sn vyas
ShareChat
click to see wallet page
@sn7873
sn7873
sn vyas
@sn7873
जय श्री कृष्ण घर पर रहे-सुरक्षित रहे
#उत्पन्ना एकादशी #🙏🙏 उत्पन्ना एकादशी 🙏🙏 #वैष्णव उत्पन्ना एकादशी #उत्पन्ना एकादशी 🪷✨😍🥰 🌷 श्री उत्पन्ना/उत्पत्ति एकादशी व्रत*श 🌷 { कल 15 नवंबर 2025, शनिवार } { *एकादशी माता का प्रागटय दिन* } [प्रभु श्री हरि विष्णु का अंश] *मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष* ( *गुजरात एवं महाराष्ट्र के अनुसार कार्तिक कृष्णपक्ष* ) एकादशी को ' *उत्पत्ति एकादशी* ' कहते हैं ..जो इस बार *15 नवंबर 2025, शनिवार के दिन है🙏* 👉 *एकादशी तिथि प्रारंभ* 👇 14 नवंबर 2025,शुक्रवार दोपहर 2:19 मिनट से 👉 *एकादशी तिथि समापन* 👇 15 नवंबर 2025,शनिवार शाम 4:07 पर 👉 *एकादशी तिथि पारण*👇 16 नवंबर 2025, रविवार सुबह 7:17 से 9:13 तक. *विशेष :* *एकादशी का व्रत सूर्योदय तिथि 15 नवंबर 2025,शनिवार के दिन ही रखें* 🙏 शुक्रवार दोपहर एवं शनिवार व्रत के दिन खाने में चावल या चावल से बनी हुए चीज वस्तुओं का प्रयोग बिल्कुल भी ना करें🙏 अगर आप व्रत नहीं रखते हैं तो भी🙏 { *कोई कोई जगह पर 16 नवंबर 2025, रविवार के दिन पक्ष वर्धिनी महाद्वादशी होने के कारण द्वादशी का व्रत रखा जाएगा}* 👉 *आईए जानते हैं उत्पन्ना एकादशी नाम कैसे पड़ा❓❓... माता एकादशी का प्रागटय कैसे हुआ* ❓❓👇 *प्रभु श्री हरि विष्णु जी के शरीर से एक स्त्री/देवी उत्पन्न हुई* और यही स्त्री ने मुरु नाम के राक्षस का वध कर दिया और वह दिन एकादशी तिथि थी इसलिए इस तिथि को *उत्पन्ना/उत्पत्ति एकादशी तिथि कहते हैं* ... जो भी कोई *नए भक्त गण* एकादशी तिथि का व्रत शुरु करना चाहते हैं वह भक्तगण को *इसी एकादशी के दिन से सभी एकादशी तिथि का व्रत करने की शुरुआत करनी चाहिए ऐसी मान्यता है.🙏* 👉 *सूतजी कहने लगे* - हे ऋषियों! उत्पत्ति एकादशी व्रत का वृत्तांत और उत्पत्ति प्राचीनकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त युधिष्ठिर से कही थी। वही मैं तुमसे कहता हूँ एक समय यु‍धिष्ठिर ने भगवान से पूछा था ‍कि एकादशी व्रत किस विधि से किया जाता है❓ और उसका क्या फल प्राप्त होता है🙏 उपवास के दिन जो क्रिया की जाती है आप कृपा करके मुझसे कहिए🙏 यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे- हे युधिष्ठिर! मैं तुमसे एकादशी के व्रत का माहात्म्य कहता हूँ। सुनो। 👉 *एकादशी माहात्म्य* 👇 जो मनुष्य विधिपूर्वक एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के भी समान नहीं है। व्यतिपात के दिन दान देने का लाख गुना फ़ल होता है। संक्रांति से चार लाख गुना तथा सूर्य-चंद्र ग्रहण में स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है *वही पुण्य एकादशी के दिन व्रत करने से मिलता है।* अश्वमेध यज्ञ करने से सौ गुना तथा एक लाख तपस्वियों को साठ वर्ष तक भोजन कराने से दस गुना, दस ब्राह्मणों अथवा सौ ब्रह्मचारियों को भोजन कराने से हजार गुना पुण्य भूमिदान करने से होता है। उससे हजार गुना पुण्य कन्यादान से प्राप्त होता है। इससे भी दस गुना पुण्य विद्यादान करने से होता है। *विद्यादान से दस गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है। अन्नदान के समान इस संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिससे देवता और पितर दोनों तृप्त होते हों परंतु एकादशी के व्रत का पुण्य सबसे अधिक होता है* 🚩 हजार यज्ञों से भी ‍अधिक इसका फ़ल होता है। इस व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है। *रात्रि को फ़लाहार करने वाले को* उपवास का आधा फ़ल मिलता है और *दिन में एक बार फ़लाहार करने वाले को भी आधा ही फल प्राप्त होता है।* जबकि *निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते* 🙏 👉 *एकादशी व्रत विधि* 👇 सर्वप्रथम हेमंत ऋ‍तु में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी से इस व्रत को प्रारंभ किया जाता है। दशमी को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश मुँह में रह न जाए। रात्रि को भोजन कदापि न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन प्रात: उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात न करे🙏 स्नान के पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान का पूजन करें और रात को दीपदान करें। रात्रि में सोना नहीं चाहिए🙏 सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए🙏 जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए🙏 धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए। 🙏 *ओम नमो नारायणाय* 🙏
उत्पन्ना एकादशी - परमात्माका स्वरुप समृह 15-11-25 एकादशी उन्पन्ना शनिवार मार्गशीर्ष माह के कृष्णपक्ष की ग्यारस यानी ग्यारहवीं तिथि को fau ; से एकादशी तिथि उत्पन्न हुई थीं। देवी एकादशी भगवान ATICIF विष्णु  की एक शक्ति का रूप है॰ मान्यता है कि उन्होंने इसी दिन उत्पन्न होकर राक्षस मुर का वध किया था। परमात्माका स्वरुप समृह 15-11-25 एकादशी उन्पन्ना शनिवार मार्गशीर्ष माह के कृष्णपक्ष की ग्यारस यानी ग्यारहवीं तिथि को fau ; से एकादशी तिथि उत्पन्न हुई थीं। देवी एकादशी भगवान ATICIF विष्णु  की एक शक्ति का रूप है॰ मान्यता है कि उन्होंने इसी दिन उत्पन्न होकर राक्षस मुर का वध किया था। - ShareChat
#तुलसी तुलसी माला की महिमा 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ हिंदू धर्म में तुलसी को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है तुलसी की माला पहनने से कई बीमारियां ठीक हो होती हैं, तुलसी को शास्त्रों में व् ज्योतिष के अनुसार उल्लेख है कि भगवान विष्णु ने शालिग्राम का रूप इसलिए ही लिया था ताकि वे तुलसी के चरणों में रह सकें। इस लिए भगवान विष्णु को रमप्रिया मानी जाती है। और तुलसी खुद को भगवान की सेविका मानती हैं और उन्हें शालिग्राम के रूप मे हमेशा अपने छांव में रखती हैं। तुलसी के पौधे में कई औषधीय गुण भी पाए जाते हैं जो की बीमारियों और दवाइयों में इस्तमाल किया जाता है। इसे वैज्ञानिक तौर पर विशिष्ट महत्व देते हैं। चाहे पौधा हरा भरा हो या सूखा हुआ इसमें चमत्कारिक रूप से कई गुण हमेशा मौजूद रहेते हैं जो कि हमें हर तरफ से स्वास्थ्य लाभ देते हैं। हिंदू धर्म में तुलसी को पवित्र माना गया है अक्सर घरों में परिवार की सुख-समृद्धि के लिए इसकी पूजा भी की जाती है। और तुलसी की माला को भी धारण करना अच्छा माना जाता है। ज्योतिष के मुताबिक, माना जाता है कि तुलसी की माला पहनने से बुध और गुरु ग्रह बलवान होते हैं। लेकिन इसे धारण करने के लिए कुछ नियम हैं। आइए आपको बताते हैं कि इस माला को धारण करने के लिए मुख्य नियम क्या है तुलसी की माला के नियम 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ हिंदू धर्म में तुलसी को पवित्र माना जाता है। महिलाएं परिवार में सुख-समृद्धि लाने के लिए तुलसी की पूजा करती हैं। इसी तरह तुलसी की माला भी धारण करना अच्छा माना जाता है। भगवान विष्णु और कृष्ण के भक्त तुलसी की माला को धारण करते हैं। कहा जाता है कि तुलसी की माला पहनने से मन और आत्मा पवित्र होती है। यह भी कहा जाता है कि इसके कई औषधिए गुण भी हैं। उसी तरह तुलसी की माला को भी धारण करना अच्छा माना जाता है। लेकिन इसे धारण करने के लिए कुछ नियम हैं। 1👉 शास्त्रों में तुलसी को बहुत पवित्र माना गया है। जिस घर में तुलसी होती है उस घर से बीमारियां कोसों दूर रहती हैं, इसे आयुर्वेदिक औषधि बनाने के काम में भी लिया जाता है। इसमें एक विशेष प्रकार की विधुत शक्ति होती है, जो पहनने वालों में आकर्षण उत्त्पन्न करती है। 2👉 शालिग्राम पुराण के अनुसार अगर तुलसी की माला भोजन ग्रहण करते समय व्यक्ति के शरीर पर हो तो इससे व्यक्ति को कई यज्ञ करने का पुण्य प्राप्त होता है, इसी कारण बुजुर्ग इसे अपने गले में पहनते हैं। 3👉 इसे पहनने से यश, कीर्ति और समृद्धि में वृद्धि होती है। इसमें औषधिय गुण होने के कारण पहनने वाले को सिरदर्द, जुखाम, बुखार, त्वचा संबंधी रोग नहीं होते हैं। 4👉 इसे पहनने से पहले गंगाजल डालकर फिर से शुद्ध कर लेना चाहिए और धूप दिखानी चाहिए। इस धारण करने से पहले भगवान श्रीहरि की स्तुति करनी चाहिए। 5👉 तुलसी की माला को धारण करने वाले को लहसुन-प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए। जो भी व्यक्ति तुलसी की माला को धारण करता है उसे मांस व मदिरा से भी दूर रहना चाहिए ज्योतिष और शास्त्रो में बताया गया है कि तुलसी की माला पहनने से पहले इसे गंगा जल और धूप दिखाना चाहिए।इसे तुलसी की माला को धारण करने पर बुध और गुरु ग्रह बलवान होते हैं और सुख-समृद्धि भी दुगनी हो जाती है। तुलसी की माला पहनने से पहले मंदिर में जाकर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए। इसे भगवान विष्णु का आशीर्वाद आप पर सदेव बना रहेता है। तुलसी की माला को धारण करने वाले को लहसुन-प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए। इससे तुलसी की माला का अनादर होता है जो भी व्यक्ति तुलसी की माला को धारण करता है उसे मांस व मदिरा से भी दूर रहना चाहिए। क्या महिलाये तुलसी माला धारण कर सकती है ?? 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ हिंदू धर्म में महिलाएं सुख-समृद्धि लाने के लिए तुलसी की पूजा करती हैं। इसी तरह तुलसी की माला भी धारण करना अच्छा माना जाता है। जो सज्जन भगवान विष्णु और कृष्ण के में आस्था विश्वास रखते है वो तुलसी की माला को धारण करते हैं। कहा जाता है कि इस माला को पहनने से ही आत्मा और मन की शुद्धि होती है। इतना ही नहीं भगवान कृष्ण के भक्त मानते हैं कि इस माला से जप करने से भगवान उनके और करीब आते हैं। और उन की सारी मनोकामना पूरी करते है | तुलसी की माला कब पहने 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ तुलसी की वैसे तो आप कभी भी धारण कर सकते है लेकिन अगर आप इसे किसी शुभ मुहूर्त पर पहनते है तो आपको इस का दुगना फ़ायदा होता है और आप को हर तरफ से सफलता मिलती है तुलसी की माला को आप गुरुवार के दिन धारण करें। तुलसी माला की पहचान 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ तुलसी की माला वैसे तो आपको कभी भी कही भी मिल जाएगी लेकिन कौन सी असली है यह जाना बहुत जरुरी हो जाता है हम द्वारा आपको बता दे की इस की पहचान करना काफी सरल है अगर आप तुलसी की माला को 30 मिनट तक पानी में दाल कर रख दे तो आप पहचान सकते है अगर इस का कलर निकला तो वो असली नही है। तुलसी की माला के लाभ 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ तुलसी की माला पहनने से बुध और गुरू ग्रह को बल मिलता है। ज्योतिष में ऐसा बताया गया है। बुरी नजर से बचाने के लिए भी इस माला को लोग बच्चों को धारण कराते हैं। इसके धारण मात्र से प्रभु की प्राप्ति होती है जिससे सभी प्रकार के सुख मिलते हैं। इस पवित्र माला को धारण करने से पहले गंगाजल से इसे धोना चाहिए। इसके बाद धूप-दीप देनी चाहिए। मंदिर में जाकर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए। तुलसी माला कथा 〰️〰️🌼🌼〰️〰️ तुलसी के बीजों की माला बहुत ही लाभदायक होती है। तुलसी मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है। श्यामा तुलसी और रामा तुलसी। श्यामा तुलसी अपने नाम के अनुसार ही श्याम वर्ण की होती है तथा रामा तुलसी हलके भूरे या हरित वर्ण की होती है। तुलसी और चंदन की माला विष्णु, राम और कृष्ण से संबंधित जपों की सिद्धि के लिए उपयोग में लाई जाती है। मंत्र :– इसके लिए मंत्र ‘ॐ विष्णवै नम:’ का जप श्रेष्ठ माना गया है। मांसाहार आदि तामसिक वस्तुओं का सेवन करने वाले लोगों को तुलसी की माला धारण नहीं करनी चाहिए। श्यामा तुलसी 〰️〰️〰️〰️〰️ श्यामा तुलसी की माला धारण करने से विशेष रूप से मानसिक शांति प्राप्त होती है, ईश्वर के प्रति श्रद्धा-भक्ति बढ़ती है, मन में सकारात्मक भावना का विकास होता है, आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही पारिवारिक तथा भौतिक उन्नति होती है। इस माला को शुभ वार, सोम, बुध, बृहस्पतिवार को गंगाजल से शुद्ध करके धारण करना चाहिए। रामा तुलसी माला 〰️〰️〰️〰️〰️〰️ इस माला को धारण करने से व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास में वृद्धि तथा सात्विक भावनाएं जागृत होती हैं। अपने कर्तव्यपालन के प्रति मदद मिलती है। इस माला को शुभ वार, सोम, गुरु, बुध को गंगाजल से शुद्ध करके धारण करना चाहिए। तुलसी की माला में विद्युत शक्ति होती है। इस माला को पहनने से यश, कीर्ति और सौभाग्य बढ़ता है। शालिग्राम पुराण में कहा गया है कि तुलसी की माला भोजन करते समय शरीर पर होने से अनेक यज्ञों का पुण्य मिलता है। जो भी कोई तुलसी की माला पहनकर नहाता है, उसे सारी नदियों में नहाने का पुण्य मिलता है। तुलसी की माला पहनने से बुखार, जुकाम, सिरदर्द, चमड़ी के रोगों में भी लाभ मिलता है। संक्रामक बीमारी और अकाल मौत भी नहीं होती। ऐसी धार्मिक मान्यता है , तुलसी माला पहनने से व्यक्ति की पाचन शक्ति, तेज बुखार, दिमाग की बीमारियों एवं वायु संबंधित अनेक रोगों में लाभ मिलता है। इसे पहनने से बुरी नजर के प्रभाव से बचा जा सकता है। इस माला को धारण करने वाले व्यक्ति को जीवन में किसी प्रकार का दुख और भय नहीं सताता। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
तुलसी - तुलसी की माला এননীষ্টলঙ্গ तुलसी की माला এননীষ্টলঙ্গ - ShareChat
⛳ ⛳ ⛳ ⛳ ⛳ ⛳ ⛳ *🙏सादर वन्दे🙏* *🚩धर्मयात्रा🚩* *🌱हनुमानजी का जन्म स्थान , हम्पी , किष्किंधा ,पम्पा सरोवर , शबरी गुफा और मतंगवन 🌱* *हम्पी* *पौराणिक मत के अनुसार हम्पी वही जगह है , जहाँ भगवान हनुमानजी का जन्म हुआ था।* हनुमानजी की जन्मस्थली हम्पी में भगवान राम का भी भव्य मन्दिर है।हम्पी में घाटियों और टीलों के बीच लगभग 500 से भी अधिक स्मारक चिन्ह हैं। इनमें मन्दिर , महल , तहख़ाने , खंडहर , पुराने बाज़ार , शाही मंडप , गढ़ , चबूतरे , राजकोष ऐसी असंख्य इमारतें हैं। हम्पी जाने का सही समय है नवंबर से फरवरी तक। यहाँ फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी की जा सकती है। हम्पी के पास ही तुंगभ्रदा नदी बहती है। जहाँ ब्रह्माजी का बनाया हुआ पम्पा सरोवर , हनुमानजी की जन्मस्थली आंजनाद्रि पर्वत , बाली की गुफा और ऋषम्यूक पर्वत भी स्थित है। हम्पी से करीब तीन कि.मी. की दूरी पर अंजनी ( हनुमानजी की माताजी ) के नाम से एक आन्जनेय पर्वत है और इससे कुछ ही दूरी पर ऋष्यमूक पर्वत स्थित है , जिसे घेरकर तुंगभद्रा नदी बहती है । यहाँ कन्नड़ भाषा बोली जाती है। *हम्पी कैसे जाएँ :---* सड़क मार्ग से जाने पर हुबली से हास्‍पेट 150 कि.मी.एवं हास्‍पेट से हम्‍पी 13 कि.मी.दूर है । कुर्नूल से आने पर , कुर्नूल से बेल्लारी 150 कि.मी एवं बेल्लारी से हम्‍पी 61 कि.मी.है ।हम्पी से आप इन स्थानों की यात्रा पर जा सकते हैं । *किष्किंधा* हास्पेट से 13 कि.मी.दूर हम्पी है , और हम्पी में विजय विठ्ठल मन्दिर के दर्शन करने के बाद , तुंगभद्रा नदी को पार करने पर , ग्राम अनेगुंदी ( किष्किंधा ) है। पम्पा सरोवर एवं हंपी के निकट बसा ग्राम अनेगुंदी ही किष्किंधा है। *वर्तमान समय में कर्नाटक राज्य के बेल्लारी जिले में ही किष्किंधा नगरी है।* बेल्लारी जिले के हम्पी नामक नगर में एक हनुमान मन्दिर स्थापित है। इस मन्दिर में प्रतिष्ठित हनुमानजी को यंत्रोद्धारक हनुमान कहा जाता है। विद्वानों के मतानुसार यही क्षेत्र प्राचीन “ किष्किंधा नगरी ” है जो कि हम्पी से चार कि.मी. की दूरी पर स्थित है । रामायण काल में " किष्किन्धा " वानर राज बालि का राज्य था। किष्किन्धा संभवत: " ऋष्यमूक " की भाँति ही पर्वत था।रामायण के अनुसार किष्किंधा में बालि और तदुपरान्त सुग्रीव ने राज्य किया था। तदुपरान्त माल्यवान तथा प्रस्त्रवणगिरि पर जो किष्किंधा में विरूपाक्ष के मन्दिर से 6 कि.मी. दूर है , इसी स्थान पर श्रीराम ने वर्षा के चार मास व्यतीत किए थे ।ऋष्यमूक पर्वत तथा तुंगभद्रा के घेरे को “चक्रतीर्थ” कहते हैं। किष्किंधा से प्रायः डेढ़ कि.मी .पश्चिम में पंपासर नामक ताल है , जिसके तट पर राम और लक्ष्मण कुछ समय के लिए ठहरे थे। पास ही स्थित सुरोवन नामक स्थान को शबरी का आश्रम माना जाता है। *पम्पा सरोवर* पम्पा सरोवर । सरोवर का अर्थ झील हैं। हम यहाँ पंपा सरोवर की संक्षिप्त जानकारी आज दे रहे हैं । पंपा सरोवर , बंगलुरु के पास हॉस्पेट से तैरह कि.मी.दूर हम्पी के पास है। पंपा सरोवर का महत्व कैलाश मानसरोवर जैसा है। तुंगभद्रा नदी को पार करने पर अनेगुंदी जाते समय मुख्य मार्ग से कुछ हटकर बाईं ओर पश्चिम दिशा में पंपा सरोवर स्थित है। शोधानुसार माना जाता है कि रामायण में वर्णित विशाल पंपा सरोवर यही है । *शबरी की गुफा* पंपा सरोवर के पास पश्चिम में पर्वत के ऊपर कई जीर्ण-शीर्ण मन्दिर दिखाई पड़ते हैं। यहीं पर एक पर्वत है , जहाँ एक गुफा है जिसे शबरी की गुफा कहा जाता है। *मतंगवन* हास्पेट से हम्‍पी जाकर जब आप तुंगभद्रा नदी पार करते हैं तो हनुमनहल्‍ली गाँव की ओर जाते हुए आपको शबरी की गुफा , पंपा सरोवर और वह स्‍थान जहाँ , शबरी राम को बेर खिला रही थी , मिलते है । इसी के पास शबरी के गुरु मतंग ऋषि के नाम पर प्रसिद्ध ' मतंगवन ' था। *आप भी धर्मयात्रा🚩 हेतु जुड़ सकते हैं :* *धर्मयात्रा में दी गई ये जानकारियाँ , मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है। यहाँ यह बताना जरूरी है कि , धर्मयात्रा किसी भी तरह की मान्यता , जानकारी की पुष्टि नहीं करता है ।* *🙏शिव🙏9993339605* 🥀🌴🥀🌴🥀🌴🥀 #मंदिर दर्शन
मंदिर दर्शन - बाली गूफा बाली गूफा - ShareChat
#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक-2️⃣8️⃣ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण बालकाण्ड तेईसवाँ सर्ग विश्वामित्रसहित श्रीराम और लक्ष्मणका सरयू-गंगासंगमके समीप पुण्य आश्रममें रातको ठहरना जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब महामुनि विश्वामित्रने तिनकों और पत्तोंके बिछौनेपर सोये हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारोंसे कहा—॥१॥ 'नरश्रेष्ठ राम! तुम्हारे-जैसे पुत्रको पाकर महारानी कौसल्या सुपुत्रजननी कही जाती हैं। यह देखो, प्रातः कालकी संध्याका समय हो रहा है; उठो और प्रतिदिन किये जानेवाले देवसम्बन्धी कार्योंको पूर्ण करो'॥२॥ महर्षिका यह परम उदार वचन सुनकर उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरोंने स्नान करके देवताओंका तर्पण किया और फिर वे परम उत्तम जपनीय मन्त्र गायत्रीका जप करने लगे॥३॥ नित्यकर्म समाप्त करके महापराक्रमी श्रीराम और लक्ष्मण अत्यन्त प्रसन्न हो तपोधन विश्वामित्रको प्रणाम करके वहाँसे आगे जानेको उद्यत हो गये॥४॥ जाते-जाते उन महाबली राजकुमारोंने गंगा और सरयूके शुभ संगमपर पहुँचकर वहाँ दिव्य त्रिपथगा नदी गंगाजीका दर्शन किया॥५॥ संगमके पास ही शुद्ध अन्तःकरणवाले महर्षियोंका एक पवित्र आश्रम था, जहाँ वे कई हजार वर्षोंसे तीव्र तपस्या करते थे॥६॥ उस पवित्र आश्रमको देखकर रघुकुलरत्न श्रीराम और लक्ष्मण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने महात्मा विश्वामित्रसे यह बात कही—॥७॥ 'भगवन्! यह किसका पवित्र आश्रम है? और इसमें कौन पुरुष निवास करता है? यह हम दोनों सुनना चाहते हैं। इसके लिये हमारे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है'॥८॥ उन दोनोंका यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र हँसते हुए बोले—'राम! यह आश्रम पहले जिसके अधिकारमें रहा है, उसका परिचय देता हूँ, सुनो॥९॥ 'विद्वान् पुरुष जिसे काम कहते हैं, वह कन्दर्प पूर्वकालमें मूर्तिमान् था—शरीर धारण करके विचरता था। उन दिनों भगवान् स्थाणु (शिव) इसी आश्रममें चित्तको एकाग्र करके नियमपूर्वक तपस्या करते थे॥१०॥ 'एक दिन समाधिसे उठकर देवेश्वर शिव मरुद्गणोंके साथ कहीं जा रहे थे। उसी समय दुर्बुद्धि कामने उनपर आक्रमण किया। यह देख महात्मा शिवने हुङ्कार करके उसे रोका॥११॥ 'रघुनन्दन! भगवान् रुद्रने रोषभरी दृष्टिसे अवहेलनापूर्वक उसकी ओर देखा; फिर तो उस दुर्बुद्धिके सारे अंग उसके शरीरसे जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गये॥१२॥ 'वहाँ दग्ध हुए महामना कन्दर्पका शरीर नष्ट हो गया। देवेश्वर रुद्रने अपने क्रोधसे कामको अंगहीन कर दिया॥१३॥ 'राम! तभीसे वह 'अनंग' नामसे विख्यात हुआ। शोभाशाली कन्दर्पने जहाँ अपना अंग छोड़ा था, वह प्रदेश अंगदेशके नामसे विख्यात हुआ॥१४॥ 'यह उन्हीं महादेवजीका पुण्य आश्रम है। वीर! ये मुनिलोग पूर्वकालमें उन्हीं स्थाणुके धर्मपरायण शिष्य थे। इनका सारा पाप नष्ट हो गया है॥१५॥ 'शुभदर्शन राम! आजकी रातमें हमलोग यहीं इन पुण्यसलिला सरिताओंके बीचमें निवास करें। कल सबेरे इन्हें पार करेंगे॥१६॥ 'हम सब लोग पवित्र होकर इस पुण्य आश्रममें चलें। यहाँ रहना हमारे लिये बहुत उत्तम होगा। नरश्रेष्ठ! यहाँ स्नान करके जप और हवन करनेके बाद हम रातमें बड़े सुखसे रहेंगे॥१७½॥ वे लोग वहाँ इस प्रकार आपसमें बातचीत कर ही रहे थे कि उस आश्रममें निवास करनेवाले मुनि तपस्याद्वारा प्राप्त हुई दूर दृष्टिसे उनका आगमन जानकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उनके हृदयमें हर्षजनित उल्लास छा गया॥१८॥ उन्होंने विश्वामित्रजीको अर्घ्य, पाद्य और अतिथि- सत्कारकी सामग्री अर्पित करनेके बाद श्रीराम और लक्ष्मणका भी आतिथ्य किया॥१९½॥ यथोचित सत्कार करके उन मुनियोंने इन अतिथियोंका भाँति-भाँतिकी कथा-वार्ताओंद्वारा मनोरञ्जन किया। फिर उन महर्षियोंने एकाग्रचित्त होकर यथावत् संध्यावन्दन एवं जप किया॥२०½॥ तदनन्तर वहाँ रहनेवाले मुनियोंने अन्य उत्तम व्रतधारी मुनियोंके साथ विश्वामित्र आदिको शयनके लिये उपयुक्त स्थानमें पहुँचा दिया। सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले उस पुण्य आश्रममें उन विश्वामित्र आदिने बड़े सुखसे निवास किया॥२१½॥ धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रने उन मनोहर राजकुमारोंका सुन्दर कथाओंद्वारा मनोरञ्जन किया॥२२॥ *इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तेईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२३॥* ###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
##श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५ - !! ओम नमो नारायणाय !! महामंत्र जोइ जपत महेसू எி हेतु उपदेसू मुकुति नाम वह महामंत्र है जिसे महेश्वर शिव जपते हैं और IH उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का 8 कारण भगवान शिव काशी में मरने वालों अर्थात राम नाम सुना कर प्रदान कर देते हैं उनका कल्याण कर देते हैं को !! ओम नमो नारायणाय !! महामंत्र जोइ जपत महेसू எி हेतु उपदेसू मुकुति नाम वह महामंत्र है जिसे महेश्वर शिव जपते हैं और IH उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का 8 कारण भगवान शिव काशी में मरने वालों अर्थात राम नाम सुना कर प्रदान कर देते हैं उनका कल्याण कर देते हैं को - ShareChat
#महाभारत #श्रीमहाभारतकथा-2️⃣2️⃣7️⃣ श्रीमहाभारतम् 〰️〰️🌼〰️〰️ ।। श्रीहरिः ।। * श्रीगणेशाय नमः * ।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।। (सम्भवपर्व) चतुसप्ततितमोऽध्यायः शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक...(दिन 227) 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ वैशम्पायन उवाच प्रतिज्ञाय तु दुष्यन्ते प्रतियाते शकुन्तलाम् । (गर्भश्च ववृधे तस्यां राजपुत्र्यां महात्मनः । शकुन्तला चिन्तयन्ती राजानं कार्यगौरवात् ।। दिवारात्रमनिद्रैव स्नानभोजनवर्जिता ।। राजप्रेषणिका विप्राश्चतुरङ्गबलैः सह । अद्य श्वो वा परश्वो वा समायान्तीति निश्चिता ।। दिवसान् पक्षानृतून् मासानयनानि च सर्वशः । गण्यमानेषु सर्वेषु व्यतीयुस्त्रीणि भारत ।।) वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब शकुन्तलासे पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके राजा दुष्यन्त चले गये, तब क्षत्रियकन्या शकुन्तलाके उदरमें उन महात्मा दुष्यन्तके द्वारा स्थापित किया हुआ गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने और पुष्ट होने लगा। शकुन्तला कार्यकी गुरुतापर दृष्टि रखकर निरन्तर राजा दुष्यन्तका ही चिन्तन करती रहती थी। उसे न तो दिनमें नींद आती थी और न रातमें ही। उसका स्नान और भोजन छूट गया था। उसे यह दृढ़ विश्वास था कि राजाके भेजे हुए ब्राह्मण चतुरंगिणी सेनाके साथ आज, कल या परसोंतक मुझे लेनेके लिये अवश्य आ जायेंगे। भरतनन्दन ! शकुन्तलाको दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन तथा वर्ष - इन सबकी गणना करते-करते तीन वर्ष बीत गये। गर्भ सुषाव वामोरूः कुमारममितौजसम् ।। १ ।। त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमद्युतिम् । रूपौदार्यगुणोपेतं दौष्यन्तिं जनमेजय ।। २ ।। जनमेजय! तदनन्तर पूरे तीन वर्ष व्यतीत होनेके बाद सुन्दर जाँघोंवाली शकुन्तलाने अपने गर्भसे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी, रूप और उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न, अमित पराक्रमी कुमारको जन्म दिया, जो दुष्यन्तके वीर्यसे उत्पन्न हुआ था ।। १-२ ।। (तस्मै तदान्तरिक्षात् तु पुष्पवृष्टिः पपात ह । देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।। गायन्त्यो मधुरं तत्र देवैः शक्रोऽभ्युवाच ह । उस समय आकाशसे उस बालकके लिये फूलोंकी वर्षा हुई, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं और अप्सराएँ मधुर स्वरमें गाती हुई नृत्य करने लगीं। उस अवसरपर वहाँ देवताओंसहित इन्द्रने आकर कहा। शक्र उवाच शकुन्तले तव सुतश्चक्रवर्ती भविष्यति ।। बलं तेजश्च रूपं च न समं भुवि केनचित् । आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरवः ।। अनेकानि सहस्राणि राजसूयादिभिर्मखैः। स्वार्थं ब्राह्मणसात् कृत्वा दक्षिणाममितां ददात् ।। इन्द्र बोले- शकुन्तले ! तुम्हारा यह पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् होगा। पृथ्वीपर कोई भी इसके बल, तेज तथा रूपकी समानता नहीं कर सकता। यह पूरुवंशका रत्न सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करेगा। राजसूय आदि यज्ञोंद्वारा सहस्रों बार अपना सारा धन ब्राह्मणोंके अधीन करके उन्हें अपरिमित दक्षिणा देगा। वैशम्पायन उवाच देवतानां वचः श्रुत्वा कण्वाश्रमनिवासिनः । सभाजयन्त कण्वस्य सुतां सर्वे महर्षयः ।। शकुन्तला च तच्छ्रुत्वा परं हर्षमवाप सा । द्विजानाहूय मुनिभिः सत्कृत्य च महायशाः ।।) जातकर्मादिसंस्कारं कण्वः पुण्यकृतां वरः । विधिवत् कारयामास वर्धमानस्य धीमतः ।। ३ ।। वैशम्पायनजी कहते हैं- इन्द्रादि देवताओंका यह वचन सुनकर कण्वके आश्रममें रहनेवाले सभी महर्षि कण्वकन्या शकुन्तलाके सौभाग्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। यह सब सुनकर शकुन्तलाको भी बड़ा हर्ष हुआ। पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ महायशस्वी कण्वने मुनियोंसे ब्राह्मणोंको बुलाकर उनका पूर्ण सत्कार करके बालकका विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार कराया। वह बुद्धिमान् बालक प्रतिदिन बढ़ने लगा ।। ३ ।। दन्तैः शुक्लैः शिखरिभिः सिंहसंहननो महान् । चक्राङ्कितकरः श्रीमान् महामूर्धा महाबलः ।। ४ ।। वह सफेद और नुकीले दाँतोंसे शोभा पा रहा था। उसके शरीरका गठन सिंहके समान था। वह ऊँचे कदका था। उसके हाथोंमें चक्रके चिह्न थे। वह अद्भुत शोभासे सम्पन्न, विशाल मस्तकवाला और महान् बलवान् था ।। ४ ।। क्रमशः... साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
महाभारत - श्रीमहाभारतमू श्रीमहाभारतमू - ShareChat
#☝अनमोल ज्ञान 🪷 || बल से नहीं, प्रेम से जीतें || 🪷 किसी को बल पूर्वक जीतने की अपेक्षा प्रेम पूर्वक जीतना कई गुना श्रेष्ठ एवं सरल है। किसी को बलपूर्वक हराकर जीतना आसान है, लेकिन उनसे प्रेमपूर्वक हार जाना कई गुना श्रेष्ठ है। जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वही तो बुद्धिमान है। वर्तमान समय में हमारे आपसी संबंधों में मतभेद का प्रमुख कारण ही यह है, कि हम दूसरों को प्रेम की शक्ति से नहीं अपितु बल की शक्ति से जीतना चाहते हैं। दूसरों को जीतने के लिए बल का प्रयोग नहीं अपितु प्रेम का उपयोग करें। घर-परिवार में भी आज सुनाने को सब तैयार हैं पर सुनने को कोई तैयार ही नहीं है। दूसरों को सुनाने की अपेक्षा स्वयं सुन लेना भी हमारे आपसी संबंधों की मजबूती के लिये अति आवश्यक हो जाता है। अपने को सही साबित करने के लिए पूरे परिवार को ही अशांत बनाकर रख देना कदापि उचित नहीं। घर-परिवार में जितना हम एक दूसरे को समझेंगे उतने हमारे आपसी संबंध भी सुलझेंगे। जय श्री राधे कृष्ण =========================
☝अनमोल ज्ञान - GG GG - ShareChat
#पौराणिक मंदिर देवप्रयाग की पुराणोक्त कथा महात्म्य 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ देवप्रयाग👉 यह प्रसिद्ध तीर्थ पतितपावनी गंगा और अलकनन्दा के संगम पर ह़ै! उत्तराखंड के पंच प्रयागों , (देवप्रयाग,रुद्रप्रयाग,कर्णप्रयाग,नन्दप्रयाग,और बिष्णुप्रयाग) में परम मंगलकारक माना जाता है ! यह स्थान समुद्र तल से दो हजार (2000) फीट की ऊंचाई पर स्थित है ! इस स्थान की दूरी हरिद्वार से 57 मील है ! उत्तराखंड के अन्य मुख्य तीर्थों ( बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री) के मार्ग यहीं से होकर जाते है ! देवप्रयाग से बद्रीनाथ 126 मील, केदारनाथ 93 मील, गंगोत्री 130 मील, और यमनोत्री 113 मील आगे है ! देवप्रयाग में चट्टान काट कर दो कुण्ड बने हुये है ! जो कुण्ड गंगा जी की ओर है उसे ब्रह्मकुण्ड और जो अलकनन्दा की ओर है उसको वशिष्ठकुण्ड कहते है ! इन दोनों ही कुण्डो मे श्रद्धालु स्नान करते है ! यहां पर दो नदिया मिलकर बड़े वेग से बहती है, अत: यहां सावधानी पूर्वक स्नान करना चाहिये ! स्नानघाट से बहुत सी सीढ़ियां चढ़कर कुछ ऊपर आगे एक चट्टान के नीचे श्री रघुनाथ जी का विशाल मन्दिर है ! जो यहां का मुख्य दर्शन स्थान है ! मन्दिर के भीतर श्रीरघुनाथ जी की 6 फीट ऊंची श्याम रंग की पाषाण की मूर्ती है ! मन्दिर के आगे गरुड़ जी की मूर्ति है ! कुछ दूर आगे विश्वेश्वर,दुर्गा जी, क्षेत्रपाल और गढ़वाल राजवंश की कुछ पुरानी सती रानियों के मन्दिर भी बने हुये है ! पौराणिक कथा👉 पूर्व काल में जब विष्णु भगवान वामन रूप धरकर राक्षस राज बली से जो उन दिनों इंद्रासन पर विराजमान थे, तीन पग पृथ्वी दान मांगने गए थे ,और महादानी राजा बलि ने उनको दान का संकल्प देकर तीन पग पृथ्वी नापने को कहा था ! तब वामन भगवान ने तीन पग में तीनों लोगों को नाप डाला था ,उस समय उनका जो चरण ब्रह्मलोक में निपतित हुआ उसकी अंगुली के नख से ब्रह्मांड सस्फुटित होकर एक जलधारा निकली जो ब्रह्मद्रव कहलाई , यह जलधारा ब्रह्मलोक से ध्रुवलोक और वहां से सप्तऋषि मंडल में होती हुई भगवान शंकर की जचाओं मे नियंत्रित होती हुयी ,सुमेरू श्रृंग पर बेग के साथ पड़ी, उससे सुमेरु पर्वत दो श्रृंगों मे विभक्त हो गया ,और वह जलधारा भी दो भागों में विभक्त हो गई, एक धारा गंगोत्री होकर भागीरथी नाम से ,एवं दूसरी धारा अल्कापुरी होती हुयी अलकनन्दा नाम से प्रकट हुयी, इन्ही दोनों धाराओं के मिलन(संगम) का स्थान यह तीर्थ देवप्रयाग है ! इसका नाम देवप्रयाग होने का कारण यह है कि, एक समय देवशर्मा नाम के मुनि ने यहां पर भगवान बिष्णू की आराधना की थी,तब भगवान बिष्णू ने उन देवशर्मा को यहां पर प्रकट होकर दर्शन दिये थे, और कहा था कि यह क्षेत्र तुम्हारे नाम (देवप्रयाग)से विख्यात होगा ! तभी से इस स्थान में बिष्णू भगवान प्रतिष्ठित हैं! यहां गंगा और अलकनन्दा के संगम पर ब्रह्मा जी ने भी नारायण की स्तुति की थी ,इसी कारण यहां ब्रह्मकुण्ड नाम का तीर्थ हुवा! त्रेतायुग में जब भगवान ने रामचन्द्र का अवतार धारण कर रावण का वध किया था और रावण के ब्राह्मण कुल में होने की वजह से रामचन्देर जी को ब्रह्महत्या का दोष लग गया था ,तब रामचन्द्र जी इस तीर्थ में आकर प्रायश्चित तप करके ब्रह्महत्या दोष से मुक्त हुये थे ! तभी से यहां पर भगवान रामचन्द्र जी ने बैठ कर तपस्या की वहां पर (रघुनाथजी) की प्रतिष्ठा मुनियों के द्वारा हुयी थी, यह स्थान बड़ा रमणीय एवं पुण्यमयी है। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
पौराणिक मंदिर - देवप्रयाग की पुराणोक्त कथा महात्म्य देवप्रयाग की पुराणोक्त कथा महात्म्य - ShareChat
बाल दिवस विशेष (चार साहिबजादे) 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत । पूर्जा पूर्जा कट मरे, कबहू न छोड़े खेत ।। हमारा देश कुर्बानियों और शहादत के लिए जाना जाता है और यहां तक के हमारे गुरूओं ने भी देश कौम के लिए अपनी जानें न्यौछावर की हैं…देश और कौम के लिए अपनी शहादत देने के लिए गुरूओं के लाल भी पीछे नहीं रहें…जी हां गुरूओं के बच्चों ने भी देश और कौम की खातिर अपनी जान की बाजी लगा दी…दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहीदी को कौन भुला सकता है …जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अजीम और महान शहादत दी..उनकी शहादत से तो मानो सरहंद की दीवारें भी कांप उठी थी… वो भी नन्हें बच्चों के साथ हो रहे कहर को सुन कर रो पड़ी । गुरू गोबिन्द सिंह को चारों साहिबजादों की शहीदी को कोई भूले से भी नहीं भुला सकता…आज भी जब कोई उस दर्दनाक घटना को याद करता है तो कांप उठता है…गुरू गोबिन्द सिंह के बड़े साहिबजादें बाबा अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर की जंग मुगलों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे…उन्होंने ये शहीदी 22 दिसम्बर और 27 दिसम्बर 1704 को पाई… इस दौरान बडे़ साहिबजादों में बाबा अजीत सिंह की उम्र 17 साल थी जबकि बाबा जुझार सिंह की उम्र महज 13 साल की थी….मगर जो उम्र बच्चों के खेलने कूदने की होती है उस उम्र में छोटे साहिबजादों ने शहीदी प्राप्त की…छोटे साहिबजादों को सरहंद के सूबेदार वजीर खान ने जिंदा दीवारों में चिनवा दिया था… उस समय छोटे साहिबजादों में बाबा जोरावर सिंह की उम्र आठ साल थी …जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र केवल 5 साल की थी…इस महान शहादत के बारे में हिन्दी के कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है … जिस कुल जाति देश के बच्चे दे सकते हैं जो बलिदान… उसका वर्तमान कुछ भी हो भविष्य है महा महान गुरूमत के अनुसार अध्यात्मिक आनन्द पाने के लिए मनुष्य को अपना सर्वस्व मिटाना पड़ता है…और उस परम पिता परमेश्वर की रजा में रहना पड़ता है…इस मार्ग पर गुरू का भगत , गुरू का प्यारा या सूरमा ही चल चल सकता है…इस मार्ग पर चलने के लिए श्री गुरू नानक देव जी ने सीस भेंट करने की शर्त रखी थी…एक सच्चा सिख गुरू को तन , मन और धन सौंप देता है और वो किसी भी तरह की आने वाली मुसीबत से नहीं घबराता…इसी लिए तो कहा भी गया है… तेरा तुझको सौंप के क्या लागै है मेरा भारत पर मुगलों ने कई सौ बरस तक राज किया…उन्होंने इस्लाम धर्म को पूरे भारत में फैलाने के लिए हिन्दुओं पर जुल्म भी किए… मुगल शासक औरगंजेब ने तो जुल्म की इंतहा कर दी और जुल्म की सारी हदें तोड़ डाली…हिन्दुओं को पगड़ी पहनने और घोड़ी पर चढ़ने की रोक लगाई गई… और एक खास तरह टैक्स भी हिन्दु जाति पर लगाया गया जिसे जजिया टैक्स कहा जाता था…हिन्दुओं में आपसी कलह के कारण जुल्मों का विरोध नहीं हो रहा था… इन्हीं जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाई दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी ने…उन्होंने निर्बल हो चुके हिन्दुओं में नया उत्साह और जागृति पैदा करने का मन बना लिया…इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए गुरू गोबिन्द सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की…कई स्थानों पर सिखों और हिन्दुओं ने खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया… मुगल शासकों के साथ साथ कट्टर हिन्दुओं और उच्च जाति के लोगों ने भी खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया… कई स्थानों पर माहौल तनाव पूर्ण हो गया…सरहंद के सूबेदार वजीर खान और पहाड़ी राजे एकजुट हो गए और 1704 पर गुरू गोबिन्द सिंह जी पर आक्रमण कर दिया…सिखों ने बड़ी दलेरी से इनका मुकाबला किया और सात महीने तक आनन्दपुर के किले पर कब्जा नहीं होने दिया–आखिर हार कर मुगल शासकों ने कुरान की कसम खाकर और हिन्दु राजाओं ने गऊ माता की कसम खाकर गुरू जी से किला खाली कराने के लिए विनती की…20 दिसम्बर 1704 की रात को गुरू गोबिन्द जी ने किले को खाली कर दिया गया और गुरू जी सेना के साथ रोपड़ की और कूच कर गए…जब इस बात का पता मुगलों को लगा तो उन्होंने सारी कसमें तोड़ डाली और गुरू जी पर हमला कर दिया…लड़ते – लड़ते सिख सिरसा नदी पार कर गए और चमकौर की गढ़ी में गुरू जी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला…ये जंग अपने आप में खास है क्योंकि 80 हजार मुगलों से केवल 40 सिखों ने मुकाबला किया था…जब सिखों का गोला बारूद खत्म हो गया तो गुरू गोबिन्द सिंह जी ने पांच पांच सिखों का जत्था बनाकर उन्हें मैदाने जंग में भेजा ..इस लड़ाई में गुरू जी से इजाजत लेकर बड़े साहिबजादें भी शामिल हो गए लड़ते लड़ते वो सिरसा नदी पार कर गए…बड़े साहिबजादें छोटी सी उम्र में मुगलों से मुकाबला करते हुए शहीद हो गए…अब सवाल ये उठता है कि छोटे साहिबजादों का आखिर क्या कसूर था कि सरहंद के सूबेदार ने नन्हें बच्चों की उम्र का भी लिहाज नहीं रखा…और उन्हें जिन्दा सरहंद की दीवारों में चिनवा दिया । मगर छोटे साहिबजादों ने इन जुल्मों की परवाह नहीं की… दूसरी ओर सिरसा नदी पार करते वक्त गुरू जी की माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे बिछुड़ गए…गुरू जी का रसोईया गंगू ब्राहम्ण उन्हें अपने साथ ले गया …रात को उसने माता जी की सोने की मोहरों वाली गठरी चोरी कर ली…सुबह जब माता जी ने गठरी के बारे में पूछा तो वो न सिर्फ आग बबूला ही हुआ…बल्कि उसने गांव के चौधरी को गुरू जी के बच्चों के बारे में बता दिया…और इस तरह ये बात सरहिन्द के नवाब तक पहुंच गई…सरहंद के नवाब ने उन्हें ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया….नवाब ने दो तीन दिन तक उन बच्चों को इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा…जब वो नहीं माने तो उन्हें खूब डराया धमकाया गया ,मगर वो नहीं डोले और वो अडिग रहें …उन्हें कई लालच दिए गए…लेकिन वो न तो डरे , न ही किसी बात का लोभ और लालच ही किया…न ही धर्म को बदला… सुचानंद दीवान ने नवाब को ऐसा करने के लिए उकसाया और यहां तक कहां कि यह सांप के बच्चे हैं इनका कत्ल कर देना ही उचित है…आखिर में काजी को बुलाया गया…जिसने उन्हें जिंदा ही दीवार में चिनवा देने का फतवा दे दिया…उस समय मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खां भी वहां उपस्थित थे…उसने इस बात का विरोध किया…फतवे के अनुसार जब 27 दिसम्बर 1704 में छोटे साहिबजादों को दीवारों में चिना जाने लगा तो…जब दीवार गुरू के लाडलों के घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काट दिया गया ताकि दीवार टेढी न हो जाए…जुल्म की इंतहा तो तब हो गई…जब दीवार साहिबजादों के सिर तक पहुंची तो शाशल बेग और वाशल बेग जल्लादों ने शीश काट कर साहिबजादों को शहीद कर दिया…छोटे साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर उनकी दादी स्वर्ग सिधार गई…इतने से भी इन जालिमों का दिल नहीं भरा और लाशों को खेतों में फेंक दिया गया…जब इस बात की खबर सरहंद के हिन्दू साहूकार टोडरमल को लगी तो उन्होंने संस्कार करने की सोची..उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए…उतनी जगह पर सोने की मोहरें बिछानी पड़ेगी…कहते हैं कि टोडरमल जी ने उस जगह पर अपने घर के सब जेवर और सोने की मोहरें बिछा कर साहिबजादों और माता गुजरी का दाह संस्कार किया…संस्कार वाली जगह पर बहुत ही सुन्दर गुरूव्दारा ज्योति स्वरूप बना हुआ है जबकि शहादत वाली जगह पर बहुत बड़ा गुरूव्दारा है…यहां हर साल 25से 27 दिसम्बर तक शहीदी जोड़ मेला लगता है…जो तीन दिन तक चलता है…धर्म की रक्षा के लिए …नन्हें बालकों ने हंसते हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए मगर हार नहीं मानी…मुगल नवाब वजीर खान के हुक्म पर इन्हें फतेहगढ़ साहिब के भौरा साहिब में जिंदा चिनवा दिया गया …यही नहीं छोटे साहिबजादे बाबा फतेह सिंह के नाम पर इस स्थान का नाम फतेहगढ़ साहिब रखा गया था…. जी हां धर्म ईमान की खातिर दशम पिता के इन राजकुमारों ने शहीदी पाई …लेकिन वो सरहंद के सूबेदार के आगे झुके नहीं …बल्कि उन्होंने खुशी खुशी शहीदी प्राप्त की…पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में हर साल साहिबजादों की याद में तीन दिवसीय मेला लगता है… गुरूव्दारा श्री फतेहगढ़ साहिब में बना ठंडा बुर्ज का भी अहम महत्व है…यही पर माता गुजरी ने तकरीबन आठ वर्ष तक दोनों छोटे साहिबजादों को धर्म और कौम की रक्षा का पाठ पढ़ाया था..इसी ठंडे बुर्ज में पोष माह की सर्द रातों में माता गुजरी ने बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह को धर्म की रक्षा के लिए शीश न झुकाते हुए अपने धर्म पर कायम रहने की शिक्षा दी थी …गुरू गोबिन्द सिंह जी के चारो साहिबजादों की पढ़ाई और शस्त्र विद्या गुरू साहिब की निगरानी में हुई …उन्होंने घुड़सवारी , शस्त्र विद्या और तीर अंदाजी में अपने राजकुमारों को माहिर बना दिया….दशम पातशाह के चारों राजकुमारों को साहिबजादें इसलिए कहा जाता है …क्योंकि दो दो साहिबजादें इक्टठे शहीद हुए थे … इसलिए इनको बड़े साहिबजादें और छोटे साहिबाजादे कहकर याद किया जाता है…जोरावर सिंह जी की शहीदी के समय उम्र 9 साल जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र 7 साल की थी ….इनके नाम के साथ बाबा शब्द इसलिए लगाया क्योंकि उन्होंने इतनी छोटी उम्र में शहादत देकर मिसाल पेश की …उनकी इन बेमिसाल कुर्बानियों के कारण इन्हें बाबा पद से सम्मानित किया गया… आप सभी से निवेदन है बाल दिवस मनाना है तो कृपया हमारे सनातनी बालको जिन्होंने अपने देश के लिये अपने प्राण न्योछावर किये उनके लिये मनाये तो उन नन्हे बालको के लिये यही सच्ची श्रध्दांजलि होगी। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ #बाल दिवस
बाल दिवस - पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत | सूरा सो पूर्जा पूर्जा कट मरे, कबहू न छोड़़े खेत ।। बालदिवस विशेष पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत | सूरा सो पूर्जा पूर्जा कट मरे, कबहू न छोड़़े खेत ।। बालदिवस विशेष - ShareChat
प्रभु श्री राम के द्वार विभीषण को शरणागति में लेना, मित्र का पद देना, लंका का राज देना, सलाहकार मानना, भाई लक्ष्मण की अनिच्छा के वावजूद विभीषण की सलाह मानकर सागर से विनय करना आदि सब लीलायें उन गुप्तचर राक्षशों ने वानर रूप धारण करके अपनी आंखों से देखी और अब तो जी उनका हृदय प्रभु प्रेम से भर आया और वो तो मन ही मन प्रभु की जयजयकार करने लगे ,रामनाम जपने लगे,आनंद से झूमने लगे, और रामनाम सुमिरन के प्रभाव से उनके अंदर दैविक गुण प्रकट होने लगे। जय श्री राम ##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
#सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - d6T सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह| प्रभु गुन हृदपँ सराहहिं सरनागत पर नेह। Iड१ | ]  कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। से वानर का शरीर धारण कपट वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे |51// सदरकाण्द  d6T सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह| प्रभु गुन हृदपँ सराहहिं सरनागत पर नेह। Iड१ | ]  कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। से वानर का शरीर धारण कपट वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे |51// सदरकाण्द - ShareChat
सन्तापाद् भ्रश्यते रुपं सन्तापाद् भ्रश्यते बलम् । सन्तापाद् भ्रश्यते ज्ञानं सन्तापाद् व्याधिमृच्छति॥ अर्थात 👉🏻 शोक करने से रूप-सौंदर्य नष्ट होता है , शोक करने से पौरुष नष्ट होता है , शोक करने से ज्ञान नष्ट होता है और शोक करने से मनुष्य का शरीर दुःखो का घर हो जाता है , अतः शोक करना त्याज्य है । 🌄🌄 प्रभातवंदन 🌄🌄 #☝अनमोल ज्ञान #🙏सुविचार📿
☝अनमोल ज्ञान - गीता में लिखा है, इंसान हमेशा अपने भाग्य को कोसता है, यह जानते हुए भी कि भाग्य से भी ऊंचा उसका कर्म है, जिसके स्वयं के हाथों में है। गीता में लिखा है, इंसान हमेशा अपने भाग्य को कोसता है, यह जानते हुए भी कि भाग्य से भी ऊंचा उसका कर्म है, जिसके स्वयं के हाथों में है। - ShareChat