#महाभारत
#श्रीमहाभारतकथा-2️⃣2️⃣9️⃣
श्रीमहाभारतम्
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।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(सम्भवपर्व)
चतुसप्ततितमोऽध्यायः
शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक...(दिन 229)
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वैशम्पायन उवाच
धर्माभिपूजितं पुत्रं काश्यपेन निशाम्य तु । काश्यपात् प्राप्य चानुज्ञां मुमुदे च शकुन्तला ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! कश्यपनन्दन कण्वने धर्मानुसार मेरे पुत्रका बड़ा आदर किया है, यह देखकर तथा उनकी ओरसे पतिके घर जानेकी आज्ञा पाकर शकुन्तला मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई।
कण्वस्य वचनं श्रुत्वा प्रतिगच्छेति चासकृत् । तथेत्युक्त्वा तु कण्वं च मातरं पौरवोऽब्रवीत् ।। किं चिरायसि मातस्त्वं गमिष्यामो नृपालयम् ।
कण्वके मुखसे बारंबार 'जाओ-जाओ' यह आदेश सुनकर पूरुनन्दन सर्वदमनने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और मातासे कहा- 'माँ! तुम क्यों विलम्ब करती हो, चलो राजमहल चलें'।
एवमुक्त्वा तु तां देवीं दुष्यन्तस्य महात्मनः ।। अभिवाद्य मुनेः पादौ गन्तुमैच्छत् स पौरवः ।
देवी शकुन्तलासे ऐसा कहकर पौरवराजकुमारने मुनिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर महात्मा राजा दुष्यन्तके यहाँ जानेका विचार किया।
शकुन्तला च पितरमभिवाद्य कृताञ्जलिः ।। प्रदक्षिणीकृत्य तदा पितरं वाक्यमब्रवीत् ।
अज्ञानान्मे पिता चेति दुरुक्तं वापि चानृतम् ।।
अकार्य वाप्यनिष्टं वा क्षन्तुमर्हति काश्यप ।
शकुन्तलाने भी हाथ जोड़कर पिताको प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके उस समय यह बात कही- 'भगवन्! काश्यप ! आप मेरे पिता हैं, यह समझकर मैंने अज्ञानवश यदि कोई कठोर या असत्य बात कह दी हो अथवा न करनेयोग्य या अप्रिय कार्य कर डाला हो, तो उसे आप क्षमा कर देंगे'।
एवमुक्तो नतशिरा मुनिर्नोवाच किञ्चन ।। मनुष्यभावात् कण्वोऽपि मुनिरश्रूण्यवर्तयत् ।
शकुन्तलाके ऐसा कहनेपर सिर झुकाकर बैठे हुए कण्व मुनि कुछ बोल न सके; मानव-स्वभावके अनुसार करुणाका उदय हो जानेसे नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे।
अब्भक्षान् वायुभक्षांश्च शीर्णपर्णाशनान् मुनीन् ।। फलमूलाशिनो दान्तान् कृशान् धमनिसंततान् । व्रतिनो जटिलान् मुण्डान् वल्कलाजिनसंवृतान् ।।
उनके आश्रममें बहुत-से ऐसे मुनि रहते थे, जो जल पीकर, वायु पीकर अथवा सूखे पत्ते खाकर तपस्या करते थे। फल-मूल खाकर रहनेवाले भी बहुत थे। वे सब-के-सब जितेन्द्रिय एवं दुर्बल शरीरवाले थे। उनके शरीरकी नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले उन महर्षियोंमेंसे कितने ही सिरपर जटा धारण करते थे और कितने ही सिर मुड़ाये रहते थे। कोई वल्कल धारण करते थे और कोई मृगचर्म लपेटे रहते थे।
समाहूय मुनीन् कण्वः कारुण्यादिदमब्रवीत् ।।
मया तु लालिता नित्यं मम पुत्री यशस्विनी । वने जाता विवृद्धा च न च जानाति किञ्चन ।।
अश्रमेण पथा सर्वैर्नीयतां क्षत्रियालयम् ।)
महर्षि कण्वने उन मुनियोंको बुलाकर करुण भावसे कहा- 'महर्षियो ! यह मेरी यशस्विनी पुत्री वनमें उत्पन्न हुई और यहीं पलकर इतनी बड़ी हुई है। मैंने सदा इसे लाड़-प्यार किया है। यह कुछ नहीं जानती है। विप्रगण! तुम सब लोग इसे ऐसे मार्गसे राजा दुष्यन्तके घर ले जाओ जिसमें अधिक श्रम न हो'।
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे प्रातिष्ठन्त महौजसः।
शकुन्तलां पुरस्कृत्य दुष्यन्तस्य पुरं प्रति ।। १३ ।।
'बहुत अच्छा' कहकर वे सभी महातेजस्वी शिष्य (पुत्रसहित) शकुन्तलाको आगे करके दुष्यन्त के नगर की ओर चले ।। १३ ।।
गृहीत्वामरगर्भामं पुत्रं कमललोचनम् ।
आजगाम ततः सुभ्रूर्दुष्यन्तं विदिताद्वनात् ।। १४ ।।
तदनन्तर सुन्दर भौंहोंवाली शकुन्तला कमलके समान नेत्रोंवाले देवबालकके सदृश तेजस्वी पुत्रको साथ ले अपने परिचित तपोवनसे चलकर महाराज दुष्यन्तके यहाँ आयी ।। १४ ।।
अभिसृत्य च राजानं विदिता च प्रवेशिता।
सह तेनैव पुत्रेण बालार्कसमतेजसा ।। १५ ।।
राजाके यहाँ पहुँचकर अपने आगमनकी सूचना दे अनुमति लेकर वह उसी बालसूर्यके समान तेजस्वी पुत्रके साथ राजसभामें प्रविष्ट हुई ।। १५ ।।
निवेदयित्वा ते सर्वे आश्रमं पुनरागताः ।
पूजयित्वा यथान्यायमब्रवीच्च शकुन्तला ।। १६ ।।
सब शिष्यगण राजाको महर्षिका संदेश सुनाकर पुनः आश्रमको लौट आये और शकुन्तला न्यायपूर्वक महाराजके प्रति सम्मानका भाव प्रकट करती हुई पुत्रसे बोली ।। १६ ।।
क्रमशः...
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#🥶विंटर हेल्थ टिप्स 🌿 #💁🏻♀️घरेलू नुस्खे
“सर्दियों के 5 सबसे ताकत देने वाले मोटे अनाज”
सर्दियों में ये 5 मोटे अनाज आयुर्वेद के अनुसार
👉 गर्माहट,
👉 इम्युनिटी,
👉 ताकत,
👉 पाचन,
👉 हड्डियों
के लिए सबसे ज़्यादा फायदेमंद माने जाते हैं।
यहाँ आसान और interesting भाषा में पूरी जानकारी देखें 👇👇
🌟 1) बाजरा (Pearl Millet) – सर्दियों का राजा
क्यों खाएँ?
शरीर में प्राकृतिक गर्मी देता
ठंड से बचाता
भारी काम करने वालों के लिए ऊर्जा का बड़ा स्रोत
लाभ:
✔️ इम्युनिटी बढ़ाए
✔️ घुटनों–जोड़ों के दर्द में राहत
✔️ पेट गर्म रखे, गैस कम
✔️ एनीमिया में उपयोगी
कैसे खाएँ?
बाजरे की रोटी + गुड़ + घी = सर्दियों का शक्तिवर्धक भोज।
🌾 2) रागी (Finger Millet) – कैल्शियम का खजाना
क्यों खाएँ?
सबसे ज़्यादा कैल्शियम वाला अनाज
हड्डियों के लिए अमृत
लाभ:
✔️ जोड़ों के दर्द में आराम
✔️ बच्चों और बुजुर्गों के लिए सर्वोत्तम
✔️ इम्युनिटी बढ़ाता
✔️ डायबिटीज में भी लाभ
कैसे खाएँ?
रागी पराठा, रागी खीर, रागी माल्टा।
🌾 3) ज्वार (Sorghum) – पेट का दोस्त, गर्मी का रक्षक
क्यों खाएँ?
आसानी से पचता है
शरीर को ऊर्जा देता
लाभ:
✔️ कब्ज खत्म
✔️ गैस व एसिडिटी कम
✔️ वजन कंट्रोल
✔️ सर्दी-जुकाम में लाभ
कैसे खाएँ?
ज्वार की रोटी, उपमा, चीला।
🌾 4) कोदो (Kodo Millet) – रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला अनाज
क्यों खाएँ?
एंटीऑक्सिडेंट से भरपूर
सर्दियों में संक्रमण से लड़ने की क्षमता बढ़ाता है
लाभ:
✔️ खून साफ
✔️ लिवर मजबूत
✔️ शरीर हल्का और एक्टिव
✔️ immunity strong
कैसे खाएँ?
कोदो खिचड़ी, कोदो पुलाव।
🌾 5) कुटकी / सामा (Little Millet) – वजन और शुगर संतुलित
क्यों खाएँ?
हल्का, पचने में आसान
सर्दियों में भी पेट को हल्का रखे
लाभ:
✔️ डायबिटीज में अच्छा
✔️ शरीर को गर्माहट देता
✔️ वजन कंट्रोल
✔️ immunity और digestion सुधारता
कैसे खाएँ?
कुटकी खिचड़ी, उपमा, दही-चावल की तरह खा सकते हैं।
🙏 सर्दियों का सार
> “बाजरा + रागी + ज्वार + कोदो + कुटकी = शरीर की गर्मी + ताकत + पाचन + immunity का पावर कॉम्बो।”
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:।
#🥶विंटर हेल्थ टिप्स 🌿 #💁🏻♀️घरेलू नुस्खे
🇮🇳 “सर्दियों की 6 शक्ति देने वाली सब्जियाँ – जो शरीर को अंदर से गर्म और मजबूत बनाती हैं!””
सर्दियाँ वो मौसम है जब सही सब्जियाँ खाई जाएँ तो
👉 रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है
👉 सर्दी–जुकाम कम होता है
👉 जोड़ों का दर्द, गैस, कब्ज, त्वचा की dryness जैसे समस्याएँ घटती हैं
यहाँ 6 ऐसी सर्दियों की खास सब्जियाँ हैं जिन्हें हर घर में जरूर खाना चाहिए 👇👇
🥕 1) गाजर (Carrot)
🔥 सर्दियों का नंबर-1 प्राकृतिक टॉनिक
लाभ:
विटामिन-A से आँखों की रोशनी बढ़ाती है
खून बढ़ाती है (हिमोग्लोबिन सुधारती)
त्वचा को ग्लोइंग व मॉइस्चराइज़ रखती है
पाचन को दुरुस्त और कब्ज कम करती है
कैसे खाएँ:
गाजर का हलवा, सलाद, जूस या सब्ज़ी – किसी भी रूप में बेहद फायदे!
🥬 2) मेथी (Fenugreek Leaves)
✨ शरीर को गर्म रखने वाली आयुर्वेदिक पत्तेदार सब्ज़ी
लाभ:
गैस, एसिडिटी और कब्ज को खत्म करती है
जॉइंट पेन और सूजन में लाभ
ब्लड शुगर को संतुलित रखती है
बालों और त्वचा के लिए अमृत समान
कैसे खाएँ:
मेथी की सब्जी, पराठा, लड्डू, दाल में तड़का।
🙏 3) पालक (Spinach)
💚 खून बढ़ाने वाली आयरन-रिच सुपरफूड
लाभ:
anemia में बेहद लाभकारी
रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती
हड्डियों को मजबूत करती (कैल्शियम + मैग्नीशियम)
दिल और BP के लिए अच्छा
कैसे खाएँ:
पालक पनीर, पालक सूप, पालक पराठा।
🥦 4) हरी फूलगोभी / ब्रोकली
🧠 एंटीऑक्सिडेंट बम – दिमाग और पाचन दोनों के लिए फायदेमंद
लाभ:
रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाती
पेट साफ और पाचन अच्छा करती
वजन कम करने में सहायक
एंटी-कैंसर गुण
कैसे खाएँ:
सूप, सब्ज़ी, स्टर-फ्राई।
🧄 5) लहसुन (Garlic)
🔥 सर्दियों का सबसे मजबूत प्राकृतिक एंटीबायोटिक
लाभ:
सर्दी-जुकाम, खांसी रोकता
BP नियंत्रित करता
दिल मजबूत बनाता
सूजन, दर्द और गैस कम करता
फैट बर्न करने में मदद
कैसे खाएँ:
लहसुन की चटनी, सब्ज़ियों में तड़का, सुबह खाली पेट 1-2 कली।
🧅 6) शलजम (Turnip)
💪 हड्डियाँ मजबूत + शरीर में गर्माहट + रोग प्रतिरोधक शक्ति
लाभ:
कैल्शियम और मिनरल का बड़ा स्रोत
जॉइंट पेन में राहत
पेट की गैस, एसिडिटी कम
liver और digestion सुधारता
शरीर में प्राकृतिक गर्माहट बनाए रखता
कैसे खाएँ:
शलजम की सब्जी, सूप, अचार।
⭐ सर्दियों का सार
> “ठंड में खानपान सही हो तो शरीर गर्म, मजबूत और रोग-रहित रहता है।”
इन 6 सब्जियों को हफ्ते भर में शामिल करें—
👉 immunity बढ़ेगी
👉 सर्दी-खांसी कम होगी
👉 त्वचा-पाचन-जोड़ों के दर्द में सुधार
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:।
#हरि विष्णु
भगवान विष्णु के परमभक्त शेषनाग जी के रहस्य ?
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सेष सहस्रसीस जग कारन।
जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर।
कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥
भावार्थ:-जो हजार सिर वाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें॥
हमारे हिन्दू सनातन धर्म में भगवान विष्णु को पालनकर्ता कहा गया है, जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु के दो रूप कहे गए है एक तो उनका सहज एवं सरल स्वभाव है तथा अपने दूसरे रूप में भगवान विष्णु कालस्वरूप शेषनाग के ऊपर बैठे है।
भगवान विष्णु का यह स्वरूप थोड़ा भयामह अवश्य है परन्तु भगवान विष्णु की लीलाएं अपरम्पार है। भगवान विष्णु अनेक शक्तिशाली शक्तियों के स्वामी है उनके इन्ही में से एक अत्यधिक शक्तिशाली शक्ति है शेषनाग।
आज हम आपको शेषनाग और नागो से जुड़े अनेक ऐसे रहस्यों के बारे में बताने जा रहे है जो सायद ही अपने पहले कभी सुने हो।
नागराज अनन्त को ही शेषनाग कहा गया है। शेषनाग भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है तथा उन्हें उनका भगवत्स्वरूप कहा जाता है. प्रलयकाल के दौरान जब नई सृष्टि का निर्माण होता है तो उसमे जो शेष अवक्त शेष रह जाता है, हिंदू धर्मकोश के अनुसार वे उसी के प्रतीक माने गए हैं।
भविष्य पुराण में इनका वर्णन एक हजार फन वाले सर्प के रूप में किया गया है. ये जीव तत्व के अधिष्ठाता हैं और ज्ञान व बल नाम के गुणों की इनमें प्रधानता होती है।
इनका आवास पाताल लोक के मूल में माना गया है, प्रलयकाल में इन्हीं के मुखों से भयंकर अग्नि प्रकट होकर पूरे संसार को भस्म करती है।
ये भगवान विष्णु के पलंग के रूप में क्षीर सागर में रहते हैं और अपने हजार मुखों से भगवान का गुणानुवाद करते हैं.भक्तों के सहायक और जीव को भगवान की शरण में ले जाने वाले भी शेष ही हैं।
क्योंकि इनके बल, पराक्रम और प्रभाव को गंधर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग आदि भी नही जान पाते, इसलिए इन्हें अनंत भी कहा गया है।
ये पंचविष ज्योति सिद्धांत के प्रवर्तक माने गए हैं. भगवान के निवास शैया, आसन, पादुका, वस्त्र, पाद पीठ, तकिया और छत्र के रूप में शेष यानी अंगीभूत होने के कारण् इन्हें शेष कहा गया है. लक्ष्मण और बलराम इन्हीं के अवतार हैं जो राम व कृष्ण लीला में भगवान के परम सहायक बने।
हमारे जीवन का हर क्षण अनेको जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों को अपने अंदर समेटे हुए है, तथा सबसे अत्यधिक एवं महत्वपूर्ण दायित्व जो मनुष्य का होता है वह है अपने परिवार तथा समाज के प्रति।
एक वास्तविकता यह भी है की इन जिम्मेदारियों को पूरा करने में हमें अनेको परशानियों का सामना करना पड़ता है और शेषनाग रूपी परेशानियों को अपने कैद में कर भगवान सम्पूर्ण समाज को यही संदेश देना चाहते है की चाहे परिस्थितियां कैसी भी हो परन्तु हमें सदैव अपने परेशनियों को वश में कर सरल एवं प्रसन्न रहना चाहिए।
पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रीश्वेतवाराह कल्प में सृष्टि सृजन के आरंभ में ही एकबार किसी कारणवश ब्रह्मा जी को बड़ा क्रोध आया जिनके परिणामस्वरूप उनके आंसुओं की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिरीं और उनकी परिणति नागों के रूप में हुई।
इन नागों में प्रमुख रूप से अनन्त, कुलिक, वासुकि, तक्षक, काक्रोटम, महापद्य्म,पद्द्य्म, शंखपाल है।
पना पुत्र मानते हुए ब्रह्मा जी ने इन्हें ग्रहों के बराबर ही शक्तिशाली बनाया. इनमें अनंतनाग सूर्य के, वासुकि चंद्रमा के, तक्षक मंगल के, कर्कोटक बुध के, पद्म बृहस्पति के, महापद्म शुक्र के, कुलिक और शंखपाल शनि ग्रह के रूप हैं !
ये सभी नाग भी सृष्टि संचालन में ग्रहों के समान ही भूमिका निभाते हैं. इनसे गणेश और रूद्र यज्ञोपवीत के रूप में, महादेव श्रृंगार के रूप में तथा विष्णु जी शैय्या रूप में सेवा लेते हैं।
ये शेषनाग रूप में स्वयं पृथ्वी को अपने फन पर धारण करते हैं. वैदिक ज्योतिष में राहु को काल और केतु को सर्प माना गया है।
अतः नागों की पूजा करने से मनुष्य की जन्म कुंडली में राहु-केतु जन्य सभी दोष तो शांत होते ही हैं, इनकी पूजा से कालसर्प दोष और विषधारी जीवो के दंश का भय नहीं रहता।
परिवार में वंश वृद्धि, सुख-शांति के लिए नए घर का निर्माण करते समय नींव में चांदी का बना नाग-नागिन का जोड़ा रखा जाता है।
।।समस्त साधनों का सार।।
#🕉️सनातन धर्म🚩
साधक को ये चार बातें दृढ़तापूर्वक मान लेनी चाहिये-
१. परमात्मा यहाँ हैं।
२. परमात्मा अभी हैं।
३. परमात्मा अपने में हैं।
४. परमात्मा अपने हैं।
इस दृष्टि से-
परमात्मा सब जगह (सर्वव्यापी) होने से यहाँ भी हैं। सब समय (तीनों कालों में) होने से अभी भी हैं।
सबमें होने से अपने में भी हैं और सबके होने से अपने भी हैं।
परमात्मा यहाँ होने से उनको प्राप्त करने के लिये दूसरी जगह जाने की आवश्यकता नहीं है। अभी होने से उनकी प्राप्ति के लिये भविष्य की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है।
अपने में होने से उन्हें बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। और अपने होने से उनके सिवाय किसी को भी अपना मानने की आवश्यकता नहीं है।
अपने होने से वे स्वाभाविक ही अत्यन्त प्रिय लगेंगे।
प्रत्येक साधक के लिये उपर्युक्त चारों बातें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और तत्काल लाभदायक हैं। साधक को ये चारों बातें दृढ़ता से मान लेनी चाहिये। समस्त साधनों का यह सार साधन है। इसमें किसी योग्यता, अभ्यास, गुण आदि की भी जरूरत नहीं है। ये बातें स्वतः सिद्ध और वास्तविक हैं, इसलिये इसको मानने के लिये सभी योग्य हैं, सभी पात्र हैं, सभी समर्थ हैं। शर्त यही है कि वे एकमात्र परमात्मा को ही चाहते हों।
संचित कर्म ---- क्रियमाण कर्म तो हर समय होते रहते हैं, उनमें कुछ तो भोग लिए जाते हैं और शेष इकट्ठा होते रहते हैं।
इस प्रकार चित्त -रूपी गोदाम में एकत्रित हुए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं । कर्म का भंडार अक्षय है। उसको भोगते -भोगते जीव अनादि काल से 84 लाख योनियों में शरीर धारण करता चला आ रहा है , फिर भी कर्म का भंडार अक्षय ही बना रहता है।
जीव को यह कर्म सुख व दुख रूप में मिश्रित अवस्था में भोगने को दिये जाते हैं, अगर जीव चाहे तो सत्कर्म करते हुए भगवान की भक्ति करते हुए अपने सभी संचित कर्मों से मुक्त हो सकता है।
श्री कृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं, अर्थात हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है।
उस ज्ञान को भक्ति योग के द्वारा शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती।
इसे भगवान की निष्काम भक्ति के मार्ग पर चलते हुए भी प्राप्त किया जा सकता है।।
_🌷🌷जय_जय_
_श्रीԶเधे_Զเधे🌷🌷_
_जय_श्रीकृष्ण_जी💐👏💖_
_जय श्रीराधेकृष्ण जी🌷🙏💕_
_प्रणाम 🙏🙏_
🚩।।हिंदू जीवन पद्धति।।🚩
#🕉️सनातन धर्म🚩
– एक दिव्य एवं संतुलित जीवन का मार्गदर्शन संकल्प रामराज्य चैनल के द्वारा एक छोटी सी प्रयास।
सनातन धर्म केवल पूजा-पाठ की परंपरा नहीं, बल्कि एक पूर्ण जीवन प्रणाली है जो मानव जीवन के हर पक्ष को छूती है। — जन्म से लेकर मृत्यु तक, और लौकिक से लेकर पारलौकिक तक। इसका उद्देश्य व्यक्ति को धर्म, कर्तव्य, और आत्मोन्नति के मार्ग पर ले जाना है। इस लेख में हम हिंदू जीवन पद्धति के सात प्रमुख अंगों पर प्रकाश डालते हैं:
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1. वर्ण – समाज की कर्म आधारित संरचना :---
हिंदू धर्म में समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया है, जो व्यक्ति के गुण, कर्म और स्वभाव पर आधारित है:
ब्राह्मण – ज्ञान, शिक्षा, यज्ञ और साधना का कार्य
क्षत्रिय – शासन, रक्षा, युद्ध और न्याय
वैश्य – व्यापार, कृषि, धन और संपन्नता
शूद्र – सेवा, श्रम और सहकार्य
यह विभाजन जन्म आधारित नहीं, बल्कि कर्तव्यों के आधार पर है।
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2. आश्रम – जीवन के चार चरण :---
मानव जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है, जिससे हर अवस्था में धर्मपूर्ण जीवन संभव हो:
ब्रह्मचर्य – शिक्षा और चरित्र निर्माण की अवस्था
गृहस्थ – परिवार, समाज और उत्तरदायित्व की अवस्था
वानप्रस्थ – जिम्मेदारियों से विरक्ति की अवस्था
सन्यास – आत्मसाधना व मोक्ष की दिशा में अंतिम चरण
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3. पुरुषार्थ – जीवन के चार उद्देश्य :---
हिंदू दर्शन चार पुरुषार्थों को जीवन का लक्ष्य मानता है:
धर्म – नैतिकता, कर्तव्य और सच्चाई
अर्थ – जीवन के लिए आवश्यक धन-संपत्ति
काम – इच्छाओं की मर्यादित पूर्ति
मोक्ष – आत्मा की मुक्ति और ब्रह्म की प्राप्ति
यह संतुलन जीवन को समृद्ध, सार्थक और पवित्र बनाता है।
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4. ऋण – जीवन में उत्तरदायित्व :---
मनुष्य जन्म के साथ ही तीन प्रकार के ऋणों से बंधा होता है:
देव ऋण – देवताओं के प्रति कृतज्ञता (यज्ञ, पूजा द्वारा)
ऋषि ऋण – ज्ञान प्रदाताओं का ऋण (स्वाध्याय व शिक्षा से)
पितृ ऋण – पूर्वजों का ऋण (संतान, कुल-परंपरा द्वारा)
इन ऋणों को निभाना ही जीवन की सफलता का आधार है।
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5. तीर्थ – आध्यात्मिक यात्रा के चरण :---
तीर्थ केवल यात्रा नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि के साधन हैं:
अर्थ तीर्थ – सांसारिक सफलता हेतु
काम तीर्थ – मनोकामना पूर्ति हेतु
धर्म तीर्थ – धर्म पालन व पुण्य हेतु
मोक्ष तीर्थ – आत्मकल्याण व मुक्ति हेतु
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6. देवता – पूज्य भावनाएं :---
हिंदू जीवन में कुछ विशेष संबंधों को देवतुल्य माना गया है:
मातृदेवो भव – माँ को देवी के समान मानना
पितृदेवो भव – पिता को देव के रूप में देखना
आचार्यदेवो भव – गुरु को ब्रह्मस्वरूप जानना
अतिथिदेवो भव – अतिथि को ईश्वर मानकर सेवा करना
यह भावनाएँ समाज को संस्कारवान बनाती हैं।
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7. संस्कार – जीवन की पवित्र प्रक्रियाएं :---
हिंदू धर्म में १६ संस्कार बताए गए हैं जो जीवन को पवित्र और संरचित बनाते हैं। इनमें प्रमुख हैं:
गर्भाधान, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, विवाह, सन्यास आदि। प्रत्येक संस्कार जीवन के किसी विशेष मोड़ पर व्यक्ति को धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए होते हैं।
《 हिंदू जीवन पद्धति एक दिव्य, संतुलित और वैज्ञानिक संरचना है जो केवल व्यक्ति का ही नहीं, बल्कि समाज, संस्कृति और समस्त सृष्टि का कल्याण करती है। यह पद्धति हमें यह सिखाती है कि जीवन का उद्देश्य केवल भोग नहीं, बल्कि धर्म, कर्तव्य और आत्मा की पूर्णता है। 》
"सत्य सनातन धर्म की जय हो!"
#राधे कृष्ण
🌿 कृष्ण: प्रेम, लीला और जीवन का सत्य 🌿
कभी सोचा है — **कृष्ण** सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि **जीवन का अर्थ** हैं।
वो बांसुरी की मधुर धुन हैं, जो हर हृदय की पीड़ा को शांत कर देती है।
वो माखन चोर हैं, पर साथ ही मन चुराने वाले भी।
वो युद्ध के मैदान में खड़े एक सारथी हैं, पर साथ ही धर्म के मार्गदर्शक भी।
**कृष्ण का जीवन** हमें यह सिखाता है कि भक्ति केवल मंदिरों में नहीं,
बल्कि हर कर्म में, हर प्रेम में, हर सच्चाई में बसती है।
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गोकुल की गलियों में जन्मा वह नन्हा **श्याम**, जिसने अपने छोटे-से कदमों से
पूरे संसार के नियम बदल दिए।
कहाँ कोई साधारण बालक साँप कालिया के फनों पर नाचता है?
कहाँ कोई बालक गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगली पर उठा लेता है?
पर कृष्ण ने यह सब किया — और किया **मुस्कुराते हुए**,
क्योंकि उन्होंने सिखाया —
"भय तब तक है, जब तक विश्वास नहीं।
जहाँ श्रद्धा है, वहाँ चमत्कार है।"
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जब वे वृंदावन की गलियों में राधा के संग रास रचाते थे,
तो वह प्रेम केवल दो आत्माओं का नहीं था,
बल्कि **आत्मा और परमात्मा** के मिलन का प्रतीक था।
राधा का नाम कृष्ण के बिना अधूरा है,
और कृष्ण का अस्तित्व राधा के बिना अधूरा।
यह प्रेम सांसारिक नहीं, **आध्यात्मिक** था।
वह हमें सिखाता है कि सच्चा प्रेम पाने में नहीं,
बल्कि अपने प्रिय में स्वयं को खो देने में है।
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कृष्ण ने कभी किसी से बदला नहीं लिया,
पर हर अन्याय का अंत किया।
उन्होंने हमें यह बताया कि
**"धर्म की रक्षा के लिए अधर्म का विनाश आवश्यक है"।**
महाभारत के रणभूमि में उन्होंने अर्जुन को ज्ञान दिया —
**“कर्म करो, फल की चिंता मत करो।”**
क्योंकि फल की आसक्ति ही दुख का कारण बनती है।
कृष्ण का जीवन हमें यही सिखाता है —
जो हुआ, वह अच्छे के लिए हुआ,
जो हो रहा है, वह भी अच्छे के लिए है,
और जो होगा, वह भी निश्चित रूप से अच्छे के लिए होगा।
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जब-जब संसार में अधर्म बढ़ा,
कृष्ण ने रूप बदलकर जन-जन के हृदय में जन्म लिया।
कभी बालक रूप में, कभी सखा बनकर,
कभी मार्गदर्शक बनकर, तो कभी प्रेम रूप में।
उनकी बांसुरी की धुन आज भी ब्रज की हवाओं में गूँजती है,
और जो भी उस धुन को सुन लेता है,
वह संसार की मोह-माया भूल जाता है।
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आज भी जब मन दुखी होता है,
जब रास्ते बंद लगते हैं,
जब भरोसा टूटता है,
तो बस एक नाम हृदय से निकलता है —
**“राधे कृष्ण”** 💫
कृष्ण सिखाते हैं कि
जीवन का हर संघर्ष, हर दुःख, हर विरह
आपको आपकी भक्ति के और करीब लाने का साधन है।
कृष्ण कहते हैं —
*"जब तुम्हें लगे कि सब खत्म हो गया है,
तो समझो, अब ईश्वर की योजना शुरू हुई है।"*
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जो कृष्ण को जान गया, उसने **जीवन को समझ लिया।**
क्योंकि कृष्ण केवल पूजा के योग्य नहीं,
बल्कि **अनुभव के योग्य हैं।**
वो मंदिर की मूर्ति नहीं,
बल्कि आत्मा के भीतर का **शाश्वत आनंद** हैं।
राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं,
और भक्ति के बिना जीवन अधूरा।
इसलिए जब भी जीवन में अंधकार हो —
कृष्ण को याद करो,
क्योंकि वही एकमात्र हैं जो
*अंधकार को प्रेम में बदल देते हैं।*
“जब जीवन में सब कुछ उलझ जाए, तब कृष्ण की बांसुरी की धुन सुनो —
वो सिखा देंगे कि मौन भी भक्ति है, और मुस्कान भी साधना।” 💖
अगर आप भी श्रीकृष्ण को अपना सखा, गुरु और प्रेम मानते हैं तो
❤️ **“जय श्री राधे कृष्ण”** ❤️ लिखकर भक्ति का भाव फैलाइए 🌿
_🌷🌷जय_जय_
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_जय_श्रीकृष्ण_जी💐👏💖_
_जय श्रीराधेकृष्ण जी🌷🙏💕_
_प्रणाम 🙏🙏_
#मथुरा #जय श्री कृष्ण
मथुरा पुरी का माहात्म्य
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मथुरा का देवता कौन है, क्षत्ता (द्वारपाल) कौन हैं,
उसकी रक्षा कौन करता है, चार कौन है, मन्त्रि प्रवर कौन हैं, किन-किन लोगों के द्वारा वहाँ भूमिका सेवन किया गया है?
साक्षात परिपूर्णतम "भगवान श्रीकृष्ण हरि मथुरा के स्वामी या देवता हैं।" भगवान केशव देव वहाँ के क्लेश नाशक हैं साक्षात भगवान ने कपिल नामक ब्राह्मण को अपनी वाराह मूर्ति प्रदान की थी,कपिल ने प्रसन्न होकर वह मूर्ति देवराज इन्द्र को दे दी, फिर समस्त लोकों को रुलाने वाला राक्षस राज रावण देवताओं को जीतकर उस मूर्ति का स्तवन करके उसे पुष्पक विमान पर रखकर लंका में ले आया उसकी पूजा करने लगा।
राघवेन्द्र श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त करके भगवान वाराह को प्रयत्न पूर्वक अयोध्यापुरी में ले आये और वहाँ उनकी अर्चना करते रहे, तत्पश्चात शत्रुघ्न श्रीराम की स्तुति करके उनकी आज्ञा से उस वाराह विग्रह को प्रयत्न पूर्वक महापुरी मथुरा में ले आये और वहाँ वाराह भगवान की स्थापना करके उनको प्रणाम किया, फिर समस्त मथुरा वासियों ने उन वरदायक भगवान की सेवा- पूजा प्रारम्भ की, वे ही ये साक्षात "कपिल - वाराह मथुरा पुरी में श्रेष्ठ मन्त्री माने गये हैं।"
"'भूतेश्वर' नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव मथुरा के द्वारपाल या क्षेत्रपाल हैं," वे पापियों को दण्ड देकर भक्ति के लिये उन्हें मन्त्रोपदेश करते हैं।
महाविद्या स्वरूपा दुर्गम कष्ट दूर करने वाली चण्डिका देवी दुर्गा सिंह पर आरूढ़ हो सदा मथुरापुरी की रक्षा करती हैं।
"नारद ही मथुरा के चार (गुप्तचर) हैं" और इधर-उधर लोगों पर दृष्टि रखकर सबकी बात महात्मा श्रीकृष्ण को बताते हैं, नगर के मध्य- भाग में स्थित शुभदायिनी करूणामयी मथुरा देवी समस्त भूखे लोगों को अन्न प्रदान करती हैं।
मथुरा में मरे हुए लोगों को विमानों द्वारा ले जाने लिये श्याम अंग वाले चार भुजाधारी श्रीकृष्ण पार्षद आते-जाते रहते हैं, महापुरी मथुरा, जिसके दर्शन मात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है, श्रीकृष्ण के अंग से प्रकट हुई है।
पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने मथुरा में आकर निराहार कहते हुए सौ दिव्य वर्षों तक तपस्या की उस समय वे परब्रह्म श्रीहरि के नाम का जप करते थे, इससे उन्हें स्वायम्भुव मनु जैसे प्रवीण पुत्र की प्राप्ति हुई।
"सतीपति देववर भूतेश मधुवन में एक सौ दिव्य वर्ष तक तप करके श्रीकृष्ण की कृपा से तत्काल मथुरा पुरी और माथुर मण्डल के "क्षेत्रपाल" हो गये।"
श्रीकृष्ण कृपा प्रसाद से ही नारद मथुरा मण्डल का चार बने हैं, और सदा भ्रमण करता रहते हैं, इसी प्रकार 'दुर्गा' मथुरा में जाती हैं और निश्चय ही श्रीकृष्ण सेवा करती हैं।
इन्द्र ने मथुरा में तप करके इन्द्रपद, सूर्य ने तप करके वैवस्वत मनु- जैसा पुत्र, कुबेर ने अक्षय निधि, वरूण ने पाश और मधुवन में तप करके सम्यक ध्रुवपद प्राप्त किया था।
यहीं तपस्या करके अम्बरीष ने मोक्ष पाया, राम ने अक्षय शक्ति एवं लवणासुर से विजय प्राप्त की, राजा रघु ने सिद्धि पायी तथा इसी मधुवन में तप करके चित्रकेतु ने भी अभीष्ट फल प्राप्त किया, यहीं के सुन्दर मधुवन में तप करके अत्यन्त बलिष्ठ हुए महासुर मधु ने माधवमास में मधुसूदन माधव के साथ युद्ध-भूमि में जाकर युद्ध किया,सप्तर्षियों ने मथुरा में आकर यहीं तपस्या करके योग सिद्धि प्राप्त की, पूर्वकाल में अन्य ऋषियों ने भी यहाँ तप करके सर्वतोमुखी सफलता पायी थी और गोकर्ण नामक वैश्य ने भी यहाँ तप करके महानिधि उपलब्ध की थी।
इसी शुभ मधुवन में लोकरावण रावण ने तपस्या करके स्वर्ग के देवताओं पर विजय पायी तथा राक्षसों को अधिकारी बनाकर मन्दिर निर्माण करके लंका में हो प्रतिष्ठित हो बड़ी शोभा प्राप्त की,यहीं सुन्दर मधुवन में तपस्या करके हस्तिनापुर के राजा शांतनु ने अत्यन्त साधु -शिरोमणि तथा तत्त्वार्थ सागर के कर्णधार भीष्म को पुत्र -रूप में प्राप्त किया, आदियुग में भगवान वराह ने महासागर के जल में जहाँ बड़ी ऊँची लहरें उठ रही थीं, डूबी हुई पृथ्वी को, जैसे हाथी सूँड से कमल को उठा ले, उसी प्रकार स्वयं अपनी दाढ से उठाकर जब जलके ऊपर स्थापित किया, तब मथुरा के माहात्म्य का इस प्रकार वर्णन किया था।
यदि मनुष्य 'मथुरा' का नाम ले ले तो उसे भगवन् नामोच्चारण का फल मिलता है, यदि वह मथुरा का नाम सुन ले तो श्रीकृष्ण कथा-श्रवण फल पाता है,मथुरा का स्पर्श प्राप्त करके साधु-संतों के स्पर्श का फल पाता है।
मथुरा में रहकर किसी भी गन्ध को ग्रहण करने वाला मानव भगवच्चरणों पर चढ़ी हुई तुलसी के पत्र की सुगन्ध लेने का फल प्राप्त करता है,इस नगरी में जो लोग शुद्ध विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं---
"मथुरायां महापुर्या ये वसंति शुचिव्रता:।
बलिभिक्षाप्रदातारो देवास्ते नरविग्रहा:।।"
मथुरा का दर्शन करने वाला मानव श्रीहरि के दर्शन का फल पाता हैं, स्वतः किया हुआ आहार भी यहाँ भगवान लक्ष्मीपति के नैवेद्य-प्रसाद भक्षण का फल देता हैं।
दोनों बाँहों से वहाँ कोई भी कार्य करके श्रीहरि की सेवा करने का फल पाता है और वहाँ घूमने-फिरने वाला भी पग-पग पर तीर्थ यात्रा के फल का भागी होता है।
जो राजाधिराजों का हनन करने वाला अपने सगोत्र का घातक तथा तीनों लोकों को नष्ट करने के लिये प्रयत्न शील होता है, ऐसा महापापी भी मथुरा में निवास करने से योगीश्वरों की गति को प्राप्त है---
"वसंति महाभागे मथुरायामितरे जना:।
तेऽपि यांति परमां सिद्धिं मत्प्रसादन्न संशय:।।"
उन पैरों को धिक्कार है, जो कभी मधुवन में नहीं गये। उन नेत्रों को धिक्कार है, जो कभी मथुरा का दर्शन नहीं कर सके, उन कानों को धिक्कार है जो मथुरा का नाम नहीं सुन पाते और उस वाणी को भी धिक्कार है, जो कभी थोड़ा-सा मथुरा का नाम नहीं ले सकी।
मथुरा में चौदह करोड़ वन है, जहाँ तीर्थों का निवास हैं। इन तीर्थों में से प्रत्येक मोक्षदायक है, जिसमें असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति परिपूर्णतम देवता गोलोकनाथ साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र ने स्वयं अवतार लिया, उस मथुरा पुरी को नमस्कार है।
जिस मथुरा का नाम तत्काल पापों का नाश कर देता है, जिसके नामोच्चरण करने वाले को सब प्रकार मुक्तियाँ सुलभ है। तथा जिसकी गली-गली में मुक्ति मिलती है, उस मथुरा को इन्हीं विशेषताओं के कारण विद्वान् पुरुष श्रेष्ठतम मानते है।
यद्यपि संसार में काशी आदि पुरियाँ भी मोक्षदायिनी हैं, तथापि उन सबमें मथुरा ही धन्य है, जो जन्म, मौञ्जीव्रत, मृत्यु और दाह-संस्कारों द्वारा मनुष्यों को चार प्रकार की मुक्ति प्रदान करती है---
"अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका।
पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।।"
जो सब पुरियों ईश्वरी, व्रजेश्वरी, तीर्थोश्वरी, यज्ञ तथा तप की निधिश्वरी, मोक्षदायिनी तथा परम धर्म-धुरंधरा है, मधुवन मे उस श्री कृष्णपुरी मथुरा को मैं नमस्कार करता हूँ, जो लोग एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण में चित्त लगाकर संयम और नियम पूर्वक जहाँ कहीं भी रहते हुए मधुपुरी के इस माहात्म्य को सुनते है, वे मथुरा की परिक्रमा के फल को प्राप्त करते है- इसमें संशय नहीं है, जो लोग इस मथुरा खण्ड को सब ओर सुनतें, गाते और पढ़ते हैं, उनको यहीं सब प्रकार समृद्धि और सिद्धियाँ सदा स्वभाव से ही प्राप्त होती रहती हैं, जो बहुत वैभव की इच्छा करने वाले लोग नियम पूर्वक रहकर इस मथुरा खण्ड का इक्कीस बार श्रवण करते हैं, उनके घर और द्वार को हाथी के कर्णतालों से प्रताड़ित भ्रमरावली अलंकृत करती है।
इसको पढ़ने और सुनने वाला ब्राह्मण विद्वान होता है, राजकुमार यु़द्ध मे विजयी होता है, वैश्य निधियों का स्वामी होता है, तथा शुद्र भी शुद्ध निर्मल हो जाता है। स्त्रियाँ हों या पुरुष- इसे सुनने वालों के अत्यन्त दुर्लभ मनोरथ भी पूर्ण हो जाते हैं।
मथुरा नगरी ब्रह्म रुप ही है, जिस ब्रह्म ज्ञान से जगत का मन्थन होता है, उसका सार अर्थात् ब्रह्म जहाँ निवास करे उसका नाम मथुरा होता है, जैसे आधेय आधार में रहता है,अध्यस्त अधिष्ठान मे रहता है, उसी प्रकार मथुरा मे सब तरह के लोग रहते हैं।
राजा एवं राज्य के नवीन वस्त्र राशि धोने वाला रजक मिला, वस्त्र न देने पर एक चाँटे से उसका काम तमाम हो गया साथी भाग गये, जिनके अन्दर दुर्गुण दृढ़मूल हो और भगवान से विमुखता हो उनके उद्धार की यही प्रक्रिया है, उनके दुर्गुण रुप शरीर छूटने पर ही उनका कल्याण होता है।
दर्जी स्वयं आ गया, भगवान नटवर हैं नट को क्या चाहिए, दर्जी ने किसे कौन सा वस्त्र जँचेगा रुपानुसार बना दिया, माली के घर गये फूलों का श्रृंगार हुआ।
सेवा ने अपने चमत्कार दिखाए भक्ति भी मिली और साथ मे भौतिक सम्पत्ति भी,मथुरा मे कोलाहल मच गया ये सुकुमार नहीं बलवान है।
ये किसान वर्ग मे माली एवं श्रमिक वर्ग मे दर्जी पर भी प्रसन्न होते हैं, हीन वर्ग के पक्षपाती हैं, आगे राजपथ पर कुब्जा मिल गयी जाति से हीन, शरीर से कुब्ड़ी ,भाव से दासी, कंस की सेवा के लिए अंगराग (चंदन) लिए जा रही थी , हीन उद्देश्य भगवान से विमुख परन्तु भगवान की दृष्टि पड़ गयी , स्वयं छेडछाड़ करके उसे अपने सम्मुख किया, उसे सर्वांग सुन्दर , मोहक युवती बना दिया कूबड़ी सीधी हो गई ,असुन्दर सुन्दर हो गई, कंस की दासी श्रीकृष्ण की महरानी बन गई , त्रिवक्रा सुवक्रा हो गई, त्रिवक्रा कुंडलिनी जागकर सीधी होकर अपने लक्ष्य से से जा मिली।
रजक भय से कृष्ण के हो गए , माली और दर्जी श्रीकृष्ण के बन गए , स्त्रियां मुग्ध हो गई असुन्दर को सुन्दर बनाने वाले कृष्ण , पिछड़े को आगे लाने वाले कृष्ण, गिरे को उठाने वाले कृष्ण, पहले ही दिन मथुरा पर विजय हो गई।
शिव धनुष तोड़ दिया, कंस की सेना का उत्साह भंग हो गया, सबका मन खींच लिया - सबके हृदय मे अपनी आसक्ति डाल दी, कंस और उनके साथी भय से ही मर गए थे , उन्हें मारने का तो केवल उपचार ही करना पड़ा।
लौकिक राज्यक्रांति की दृष्टि से भी कम से कम हिंसा करके एवं नागरिकों को अपने पक्ष मे आकृष्ट करके युक्ति की प्रधानता से ही राज्य परिवर्तन हो गया , दुराचारी की जगह सदाचारी उग्रसेन का राज्य हो गया ,भगवद्भाव से भी यही शास्त्र सम्मत है कि जो भय से या द्वेष से भगवान का स्मरण करते हैं, वे मृत्यु के अनन्तर मुक्ति प्राप्त करते हैं।
जो प्रेम करते हैं वे जीवन काल मे ही सुख, शान्ति के भाजन बन गये, कुवलयापीड, मल्ल एवं कंस के वध का अभिप्राय ही यह है कि उन्हें शीघ्रातिशीघ्र कल्याण की प्राप्ति हो।
मथुरा के नागरिकों को सुखशांति की प्राप्ति मे द्वेष करने वालों का उद्धार है मथुरा लीला, विद्याध्यन एवं गुरु दक्षिणा मे मृत गुरुपुत्र को लाकर देना लोकसंग्रह के लिए है, सबको गुरु मुख से ही विद्याध्ययन करना चाहिए एवं अपनी शक्ति के अनुसार गुरु दक्षिणा भी देना चाहिए।
मथुरा के नागरिक पहले कंस के उपद्रव से पीड़ित थे, उससे बचने के लिए उन्होंने भिन्न-भिन्न देश राज्य राजा एवं संबंधियों का आश्रय स्वीकार किया।
श्री कृष्ण का अवतार हुआ उसको उन्होंने देखा नहीं सुना तो किसी को विश्वास हुआ, किसी को नहीं हुआ।
कंस वध के बाद श्रीकृष्ण ने सबको मथुरा बुलाया, बसाया, सुख सुविधा दी संपन्नता हुई है सुख तो मिला परंतु श्रीकृष्ण का योग नहीं मिला ,आपत्ति विपत्ति आने पर अपने हितैषी रक्षक पर दृष्टि जाती है, त्राण कल्याण प्राप्त होने पर उससे आसक्ति हो जाती है।
इसी से मथुरा पर जरासंध का आक्रमण हुआ, सत्तरह आक्रमण जरासंध ने अपने बल से किया, बीच में एक आक्रमण कालयवन का हुआ अट्ठारहवां आक्रमण शिव बल, यज्ञ बल, धर्म बल से परिपुष्ट होकर जरासंध ने किया, जरासंध को भागवत में कर्म पास की संज्ञा दी गई है, वह कर्मों का दो विभाग होने पर भी जरा राक्षसी के द्वारा जोड़ दिया गया है अर्थात पहले तो वाह छिन्न विच्छिन्न था, परंतु प्रजापति की इच्छा से जुड़ गया।
उसकी पुत्री --"अस्ति और प्राप्ति" --इतना हमारे पास है और इतना और मिलेगा, कंस रूप अभिमान के साथ ब्याही गई थी पति के मर जाने पर वह विधवा होकर पिता के घर आ गई, ब्रह्मविद्या प्राप्त होने के पश्चात भी प्रारब्ध कर्म उपद्रव करते रहते हैं।
अतः मथुरा में भी उपद्रव की सृष्टि हुई ,ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति होती है, परंतु प्रारब्ध दुख की निवृत्ति के लिए ज्ञान बल चाहिए।
अतः कृष्ण और बलराम दोनों ने मिलकर उसका निवारण किया संकट बहुत आए ,परंतु श्री कृष्ण के मुखारविंद पर मुस्कान की झलक दुख की परिस्थितियों के आने पर भी चमक उठती थी।
एक ब्रह्मविद्या थी मथुरा, दूसरी ब्रह्मनिष्ठा रूप नगरी बसाई द्वारिका वह मथुरा के समान ही थी, श्री कृष्ण के निवास पर्यंत ही उसका जीवन था श्री कृष्ण का सानिध्य ही मथुरा द्वारका का प्राण है।
शरीर मथुरा है और हृदय गोकुल, नन्द जीव है।
इस शरीर को मथुरा बनाना है, हृदय -गोकुल मे बालकृष्ण को पधराना है, मन को आसक्ति से बचाने पर शरीर मथुरा बनेगा एवं हृदय गोकुल,पवित्र काया ही मथुरा है।
"मथुरा" और "मधुरा"एक है।
कामसुख और संपत्ति मद हैं, इन दो मदों से जो अपने को बचाता है , उसी का शरीर मथुरा बनता है ।इन्हीँ दो वस्तुओ में मन फँसा है, मन को इनसे बचाना है। मनुष्य कई बार तन से तो कामसुख त्यागता है किन्तु मन से नहीं, दो वस्तुओं को प्रभु ने आसक्तिपूर्ण बनाया है - स्त्री एवं धन, इन दो आसक्तियों मे मद -सा आकर्षण है,इन दोनो से हमें बचना होगा।
संपत्ति, शक्ति और भोग की उपस्थिति होने पर भी मन को बचाए रखना ही सच्चा संयम है अन्यथा --
"धातुषु क्षीयमाणेषु शम कस्य न जायते"
अपनी जवानी में जो मन को अंकुशित कर पाए वही सयाना है, भक्ति आसान नहीं है,परस्त्री और परधन की आसक्ति त्यागे बिना भक्ति का आरम्भ नहीं हो सकता।
जब तक भोग बुद्धि है , तब तक ईश्वर की भक्ति कैसे हो पायेगी, द्रव्य का चिंतन करते रहने से तो द्रव्य मिलेगा नहीं, द्रव्य और कामसुख का विचार तक त्यागने पर ही यह काया पवित्र होगी।
यमुना भक्ति की स्वरुप हैं, यदि शरीर को मथुरा एव हृदय को गोकुल बनाना है तो भक्ति - यमुना के तट पर बसना होगा, यमुना का ,भक्ति का तट कभी न त्यागें, चौबीस घण्टे भक्ति तट पर रहने से ही यह शरीर मथुरा और हृदय गोकुल बन पायेगा, जब तक मन में मत्सर होगा,शरीर मथुरा नही बन पायेगा, "मत्सर तो विद्वान एवं धनिक दोनो को सताता है" आजकल के लोग शरीर की अपेक्षा मन से अधिक पाप करते है।
मद से बचने का उपाय है मथुरा शब्द को उलटने से "राथुम" शब्द बनेगा , और बीच से "थु" अक्षर निकालने पर "राम" रह जायेगा, यदि इसी "राम" को सदैव मुख मे रखा जाय तो शरीर मथुरा बन जायेगा , जव परमात्मा से हमेशा सम्बन्ध बना रहेगा तो "राम " रहेगा नही तो "थू" ही रह जायेगा और सभी यमदूत "थू थू " करेगें किसी ने कहा है ---
"मथुरा विपरीतं च मध्याक्षर वर्जित:।
येन मुखे युगलं नास्ति तन्मुखे मध्याक्षर:।।"
गो शब्द का अर्थ है - इन्द्रिय, भक्ति, गाय, उपनिषद , आदि इन्द्रियों को विषयों की ओर बढ़ने देने की अपेक्षा प्रभु की मोड़ दें क्योंकि उनके स्वामी प्रभु ही है, मन में भगवद स्मरण होता रहे, एक एक इन्द्रिय को भक्ति रस में सराबोर करने से हृदय गोकुल बनेगा और परमानंद का प्राकट्य होगा।
#पूजा पाठ
यज्ञादि कर्मों में अग्नि के नाम एवं वेदों में अग्नि की महत्ता
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अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है-सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए-
पावक
पवमान
शुचि
छठे मन्वन्तर में वसु की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक आदि पुत्र हुए, जिनमें 45 अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस प्रकार सब मिलाकर 49 अग्नि हैं। विभिन्न कर्मों में अग्नि के भिन्न-भिन्न नाम हैं। लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम नाम पावक है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम प्रसिद्ध हैं-
अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते।
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:।।
सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि।
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा।।
सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भव:।
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।।
वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजक: स्मृत:।
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।।
प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहस:।
लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:।।
पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा।
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।।
वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषक:।
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।।
अर्थात
गर्भाधान में अग्नि को "मारुत" कहते हैं।
पुंसवन में "चन्द्रमा
शुगांकर्म में "शोभन
सीमान्त में "मंगल
जातकर्म में 'प्रगल्भ
नामकरण में "पार्थिव
अन्नप्राशन में 'शुचि
चूड़ाकर्म में "सत्य
व्रतबन्ध (उपनयन) में "समुद्भव
गोदान में "सूर्य
केशान्त (समावर्तन) में "अग्नि
विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में "वैश्वानर
विवाह में "योजक
चतुर्थी में "शिखी
धृति में "अग्नि
प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिहोम) में "विधु
पाकयज्ञ (अर्थात् पाकांग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस
लक्षहोम में "वह्नि
कोटि होम में "हुताशन
पूर्णाहुति में "मृड
शान्ति में "वरद
पौष्टिक में "बलद
आभिचारिक में "क्रोधाग्नि
वशीकरण में "शमन
वरदान में "अभिदूषक
कोष्ठ में "जठर
और मृत भक्षण में "क्रव्याद" कहा गया है।
ऋग्वेद के अनुसार
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हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप हैं-
व्योम से सूर्य
अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत
पृथ्वी पर साधारण अग्नि
अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गई है। वह मंत्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्त्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है, उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है। जैमिनी ने मीमांसासूत्र के "हवि:प्रक्षेपणाधिकरण" में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं-
गार्हपत्य
आहवनीय
दक्षिणाग्नि
सभ्य
आवसथ्य
औपासन
'अग्नि शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो ऊपर की ओर जाता है'(अगि गतौ, अंगेनलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)।
वैदिक धर्म के अनुसार
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अवेस्ता में अग्नि को पाँच प्रकार का माना गया है। परन्तु अग्नि की जितनी उदात्त तथा विशद कल्पना वैदिक धर्म में है, उतनी अन्यंत्र कहीं पर भी नहीं है। वैदिक कर्मकाण्ड का श्रौत भाग और गृह्य का मुख्य केन्द्र अग्निपूजन ही है। वैदिक देवमण्डल में इन्द्र के अनन्तर अग्नि का ही दूसरा स्थान है। जिसकी स्तुति लगभग दो सौ सूक्तों में वर्णित है। अग्नि के वर्णन में उसका पार्थिव रूप ज्वाला, प्रकाश आदि वैदिक ऋषियों के सामने सदा विद्यमान रहता है। अग्नि की तुलना अनेक पशुओं से की गई है। प्रज्वलित अग्नि गर्जनशील वृषभ के समान है। उसकी ज्वाला सौर किरणों के तुल्य, उषा की प्रभा तथा विद्युत की चमक के समान है। उसकी आवाज़ आकाश की गर्जन जैसी गम्भीर है। अग्नि के लिए विशेष गुणों को लक्ष्य कर अनेक अभिधान प्रयुक्त करके किए जाते हैं। अग्नि शब्द का सम्बन्ध लातोनी 'इग्निस्' और लिथुएनियाई 'उग्निस्' के साथ कुछ अनिश्चित सा है, यद्यपि प्रेरणार्थक अज् धातु के साथ भाषा शास्त्रीय दृष्टि से असम्भव नहीं है। प्रज्वलित होने पर धूमशिखा के निकलने के कारण धूमकेतु इस विशिष्टिता का द्योतक एक प्रख्यात अभिधान है। अग्नि का ज्ञान सर्वव्यापी है और वह उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणियों को जानता है। इसलिए वह 'जातवेदा:' के नाम से विख्यात है। अग्नि कभी द्यावापृथिवी का पुत्र और कभी द्यौ: का सूनु (पुत्र) कहा गया है। उसके तीन जन्मों का वर्णन वेदों में मिलता है। जिनके स्थान हैं-स्वर्ग, पृथ्वी तथा जल। स्वर्ग, वायु तथा पृथ्वी अग्नि के तीन सिर, तीन जीभ तथा तीन स्थानों का बहुत निर्देश वेद में उपलब्ध होता है। अग्नि के दो जन्मों का भी उल्लेख मिलता है-भूमि तथा स्वर्ग। अग्नि के आनयन की एक प्रख्यात वैदिक कथा ग्रीक कहानी से साम्य रखती है। अग्नि का जन्म स्वर्ग में ही मुख्यत: हुआ, जहाँ से मातरिश्वा ने मनुष्यों के कल्याणार्थ उसका इस भूतल पर आनयन किया। अग्नि प्रसंगत: अन्य समस्त वैदिक देवों में प्रमुख माना गया है। अग्नि का पूजन भारतीय संस्कृति का प्रमुख चिह्न है और वह गृहदेवता के रूप में उपासना और पूजा का एक प्रधान विषय है। इसलिए अग्नि 'गृहा', 'गृहपति' (घर का स्वामी) तथा 'विश्वपति' (जन का रक्षक) कहलाता है।
रूप का वर्णन
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अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है-
पिंगभ्रूश्मश्रुकेशाक्ष: पीनांगजठरोऽरुण:।
छागस्थ: साक्षसूत्रोऽग्नि: सप्तार्चि: शक्तिधारक:।।
भौहें, दाढ़ी, केश और आँखें पीली हैं। अंग स्थूल हैं और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ़ हैं, अक्षमाला लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ हैं और शक्ति को धारण करता है।
शुभ लक्षण
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होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं-
अर्चिष्मान् पिण्डितशिख: सर्पि:काञ्चनसन्निभ:।
स्निग्ध: प्रदक्षिणश्चैव वह्नि: स्यात् कार्यसिद्धये।।
ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक होता है।
शब्द उत्पादन
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देहजन्य अग्नि में शब्द उत्पादन की शक्ति होती है, जैसा कि "संगीतदर्पण" में कहा है-
आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम्।
ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावक:।।
पावकप्रेरित: सोऽथ क्रमदूर्ध्वपथे चरन्।
अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुन:।।
पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्च कृत्रिमं वदने तथा।
आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधै:।।
नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विंदु:।
जात: प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते।।
आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को आहत करता है। ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्रेरित वह प्राण क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम प्रकाश करता है। विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि बताया है। नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम है। प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है। सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के सर्वप्रथम मंत्र "अग्निमीले पुरोहितम्" से प्रकट होता है।
रूप का प्रयोग
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योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी "अग्नि" का प्रयोग होता है। गीता में यह कथन है-
'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।'
'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि तमाहु: पण्डितं बुधा:।।'
अग्नि का सर्वप्रथम स्थान
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पृथ्वी-स्थानीय देवों में अग्नि का सर्वप्रथम स्थान है। अग्नि यज्ञीय अग्नि का प्रतिनिधि रूप है। यज्ञ के द्वारा मनुष्य का सम्बन्ध देवों से होता है। अत: यज्ञ की अग्नि मनुष्य और देवता के बीच सम्बन्ध का सूचक है। परन्तु अग्नि का स्वरूप भौतिक भी है। इनका स्वरूप गरजते हुए वृषभ के समान बतलाया गया है। उन्हें सिर और पैर नहीं हैं परन्तु जिह्वा लाल है। वैदिक मंत्रों में बतलाया गया है कि उत्पत्ति के समय अग्नि का स्वरूप बछड़े के समान है, परन्तु प्रज्वलित होने पर उनका स्वरूप अश्व के समान है। उनकी ज्वाला को विद्युत के समान कहा गया है। काष्ठ और घृत को उनका भोजन माना गया है। अग्नि धूम पताके के समान ऊपर की ओर जाता है। इसी कारण से अग्नि को धूमकेतु कहा गया है। यज्ञ के समय इनका आह्वान किया जाता है कि ये कुश के आसन पर विराजमान हों तथा देवों के हविष को ग्रहण करें। अग्नि का जन्म स्थान स्वर्ग माना गया है। स्वर्ग से मातरिश्वा ने धरती पर इन्हें लाया। अग्नि ज्ञान का प्रतीक है। वह सभी प्राणियों के ज्ञाता देव हैं। अत: इन्हें 'जातवेदा:' कहा गया है। अग्नि को द्युस्थानीय देवता सूर्य भी माना गया है। अग्नि को 'त्रिविध' तथा 'द्विजन्मा' भी कहा गया है। उनका प्रथम जन्म स्वर्ग में तथा दूसरा जन्म जल में (पृथ्वी पर) बतलाया गया है। अग्नि दानवों के भक्षक तथा मानवों के रक्षक माने गए हैं। इनका वर्णन दो सौ वैदिक सूक्तों में प्राप्त होता है।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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सूर्य और सात घोडो का रहस्य
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रोचक तथ्य
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हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं तथा उनसे जुड़ी कहानियों का इतिहास काफी बड़ा है या यूं कहें कि कभी ना खत्म होने वाला यह इतिहास आज विश्व में अपनी एक अलग ही पहचान बनाए हुए है। विभिन्न देवी-देवताओं का चित्रण, उनकी वेश-भूषा और यहां तक कि वे किस सवारी पर सवार होते थे यह तथ्य भी काफी रोचक हैं।
सूर्य रथ
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हिन्दू धर्म में विघ्नहर्ता गणेश जी की सवारी काफी प्यारी मानी जाती है। गणेश जी एक मूषक यानि कि चूहे पर सवार होते हैं जिसे देख हर कोई अचंभित होता है कि कैसे महज एक चूहा उनका वजन संभालता है। गणेश जी के बाद यदि किसी देवी या देवता की सवारी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है तो वे हैं सूर्य भगवान।
क्यों जुते हैं सात घोड़े
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सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार होते हैं। सूर्य भगवान जिन्हें आदित्य, भानु और रवि भी कहा जाता है, वे सात विशाल एवं मजबूत घोड़ों पर सवार होते हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं।
सात की खास संख्या
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लेकिन सूर्य देव द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती है? क्या इस सात संख्या का कोई अहम कारण है? या फिर यह ब्रह्मांड, मनुष्य या सृष्टि से जुड़ी कोई खास बात बताती है। इस प्रश्न का उत्तर पौराणिक तथ्यों के साथ कुछ वैज्ञानिक पहलू से भी बंधा हुआ है।
कश्यप और अदिति की संतानें
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सूर्य भगवान से जुड़ी एक और खास बात यह है कि उनके 11 भाई हैं, जिन्हें एकत्रित रूप में आदित्य भी कहा जाता है। यही कारण है कि सूर्य देव को आदित्य के नाम से भी जाना जाता है। सूर्य भगवान के अलावा 11 भाई ( अंश, आर्यमान, भाग, दक्ष, धात्री, मित्र, पुशण, सवित्र, सूर्या, वरुण, वमन, ) सभी कश्यप तथा अदिति की संतान हैं।
वर्ष के 12 माह के समान
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पौराणिक इतिहास के अनुसार कश्यप तथा अदिति की 8 या 9 संतानें बताई जाती हैं लेकिन बाद में यह संख्या 12 बताई गई। इन 12 संतानों की एक बात खास है और वो यह कि सूर्य देव तथा उनके भाई मिलकर वर्ष के 12 माह के समान हैं। यानी कि यह सभी भाई वर्ष के 12 महीनों को दर्शाते हैं।
सूर्यदेव की दो पत्नियां
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सूर्य देव की दो पत्नियां – संज्ञा एवं छाया हैं जिनसे उन्हें संतान प्राप्त हुई थी। इन संतानों में भगवान शनि और यमराज को मनुष्य जाति का न्यायाधिकारी माना जाता है। जहां मानव जीवन का सुख तथा दुख भगवान शनि पर निर्भर करता है वहीं दूसरी ओर शनि के छोटे भाई यमराज द्वारा आत्मा की मुक्ति की जाती है। इसके अलावा यमुना, तप्ति, अश्विनी तथा वैवस्वत मनु भी भगवान सूर्य की संतानें हैं। आगे चलकर मनु ही मानव जाति का पहला पूर्वज बने।
सूर्य भगवान का रथ
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सूर्य भगवान सात घोड़ों वाले रथ पर सवार होते हैं। इन सात घोड़ों के संदर्भ में पुराणों तथा वास्तव में कई कहानियां प्रचलित हैं। उनसे प्रेरित होकर सूर्य मंदिरों में सूर्य देव की विभिन्न मूर्तियां भी विराजमान हैं लेकिन यह सभी उनके रथ के साथ ही बनाई जाती हैं।
कोणार्क मंदिर
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विशाल रथ और साथ में उसे चलाने वाले सात घोड़े तथा सारथी अरुण देव, यह किसी भी सूर्य मंदिर में विराजमान सूर्य देव की मूर्ति का वर्णन है। भारत में प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर भगवान सूर्य तथा उनके रथ को काफी अच्छे से दर्शाता है।
सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं
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लेकिन इस सब से हटकर एक सवाल काफी अहम है कि आखिरकार सूर्य भगवान द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती हैं। यह संख्या सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं है। यदि हम अन्य देवों की सवारी देखें तो श्री कृष्ण द्वारा चालए गए अर्जुन के रथ के भी चार ही घोड़े थे, फिर सूर्य भगवान के सात घोड़े क्यों? क्या है इन सात घोड़ों का इतिहास और ऐसा क्या है इस सात संख्या में खास जो सूर्य देव द्वारा इसका ही चुनाव किया गया।
सात घोड़े और सप्ताह के सात दिन
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सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं - गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति। कहा जाता है कि यह सात घोड़े एक सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं। यह तो महज एक मान्यता है जो वर्षों से सूर्य देव के सात घोड़ों के संदर्भ में प्रचलित है लेकिन क्या इसके अलावा भी कोई कारण है जो सूर्य देव के इन सात घोड़ों की तस्वीर और भी साफ करता है।
सात घोड़े रोशनी को भी दर्शाते हैं
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पौराणिक दिशा से विपरीत जाकर यदि साधारण तौर पर देखा जाए तो यह सात घोड़े एक रोशनी को भी दर्शाते हैं। एक ऐसी रोशनी जो स्वयं सूर्य देवता यानी कि सूरज से ही उत्पन्न होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश में सात विभिन्न रंग की रोशनी पाई जाती है जो इंद्रधनुष का निर्माण करती है।
बनता है इंद्रधनुष
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यह रोशनी एक धुर से निकलकर फैलती हुई पूरे आकाश में सात रंगों का भव्य इंद्रधनुष बनाती है जिसे देखने का आनंद दुनिया में सबसे बड़ा है।
प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न
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सूर्य भगवान के सात घोड़ों को भी इंद्रधनुष के इन्हीं सात रंगों से जोड़ा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। केवल यही कारण नहीं बल्कि एक और कारण है जो यह बताता है कि सूर्य भगवान के रथ को चलाने वाले सात घोड़े स्वयं सूरज की रोशनी का ही प्रतीक हैं।
पौराणिक गाथा से इतर
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यदि आप किसी मंदिर या पौराणिक गाथा को दर्शाती किसी तस्वीर को देखेंगे तो आपको एक अंतर दिखाई देगा। कई बार सूर्य भगवान के रथ के साथ बनाई गई तस्वीर या मूर्ति में सात अलग-अलग घोड़े बनाए जाते हैं, ठीक वैसा ही जैसा पौराणिक कहानियों में बताया जाता है लेकिन कई बार मूर्तियां इससे थोड़ी अलग भी बनाई जाती हैं।
अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति
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कई बार सूर्य भगवान की मूर्ति में रथ के साथ केवल एक घोड़े पर सात सिर बनाकर मूर्ति बनाई जाती है। इसका मतलब है कि केवल एक शरीर से ही सात अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति होती है। ठीक उसी प्रकार से जैसे सूरज की रोशनी से सात अलग रंगों की रोशनी निकलती है। इन दो कारणों से हम सूर्य भगवान के रथ पर सात ही घोड़े होने का कारण स्पष्ट कर सकते हैं।
सारथी अरुण
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पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। एक ओर अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते है !
केवल एक ही पहिया
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रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें 12 तिल्लियां लगी हुई हैं। यह काफी आश्चर्यजनक है कि एक बड़े रथ को चलाने के लिए केवल एक ही पहिया मौजूद है, लेकिन इसे हम भगवान सूर्य का चमत्कार ही कह सकते हैं। कहा जाता है कि रथ में केवल एक ही पहिया होने का भी एक कारण है।
पहिया एक वर्ष को दर्शाता है
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यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी 12 तिल्लियां एक वर्ष के 12 महीनों का वर्णन करती हैं। एक पौराणिक उल्लेख के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के समस्त 60 हजार वल्खिल्या जाति के लोग जिनका आकार केवल मनुष्य के हाथ के अंगूठे जितना ही है, वे सूर्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा करते हैं। इसके साथ ही गांधर्व और पान्नग उनके सामने गाते हैं औरअप्सराएं उन्हें खुश करने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती हैं।
ऋतुओं का विभाजन
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कहा जाता है कि इन्हीं प्रतिक्रियाओं पर संसार में ऋतुओं का विभाजन किया जाता है। इस प्रकार से केवल पौराणिक रूप से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों से भी जुड़ा है भगवान सूर्य का यह विशाल रथ।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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