#📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🙏देवी कात्यायनी 🌸
श्री दुर्गा सप्तशती भाषा
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सातवाँ अध्याय
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ऊँ नमश्चण्डिकायै नम:
(चण्ड और मुण्ड का वध)
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं
न्यस्तैकाङि्घ्रं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्।।
महर्षि मेधा ने कहा-दैत्यराज की आज्ञा पाकर चण्ड और मुण्ड चतुरंगिनी सेना को साथ लेकर हथियार उठाये हुए देवी से लड़ने के लिए चल दिये। हिमालय पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने मुस्कुराती हुई देवी जो सिंह पर बैठी हुई थी देखा, जब असुर उनको पकड़ने के लिए तलवारें लेकर उनकी ओर बढ़े तब अम्बिका को उन पर बड़ा क्रोध आया और मारे क्रोध के उनका मुख काला पड़ गया, उनकी भृकुटियाँ चढ़ गई और उनके ललाट में से अत्यंत भयंकर तथा अत्यंत विस्तृत मुख वाली, लाल आँखों वाली काली प्रकट हुई जो कि अपने हाथों में तलवार और पाश लिये हुए थी, वह विचित्र खड्ग धारण किये हुए थी तथा चीते के चर्म की साड़ी एवं नरमुण्डों की माला पहन रखी थी। उसका माँस सूखा हुआ था और शरीर केवल हड्डियों का ढाँचा था और जो भयंकर शब्द से दिशाओं को पूर्ण कर रही थी, वह असुर सेना पर टूट पड़ी और दैत्यों का भक्षण करने लगी।
वह पार्श्व रक्षकों, अंकुशधारी महावतों, हाथियों पर सवार योद्धाओं और घण्टा सहित हाथियों को एक हाथ से पकड़-2 कर अपने मुँह में डाल रही थी और इसी प्रकार वह घोड़ों, रथों, सारथियों व रथों में बैठे हुए सैनिकों को मुँह में डालकर भयानक रूप से चबा रही थी, किसी के केश पकड़कर, किसी को पैरों से दबाकर और किसी दैत्य को छाती से मसलकर मार रही थी, वह दैत्य के छोड़े हुए बड़े-2 अस्त्र-शस्त्रों को मुँह में पकड़कर और क्रोध में भर उनको दाँतों में पीस रही थी, उसने कई बड़े-2 असुर भक्षण कर डाले, कितनों को रौंद डाला और कितनी उसकी मार के मारे भाग गये, कितनों को उसने तलवार से मार डाला, कितनों को अपने दाँतों से समाप्त कर दिया और इस प्रकार से देवी ने क्षण भर में सम्पूर्ण दैत्य सेना को नष्ट कर दिया।
यह देख महा पराक्रमी चण्ड काली देवी की ओर पलका और मुण्ड ने भी देवी पर अपने भयानक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी और अपने हजारों चक्र उस पर छोड़े, उस समय वह चमकते हुए बाण व चक्र देवी के मुख में प्रविष्ट हुए इस प्रकार दिख रहे थे जैसे मानो बहुत से सूर्य मेघों की घटा में प्रविष्ट हो रहे हों, इसके पश्चात भयंकर शब्द के साथ काली ने अत्यन्त जोश में भरकर विकट अट्टहास किया। उसका भयंकर मुख देखा नहीं जाता था, उसके मुख से श्वेत दाँतों की पंक्ति चमक रही थी, फिर उसने तलवार हाथ में लेकर “हूँ” शब्द कहकर चण्ड के ऊपर आक्रमण किया और उसके केश पकड़कर उसका सिर काटकर अलग कर दिया, चण्ड को मरा हुआ देखकर मुण्ड देवी की ओर लपखा परन्तु देवी ने क्रोध में भरे उसे भी अपनी तलवार से यमलोक पहुँचा दिया।
चण्ड और मुण्ड को मरा हुआ देखकर उसकी बाकी बची हुई सेना वहाँ से भाग गई। इसके पश्चात काली चण्ड और मुण्ड के कटे हुए सिरों को लेकर चण्डिका के पास गई और प्रचण्ड अट्टहास के साथ कहने लगी-हे देवी! चण्ड और मुण्ड दो महा दैत्यों को मारकर तुम्हें भेंट कर दिया है, अब शुम्भ और निशुम्भ का तुमको स्वयं वध करना है।
महर्षि मेधा ने कहा-वहाँ लाये हुए चण्ड और मुण्ड के सिरों को देखकर कल्याणकायी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा-हे देवी! तुम चूँकि चण्ड और मुण्ड को मेरे पास लेकर आई हो, अत: संसार में चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।
सातवाँ अध्याय पूर्ण
साभार~ पं देव शर्मा💐
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श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)
(सप्तमोध्याय)
।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।
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सप्तमोऽध्यायः
चण्ड और मुण्डका वध
ध्यानम्
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वरती श्यामलाङ्गीं
न्यस्तैकाङ्घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम् ।
कह्वाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रं
मातङ्गीं शङ्खपत्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्धासिभालाम् ॥
मैं मातंगीदेवी का ध्यान करता हूँ। वे रत्नमय सिंहासन पर बैठकर पढ़ते हुए तोते का मधुर शब्द सुन रही हैं। उनके शरीर का वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमल पर रखे हुए हैं और मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा कह्वार-पुष्पों की माला धारण किये वीणा बजाती हैं। उनके अंग में कसी हुई चोली शोभा पा रही है। वे लाल रंग की साड़ी पहने हाथ में शंखमय पात्र लिये हुए हैं। उनके वदन पर मधु का हलका-हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाट में बेंदी शोभा दे रही है ।
'ॐ' ऋषिरुवाच॥ १ ॥
ऋषि कहते हैं-॥ १॥
आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः।
चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः॥ २ ॥
तदनन्तर शुम्भ की आज्ञा पाकर वे चण्ड-
मुण्ड आदि दैत्य चतुरंगिणी सेना के साथ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो चल दिये॥ २॥
ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने ॥ ३ ॥
फिर गिरिराज हिमालय के सुवर्णमय ऊँचे शिखर पर पहुँचकर उन्होंने सिंहप र बैठी देवी को देखा। वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं॥ ३॥
ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः।
आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः ॥ ४ ॥
उन्हें देखकर दैत्यलोग तत्परता से पकड़ने का उद्योग करने लगे। किसी ने धनुष तान
लिया, किसी ने तलवार सँभाली और कुछ लोग देवी के पास आकर खड़े हो गये॥ ४॥
ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति ।
कोपेन चास्या वदनं मषींवर्णमभूत्तदा ॥ ५ ॥
तब अम्बिका ने उन शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध किया। उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया॥ ५॥
भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्भुतम्।
काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ॥ ६ ॥
ललाट में भौंहें टेढ़ी हो गयीं और वहाँ से
तुरंत विकराल मुखी काली प्रकट हुईं, जो तलवार और पाश लिये हुए थीं ॥ ६ ॥
विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ॥ ७ ॥
वे विचित्र खट्वांग धारण किये और चीते के चर्म की साड़ी पहने नर-मुण्डों की माला से विभूषित थीं। उनके शरीर का मांस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढाँचा था, जिससे वे अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थीं॥ ७॥
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ॥ ८ ॥
उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं उनकी आँखें भीतर को धँसी हुई और कुछ लाल थीं, वे अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को
गुँजा रही थीं॥ ८॥
सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान्।
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ॥ ९॥
बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुई वे कालिका देवी बड़े वेग से दैत्यों की उस सेनापर टूट पड़ीं और उन सबको भक्षण करने लगीं ॥ ९ ॥
पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान् ।
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान्॥ १०॥
वे पार्श्वरक्ष कों, अंकुशधारी महावतों, योद्धाओं और घण्टा सहित कितने ही
हाथियों को एक ही हाथ से पकड़कर मुँह में डाल लेती थीं॥ १० ॥
तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह।
निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् ॥ ११॥
इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथि के साथ रथी सैनिकों को मुँह में डालकर वे उन्हें बड़े भयानक रूप से चबा डालती थीं॥ ११ ॥
एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम्।
पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ॥ १२ ॥
किसी के बाल पकड़ लेतीं, किसी का गला दबा देतीं, किसी को पैरों से कुचल डालतीं और किसी को छाती के धक्के से गिराकर मार डालती थीं॥ १२ ॥
तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः।
मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि ॥ १३ ॥
वे असुरों के छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुँहसे पकड़ लेतीं और रोष में भरकर उनको दाँतों से पीस डालती थीं॥ १३ ॥
ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा।
बलिनां तद् बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम् ।
॥ १४॥
काली ने बलवान् एवं दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद डाली, खा डाली और कितनों को मार भगाया॥ १४॥
असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः
जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा ॥ १५ ॥
कोई तलवार के घाट उतारे गये, कोई खट्वांग से पीटे गये और कितने ही असुर दाँतों के अग्रभाग से कुचले जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए॥ १५॥
क्षणेन तद् बलं सर्वमसुराणां निपातितम् ।
दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् ॥ १६ ॥
इस प्रकार देवी ने असुरों की उस सारी सेना को क्षणभर में मार गिराया। यह देख चण्ड उन अत्यन्त भयानक कालीदेवी की ओर दौड़ा॥ १६॥
शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः।
छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहसत्रशः॥ १७ ॥
तथा महादैत्य मुण्डने भी अत्यन्त भयंकर बाणों की वर्षा से तथा हजारों बार चलाये
हुए चक्रों से उन भयानक नेत्रों वाली देवी को आच्छादित कर दिया ॥ १७ ॥
तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम् ।
बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् ॥ १८॥
वे अनेकों चक्र देवी के मुख में समाते हुए ऐसे जान पड़े, मानो सूर्य के बहुतेरे
मण्डल बादलों के उदर में प्रवेश कर रहे हों ॥ १८ ॥
ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी।
कालीकरालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला ॥१९ ॥
तब भयंकर गर्जना करने वाली काली ने अत्यन्त रोष में भरकर विकट अट्टहास किया। उस समय उनके विकराल वदन के भीतर कठिनता से देखे जा सकने वाले दाँतों की प्रभा से वे अत्यन्त उज्ज्वल दिखायी देती थीं॥ १९॥
उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत।
गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत्* ॥ २०॥
देवी ने बहुत बड़ी तलवार हाथ में
ले ' हं का उच्चारण करके चण्ड पर धावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवार से उसका मस्तक काट डाला ॥ २० ॥
अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् ।
तमप्यपातयद्भमौ सा खड्गाभिहतं रुषा ॥ २१॥
चण्ड को मारा गया देखकर मुण्ड भी देवी की ओर दौड़ा। तब देवी ने रोष में
भरकर उसे भी तलवार से घायल करके धरती पर सुला दिया॥ २१ ॥
हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।
मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् ॥ २२॥
महापराक्रमी चण्ड और मुण्ड को मारा गया देख मरने से बची हुई बाकी सेना भय से व्याकुल हो चारों ओर भाग गयी॥ २२ ॥
शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च।
प्राह प्रचण्डाटृटहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् ॥ २३॥
तदनन्तर काली ने चण्ड और मुण्डका मस्तक हाथ में ले चण्डिका के पास जाकर प्रचण्ड अट्टहास करते हुए कहा-॥ २३॥
मया तवात्रोपहतौ चण्डमुण्डौ महापशू।
युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि ॥ २४॥
'देवि! मैंने चण्ड और मुण्ड नामक इन दो महापशुओं को तुम्हें भेंट किया है। अब युद्धयज्ञ में तुम शुम्भ और निशुम्भ का स्वयं ही वध करना' ॥ २४ ॥
ऋषिरुवाच॥ २५ ॥
ऋषि कहते हैं-॥ २५ ॥
तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ।
उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः ॥ २६ ॥
वहाँ लाये हुए उन चण्ड-मुण्ड नामक
महादैत्योंको देखकर कल्याणमयी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा- ॥२६॥
यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि ॥ ॐ॥ २७ ॥
'देवि! तुम चण्ड और मुण्ड को लेकर मेरे पास आयी हो, इसलिये संसार में
चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी' ॥ २७॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'चण्ड-मुण्ड-वध' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।॥ ७ ॥
क्रमशः....
अगले लेख में अष्टम अध्याय जय माता जी की।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼
🚩 *"सनातन परिवार"* 🚩
*की प्रस्तुति*
🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴
🚩 *" शारदीय नवरात्रि " पर विशेष* 🚩
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*महामाई आदिशक्ति भगवती के पूजन का पर्व नवरात्र शनै: शनै: पूर्णता की ओर अग्रसर है | महामाया इस सृष्टि के कण - कण में विद्यमान हैं | जहाँ जैसी आवश्यकता पड़ी है वैसा स्वरूप मैया ने धारण करके लोक कल्याण किया है | परंतु महामाया के नौ रूप विशेष रूप से पूजनीय हैं क्योंकि इन्हीं नौ रूपों में नारी का सम्पूर्ण जीवन रहस्य छुपा हुआ है | नवरात्र का छठा दिवस जगदम्बा के छठवें स्वरूप माता "कात्यायनी" का पूजन करके मनाया जाता है | मैया कात्यायनी वैसे तो सभी प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करने वाली हैं परंतु विशेष रूप से कन्याओं द्वारा मनोवांछित वर (पति) पाने के लिए इनके पूजन का विधान है | श्रीमद्भागवत महापुराण में ब्रज की गोपिकाओं के द्वारा भगवान कन्हैया को पतिरूप में पाने के लिए कात्यायन व्रत के वर्णन की कथा मिलती है | महामाया कात्यायनी के प्राकट्य के विषय में कथा मिलती है कि महर्षि कात्यायन ने आदिशक्ति जगदम्बा की घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर जगदम्बा ने उन्हें दर्शन दिया | तपस्या करने का कारण पूछने पर महर्षि कात्यायन ने बताया कि वे स्वयं जगदम्बा को पुत्री रूप में पाना चाहते हैं | मनोवांछित वरदान देकर यथा समय जगदम्बा जी महर्षि के घर कन्या रूप में प्रकट हुईं , इसीलिए उनका नाम कात्यायनी पड़ा | विचार काजिए कि महर्षि कात्यायन में इस सृष्टि में नारी जाति के महत्व को जानकरके महामाया से एक कन्या का वरदान माँगा | परंतु आज हम क्या कर रहे हैं |*
*आज मनुष्य बहुत प्रेम से नवरात्र में "दुर्गापूजा" का आयोजन करते हैं यह नौ दिन पूर्णरूप से भक्तिमय रहता है | कन्यापूजन करके मनुष्य स्वयं को कृतार्थ मानता है | परंतु जिस प्रकार महर्षि कात्यायन ने कन्या का वरदान माँगा क्या उसी प्रकार की भक्ति हमारी भी है | शायद आज हमारी मानसिकता बदल गयी है | आज के मनुष्य का दोहरा चरित्र देखने को मिलता है | दूसरों की कन्या बुलाकर कन्या पूजन करने वाले स्वयं अपने घर में कन्या नहीं चाहते हैं | आज प्रगतिशील युग में गर्भ की जाँच कराके कन्याओं की गर्भ में ही हत्या करा देने वाले कन्या पूजन करने के लिए मुहल्ले भर में कन्याओं को खोजा करते हैं | विचार कीजिए कि जिस प्रकार आज लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के जन्म का अनुपात कम होता जा रहा है आने वाला भविष्य क्या होगा ?? मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इस दुर्गापूजा के आयोजन करने वालों से पूंछना चाहता हूँ कि जब घर में कन्या सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं तो दुर्गा पूजन करने का क्या अर्थ है | आज समाज इतना विकृत हो गया है कि एक ओर तो दुर्गापूजा मनाया जा रहा है दूसरी ओर पांडालों में सजी भव्य मूर्तियों का दर्शन करने जा रही कन्याओं पर कुछ सिरफिरे अश्लील छींटाकशी करते हुए देखे एवं पकड़े जाते हैं | विचार कीजिए कि ऐसा करने वाले कैसी दुर्गापूजा एवं कन्याओं की पूजा का पर्व मना रहे हैं |*
*अपने - अपने घर में कन्या भ्रूण हत्या रोकने पर ही कन्या पूजन का फल मिलना है अन्यथा दिखावा मात्र करने से कुछ नहीं होने वाला है |*
🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺
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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना*🙏🏻🙏🏻🌹
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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#🙏देवी कात्यायनी 🌸
#🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏देवी कात्यायनी 🌸 #🙏जय माता दी📿
🪷 || माँ कात्यायनी नमोऽस्तुते || 🪷
माँ दुर्गा द्वारा अपने भक्तों के व लोकमंगल के लिए विभिन्न चरित्र किए जाते हैं। माँ की प्रत्येक लीला मानव जीवन को कुछ विशेष संदेश प्रदान करती हुई अपने भक्तों के कल्याण के लिए ही होती हैं। ऐसे ही माँ दुर्गा द्वारा रक्तबीज असुर का जिस तरह से नाश किया जाता है, वह बड़ा ही प्रतीकात्मक व संदेशप्रद है।
यह रक्तबीज कुछ और नहीं हमारी कामनाएँ ही हैं, जो एक के बाद एक जन्म लेती रहती हैं। एक इच्छा पूर्ण हुई कि दूसरी और तीसरी अपने आप जन्म ले लेती हैं। हम निरंतर इनसे संघर्ष भी करते रहते हैं, लेकिन निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि हमारे अधिकतर प्रयास इच्छापूर्ति की दिशा में होते हैं, इच्छा दमन की दिशा में नहीं।
रक्तबीज तब तक नहीं मरता जब तक उसके रक्त की एक भी बूँद शेष रहती है। ऐसे ही हमें भी हमारी अकारण की इच्छाओं और कामनाओं को पी जाना होगा जो व्यर्थ में दुःखी और व्यथित करती रहती हैं। कामनाओं को पी जाना अर्थात उन्हें विवेकपूर्ण नियंत्रित करना है। नवरात्रि के छठवें दिवस में माँ कात्यायनी का पूजन किया जाता है।
जय माता दी
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विभीषण आकाश मार्ग से यही सब मनोरथ करते हुए आ रहा है और सागर के इस तट पर आकर जैसे ही उसने धरती पर कदम रखा और प्रभु श्री राम की शरणागति हेतु कदम बढ़ाया उसका हृदय प्रेम से लबालब हो गया, नयन प्रेमरस से सरोबार हो गए, रखवाले वानरों ने उसको देखा तो बड़े सोच में पड़ गए कि ये क्या विचित्र जीव है, शरीर से तो राक्षस है, मुखमुद्रा से भक्त नजर आता है, कदम यहां वहां पड़ रहे हैं जानो किसी (प्रेम के) नशे में हो, लगता है कि प्रभु के दूत हनुमान जी के जबाब में लंकापति रावण ने कोई विशिष्ट दूत भेजा है।
।। राम राम जी।।
##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
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🙏 जय श्री कृष्ण 🙏
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चण्डिका सप्तवर्षा स्यादष्टवर्षा च शाम्भवी।
ऐश्वर्यधनकामश्च चण्डिकां परिपूजयेत्।।
पूजयेच्छाम्भवीं नित्यं नृपसंमोहनाय च।
दुःखदारिद्र्यनाशाय सङ्ग्रामे विजयाय च।।
देवीभागवत ३/२६/४२,४८,४९
"नवरात्र में कन्या पूजन में सात वर्ष की 'चण्डिका' कहलाती है, धन तथा ऐश्वर्य की अभिलाषा रखने वालों को 'चण्डिका' कन्या की पूजा करनी चाहिए। आठ वर्ष की कन्या 'शाम्भवी' कहलाती है । सम्मोहन, दुख-दारिद्र्य के नाम तथा संग्राम में विजय के लिये 'शाम्भवी' कन्या की नित्य पूजा करना चाहिए ।"
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विद्यार्थी सर्वविद्यां वै प्राप्नोति व्रतसाधनात् ।
राजभ्रष्टो नृपो राज्यं समवाप्नोति सर्वदा ।।
देवीभागवतपुराण ०३/२७/१८
"नवरात्र व्रत का अनुष्ठान करने से विद्या चाहने वाला मनुष्य समस्त विद्या प्राप्त कर लेता है और अपने राज्य से वंचित राजा फिर से अपना राज्य प्राप्त कर लेता है।‘‘
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🙏 जय माता दी 🙏
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#🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🕉️सनातन धर्म🚩
श्री दुर्गा सप्तशती भाषा
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(हिन्दी पाठ) छठा अध्याय
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ऊँ नमश्चण्डिकायै नम:
(धूम्रलोचन वध)
ध्यानम्
ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली-
भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम्।
मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां
सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये।।
महर्षि मेधा ने कहा-देवी की बात सुनकर दूत क्रोध में भरा हुआ वहाँ से असुरेन्द्र के पास पहुँचा और सारा वृतान्त उसे कह सुनाया। दूत की बात सुन असुरेन्द्र के क्रोध का पारावर न रहा और उसने अपने सेनापति धूम्रलोचन से कहा-धूम्रलोचन! तुम अपनी सेना सहित शीघ्र वहाँ जाओ और उस दुष्टा के केशों को पकड़कर उसे घसीटते हुए यहाँ ले आओ। यदि उसकी रक्षा के लिए कोई दूसरा खड़ा हो, चाहे वह देवता, यक्ष अथवा गन्धर्व ही क्यों न हो, उसको तुम अवश्य मार डालना। महर्षि मेधा ने कहा-शुम्भ के इस प्रकार आज्ञा देने पर धूम्रलोचन साठ हजार राक्षसों की सेना को साथ लेकर वहाँ पहुँचा और देवी को देख ललकार कर कहने लगा-’अरी तू अभी शुम्भ और निशुम्भ के पास चल! यदि तू प्रसन्नता पूर्वक मेरे साथ न चलेगी तो मैं तेरे केशों को पकड़ घसीटता हुआ तुझे ले चलूँगा।’ देवी बोली-’असुरेन्द्र का भेजा हुआ तेरे जैसा बलवान यदि बलपूर्वक मुझे ले जावेगा तो ऎसी दशा में मैं तुम्हारा कर ही क्या सकती हूँ?’
महर्षि मेधा ने कहा-ऎसा कहने पर धूम्रलोचन उसकी ओर लपका, किन्तु देवी ने उसे अपनी हुंकार से ही भस्म कर डाला। यह देखकर असुर सेना क्रुद्ध होकर देवी की ओर बढ़ी, परन्तु अम्बिका ने उन पर तीखें बाणों, शक्तियों तथा फरसों की वर्षा आरम्भ कर दी, इतने में देवी का वाहन भी अपनी ग्रीवा के बालों को झटकता हुआ और बड़ा भारी शब्द करता हुआ असुर सेना में कूद पड़ा, उसने कई असुर अपने पंजों से, कई अपने जबड़ों से और कई को धरती पर पटककर अपनी दाढ़ों से घायल कर के मार डाला, उसने कई असुरों के अपने नख से पेट फाड़ डाले और कई असुरों का तो केवल थप्पड़ मारकर सिर धड़ से अलग कर दिया।
कई असुरों की भुजाएँ और सिर तोड़ डाले और गर्दन के बालों को हिलाते हुए उसने कई असुरों को पकड़कर उनके पेट फाड़कर उनका रक्त पी डाला। इस प्रकार देवी के उस महा बलवान सिंह ने क्षणभर में असुर सेना को समाप्त कर दिया। शुम्भ ने जब यह सुना कि देवी ने धूम्रलोचन असुर को मार डाला है और उसके सिंह ने सारी सेना का संहार कर डाला है तब उसको बड़ा क्रोध आया। उसके मारे क्रोध के ओंठ फड़कने लगे और उसने चण्ड तथा मुण्ड नामक महा असुरों को आज्ञा दी-हे चण्ड! हे मुण्ड! तुम अपने साथ एक बड़ी सेना लेकर वहाँ जाओ और उस देवी के बाल पकड़कर उसे बाँधकर तुरन्त यहाँ ले आओ। यदि उसको यहाँ लाने में किसी प्रकार का सन्देह हो तो अपनी सेना सहित उससे लड़ते हुए उसको मार डालो और जब वह दुष्टा और उसका सिंह दोनो मारे जावें, तब भी उसको बाँधकर यहाँ ले आना।
छठा अध्याय समाप्त
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:।
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#🙏शुभ नवरात्रि💐 #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏देवी कात्यायनी 🌸 #🙏जय माता दी📿
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श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)
(षष्ठोध्याय)
।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।
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षष्ठोऽध्यायः
धूम्रलोचन-वध
ध्यानम्
ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली
भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्धासिताम्।
मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां
सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं
चिन्तये॥
मैं सर्वज्ञेश्वर भैरव के अंक में निवास करने वाली परमोत्कृष्ट पद्मावती देवी का चिन्तन करता हूँ। वे नागराज के आसन पर बैठी हैं, नागों के फणों में सुशोभित होने वाली मणियों की विशाल माला से उनकी देहलता उद्भासित हो रही है। सूर्य के समान उनका तेज है, तीन नेत्र उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वे हाथों में माला, कुम्भ, कपाल और कमल लिये हुए हैं तथा उनके मस्तक में अर्धचन्द्र का मुकुट सुशोभित है।
ॐ' ऋषिरुवाच॥ १ ॥
ऋषि कहते हैं-॥१ ॥
इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोऽमर्षपूरितः।
समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात् ॥ २॥
देवी का यह कथन सुनकर दूत को बड़ा अमर्ष हुआ और उसने दैत्यराज के पास जाकर सब समाचार विस्तारपूर्वक कह
सुनाया॥ २ ॥
तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकण्य्यासुरराट् ततः।
सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम् ॥ ३ ॥
दूत के उस वचन को सुनकर दैत्यराज कुपित हो उठा और दैत्यसेनापति धूम्रलोचनसे बोला- ॥ ३ ॥
हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारितः ।
तामानय बलाद् दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम् ॥ ४ ॥
धूम्रलोचन! तुम शीघ्र अपनी सेना साथ लेकर जाओ और उस दुष्टा के केश पकड़कर घसीटते हुए उसे बलपूर्वक यहाँ ले आओ ॥ ४ ॥
तत्परित्राणदः कश्चिद्यदि वोत्तिष्ठतेऽपरः ।
स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा॥ ५ ॥
उसकी रक्षा करने के लिये यदि कोई दूसरा खड़ा हो तो वह देवता, यक्ष अथवा गरन्धर्व ही क्यों न हो, उसे अवश्य मार डालना'॥ ५ ॥
ऋषिरुवाच॥ ६॥
ऋषि कहते हैं-॥६॥
तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्यो धूम्रलोचनः ।
वृतः षष्ट्या सहस्त्राणामसुराणां द्रुतं ययौ॥ ७ ॥
शुम्भ के इस प्रकार आज्ञा देने पर वह धूम्रलोचन दैत्य साठ हजार असुरों की सेना को साथ लेकर वहाँसे तुरंत चल दिया॥ ७ ॥
स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तुहिनाचलसंस्थिताम्।
जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ८ ॥
न चेत्प्रीत्याद्य भवती मद्धत्तरमुपैष्यति।
ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम् ॥ ९ ॥
वहाँ पहुँचकर उसने हिमालय पर रहने वाली देवी को देखा और ललकारकर कहा- 'अरी ! तू शुम्भ-निशुम्भ के पास चल । यदि इस समय प्रसन्नतापूर्वक मेरे स्वामी के समीप नहीं चलेगी तो मैं बलपूर्वक झोंटा पकड़कर घसीटते हुए तुझे ले चलूँगा'॥ ८-९॥
देव्युवाच॥ १० ॥
देवी बोलीं-॥ १०॥
दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान् बलसंवृतः ।
बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम् ।॥ ११ ॥
तुम्हें दैत्यों के राजाने भेजा है, तुम स्वयं भी बलवान् हो और तुम्हारे साथ विशाल सेना भी है; ऐसी दशा में यदि मुझे बलपूर्वक ले
चलोगे तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ? ॥ ११ ॥
ऋषिरुवाच॥ १२॥
ऋषि कहते हैं-॥ १२॥
इत्युक्तः सोऽभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः ।
हुंकारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका ततः ॥ १३ ॥
देवीके यों कहने पर असुर धूम्रलोचन उनकी
ओर दौड़ा, तब अम्बिकाने 'हुं' शब्द के उच्चारणमात्र से उसे भस्म कर दिया॥ १३ ॥
अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका'।
ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्तिपरश्वधैः ॥ १४॥
फिर तो क्रोधमें भरी हुई दैत्यों की विशाल सेना और अम्बिका ने एक-दूसरे पर तीखे सायकों, शक्तियों तथा फरसों की वर्षा आरम्भ की ॥ १४॥
ततो धुतसटः कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम् ।
पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहन: ॥ १५ ॥।
इतने में ही देवी का वाहन सिंह क्रोध में भरकर भयंकर गर्जना करके गर्दन के
बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में कूद पड़ा ॥ १५॥
कांश्चित् करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान्।
आक्रम्य चाधरेणान्यान् स जघान* महासुरान् ॥ १६॥
उसने कुछ दैत्यों को पंजों की मार से, कितनों को अपने जबड़ों से और कितने ही महादैत्यों को पटककर ओठ की दाढ़ों से घायल करके मार डाला॥ १६ ॥
केषांचित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केसरी"।
तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक् ॥ १७॥
उस सिंह ने अपने नखों से कितनों के पेट फाड़ डाले और थप्पड़ मारकर कितनों के सिर धड़ से अलग कर दिये॥ १७॥
विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे।
पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः ॥ १८॥
कितनों की भुजाएँ और मस्तक काट डाले तथा अपनी गर्दन के बाल हिलाते हुए उसने दूसरे दैत्यों के पेट फाड़कर उनका रक्त चूस लिया॥ १८॥
क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना ।
तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना ॥ १९॥
अत्यन्त क्रोध में भरे हुए देवी के वाहन उस महाबली सिंहने क्षणभर में ही असुरों की सारी सेना का संहार कर डाला॥ १९ ॥
श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम् ।
बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः॥ २०॥
चुकोप दैत्याधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः।
आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ॥ २१ ॥
शुम्भने जब सुना कि देवी ने धूम्रलोचन असुर को मार डाला तथा उसके सिंह ने सारी सेना का सफाया कर डाला, तब उस दैत्यराज को बड़ा क्रोध हुआ। उसका ओठ कॉँपने लगा। उसने चण्ड और मुण्ड नामक दो महादैत्यों को आज्ञा दी-॥ २०-२१ ॥
हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुभि: परिवारितौ ।
तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु॥ २२ ॥
कैशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि।
तदाशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम् ॥ २३॥
'हे चण्ड! और हे मुण्ड! तुमलोग बहुत बड़ी सेना लेकर वहाँ जाओ, उस देवी के झोंटे पकड़कर अथवा उसे बाँधकर शीघ्र यहाँ ले आओ। यदि इस प्रकार उसको लानेमें संदेह हो तो युद्धमें सब प्रकारके अस्त्र शस्त्रों
तथा समस्त आसुरी सेना का प्रयोग करके उसकी हत्या कर डालना।॥ २२-२३॥
तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते।
शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम्। ॥ॐ ॥ २४॥
उस दुष्टाकी हत्या होने तथा सिंह के भी मारे जाने पर उस अम्बिका को बाँधकर साथ ले शीघ्र ही लौट आना' ॥ २४॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शुम्भनिशुम्भ सेनानी धूम्रलोचन वधो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'धूम्रलोचन- वध' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ॥ ६ ॥
क्रमशः....
अगले लेख में सप्तम अध्याय जय माता जी की।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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*इस सृष्टि का मूल कही जाने वाली नारी के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करते हुए हम नवरात्र के पाँचवे दिन में प्रवेश कर गये हैं | नवरात्र का पाँचवा दिन भगवती "स्कन्दमाता" को समर्पित है | नवरात्रि की नौ देवियों में ही नारी का सम्पूर्ण जीवन निहित है | गर्भधारण करके जो "कूष्माण्डा" कहलाती है वही पुत्र को जन्म देकर "स्कन्दमाता" हो जाती है , जो मातृत्व का अवतार है | लोग बहुत प्रेम से माता स्कन्दमाता का पूजन करके सुख - समृद्धि की कामना करता है | माता वह शब्द है जिसके बिना संसार की परिकल्पना करना ही व्यर्थ है | एक मां अपने पुत्र को गर्भधारण करने से लेकर जन्म देने तक कितने कष्ट उठाती है यह एक माँ ही समझ सकती है | फिर पुत्र का लालन पालन करना भी किसी तपस्या से कम नहीं होता | एक माँ की सबसे बड़ी कामना होती है कि वह अपने पुत्र का विवाह करे और एक चाँद सी बहू घर में पदार्पण करे | वह शुभ समय जब उसके जीवन में आता है तो स्वयं को धन्य मानती है और बड़े हर्षोल्लास से बहू का स्वागत करती है, आरती उतारकर घर में प्रवेश कराती है | परन्तु माँ के स्वप्नों पर तुषारापात तब होता है जब वही बहू उसे कुछ भी नहीं समझती और बात बात में झगड़ने लगने लगती है | और एक माँ स्वयं को तब मरा हुआ मान लेती जब उसका वह पुत्र (जिसके लिए उसने रात रात भर जाग व्यतीत किया होता है ) भी पत्नी की ही बात मानकर अपने माँ का ही दोष देने लगता है | और फिर प्रारम्भ होता है एक माँ का नारकीय जीवन | पग पग पर तिरस्कृत होती हुई भी वह अपने पुत्र के लिए मंगलकामना ही करती रहती है | कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि, कुमाता न भवति" ---- पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माता कभी कुमाता नहीं होती है |*
*आज भी यदि समाज में दृष्टि दौड़ाई जाय तो यही देखने को मिलता है कि पुत्र कितना भी कष्ट दे , अपमान करे परन्तु माता कभी अपने पुत्र का अनिष्ट सोंच भी नहीं सकती है | एक दिन ऐसा भी आता है जब बहू कह देती है कि मैं इनके साथ नहीं रह पाऊँगी , और पुत्र माँ को वृद्धाश्रम पहुँचा देता है | वह मूर्ख यह भी नहीं सोंच पाता कि यही वह शक्ति है जिसकी तपस्या स्वरूप उसने इस संसार का दर्शन पाया है | अपनी माता को घर से निष्कासित करके वह जब मन्दिर पहुँचकर "स्कन्दमाता" का पूजन करता है तो उसकी मूर्खता पर अनायास हंसी ही लगती है | लोग कहते हैं कि माँ के चरणों के नीचे स्वर्ग होता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" पूंछना चाहता हूँ कि अपने स्वर्ग जाने के स्रोत को तिरस्कृत करके जब मनुष्य स्कन्दमाता का पूजन करके स्वर्ग की कामना करता है तो सोंचो कि भगवती आपकी कितनी विनती स्वीकार करेंगी | आप उन्ही के अंश मातृशक्ति को अनदेखा करके उन्हीं से कृपा की कामना करेंगे तो क्या वह आपकी कामना पूरी करेंगी ?? कदापि नहीं | क्योंकि जब एक माँ के हृदय में आपने शूल चुभा दिया तो वह शूल सीधा आदिशक्ति भवानी के ही हृदय को भेदता है | फिर सुख कहाँ से पाओगे | यदि माँ स्कन्दमाता की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको सबसे पहले अपनी माँ का सम्मान करना होगा | यदि वह कराहती रहे और आप उसे एक सूखी रोटी न देकर भगवती को पंचमेवे -मिष्ठान्नों का भोग लगायेंगे तो माँ प्रसन्न न होकरके आप पर कुपित ही होगी |*
*अत: प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि अपनी जन्मदात्री माँ की पूजा न कर पायें तो सम्मान तो कर ही सकते हैं , यह संकल्प आज सबको लेना ही पड़ेगा अन्यथा पूजन करना व्यर्थ ही है |*
🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺
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प्रभु श्री राम की शरण में जाते हुए आकाश मार्ग में विभीषण मन में मनोरथ कर रहा है कि मुझ अपात्र को भी प्रभु की अकारण कृपा वश आज उन दिव्य चरणों के दर्शन प्राप्त होंगे जिनकी महिमा अपरंपार है, जो भरत जी बिना राम जी को साथ लिए वापस अयोध्या कभी नहीं लौटते वो भी प्रभु के चरणों के स्पर्श से पवित्र हुई चरण पादुकाओं को अपने मस्तक पर विराजमान करके वापस लौट गए व अपने हृदय में प्रभु के चरणकमलों की छवि को स्थायी रूप से बसा लिया।
। राम राम जी।
##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩