमल को उठा ले, उसी प्रकार स्वयं अपनी दाढ से उठाकर जब जलके ऊपर स्थापित किया, तब मथुरा के माहात्म्य का इस प्रकार वर्णन किया था।
यदि मनुष्य 'मथुरा' का नाम ले ले तो उसे भगवन् नामोच्चारण का फल मिलता है, यदि वह मथुरा का नाम सुन ले तो श्रीकृष्ण कथा-श्रवण फल पाता है,मथुरा का स्पर्श प्राप्त करके साधु-संतों के स्पर्श का फल पाता है।
मथुरा में रहकर किसी भी गन्ध को ग्रहण करने वाला मानव भगवच्चरणों पर चढ़ी हुई तुलसी के पत्र की सुगन्ध लेने का फल प्राप्त करता है,इस नगरी में जो लोग शुद्ध विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं---
"मथुरायां महापुर्या ये वसंति शुचिव्रता:।
बलिभिक्षाप्रदातारो देवास्ते नरविग्रहा:।।"
मथुरा का दर्शन करने वाला मानव श्रीहरि के दर्शन का फल पाता हैं, स्वतः किया हुआ आहार भी यहाँ भगवान लक्ष्मीपति के नैवेद्य-प्रसाद भक्षण का फल देता हैं।
दोनों बाँहों से वहाँ कोई भी कार्य करके श्रीहरि की सेवा करने का फल पाता है और वहाँ घूमने-फिरने वाला भी पग-पग पर तीर्थ यात्रा के फल का भागी होता है।
जो राजाधिराजों का हनन करने वाला अपने सगोत्र का घातक तथा तीनों लोकों को नष्ट करने के लिये प्रयत्न शील होता है, ऐसा महापापी भी मथुरा में निवास करने से योगीश्वरों की गति को प्राप्त है---
"वसंति महाभागे मथुरायामितरे जना:।
तेऽपि यांति परमां सिद्धिं मत्प्रसादन्न संशय:।।"
उन पैरों को धिक्कार है, जो कभी मधुवन में नहीं गये। उन नेत्रों को धिक्कार है, जो कभी मथुरा का दर्शन नहीं कर सके, उन कानों को धिक्कार है जो मथुरा का नाम नहीं सुन पाते और उस वाणी को भी धिक्कार है, जो कभी थोड़ा-सा मथुरा का नाम नहीं ले सकी।
मथुरा में चौदह करोड़ वन है, जहाँ तीर्थों का निवास हैं। इन तीर्थों में से प्रत्येक मोक्षदायक है, जिसमें असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति परिपूर्णतम देवता गोलोकनाथ साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र ने स्वयं अवतार लिया, उस मथुरा पुरी को नमस्कार है।
जिस मथुरा का नाम तत्काल पापों का नाश कर देता है, जिसके नामोच्चरण करने वाले को सब प्रकार मुक्तियाँ सुलभ है। तथा जिसकी गली-गली में मुक्ति मिलती है, उस मथुरा को इन्हीं विशेषताओं के कारण विद्वान् पुरुष श्रेष्ठतम मानते है।
यद्यपि संसार में काशी आदि पुरियाँ भी मोक्षदायिनी हैं, तथापि उन सबमें मथुरा ही धन्य है, जो जन्म, मौञ्जीव्रत, मृत्यु और दाह-संस्कारों द्वारा मनुष्यों को चार प्रकार की मुक्ति प्रदान करती है---
"अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका।
पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।।"
जो सब पुरियों ईश्वरी, व्रजेश्वरी, तीर्थोश्वरी, यज्ञ तथा तप की निधिश्वरी, मोक्षदायिनी तथा परम धर्म-धुरंधरा है, मधुवन मे उस श्री कृष्णपुरी मथुरा को मैं नमस्कार करता हूँ, जो लोग एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण में चित्त लगाकर संयम और नियम पूर्वक जहाँ कहीं भी रहते हुए मधुपुरी के इस माहात्म्य को सुनते है, वे मथुरा की परिक्रमा के फल को प्राप्त करते है- इसमें संशय नहीं है, जो लोग इस मथुरा खण्ड को सब ओर सुनतें, गाते और पढ़ते हैं, उनको यहीं सब प्रकार समृद्धि और सिद्धियाँ सदा स्वभाव से ही प्राप्त होती रहती हैं, जो बहुत वैभव की इच्छा करने वाले लोग नियम पूर्वक रहकर इस मथुरा खण्ड का इक्कीस बार श्रवण करते हैं, उनके घर और द्वार को हाथी के कर्णतालों से प्रताड़ित भ्रमरावली अलंकृत करती है।
इसको पढ़ने और सुनने वाला ब्राह्मण विद्वान होता है, राजकुमार यु़द्ध मे विजयी होता है, वैश्य निधियों का स्वामी होता है, तथा शुद्र भी शुद्ध निर्मल हो जाता है। स्त्रियाँ हों या पुरुष- इसे सुनने वालों के अत्यन्त दुर्लभ मनोरथ भी पूर्ण हो जाते हैं।
मथुरा नगरी ब्रह्म रुप ही है, जिस ब्रह्म ज्ञान से जगत का मन्थन होता है, उसका सार अर्थात् ब्रह्म जहाँ निवास करे उसका नाम मथुरा होता है, जैसे आधेय आधार में रहता है,अध्यस्त अधिष्ठान मे रहता है, उसी प्रकार मथुरा मे सब तरह के लोग रहते हैं।
राजा एवं राज्य के नवीन वस्त्र राशि धोने वाला रजक मिला, वस्त्र न देने पर एक चाँटे से उसका काम तमाम हो गया साथी भाग गये, जिनके अन्दर दुर्गुण दृढ़मूल हो और भगवान से विमुखता हो उनके उद्धार की यही प्रक्रिया है, उनके दुर्गुण रुप शरीर छूटने पर ही उनका कल्याण होता है।
दर्जी स्वयं आ गया, भगवान नटवर हैं नट को क्या चाहिए, दर्जी ने किसे कौन सा वस्त्र जँचेगा रुपानुसार बना दिया, माली के घर गये फूलों का श्रृंगार हुआ।
सेवा ने अपने चमत्कार दिखाए भक्ति भी मिली और साथ मे भौतिक सम्पत्ति भी,मथुरा मे कोलाहल मच गया ये सुकुमार नहीं बलवान है।
ये किसान वर्ग मे माली एवं श्रमिक वर्ग मे दर्जी पर भी प्रसन्न होते हैं, हीन वर्ग के पक्षपाती हैं, आगे राजपथ पर कुब्जा मिल गयी जाति से हीन, शरीर से कुब्ड़ी ,भाव से दासी, कंस की सेवा के लिए अंगराग (चंदन) लिए जा रही थी , हीन उद्देश्य भगवान से विमुख परन्तु भगवान की दृष्टि पड़ गयी , स्वयं छेडछाड़ करके उसे अपने सम्मुख किया, उसे सर्वांग सुन्दर , मोहक युवती बना दिया कूबड़ी सीधी हो गई ,असुन्दर सुन्दर हो गई, कंस की दासी श्रीकृष्ण की महरानी बन गई , त्रिवक्रा सुवक्रा हो गई, त्रिवक्रा कुंडलिनी जागकर सीधी होकर अपने लक्ष्य से से जा मिली।
रजक भय से कृष्ण के हो गए , माली और दर्जी श्रीकृष्ण के बन गए , स्त्रियां मुग्ध हो गई असुन्दर को सुन्दर बनाने वाले कृष्ण , पिछड़े को आगे लाने वाले कृष्ण, गिरे को उठाने वाले कृष्ण, पहले ही दिन मथुरा पर विजय हो गई।
शिव धनुष तोड़ दिया, कंस की सेना का उत्साह भंग हो गया, सबका मन खींच लिया - सबके हृदय मे अपनी आसक्ति डाल दी, कंस और उनके साथी भय से ही मर गए थे , उन्हें मारने का तो केवल उपचार ही करना पड़ा।
लौकिक राज्यक्रांति की दृष्टि से भी कम से कम हिंसा करके एवं नागरिकों को अपने पक्ष मे आकृष्ट करके युक्ति की प्रधानता से ही राज्य परिवर्तन हो गया , दुराचारी की जगह सदाचारी उग्रसेन का राज्य हो गया ,भगवद्भाव से भी यही शास्त्र सम्मत है कि जो भय से या द्वेष से भगवान का स्मरण करते हैं, वे मृत्यु के अनन्तर मुक्ति प्राप्त करते हैं।
जो प्रेम करते हैं वे जीवन काल मे ही सुख, शान्ति के भाजन बन गये, कुवलयापीड, मल्ल एवं कंस के वध का अभिप्राय ही यह है कि उन्हें शीघ्रातिशीघ्र कल्याण की प्राप्ति हो।
मथुरा के नागरिकों को सुखशांति की प्राप्ति मे द्वेष करने वालों का उद्धार है मथुरा लीला, विद्याध्यन एवं गुरु दक्षिणा मे मृत गुरुपुत्र को लाकर देना लोकसंग्रह के लिए है, सबको गुरु मुख से ही विद्याध्ययन करना चाहिए एवं अपनी शक्ति के अनुसार गुरु दक्षिणा भी देना चाहिए।
मथुरा के नागरिक पहले कंस के उपद्रव से पीड़ित थे, उससे बचने के लिए उन्होंने भिन्न-भिन्न देश राज्य राजा एवं संबंधियों का आश्रय स्वीकार किया।
श्री कृष्ण का अवतार हुआ उसको उन्होंने देखा नहीं सुना तो किसी को विश्वास हुआ, किसी को नहीं हुआ।
कंस वध के बाद श्रीकृष्ण ने सबको मथुरा बुलाया, बसाया, सुख सुविधा दी संपन्नता हुई है सुख तो मिला परंतु श्रीकृष्ण का योग नहीं मिला ,आपत्ति विपत्ति आने पर अपने हितैषी रक्षक पर दृष्टि जाती है, त्राण कल्याण प्राप्त होने पर उससे आसक्ति हो जाती है।
इसी से मथुरा पर जरासंध का आक्रमण हुआ, सत्तरह आक्रमण जरासंध ने अपने बल से किया, बीच में एक आक्रमण कालयवन का हुआ अट्ठारहवां आक्रमण शिव बल, यज्ञ बल, धर्म बल से परिपुष्ट होकर जरासंध ने किया, जरासंध को भागवत में कर्म पास की संज्ञा दी गई है, वह कर्मों का दो विभाग होने पर भी जरा राक्षसी के द्वारा जोड़ दिया गया है अर्थात पहले तो वाह छिन्न विच्छिन्न था, परंतु प्रजापति की इच्छा से जुड़ गया।
उसकी पुत्री --"अस्ति और प्राप्ति" --इतना हमारे पास है और इतना और मिलेगा, कंस रूप अभिमान के साथ ब्याही गई थी पति के मर जाने पर वह विधवा होकर पिता के घर आ गई, ब्रह्मविद्या प्राप्त होने के पश्चात भी प्रारब्ध कर्म उपद्रव करते रहते हैं।
अतः मथुरा में भी उपद्रव की सृष्टि हुई ,ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति होती है, परंतु प्रारब्ध दुख की निवृत्ति के लिए ज्ञान बल चाहिए।
अतः कृष्ण और बलराम दोनों ने मिलकर उसका निवारण किया संकट बहुत आए ,परंतु श्री कृष्ण के मुखारविंद पर मुस्कान की झलक दुख की परिस्थितियों के आने पर भी चमक उठती थी।
एक ब्रह्मविद्या थी मथुरा, दूसरी ब्रह्मनिष्ठा रूप नगरी बसाई द्वारिका वह मथुरा के समान ही थी, श्री कृष्ण के निवास पर्यंत ही उसका जीवन था श्री कृष्ण का सानिध्य ही मथुरा द्वारका का प्राण है।
शरीर मथुरा है और हृदय गोकुल, नन्द जीव है।
इस शरीर को मथुरा बनाना है, हृदय -गोकुल मे बालकृष्ण को पधराना है, मन को आसक्ति से बचाने पर शरीर मथुरा बनेगा एवं हृदय गोकुल,पवित्र काया ही मथुरा है।
"मथुरा" और "मधुरा"एक है।
कामसुख और संपत्ति मद हैं, इन दो मदों से जो अपने को बचाता है , उसी का शरीर मथुरा बनता है ।इन्हीँ दो वस्तुओ में मन फँसा है, मन को इनसे बचाना है। मनुष्य कई बार तन से तो कामसुख त्यागता है किन्तु मन से नहीं, दो वस्तुओं को प्रभु ने आसक्तिपूर्ण बनाया है - स्त्री एवं धन, इन दो आसक्तियों मे मद -सा आकर्षण है,इन दोनो से हमें बचना होगा।
संपत्ति, शक्ति और भोग की उपस्थिति होने पर भी मन को बचाए रखना ही सच्चा संयम है अन्यथा --
"धातुषु क्षीयमाणेषु शम कस्य न जायते"
अपनी जवानी में जो मन को अंकुशित कर पाए वही सयाना है, भक्ति आसान नहीं है,परस्त्री और परधन की आसक्ति त्यागे बिना भक्ति का आरम्भ नहीं हो सकता।
जब तक भोग बुद्धि है , तब तक ईश्वर की भक्ति कैसे हो पायेगी, द्रव्य का चिंतन करते रहने से तो द्रव्य मिलेगा नहीं, द्रव्य और कामसुख का विचार तक त्यागने पर ही यह काया पवित्र होगी।
यमुना भक्ति की स्वरुप हैं, यदि शरीर को मथुरा एव हृदय को गोकुल बनाना है तो भक्ति - यमुना के तट पर बसना होगा, यमुना का ,भक्ति का तट कभी न त्यागें, चौबीस घण्टे भक्ति तट पर रहने से ही यह शरीर मथुरा और हृदय गोकुल बन पायेगा, जब तक मन में मत्सर होगा,शरीर मथुरा नही बन पायेगा, "मत्सर तो विद्वान एवं धनिक दोनो को सताता है" आजकल के लोग शरीर की अपेक्षा मन से अधिक पाप करते है।
मद से बचने का उपाय है मथुरा शब्द को उलटने से "राथुम" शब्द बनेगा , और बीच से "थु" अक्षर निकालने पर "राम" रह जायेगा, यदि इसी "राम" को सदैव मुख मे रखा जाय तो शरीर मथुरा बन जायेगा , जव परमात्मा से हमेशा सम्बन्ध बना रहेगा तो "राम " रहेगा नही तो "थू" ही रह जायेगा और सभी यमदूत "थू थू " करेगें किसी ने कहा है ---
"मथुरा विपरीतं च मध्याक्षर वर्जित:।
येन मुखे युगलं नास्ति तन्मुखे मध्याक्षर:।।"
गो शब्द का अर्थ है - इन्द्रिय, भक्ति, गाय, उपनिषद , आदि इन्द्रियों को विषयों की ओर बढ़ने देने की अपेक्षा प्रभु की मोड़ दें क्योंकि उनके स्वामी प्रभु ही है, मन में भगवद स्मरण होता रहे, एक एक इन्द्रिय को भक्ति रस में सराबोर करने से हृदय गोकुल बनेगा और परमानंद का प्राकट्य होगा।

