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#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०६८ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण बालकाण्ड तिरसठवाँ सर्ग विश्वामित्रको ऋषि एवं महर्षिपदकी प्राप्ति, मेनकाद्वारा उनका तपोभंग तथा ब्रह्मर्षिपदकी प्राप्तिके लिये उनकी घोर तपस्या [शतानन्दजी कहते हैं—श्रीराम!] जब एक हजार वर्ष पूरे हो गये, तब उन्होंने व्रतकी समाप्तिका स्नान किया। स्नान कर लेनेपर महामुनि विश्वामित्रके पास सम्पूर्ण देवता उन्हें तपस्याका फल देनेकी इच्छासे आये॥१॥ उस समय महातेजस्वी ब्रह्माजीने मधुर वाणीमें कहा—'मुने! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने द्वारा उपार्जित शुभकर्मोंके प्रभावसे ऋषि हो गये'॥२॥ उनसे ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी पुनः स्वर्गको चले गये। इधर महातेजस्वी विश्वामित्र पुनः बड़ी भारी तपस्यामें लग गये॥३॥ नरश्रेष्ठ! तदनन्तर बहुत समय व्यतीत होनेपर परम सुन्दरी अप्सरा मेनका पुष्करमें आयी और वहाँ स्नानकी तैयारी करने लगी॥४॥ महातेजस्वी कुशिकनन्दन विश्वामित्रने वहाँ उस मेनकाको देखा। उसके रूप और लावण्यकी कहीं तुलना नहीं थी। जैसे बादलमें बिजली चमकती हो, उसी प्रकार वह पुष्करके जलमें शोभा पा रही थी॥५॥ उसे देखकर विश्वामित्र मुनि कामके अधीन हो गये और उससे इस प्रकार बोले—'अप्सरा! तेरा स्वागत है, तू मेरे इस आश्रममें निवास कर॥६॥ 'तेरा भला हो। मैं कामसे मोहित हो रहा हूँ। मुझपर कृपा कर।' उनके ऐसा कहनेपर सुन्दर कटिप्रदेशवाली मेनका वहाँ निवास करने लगी॥७॥ इस प्रकार तपस्याका बहुत बड़ा विघ्न विश्वामित्रजीके पास स्वयं उपस्थित हो गया। रघुनन्दन! मेनकाको विश्वामित्रजीके उस सौम्य आश्रमपर रहते हुए दस वर्ष बड़े सुखसे बीते॥८½॥ इतना समय बीत जानेपर महामुनि विश्वामित्र लज्जित-से हो गये। चिन्ता और शोकमें डूब गये॥९½॥ रघुनन्दन! मुनिके मनमें रोषपूर्वक यह विचार उत्पन्न हुआ कि 'यह सब देवताओंकी करतूत है। उन्होंने हमारी तपस्याका अपहरण करनेके लिये यह महान् प्रयास किया है॥१०½॥ 'मैं कामजनित मोहसे ऐसा आक्रान्त हो गया कि मेरे दस वर्ष एक दिन-रातके समान बीत गये। यह मेरी तपस्यामें बहुत बड़ा विघ्न उपस्थित हो गया॥११½॥ ऐसा विचारकर मुनिवर विश्वामित्र लम्बी साँस खींचते हुए पश्चात्तापसे दुःखित हो गये॥१२॥ उस समय मेनका अप्सरा भयभीत हो थर-थर काँपती हुई हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी हो गयी। उसकी ओर देखकर कुशिकनन्दन विश्वामित्रने मधुर वचनोंद्वारा उसे विदा कर दिया और स्वयं वे उत्तर पर्वत (हिमवान्) पर चले गये॥१३½॥ वहाँ उन महायशस्वी मुनिने निश्चयात्मक बुद्धिका आश्रय ले कामदेवको जीतनेके लिये कौशिकी-तटपर जाकर दुर्जय तपस्या आरम्भ की॥१४½॥ श्रीराम! वहाँ उत्तर पर्वतपर एक हजार वर्षोंतक घोर तपस्यामें लगे हुए विश्वामित्रसे देवताओंको बड़ा भय हुआ॥१५½॥ सब देवता और ऋषि परस्पर मिलकर सलाह करने लगे—'ये कुशिकनन्दन विश्वामित्र महर्षिकी पदवी प्राप्त करें, यही इनके लिये उत्तम बात होगी'॥१६½॥ देवताओंकी बात सुनकर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी तपोधन विश्वामित्रके पास जा मधुर वाणीमें बोले—'महर्षे! तुम्हारा स्वागत है। वत्स कौशिक! मैं तुम्हारी उग्र तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ और तुम्हें महत्ता एवं ऋषियोंमें श्रेष्ठता प्रदान करता हूँ'॥१७-१८½॥ ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर तपोधन विश्वामित्र हाथ जोड़ प्रणाम करके उनसे बोले—'भगवन्! यदि अपने द्वारा उपार्जित शुभकर्मोंके फलसे मुझे आप ब्रह्मर्षिका अनुपम पद प्रदान कर सकें तो मैं अपनेको जितेन्द्रिय समझूँगा'॥१९-२०½॥ तब ब्रह्माजीने उनसे कहा—'मुनिश्रेष्ठ! अभी तुम जितेन्द्रिय नहीं हुए हो। इसके लिये प्रयत्न करो।' ऐसा कहकर वे स्वर्गलोकको चले गये॥२१½॥ देवताओंके चले जानेपर महामुनि विश्वामित्रने पुनः घोर तपस्या आरम्भ की। वे दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये बिना किसी आधारके खड़े होकर केवल वायु पीकर रहते हुए तपमें संलग्न हो गये॥२२½॥ गर्मीके दिनोंमें पञ्चाग्निका सेवन करते, वर्षाकालमें खुले आकाशके नीचे रहते और जाङेके समय रात-दिन पानीमें खड़े रहते थे। इस प्रकार उन तपोधनने एक हजार वर्षोंतक घोर तपस्या की॥२३-२४॥ महामुनि विश्वामित्रके इस प्रकार तपस्या करते समय देवताओं और इन्द्रके मनमें बड़ा भारी संताप हुआ॥२५॥ समस्त मरुद्गणोंसहित इन्द्रने उस समय रम्भा अप्सरासे ऐसी बात कही, जो अपने लिये हितकर और विश्वामित्रके लिये अहितकर थी॥२६॥ *इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६३॥* ###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
##श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५ - ओम नमो नारायणाय !! ! भगतिहि सानुकूल रघुराया , ताते तेहि डरपति अति माया  राम भगति निरुपम निरुपाधी , बसइ जासु उर सदा अबाधी तेहि बिलोकि माया सकुचाई , करि न सकइ कछु निज प्रभुताई  अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी , जाचहिं भगति सकल सुख खानी श्री रघुनाथजी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया उससे अत्यंत (विशुद्ध डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमारहित और उपाधिरहित रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा रोकनटोक) के बसती है॰ उसे देखकर II सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर चला। सकती ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं॰ वे भी सब सुखों की खानि भक्ति ही याचना करते हैं ओम नमो नारायणाय !! ! भगतिहि सानुकूल रघुराया , ताते तेहि डरपति अति माया  राम भगति निरुपम निरुपाधी , बसइ जासु उर सदा अबाधी तेहि बिलोकि माया सकुचाई , करि न सकइ कछु निज प्रभुताई  अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी , जाचहिं भगति सकल सुख खानी श्री रघुनाथजी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया उससे अत्यंत (विशुद्ध डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमारहित और उपाधिरहित रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा रोकनटोक) के बसती है॰ उसे देखकर II सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर चला। सकती ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं॰ वे भी सब सुखों की खानि भक्ति ही याचना करते हैं - ShareChat

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