###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
#वाल्मीकिरामायण३०
*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*
*बालकाण्ड*
*पचीसवाँ सर्ग*
*श्रीरामके पूछनेपर विश्वामित्रजीका उनसे ताटकाकी उत्पत्ति, विवाह एवं शाप आदिका प्रसंग सुनाकर उन्हें ताटका-वधके लिये प्रेरित करना*
अपरिमित प्रभावशाली विश्वामित्र मुनिका यह उत्तम वचन सुनकर पुरुषसिंह श्रीरामने यह शुभ बात कही—॥१॥
'मुनिश्रेष्ठ! जब वह यक्षिणी एक अबला सुनी जाती है, तब तो उसकी शक्ति थोड़ी ही होनी चाहिये; फिर वह एक हजार हाथियोंका बल कैसे धारण करती है?'॥२॥
अमित तेजस्वी श्रीरघुनाथके कहे हुए इस वचनको सुनकर विश्वामित्रजी अपनी मधुर वाणीद्वारा लक्ष्मणसहित शत्रुदमन श्रीरामको हर्ष प्रदान करते हुए बोले—'रघुनन्दन! जिस कारणसे ताटका अधिक बलशालिनी हो गयी है, वह बताता हूँ, सुनो। उसमें वरदानजनित बलका उदय हुआ है; अतः वह अबला होकर भी बल धारण करती है (सबला हो गयी है)॥३-४॥
'पूर्वकालकी बात है, सुकेतु नामसे प्रसिद्ध एक महान् यक्ष थे। वे बड़े पराक्रमी और सदाचारी थे; परंतु उन्हें कोई संतान नहीं थी; इसलिये उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की॥५॥
'श्रीराम! यक्षराज सुकेतुकी उस तपस्यासे ब्रह्माजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुकेतुको एक कन्यारत्न प्रदान किया, जिसका नाम ताटका था॥६॥
ब्रह्माजीने ही उस कन्याको एक हजार हाथियोंके समान बल दे दिया; परंतु उन महायशस्वी पितामहने उस यक्षको पुत्र नहीं ही दिया (उसके संकल्पके अनुसार पुत्र प्राप्त हो जानेपर उसके द्वारा जनताका अत्यधिक उत्पीड़न होता, यही सोचकर ब्रह्माजीने पुत्र नहीं दिया)॥७॥
'धीरे-धीरे वह यक्ष-बालिका बढ़ने लगी और बढ़कर रूप-यौवनसे सुशोभित होने लगी। उस अवस्थामें सुकेतुने अपनी उस यशस्विनी कन्याको जम्भपुत्र सुन्दके हाथमें उसकी पत्नीके रूपमें दे दिया॥८॥
'कुछ कालके बाद उस यक्षी ताटकाने मारीच नामसे प्रसिद्ध एक दुर्जय पुत्रको जन्म दिया, जो अगस्त्य मुनिके शापसे राक्षस हो गया॥९॥
'श्रीराम! अगस्त्यने ही शाप देकर ताटकापति सुन्दको भी मार डाला। उसके मारे जानेपर ताटका पुत्रसहित जाकर मुनिवर अगस्त्यको भी मौतके घाट उतार देनेकी इच्छा करने लगी॥१०॥
'वह कुपित हो मुनिको खा जानेके लिये गर्जना करती हुई दौड़ी। उसे आती देख भगवान् अगस्त्य मुनिने मारीचसे कहा—'तू देवयोनि-रूपका परित्याग करके राक्षसभावको प्राप्त हो जा'॥११½॥
'फिर अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए ऋषिने ताटकाको भी शाप दे दिया—'तू विकराल मुखवाली नरभक्षिणी राक्षसी हो जा। तू है तो महायक्षी; परंतु अब शीघ्र ही इस रूपको त्यागकर तेरा भयङ्कर रूप हो जाय'॥१२-१३॥
'इस प्रकार शाप मिलनेके कारण ताटकाका अमर्ष और भी बढ़ गया। वह क्रोधसे मूर्च्छित हो उठी और उन दिनों अगस्त्यजी जहाँ रहते थे, उस सुन्दर देशको उजाड़ने लगी॥१४॥
'रघुनन्दन! तुम गौओं और ब्राह्मणोंका हित करनेके लिये दुष्ट पराक्रमवाली इस परम भयङ्कर दुराचारिणी यक्षीका वध कर डालो॥१५॥
'रघुकुलको आनन्दित करनेवाले वीर! इस शापग्रस्त ताटकाको मारनेके लिये तीनों लोकोंमें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष समर्थ नहीं है॥१६॥
नरश्रेष्ठ! तुम स्त्री-हत्याका विचार करके इसके प्रति दया न दिखाना। एक राजपुत्रको चारों वर्णोंके हितके लिये स्त्रीहत्या भी करनी पड़े तो उससे मुँह नहीं मोड़ना चाहिये॥१७॥
'प्रजापालक नरेशको प्रजाजनोंकी रक्षाके लिये क्रूरतापूर्ण या क्रूरतारहित, पातकयुक्त अथवा सदोष कर्म भी करना पड़े तो कर लेना चाहिये। यह बात उसे सदा ही ध्यानमें रखनी चाहिये॥१८॥
'जिनके ऊपर राज्यके पालनका भार है, उनका तो यह सनातन धर्म है। ककुत्स्थकुलनन्दन! ताटका महापापिनी है। उसमें धर्मका लेशमात्र भी नहीं है; अतः उसे मार डालो॥१९॥
'नरेश्वर! सुना जाता है कि पूर्वकालमें विरोचनकी पुत्री मन्थरा सारी पृथ्वीका नाश कर डालना चाहती थी। उसके इस विचारको जानकर इन्द्रने उसका वध कर डाला॥२०॥
'श्रीराम! प्राचीन कालमें शुक्राचार्यकी माता तथा भृगुकी पतिव्रता पत्नी त्रिभुवनको इन्द्रसे शून्य कर देना चाहती थीं। यह जानकर भगवान् विष्णुने उनको मार डाला॥२१॥
'इन्होंने तथा अन्य बहुत-से महामनस्वी पुरुषप्रवर राजकुमारोंने पापचारिणी स्त्रियोंका वध किया है। नरेश्वर! अतः तुम भी मेरी आज्ञासे दया अथवा घृणाको त्यागकर इस राक्षसीको मार डालो'॥२२॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पचीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२५॥*

