#राधे कृष्ण
"वारी मेरे लटकन पग धरो छतियाँ।
कमलनैन बलि जाऊँ वदन की
शोभित न्हेंनी न्हेंनी द्वै दूध की दंतियाँ॥"
"लेत उठाय लगाय हियो भरि
प्रेम बिबस लागे दृग ढ़रकन।
लै चली पलना पौढ़ावन लाल को
अरकसाय पौढ़े सुंदरघन॥"
एक ही समय में... एक ही स्वरूप से... एक ही लीला द्वारा ...भिन्न-भिन्न भाववाले भक्तों को... अपने-अपने भावानुसार... भिन्न-भिन्न प्रकार से रसानुभूति कराके... उनका निज स्वरूप में निरोध सिद्ध करानेवाले ... रसराज-रासरसेश्वर- "रसो वै स:" पुष्टिपुरुषोत्तम के चरणकमलों में ...दंडवत् प्रणाम...!!!
...
#जय श्री राम
श्रीराम ने आश्चर्य से पूछा, “तो क्या कुबेर और रावण से भी पहले लंका में माँसभक्षी राक्षस रहते थे? फिर उनका पूर्वज कौन था? यह सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है?”
अगस्त्य जी बोले, “पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने अनेक जल जन्तु बनाये और उनसे समुद्र के जल की रक्षा करने के लिये कहा। तब उन जन्तुओं में से कुछ बोले कि हम इसका रक्षण (रक्षा) करेंगे और कुछ ने कहा कि हम इसका यक्षण (पूजा) करेंगे। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि जो रक्षण करेगा वह राक्षस कहलायेगा और जो यक्षण करेगा वह यक्ष कहलायेगा। इस प्रकार वे दो जातियों में बँट गये।
राक्षसों में हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तपस्या करने चला गया, परन्तु हेति ने भया से विवाह किया जिससे उसके विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्युत्केश के सुकेश नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन पुत्र हुये। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों का प्रेम अटूट हो और हमें कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। उन्होंने विश्वकर्मा से एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनाने के लिये कहा। इस पर विश्वकर्मा ने उन्हें लंकापुरी का पता बताकर भेज दिया। वहाँ वे बड़े आनन्द के साथ रहने लगे।
माल्यवान के वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्र हुये। सुमाली के प्रहस्त्र, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्व, संह्नादि, प्रधस एवं भारकर्ण नाम के दस पुत्र हुये। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुये। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्वासन दिया कि हे ऋषियों! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।
जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुये राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्यागकर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ। राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षसवंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।”
#ॐ नमः शिवाय #शुभ सोमवार
।। भगवान शिव से जुड़े कुछ रोचक तथ्य।।
★ भगवान शिव का कोई माता-पिता नही है. उन्हें अनादि माना गया है. मतलब, जो हमेशा से था. जिसके जन्म की कोई तिथि नही.
★ कथक, भरतनाट्यम करते वक्त भगवान शिव की जो मूर्ति रखी जाती है उसे नटराज कहते है.
★ किसी भी देवी-देवता की टूटी हुई मूर्ति की पूजा नही होती. लेकिन शिवलिंग चाहे कितना भी टूट जाए फिर भी पूजा जाता है.
★ शंकर भगवान की एक बहन भी थी अमावरी. जिसे माता पार्वती की जिद्द पर खुद महादेव ने अपनी माया से बनाया था.
★ भगवान शिव और माता पार्वती का 1 ही पुत्र था. जिसका नाम था कार्तिकेय. गणेश भगवान तो मां पार्वती ने अपने उबटन (शरीर पर लगे लेप) से बनाए थे.
★ भगवान शिव ने गणेश जी का सिर इसलिए काटा था क्योकिं गणेश ने शिव को पार्वती से मिलने नही दिया था. उनकी मां पार्वती ने ऐसा करने के लिए बोला था.
★ भोले बाबा ने तांडव करने के बाद सनकादि के लिए चौदह बार डमरू बजाया था. जिससे माहेश्वर सूत्र यानि संस्कृत व्याकरण का आधार प्रकट हुआ था.
★ शंकर भगवान पर कभी भी केतकी का फुल नही चढ़ाया जाता. क्योंकि यह ब्रह्मा जी के झूठ का गवाह बना था.
★ शिवलिंग पर बेलपत्र तो लगभग सभी चढ़ाते है. लेकिन इसके लिए भी एक ख़ास सावधानी बरतनी पड़ती है कि बिना जल के बेलपत्र नही चढ़ाया जा सकता.
★ शंकर भगवान और शिवलिंग पर कभी भी शंख से जल नही चढ़ाया जाता. क्योकिं शिव जी ने शंखचूड़ को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया था. आपको बता दें, शंखचूड़ की हड्डियों से ही शंख बना था.
★ भगवान शिव के गले में जो सांप लिपटा रहता है उसका नाम है वासुकि. यह शेषनाग के बाद नागों का दूसरा राजा था. भगवान शिव ने खुश होकर इसे गले में डालने का वरदान दिया था.
★ चंद्रमा को भगवान शिव की जटाओं में रहने का वरदान मिला हुआ है.
★ नंदी, जो शंकर भगवान का वाहन और उसके सभी गणों में सबसे ऊपर भी है. वह असल में शिलाद ऋषि को वरदान में प्राप्त पुत्र था. जो बाद में कठोर तप के कारण नंदी बना था.
★ गंगा भगवान शिव के सिर से क्यों बहती है ? देवी गंगा को जब धरती पर उतारने की सोची तो एक समस्या आई कि इनके वेग से तो भारी विनाश हो जाएगा. तब शंकर भगवान को मनाया गया कि पहले गंगा को अपनी ज़टाओं में बाँध लें, फिर अलग-अलग दिशाओं से धीरें-धीरें उन्हें धरती पर उतारें.
★ शंकर भगवान का शरीर नीला इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होने जहर पी लिया था. दरअसल, समुंद्र मंथन के समय 14 चीजें निकली थी. 13 चीजें तो असुरों और देवताओं ने आधी-आधी बाँट ली लेकिन हलाहल नाम का विष लेने को कोई तैयार नही था. ये विष बहुत ही घातक था इसकी एक बूँद भी धरती पर बड़ी तबाही मचा सकती थी. तब भगवान शिव ने इस विष को पीया था. यही से उनका नाम पड़ा नीलकंठ.
★ भगवान शिव को संहार का देवता माना जाता है. इसलिए कहते है, तीसरी आँख बंद ही रहे प्रभु की...
हर हर महादेव ....
#रामायण
राजा दिलीप की कथा
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रघुवंश का आरम्भ राजा दिलीप से होता है । जिसका बड़ा ही सुन्दर और विशद वर्णन महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंशम में किया है । कालिदास ने राजा दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, लव, कुश, अतिथि और बाद के बीस रघुवंशी राजाओं की कथाओं का समायोजन अपने काव्य में किया है। राजा दिलीप की कथा भी उन्हीं में से एक है।
राजा दिलीप बड़े ही धर्मपरायण, गुणवान, बुद्धिमान और धनवान थे । यदि कोई कमी थी तो वह यह थी कि उनके कोई संतान नहीं थी । सभी उपाय करने के बाद भी जब कोई सफलता नहीं मिली तो राजा दिलीप अपनी पत्नी सुदक्षिणा को लेकर महर्षि वशिष्ठ के आश्रम संतान प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे ।
महर्षि वशिष्ठ ने राजा का आथित्य सत्कार किया और आने का प्रयोजन पूछा तो राजा ने अपने निसंतान होने की बात बताई । तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ हे राजन ! तुमसे एक अपराध हुआ है, इसलिए तुम्हारी अभी तक कोई संतान नहीं हुई है ।”
तब राजा दिलीप ने आश्चर्य से पूछा – “ गुरुदेव ! मुझसे ऐसा कोनसा अपराध हुआ है कि मैं अब तक निसंतान हूँ। कृपा करके मुझे बताइए ?”
महर्षि वशिष्ठ बोले – “ राजन ! एक बार की बात है, जब तुम देवताओं की एक युद्ध में सहायता करके लौट रहे थे । तब रास्ते में एक विशाल वटवृक्ष के नीचे देवताओं को भोग और मोक्ष देने वाली कामधेनु विश्राम कर रही थी और उनकी सहचरी गौ मातायें निकट ही चर रही थी।
तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने शीघ्रतावश अपना विमान रोककर उन्हें प्रणाम नहीं किया । जबकि राजन ! यदि रास्ते में कहीं भी गौवंश दिखे तो दायीं ओर होकर राह देते हुयें उन्हें प्रणाम करना चाहिए । यह बात तुम्हे गुरुजनों द्वारा पूर्वकाल में ही बताई जा चुकी थी । लेकिन फिर भी तुमने गौवंश का अपमान और गुरु आज्ञा का उलंघन किया है । इसीलिए राजन ! तुम्हारे घर में अभी तक कोई संतान नहीं हुई ।” महर्षि वशिष्ठ की बात सुनकर राजा दिलीप बड़े दुखी हुए।
आँखों में अश्रु लेकर और विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर राजा दिलीप गुरु वशिष्ठ से प्रार्थना करने लगे – “ गुरुदेव ! मैं मानता हूँ कि मुझसे अपराध हुआ है किन्तु अब इसका कोई तो उपाय होगा ?”
तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ एक उपाय है राजन ! ये है मेरी गाय नंदिनी है जो कामधेनु की ही पुत्री है। इसे ले जाओ और इसके संतुष्ट होने तक दोनों पति – पत्नी इसकी सेवा करो और इसी के दुग्ध का सेवन करो । जब यह संतुष्ट होगी तो तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी ।” ऐसा आशीर्वाद देकर महर्षि वशिष्ठ ने राजा दिलीप को विदा किया।
अब राजा दिलीप प्राण – प्रण से नंदिनी की सेवा में लग गये । जब नंदिनी चलती तो वह भी उसी के साथ – साथ चलते, जब वह रुक जाती तो वह भी रुक जाते । दिनभर उसे चराकर संध्या को उसके दुग्ध का सेवन करके उसी पर निर्वाह करते थे।
एक दिन संयोग से एक सिंह ने नंदिनी पर आक्रमण कर दिया और उसे दबोच लिया । उस समय राजा दिलीप कोई अस्त्र – शस्त्र चलाने में भी असमर्थ हो गया । कोई उपाय न देख राजा दिलीप सिंह से प्रार्थना करने लगे – “ हे वनराज ! कृपा करके नंदिनी को छोड़ दीजिये, यह मेरे गुरु वशिष्ठ की सबसे प्रिय गाय है । मैं आपके भोजन की अन्य व्यवस्था कर दूंगा ।”
तो सिंह बोला – “नहीं राजन ! यह गाय मेरा भोजन है अतः मैं उसे नहीं छोडूंगा । इसके बदले तुम अपने गुरु को सहस्त्रो गायें दे सकते हो ।”
बिलकुल निर्बल होते हुए राजा दिलीप बोले – “ हे वनराज ! आप इसके बदले मुझे खा लो, लेकिन मेरे गुरु की गाय नंदिनी को छोड़ दो ।”
तब सिंह बोला – “यदि तुम्हें प्राणों का मोह नहीं है तो इसके बदले स्वयं को प्रस्तुत करो । मैं इसे अभी छोड़ दूंगा ।”
कोई उपाय न देख राजा दिलीप ने सिंह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और स्वयं सिंह का आहार बनने के लिए तैयार हो गया । सिंह ने नंदिनी गाय को छोड़ दिया और राजा को खाने के लिए उसकी ओर झपटा । लेकिन तत्क्षण हवा में गायब हो गया।
तब नंदिनी गाय बोली – “ उठो राजन ! यह मायाजाल, मैंने ही आपकी परीक्षा लेने के लिए रचा था । जाओ राजन ! तुम दोनों दम्पति ने मेरे दुग्ध पर निर्वाह किया है अतः तुम्हें एक गुणवान, बलवान और बुद्धिमान पुत्र की प्राप्ति होगी ।” इतना कहकर नंदिनी अंतर्ध्यान हो गई।
उसके कुछ दिन बाद नंदिनी के आशीर्वाद से महारानी सुदक्षिणा ने एक पुत्र को जन्म दिया, रघु के नाम से विख्यात हुआ और उसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है । महाकवि कालिदास ने भी इसी रघु के नाम पर अपने महाकाव्य का नाम “रघुवंशम” रखा ।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
*#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०३३*
*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*
*बालकाण्ड*
*अट्ठाईसवाँ सर्ग*
*विश्वामित्रका श्रीरामको अस्त्रोंकी संहारविधि बताना तथा उन्हें अन्यान्य अस्त्रोंका उपदेश करना, श्रीरामका एक आश्रम एवं यज्ञस्थानके विषयमें मुनिसे प्रश्न*
उन अस्त्रोंको ग्रहण करके परम पवित्र श्रीरामका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा था। वे चलते-चलते ही विश्वामित्रसे बोले—॥१॥
'भगवन्! आपकी कृपासे इन अस्त्रोंको ग्रहण करके मैं देवताओंके लिये भी दुर्जय हो गया हूँ। मुनिश्रेष्ठ! अब मैं अस्त्रोंकी संहारविधि जानना चाहता हूँ'॥२॥
ककुत्स्थकुलतिलक श्रीरामके ऐसा कहनेपर महातपस्वी, धैर्यवान्, उत्तम व्रतधारी और पवित्र विश्वामित्र मुनिने उन्हें अस्त्रोंकी संहारविधिका उपदेश दिया॥३॥
तदनन्तर वे बोले—'रघुकुलनन्दन राम! तुम्हारा कल्याण हो! तुम अस्त्रविद्याके सुयोग्य पात्र हो; अतः निम्नाङ्कित अस्त्रोंको भी ग्रहण करो—सत्यवान्, सत्यकीर्ति, धृष्ट, रभस, प्रतिहारतर, प्राङ्मुख, अवाङ्मुख, लक्ष्य, अलक्ष्य, दृढ़नाभ, सुनाभ, दशाक्ष, शतवक्र, दशशीर्ष, शतोदर, पद्मनाभ, महानाभ, दुन्दुनाभ, स्वनाभ, ज्योतिष, शकुन, नैरास्य, विमल, दैत्यनाशक यौगंधर और विनिद्र, शुचिबाहु, महाबाहु, निष्कलि, विरुच, सार्चिमाली, धृतिमाली, वृत्तिमान्, रुचिर, पित्र्य, सौमनस, विधूत, मकर, परवीर, रति, धन, धान्य, कामरूप, कामरुचि, मोह, आवरण, जृम्भक, सर्पनाथ, पन्थान और वरुण—ये सभी प्रजापति कृशाश्वके पुत्र हैं। ये इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले तथा परम तेजस्वी हैं। तुम इन्हें ग्रहण करो'॥४-१०॥
तब 'बहुत अच्छा' कहकर श्रीरामचन्द्रजीने प्रसन्न मनसे उन अस्त्रोंको ग्रहण किया। उन मूर्तिमान् अस्त्रोंके शरीर दिव्य तेजसे उद्भासित हो रहे थे। वे अस्त्र जगत्को सुख देनेवाले थे॥११॥
उनमेंसे कितने ही अंगारोंके समान तेजस्वी थे। कितने ही धूमके समान काले प्रतीत होते थे तथा कुछ अस्त्र सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रकाशमान थे। वे सब-के-सब हाथ जोड़कर श्रीरामके समक्ष खड़े हुए॥१२॥
उन्होंने अञ्जलि बाँधे मधुर वाणीमें श्रीरामसे इस प्रकार कहा—'पुरुषसिंह! हमलोग आपके दास हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें?'॥१३॥
तब रघुकुलनन्दन रामने उनसे कहा—'इस समय तो आपलोग अपने अभीष्ट स्थानको जायँ; परंतु आवश्यकताके समय मेरे मनमें स्थित होकर सदा मेरी सहायता करते रहें'॥१४॥
तत्पश्चात् वे श्रीरामकी परिक्रमा करके उनसे विदा ले उनकी आज्ञाके अनुसार कार्य करनेकी प्रतिज्ञा करके जैसे आये थे, वैसे चले गये॥१५॥
इस प्रकार उन अस्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करके श्रीरघुनाथजीने चलते-चलते ही महामुनि विश्वामित्रसे मधुर वाणीमें पूछा—'भगवन्! सामनेवाले पर्वतके पास ही जो यह मेघोंकी घटाके समान सघन वृक्षोंसे भरा स्थान दिखायी देता है, क्या है? उसके विषयमें जाननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा हो रही है॥१६-१७॥
'यह दर्शनीय स्थान मृगोंके झुंडसे भरा हुआ होनेके कारण अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता है। नाना प्रकारके पक्षी अपनी मधुर शब्दावलीसे इस स्थानकी शोभा बढ़ाते हैं॥१८॥
'मुनिश्रेष्ठ! इस प्रदेशकी इस सुखमयी स्थितिसे—यह जान पड़ता है कि अब हमलोग उस रोमाञ्चकारी दुर्गम ताटकावनसे बाहर निकल आये हैं॥१९॥
'भगवन्! मुझे सब कुछ बताइये। यह किसका आश्रम है? भगवन्! महामुने! जहाँ आपकी यज्ञक्रिया हो रही है, जहाँ वे पापी, दुराचारी, ब्रह्महत्यारे, दुरात्मा राक्षस आपके यज्ञमें विघ्न डालनेके लिये आया करते हैं और जहाँ मुझे यज्ञकी रक्षा तथा राक्षसोंके वधका कार्य करना है, उस आपके आश्रमका कौन-सा देश है? ब्रह्मन्! मुनिश्रेष्ठ प्रभो! यह सब मैं सुनना चाहता हूँ'॥२०-२२॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें अट्ठाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२८॥*
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‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼
🚩 *"सनातन परिवार"* 🚩
*की प्रस्तुति*
🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴
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*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य अनेकों प्रकार के क्रियाकलाप करते हुए जीवन व्यतीत करता है ! सब कुछ प्राप्त करने की क्षमता रखने वाला मनुष्य अपने मन की शांति को नहीं पाता है क्योंकि मनुष्य के भीतर त्याग की भावना बहुत कम देखने को मिलती है ! वह सब कुछ पा जाना चाहता है ! छोड़ना कुछ भी नहीं चाहता , जबकि मन की शांति का सबसे बड़ा उपाय है त्याग ! मन की त्याग मूलक वृत्ति ! उसे उजागर करने की आवश्यकता है ! सबसे पहले मन को त्याग भाव में रखा जाय , उसे वाह्यजगत की अनेक अडचनों से बचाकर अंतर्ह्रदय में केंद्रित रखने का प्रयास किया जाय ! यदि मन में यह तरंग उठती है कि हमें कहीं बाहर घूमने जाना है इसी समय ध्यान केंद्रित करते हुए जिम्मेदारी पूर्वक मन को अपने वश में करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि जब मन दिशाहीन हो जाता है तो मनुष्य की चित्तवृत्तियां अनियंत्रित हो जाती हैं और मनुष्य कभी भी शांति नहीं प्राप्त कर पाता ! मन एक विशाल सरोवर है जिसका स्रोत है मनुष्य की वृत्तियां ! यदि मन को रोक कर उन्हें किसी आदर्श की दिशा में लगाया जाय , उनसे लाभ लेकर मन की गति एवं स्वरूप को निर्धारित किया जाय तो देखते ही देखते संकल्प पूर्वक मन को नियंत्रित करना एवं आत्मिक शांति को प्राप्त करना बहुत ही सहज एवं सरल हो जाता है ! मन का अज्ञान और उसका किसी प्रकार अपनी शक्ति के सोच से वंचित हो जाना ही मन को अशान्त होने का मुख्य कारण होता है ! अशांत मन मनुष्य को भ्रमित किये रहता है एवं भीतर ही भीतर मनुष्य कुढता रहता है ! इसलिए आवश्यक है कि वाह्यजगत की अनावश्यक इच्छाओं का त्याग किया जाय ! यही एक उपाय है मन को शांत करने का !*
*आज आधुनिक युग में मनुष्य लगातार दौड़ता चला जा रहा है क्योंकि उसको कहीं भी शांति नहीं मिल रही है ! शांति ना मिलने का कारण यही है कि आज मनुष्य के भीतर त्याग की भावना लगभग समाप्त हो चुकी है ! मन को वश में करने की शिक्षा हमारे महापुरूषों ने दी है परंतु आज का मनुष्य मन के वश में हो गया है , मन की तरंगों को अपने वश में नहीं कर पा रहा है ! इसीलिए आज का मनुष्य दुखी है ! मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इतना ही कह सकता हूं कि मन की तरंग को अपने वश में कर लेना ही शांति का उपाय है , तथा जिस मन में अपने निग्रह की क्षमता आ गई है वह फिर दुख में पड़कर अपनी क्षमताओं से विमुख नहीं होता है ! मन पर पड़ने वाले कुप्रभावों को जिस दिन हम सद्विचार रूपी अग्नि से समाप्त करना सीख जाएंगे तथा अंतरात्मा की गहन प्रेरणा से क्रियाशील होगे तभी हमें वास्तविकता का पथ एवं सत्य विषय की शोध का पथ दिखाई पड़ेगा ! जब मन किसी विषय वस्तु से जा टकराता है तब वह अपने मूल प्रयोजन को ही भूल बैठता है एवं उसे अंतर्मन की गहराई से आ रही सत्य की आवाज सुनाई नहीं पड़ती ! मन की यह दुर्बलता उसे किसी भी सत्संकल्प में ना लगा पाने का कारण है ! जब मन इधर-उधर भटकता रहता है तब मनुष्य को शांति कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती ! शांति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपने सभी दोषों को त्यागना पड़ेगा तभी उसे सत्य के अनुसंधान का अवसर प्राप्त होगा एवं तब वह शांति के केंद्र आत्मा की अमिट प्यास की ओर झुकेगा ! यही परम शांति का वह मार्ग है जिस पर सबको चलना चाहिए !*
*शांति सदोष नहीं होती और अशांति का हमेशा कोई कारण होता है ! यदि हमारे हृदय में पूर्ण स्पष्टता हो तो हम शांति को ही चुनेंगे एवं तब समस्त वाह्यजगत हमें अपनी ही प्रकाश किरणों का कार्य विस्तार एवं एक ही परमात्मा की अनुपम अभिव्यक्ति दिखाई देगा ! जिस दिन ऐसा हो जाएगा उस दिन मनुष्य को शांति स्वमेव मिल जाएगी !*
🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺
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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना*🙏🏻🙏🏻🌹
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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#☝अनमोल ज्ञान
वानर सेना ने तरह तरह से दोनो गुप्तचर राक्षशों को मारना पीटना चालू कर दिए , वो बचाओ बचाओ चिल्लाने लगे पर वानरों ने उनको नही छोड़ा, अब तो वानरों ने उनके नाक कान काटने की तैयारी कर ली तो राक्षस समझ गए कि अब तो प्रभु श्री राम के सिवा कोई उन्हें नहीं बचा सकता, तो दोनों जोर जोर से चिल्लाए की जो हमारी नाक कान कटेगा उसको प्रभु श्री राम की सौगंध है।
जय श्री राम
##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
नास्ति कामसमो व्याधि: नास्ति मोहसमो रिपु: ।
नास्ति क्रोधसमो वह्नि: नास्ति ज्ञानात् परं सुखम् ॥
[ चाणक्यनीति ]
अर्थात 👉🏻 काम वासना के समान कोई दूसरा रोग नही है , मोह के समान कोई दूसरा शत्रु नही है , क्रोध के समान कोई आग नही है तथा ज्ञान से बड़ा कोई सुख नही है ।
🌄🌄 प्रभातवंदन 🌄🌄
#चाणक्य नीति
#महाभारत
#श्रीमहाभारतकथा-2️⃣2️⃣9️⃣
श्रीमहाभारतम्
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।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(सम्भवपर्व)
चतुसप्ततितमोऽध्यायः
शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक...(दिन 229)
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वैशम्पायन उवाच
धर्माभिपूजितं पुत्रं काश्यपेन निशाम्य तु । काश्यपात् प्राप्य चानुज्ञां मुमुदे च शकुन्तला ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! कश्यपनन्दन कण्वने धर्मानुसार मेरे पुत्रका बड़ा आदर किया है, यह देखकर तथा उनकी ओरसे पतिके घर जानेकी आज्ञा पाकर शकुन्तला मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई।
कण्वस्य वचनं श्रुत्वा प्रतिगच्छेति चासकृत् । तथेत्युक्त्वा तु कण्वं च मातरं पौरवोऽब्रवीत् ।। किं चिरायसि मातस्त्वं गमिष्यामो नृपालयम् ।
कण्वके मुखसे बारंबार 'जाओ-जाओ' यह आदेश सुनकर पूरुनन्दन सर्वदमनने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और मातासे कहा- 'माँ! तुम क्यों विलम्ब करती हो, चलो राजमहल चलें'।
एवमुक्त्वा तु तां देवीं दुष्यन्तस्य महात्मनः ।। अभिवाद्य मुनेः पादौ गन्तुमैच्छत् स पौरवः ।
देवी शकुन्तलासे ऐसा कहकर पौरवराजकुमारने मुनिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर महात्मा राजा दुष्यन्तके यहाँ जानेका विचार किया।
शकुन्तला च पितरमभिवाद्य कृताञ्जलिः ।। प्रदक्षिणीकृत्य तदा पितरं वाक्यमब्रवीत् ।
अज्ञानान्मे पिता चेति दुरुक्तं वापि चानृतम् ।।
अकार्य वाप्यनिष्टं वा क्षन्तुमर्हति काश्यप ।
शकुन्तलाने भी हाथ जोड़कर पिताको प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके उस समय यह बात कही- 'भगवन्! काश्यप ! आप मेरे पिता हैं, यह समझकर मैंने अज्ञानवश यदि कोई कठोर या असत्य बात कह दी हो अथवा न करनेयोग्य या अप्रिय कार्य कर डाला हो, तो उसे आप क्षमा कर देंगे'।
एवमुक्तो नतशिरा मुनिर्नोवाच किञ्चन ।। मनुष्यभावात् कण्वोऽपि मुनिरश्रूण्यवर्तयत् ।
शकुन्तलाके ऐसा कहनेपर सिर झुकाकर बैठे हुए कण्व मुनि कुछ बोल न सके; मानव-स्वभावके अनुसार करुणाका उदय हो जानेसे नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे।
अब्भक्षान् वायुभक्षांश्च शीर्णपर्णाशनान् मुनीन् ।। फलमूलाशिनो दान्तान् कृशान् धमनिसंततान् । व्रतिनो जटिलान् मुण्डान् वल्कलाजिनसंवृतान् ।।
उनके आश्रममें बहुत-से ऐसे मुनि रहते थे, जो जल पीकर, वायु पीकर अथवा सूखे पत्ते खाकर तपस्या करते थे। फल-मूल खाकर रहनेवाले भी बहुत थे। वे सब-के-सब जितेन्द्रिय एवं दुर्बल शरीरवाले थे। उनके शरीरकी नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले उन महर्षियोंमेंसे कितने ही सिरपर जटा धारण करते थे और कितने ही सिर मुड़ाये रहते थे। कोई वल्कल धारण करते थे और कोई मृगचर्म लपेटे रहते थे।
समाहूय मुनीन् कण्वः कारुण्यादिदमब्रवीत् ।।
मया तु लालिता नित्यं मम पुत्री यशस्विनी । वने जाता विवृद्धा च न च जानाति किञ्चन ।।
अश्रमेण पथा सर्वैर्नीयतां क्षत्रियालयम् ।)
महर्षि कण्वने उन मुनियोंको बुलाकर करुण भावसे कहा- 'महर्षियो ! यह मेरी यशस्विनी पुत्री वनमें उत्पन्न हुई और यहीं पलकर इतनी बड़ी हुई है। मैंने सदा इसे लाड़-प्यार किया है। यह कुछ नहीं जानती है। विप्रगण! तुम सब लोग इसे ऐसे मार्गसे राजा दुष्यन्तके घर ले जाओ जिसमें अधिक श्रम न हो'।
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे प्रातिष्ठन्त महौजसः।
शकुन्तलां पुरस्कृत्य दुष्यन्तस्य पुरं प्रति ।। १३ ।।
'बहुत अच्छा' कहकर वे सभी महातेजस्वी शिष्य (पुत्रसहित) शकुन्तलाको आगे करके दुष्यन्त के नगर की ओर चले ।। १३ ।।
गृहीत्वामरगर्भामं पुत्रं कमललोचनम् ।
आजगाम ततः सुभ्रूर्दुष्यन्तं विदिताद्वनात् ।। १४ ।।
तदनन्तर सुन्दर भौंहोंवाली शकुन्तला कमलके समान नेत्रोंवाले देवबालकके सदृश तेजस्वी पुत्रको साथ ले अपने परिचित तपोवनसे चलकर महाराज दुष्यन्तके यहाँ आयी ।। १४ ।।
अभिसृत्य च राजानं विदिता च प्रवेशिता।
सह तेनैव पुत्रेण बालार्कसमतेजसा ।। १५ ।।
राजाके यहाँ पहुँचकर अपने आगमनकी सूचना दे अनुमति लेकर वह उसी बालसूर्यके समान तेजस्वी पुत्रके साथ राजसभामें प्रविष्ट हुई ।। १५ ।।
निवेदयित्वा ते सर्वे आश्रमं पुनरागताः ।
पूजयित्वा यथान्यायमब्रवीच्च शकुन्तला ।। १६ ।।
सब शिष्यगण राजाको महर्षिका संदेश सुनाकर पुनः आश्रमको लौट आये और शकुन्तला न्यायपूर्वक महाराजके प्रति सम्मानका भाव प्रकट करती हुई पुत्रसे बोली ।। १६ ।।
क्रमशः...
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#🥶विंटर हेल्थ टिप्स 🌿 #💁🏻♀️घरेलू नुस्खे
“सर्दियों के 5 सबसे ताकत देने वाले मोटे अनाज”
सर्दियों में ये 5 मोटे अनाज आयुर्वेद के अनुसार
👉 गर्माहट,
👉 इम्युनिटी,
👉 ताकत,
👉 पाचन,
👉 हड्डियों
के लिए सबसे ज़्यादा फायदेमंद माने जाते हैं।
यहाँ आसान और interesting भाषा में पूरी जानकारी देखें 👇👇
🌟 1) बाजरा (Pearl Millet) – सर्दियों का राजा
क्यों खाएँ?
शरीर में प्राकृतिक गर्मी देता
ठंड से बचाता
भारी काम करने वालों के लिए ऊर्जा का बड़ा स्रोत
लाभ:
✔️ इम्युनिटी बढ़ाए
✔️ घुटनों–जोड़ों के दर्द में राहत
✔️ पेट गर्म रखे, गैस कम
✔️ एनीमिया में उपयोगी
कैसे खाएँ?
बाजरे की रोटी + गुड़ + घी = सर्दियों का शक्तिवर्धक भोज।
🌾 2) रागी (Finger Millet) – कैल्शियम का खजाना
क्यों खाएँ?
सबसे ज़्यादा कैल्शियम वाला अनाज
हड्डियों के लिए अमृत
लाभ:
✔️ जोड़ों के दर्द में आराम
✔️ बच्चों और बुजुर्गों के लिए सर्वोत्तम
✔️ इम्युनिटी बढ़ाता
✔️ डायबिटीज में भी लाभ
कैसे खाएँ?
रागी पराठा, रागी खीर, रागी माल्टा।
🌾 3) ज्वार (Sorghum) – पेट का दोस्त, गर्मी का रक्षक
क्यों खाएँ?
आसानी से पचता है
शरीर को ऊर्जा देता
लाभ:
✔️ कब्ज खत्म
✔️ गैस व एसिडिटी कम
✔️ वजन कंट्रोल
✔️ सर्दी-जुकाम में लाभ
कैसे खाएँ?
ज्वार की रोटी, उपमा, चीला।
🌾 4) कोदो (Kodo Millet) – रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला अनाज
क्यों खाएँ?
एंटीऑक्सिडेंट से भरपूर
सर्दियों में संक्रमण से लड़ने की क्षमता बढ़ाता है
लाभ:
✔️ खून साफ
✔️ लिवर मजबूत
✔️ शरीर हल्का और एक्टिव
✔️ immunity strong
कैसे खाएँ?
कोदो खिचड़ी, कोदो पुलाव।
🌾 5) कुटकी / सामा (Little Millet) – वजन और शुगर संतुलित
क्यों खाएँ?
हल्का, पचने में आसान
सर्दियों में भी पेट को हल्का रखे
लाभ:
✔️ डायबिटीज में अच्छा
✔️ शरीर को गर्माहट देता
✔️ वजन कंट्रोल
✔️ immunity और digestion सुधारता
कैसे खाएँ?
कुटकी खिचड़ी, उपमा, दही-चावल की तरह खा सकते हैं।
🙏 सर्दियों का सार
> “बाजरा + रागी + ज्वार + कोदो + कुटकी = शरीर की गर्मी + ताकत + पाचन + immunity का पावर कॉम्बो।”
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:।










![#सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - बहु प्रकार मारन कपि लागे | दीन पुकारत तदपि न त्यागै । ] जो हमार हर नासा काना | तेहि कोसलाधीस कै आना | l३ | ] वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर থ, पुकारते फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों " ने पुकारकर कहा- ) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है।। ५२-३ ।। सदरकाण्द बहु प्रकार मारन कपि लागे | दीन पुकारत तदपि न त्यागै । ] जो हमार हर नासा काना | तेहि कोसलाधीस कै आना | l३ | ] वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर থ, पुकारते फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों " ने पुकारकर कहा- ) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है।। ५२-३ ।। सदरकाण्द - ShareChat #सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - बहु प्रकार मारन कपि लागे | दीन पुकारत तदपि न त्यागै । ] जो हमार हर नासा काना | तेहि कोसलाधीस कै आना | l३ | ] वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर থ, पुकारते फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों " ने पुकारकर कहा- ) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है।। ५२-३ ।। सदरकाण्द बहु प्रकार मारन कपि लागे | दीन पुकारत तदपि न त्यागै । ] जो हमार हर नासा काना | तेहि कोसलाधीस कै आना | l३ | ] वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर থ, पुकारते फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों " ने पुकारकर कहा- ) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है।। ५२-३ ।। सदरकाण्द - ShareChat](https://cdn4.sharechat.com/bd5223f_s1w/compressed_gm_40_img_456007_27453fd0_1763352453827_sc.jpg?tenant=sc&referrer=user-profile-service%2FrequestType50&f=827_sc.jpg)


