#🖋ग़ज़ल
जिसे हम कह सकें अपना कोई ऐसा नहीं मिलता
तेरे हमनाम मिलते हैं कोई तुझसा नहीं मिलता
मोहब्बत के सफ़र में हैं मुसाफ़िर हम मुसाफ़िर तुम
हमें मंज़िल नहीं मिलती तुम्हें रस्ता नहीं मिलता
किसी की रुख़्सती के बाद तन्हाई के आलम में
ग़मों का साथ होता है कोई तन्हा नहीं मिलता
समझ लेना कोई मक़्सद है उस की चापलूसी में
झुका कर सर कोई इख़्लास से इतना नहीं मिलता
जिधर देखो उधर सच बोलने वाले ही मिलते हैं
ताज्जुब है कोई इस दौर में झूठा नहीं मिलता
तलब है रौशनी की तो जलाओ ख़ुद दीया 'राही'
बुझाने तिश्नगी प्यासे की तो दरिया नहीं मिलता...
