sn vyas
ShareChat
click to see wallet page
@sn7873
sn7873
sn vyas
@sn7873
जय श्री कृष्ण घर पर रहे-सुरक्षित रहे
गुप्तचर रावण से कह रहे हैं कि स्वामी आप जो हमसे कह रहे हो कि शत्रु की सेना का वर्णन करो तो स्वामी हम दो राक्षस उस विशाल सेना का क्या बखान करें जिसका पूर्ण बखान तो करोड़ों मुख एक साथ मिल कर भी नही कर सकते, फिर भी सुनो राजन जिन्हें तुम वानर भालू समझने की गलती कर रहे हो वो तो जाने कौन कौन हैं, जाने देवता हैं, यक्ष हैं, किन्नर हैं, नाग है,व अन्य आत्मायें हैं जिन्होंने प्रभु के सामीप्य प्राप्त करने हेतु वानर का रूप बना लिया है, कभी ऐसे वानर देखे सुने भी नही हैं जैसे वो हैं ,कुछ तो विशाल नयन वाले हैं, कुछ पर्वत जैसे विशाल हैं और सब के सब शत्रु के मन में भय उत्पन्न करने में सक्षम हैं। ।। राम राम ।। ##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
#सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - पूँछिहु नाथ राम कटकाई | बदन कोटि सत बरनि न जाई। ] नाना बरन भालु कपि धारी | बिकटानन बिसाल भयकारी | l३ / [ हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़. मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती | अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख बाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं। ।५४ -३।। सदरकाण्द  पूँछिहु नाथ राम कटकाई | बदन कोटि सत बरनि न जाई। ] नाना बरन भालु कपि धारी | बिकटानन बिसाल भयकारी | l३ / [ हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़. मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती | अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख बाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं। ।५४ -३।। सदरकाण्द - ShareChat
निराशता निर्भयता नित्यता समता ज्ञता । निरीहता निष्क्रियता सौम्यता निर्विकल्पता ॥ धृतिर्मैत्रीमनस्तुष्टिर्मृदुता मृदुभाषिता । हेयोपादेयनिर्मुक्ते ज्ञे तिष्ठन्त्यपवासनम् ॥ [ महोपनिषद् - ६/२९-३० ] अर्थात् 👉🏻 वासना से विहीन , हेय एवं उपादेय से मुक्त ज्ञानी मनुष्य में निराशा , निर्भयता , नित्यता , समता , अभिज्ञता , निष्कामता , निष्क्रियता , सौम्यता , निर्विकल्पता , धैर्य , मित्रता , मनःतुष्टि , मृदुता तथा मृदुभाषिता ये सभी पाए जाते हैं । 🌄🌄 प्रभात वंदन 🌄🌄 #🙏सुविचार📿
🙏सुविचार📿 - ShareChat
#❤️जीवन की सीख #🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान स्मृति और विस्मृति 🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊 *श्रीमद् भागवत गीता कहती है इस सृष्टि ड्रामा में सारा खेल ही स्मृति और विस्मृति का है।* परमात्मा ने अति सुंदर सृष्टि रची, जिसमें श्रेष्ठ दिव्य गुणों से भरपूर देवी देवताओं का राज्य था। यथा राजा तथा प्रजा। वहां पवित्रता, सुख, शांति और संपन्नता थी। धीरे-धीरे काल चक्र आगे बढ़ा। *पुनर्जन्म लेते-लेते गुणों वा कलाओं की डिग्री में कमी आने लगी।* आधा कल्प के बाद सतयुगी देवी देवताएं वाम मार्ग में चले गए। निर्विकारी देवता विकारों में गिर गए। अवगुणों की प्रविष्टता होने लगी। *आत्माएं विकारों रूपी रावण की गिरफ्त में आ गई।* अभी संगम युग में परमात्मा ने आकर इन सब बातों की स्मृति दिलाई तो आत्माओं को बहुत वंडर लगने लगा; *हम क्या थे! भगवान ने हमें क्या बनाया था! विकारों के संग में आकर हमने अपनी कितनी दुर्गति कर ली!* हमारी अज्ञानता ने हमारी सुखों की दुनिया को दुखों की दुनिया में परिवर्तित कर दिया। इधर परमात्मा भी वंडर खाते हैं; *जिनको मैंने श्रेष्ठ देवी देवता बनाया था! विश्व का राज्य भाग्य दिया था! उन्होंने मेरी कितनी ग्लानि कर दी! मुझ ऊंचे से ऊंच परमधाम निवासी बाप को ही विस्मृत कर दिया!* मुझे पत्थर-ठिक्कर, कुत्ते-बिल्ली, कच्छ-मच्छ, कण-कण में कह दिया! *यह भी भक्तों का दोष नहीं उन की भावना थी।* शास्त्रों में दिखाते हैं, हनुमान जी को उनकी शक्तियों की स्मृति दिलाई गई। *उन्हें 'जय श्री राम' का पासवर्ड मिला, तो उन्हें अपने अपार शक्ति की स्मृति हो आई।* उसी आधार पर उन्हें विजय मिली। ऐसे ही परमात्मा हम आत्माओं को स्मृति दिलाते हैं, *तुम कौन हो! किसकी संतान हो! जो परमात्मा पिता की शक्तियां हैं, वही तुम आत्माओं की भी शक्तियां हैं।* 'मनमनाभव' का पासवर्ड दिया। मन को परमात्मा में लगाने से आत्मा पर चढ़ी पांच विकारों की लेयर्स साफ होने लगती हैं। आत्मा में निहित शक्तियां इमर्ज हो जाती हैं। हिम्मत और उल्लास पैदा होता है, *"मैं ही था, मैं ही फिर से बन सकता हूं"* पुरुषार्थ को गति मिल जाती है, आत्मा मनुष्य से देवता बनने की जर्नी की ओर पुनः अग्रसर हो जाती है।
❤️जीवन की सीख - ShareChat
#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩 कथा में बैठना न बैठना कोई जरूरी नहीं है। लेकिन कथा आप में बैठ जाए ये सबसे ज्यादा जरूरी है 1. कथा सुनना आसान है… कथा उतारना मुश्किल है। जिस दिन कथा तुम्हारे स्वभाव में उतर गई, उसी दिन जीवन बदल गया। 2. पंडाल में भीड़ लगाने से ज्ञान नहीं मिलता, ज्ञान तब मिलता है जब तुम अपने भीतर भीड़ को शांत कर लेते हो। 3. कथा का असली अर्थ तो तब खुलता है जब तुम किसी की गलती पर चुप रहकर क्षमा चुन लेते हो। वही असली कथा है। 4. कथा सुनने के लिए जगह नहीं चाहिए, कथा को समझने के लिए मन चाहिए। मन साफ हो तो घर का आँगन भी तीर्थ बन जाता है। 5. लोग पंडाल में भगवान ढूँढते हैं, समझदार वही है जो पंडाल से निकलकर लोगों में भगवान को देख ले। 6. कहानी तो हर दिन सुन सकते हो, पर कहानी को जीकर दिखाना ही आध्यात्मिकता की असली परीक्षा है। 7. कथा दूर बैठकर भी सुन सकते हो, पर जीवन की सच्चाई हमेशा पास से काटती है। जो इसे समझ गया, वही परिपक्व हुआ। 8. कथा का उद्देश्य मनोरंजन नहीं, कथा का उद्देश्य बदलाव है। जिस दिन जीवन में बदलाव दिखने लगे, जान लेना—कथा ने काम कर दिया। 9. कथा का असर तब होता है जब तुम प्रतिक्रिया छोड़कर प्रतिक्रिया-रहित होना सीख जाते हो। यहीं से शांति शुरू होती है। 10. कथाएं तो सदियों से चल रही हैं, पर हर बार नया संदेश वही व्यक्ति पाता है जिसका दिल आज सुनने के लिए तैयार है।
☝अनमोल ज्ञान - ShareChat
#🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान श्री सनकादि मुनि कौन हैं...? 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ उनके श्राप से हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, कुम्भकर्ण और शिशुपाल आदि जैसे राक्षस कैसे पैदा हुए ? 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ जगतपिता परमेश्वर के अध्यक्षता में प्रकृति द्वारा रची गयी सृष्टि के प्रारम्भ में लोकपितामह ब्रह्मा ने विविध लोकों को रचने की इच्छा से तपस्या (उद्योग) की । लोकस्रष्टा के उस अखण्ड तप से प्रसन्न होकर विश्वाधार परमप्रभु ने ‘तप’ अर्थ वाले ‘सन’ नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार-इन चार निविृत्ति परायण ऊध्र्वरेता मुनियों के रूप में ( ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में ) अवतार ग्रहण किया । ये चारो ब्रह्मर्षि अपने प्राकट्य-काल से ही मोक्षमार्ग-परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। लेकिन इन नित्य ब्रह्माचारियों से भी ब्रह्माजी के सृष्टि-विस्तार की आशा पूरी नहीं हो सकी। देवताओं के पूर्वज और लोकस्रष्टा ब्रह्मा जी के आदि मानसपुत्र सनकादि मुनियों के मन में कहीं किंचित् मात्र आसक्ति नहीं थी। वे प्रायः आकाश मार्ग से विचरण किया करते थे। एक बार उन दिव्य मुनियों के मन में बैकुण्ठ लोक में साक्षात विराजित भगवान् के दर्शन की लालसा उत्पन्न हुई। वे उसी इच्छा से श्रीभगवान् के श्रेष्ठ वैकुण्ठ धाम में पहुँचे। वहाँ, बैकुण्ठ लोक में, सभी शुद्ध-सत्त्वमय चतुर्भुज के समान श्रेष्ठ रहते हैं। सनकादि मुनिगण भगवददर्शन की लालसा से वैकुण्ठ की दुर्लभ, दिव्य दर्शनीय वस्तुओं की उपेक्षा करते हुए छठी ड्योढ़ी (Sixth Dimension) के आगे बढ़ ही रहे थे कि भगवान् के पार्षद जय और विजय ने उन पांच वर्ष के बालक जैसे दीखने वाले दिगम्बर तेजस्वी कुमारों की हँसी उड़ाते हुए तथा अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। भगवददर्शन में व्यवधान उत्पन्न होने के कारण सनकादि मुनियों को क्रोध आ गया। उन श्रेष्ठ मुनियों ने उन्हें ( पार्षद जय और विजय को ) दैत्यकुल में जन्म लेने का शाप दे दिया। अपने प्राणप्रिय एवं अपने से अभिन्न सनकादि कुमारों के अनादर का संवाद मिलते ही वैकुण्ठनाथ श्रीहरि तत्काल वहाँ उपस्थित हो गये। उस समय भगवान् की अदभुत, अलौकिक एवं दिव्य सौन्दर्यराशि के दर्शन कर सर्वथा विरक्त सनकादि कुमार भी स्तब्ध हो गये । सब कुछ थम गया था। वे चारो अपलक नेत्रों से प्रभु की ओर देखने लगे, उनके हृदय में आनन्द का महासागर उमड़-घुमड़ रहा था। उन्होंने वनमालाधारी लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णु की स्तुति करते हुए उन्होंने कहा-‘विपुलकीर्ति प्रभो! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नत्रों को बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरूषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त ही कठिन है। आप साक्षात् भगवान् हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं।’ ‘ब्राह्मणों की पवित्र चरण-रज को मैं अपने मुकुट पर धारण करता हूँ।’ श्रीभगवान् ने अपनी संगीतमय एवं अत्यन्त मधुर वाणी में कहा। ‘जय-विजय ने मेरा अभिप्राय न समझकर आप लोगों को अपमान किया है। इस कारण आपने इन्हें दण्ड देकर सर्वथा उचित ही किया है।’ लोकों के उद्धार के लिए लोक-पर्यटन करने वाले, सरलता एवं करूणा की प्रतिमूर्ति सनकादि कुमारों ने श्रीभगवान् की सारगर्भित मधुर वाणी का मर्म समझ लिया। उन्होंने उनसे अत्यन्त विनीत स्वर में कहा-‘हे सर्वेश्वर! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझे, वैसा दण्ड दें अथवा पुरस्कार रूप में इनकी वृत्ति बढ़ा दें-हम निष्कपट भाव से सब प्रकार आपसे सहमत हैं। अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है, इसके लिये हमें ही उचित दण्ड दें। हमें वह भी सहर्ष स्वीकार होगा।’ भगवान मुस्कुराए - ‘यह मेरी प्रेरणा से ही हुआ है।’ श्रीभगवान् ने उन्हें संतुष्ट किया, इसके बाद सनकादि मुनियों ने सर्वांगसुन्दर भगवान् विष्णु और उनके धाम का दर्शन किया और प्रभु की परिक्रमा कर उनका गुणगान करते हुए वे चारों कुमार लौट गये। भगवान् के पार्षद जय-विजय इन मुनियों के शाप से तीन जन्मों तक क्रमशः हिरण्यकशिपु-हिरण्याक्ष, रावण-कुम्भकर्ण और शिशुपाल-दन्तवक्त्र हुए। एक समय जब भगवान् सूर्य की भाँति परम तेजस्वी सनकादि मुनि आकाश मार्ग से भगवान के अंशावतार महराज पृथु के समीप पहुँचे, तब उन्होंने अपना अहोभाग्य समझते हुए उनकी सविधि पूजा की, उनका पवित्र चरणोदक अपने माथे पर छिड़का और उन्हें सुवर्ण के सिंहासन पर बैठाकर बद्धाजंलि हो विनयपूर्वक उन मुनियों से निवेदन किया - ‘मंगलमूर्ति मनुीश्वरो! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं, मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है, जिसके फलस्वरूप आज मुझे स्वतः आपका दर्शन प्राप्त हुआ। ब्रह्माण्ड के इस दृश्य-प्रपंच के कारण महत्तत्त्वादि यद्यपि सर्वगत हैं, तो भी वे सर्वसाक्षी आत्मा को नहीं देख सकते, इसी प्रकार से यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरते रहते हैं, तो भी अनधिकारी लोग आपको नहीं देख पाते।’ फिर अपने सौभाग्य की सराहना करते हुए महराज पृथु ने अत्यन्त आदरपूर्वक उनसे कहा - ‘आप संसारानल से संतप्त जीवों के परम सुहृद् हैं, इसलिये आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में मनुष्य का किस प्रकार सुगमता से कल्याण हो सकता है ?’ भगवान् के अवतार सनकादि मुनियों ने आदिराज पृथु का ऐसा प्रश्न सुनकर उनकी बुद्धि की प्रशंसा की और उन्हें विस्तारपूर्वक कल्याण का उपदेश देते हुए कहा - 'धन और इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करना मनुष्य के सभी पुरूषार्थों का नाश करने वाला है, क्योंकि इनकी चिन्ता से वह ज्ञान और विज्ञान से भ्रष्ट होकर, इन्ही ( इन्द्रिय भोगों ) में निरत होता हुआ, वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म पाता है। इसलिये जिसे अज्ञानान्धकार से पार होने की इच्छा हो, उस पुरूष को विषयों में आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति में बड़ी बाधक है।’ ‘जो लोग मन और इन्द्रिय रूप मगरों से भरे हुए इस संसार-सागर को योगादि दुष्कर साधनों से पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है; क्योंकि उन्हें कर्णधार रूप श्रीहरि का आश्रय नहीं है। अतः तुम तो भगवान के आराधनीय चरण-कमलों को नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर दुःख-समुद्र को पार कर लोगे। भगवान सनकादि के इस अमृतमय उपदेश से आप्यायित होकर आदिराज पृथु ने उनकी स्तुति करते हुए पुनः उनकी श्रृद्धा-भक्तिपूर्वक सविधि पूजा की फिर आया कल्प का अंत ऋषिगण, कल्पान्त में हुई प्रलय के कारण पिछले कल्प का आत्मज्ञान भूल गये थे। श्री भगवान ने अपने इस अवतार ( सनकादी मुनियों के अवतार ) में उन्हें यथोचित उपदेश दिया, जिससे उन लोगों ने शीघ्र ही अपने हृदय में उस तत्त्व का साक्षात्कार कर लिया। सनकादि मुनि अपने योगबल से अथवा ‘हरिः शरणम्’ मंत्र के जप-प्रभाव से सदा पाँच वर्ष के ही कुमार बने रहते हैं। ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्यज्ञान-विशारद, धर्मशास्त्रों के आचार्य तथा मोक्षधर्म के प्रवर्तक हैं। श्रीनारद जी को इन्होंने श्रीमदभागवत का उपदेश किया था भगवान सनत्कुमार ने ऋषियों के तत्त्वज्ञान-सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में सुविस्तृत उपदेश देते हुए बताया था - ‘विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है। सत्य के समान कोई तप नहीं है। राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। पापकर्मों से दूर रहना, सदा पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करना, श्रेष्ठ पुरूषों के-से बर्ताव और सदाचार का पालन करना- यही सर्वोत्तम कल्याण का साधन है।’ प्राणिमात्र के सच्चे शुभाकांक्षी कुमार-चतुष्टय के पावन चरण-कमलों में कोटि-कोटि प्रणाम् ! 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️
🕉️सनातन धर्म🚩 - ShareChat
🛐 “जीवन की भीड़ में जो भीतर बैठ जाए वही सच है”🛐 👩‍❤️‍👨मनुष्य का सबसे बड़ा भ्रम यही है कि वह समझता है—कि सत्संग सुन लेने से बदल जाएगा, कथा में बैठ जाने से जीवन सुधर जाएगा, दो–चार धार्मिक बातों को पढ़ लेने से भीतर प्रकाश जाग उठेगा। लेकिन सच यह है कि परिवर्तन कभी बाहर से नहीं आता। परिवर्तन हमेशा भीतर से उठता है, जैसे अँधेरे से खुद रोशनी का जन्म हो जाए।👩‍❤️‍👨 🧘कथा में बैठ जाना जरूरी नहीं है। बहुत लोग तो सिर्फ भीड़ बढ़ाने के लिए आते हैं, कुछ फोटो खिंचवाने के लिए, कुछ यह दिखाने के लिए कि वे भी धर्म प्रेमी हैं। लेकिन कथा अगर तुम्हारे शरीर में, तुम्हारी सांसों में, तुम्हारी नसों में, तुम्हारे विचारों में नहीं बैठती… तो लाख घंटा सुनो, कुछ नहीं बदलने वाला।🧘 ✍️जैसे पानी नदी के किनारे बहता रहे और मिट्टी को छूकर भी नमी न दे—वैसे ही बहुत लोग प्रवचन सुनते हैं, पर भीतर सूखे ही रहते हैं। क्योंकि वे सुनते कान से हैं, दिल से नहीं। वे आते हैं समाज को दिखाने कि वे धार्मिक हैं, पर खुद को कभी नहीं दिखाते कि वे कितने खोखले हैं।✍️ 📕कथा तो पंडाल के बाहर भी सुनी जा सकती है। असली कथा तो वहां शुरू होती है, जहां तुम्हारा मन शांत हो जाए। जहां तुम्हारी अहंकार की धूल थोड़ी-सी भी बैठ जाए। जहां तुम स्वयं को समझने का जोखिम उठाओ। क्योंकि समझना आसान नहीं है। खुद को देखना सबसे कठिन है। लोग पूरी दुनिया को बदलना चाहते हैं, पर कभी खुद को नहीं देखना चाहते। धर्म का सार यही है—अपने भीतर एक छोटा-सा दीपक जलाना। पर लोग मंदिरों में करोड़ों का दान कर देते हैं, पर अपनी आदतों का एक छोटा-सा अंधेरा भी छोड़ नहीं पाते। इससे बड़ा पाखंड क्या होगा?📕 🧘जो व्यक्ति कथा में बैठकर भी अंदर से खाली है, वह कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता। और जो आदमी कथा सुने बिना भी अपने भीतर सजग हो जाए, सचेत हो जाए—समझ लो वही संत है। धर्म बाहर की चीज़ नहीं है। धर्म वह है जो तुम्हारी चाल बदल दे, तुम्हारी वाणी बदल दे, तुम्हारा व्यवहार बदल दे। धर्म वह है जो तुम्हें अपने भीतर की गंदगी देखने की हिम्मत दे, और उसे साफ करने का संकल्प भी।🧘 ‼️जीवन का उद्देश्य यह नहीं है कि तुम हजारों प्रवचन सुन लो। उद्देश्य यह है कि कम से कम एक वाक्य तुम्हें भीतर से हिला दे। एक सत्य की चिंगारी तुम्हारे अंदर आग पैदा कर दे। बस वही काफी है।‼️ 🧘एक बूढ़ा साधक कहता था—"मैंने जीवन में हजारों गुरु बदले, पर मेरा मन वैसा ही रहा। जब मैंने मन को बदला, गुरु बदलने की जरूरत ही नहीं रही।" आदमी हमेशा बाहर रास्ता ढूंढता है। वह सोचता है कि गुरु बदलूं, मंदिर बदलूं, कथा बदलूं। पर उसने कभी यह नहीं सोचा कि उसे खुद को बदलना है। क्योंकि भीतर की यात्रा कठिन है। भीड़ में बैठना आसान है, अकेले बैठकर अपने जीवन को देखना कठिन है।🧘 🌷कथा का महत्व तभी है जब वह तुम्हें बदल दे। अगर कथा सुनकर भी तुम वही हो—गुस्सा वही, लालच वही, ईर्ष्या वही, अहंकार वही—तो तुमने कथा नहीं सुनी, सिर्फ आवाजें सुनी हैं।🌷 🕉️धर्म बहुत सरल है। पर हम उसे इतना जटिल बना देते हैं कि वह जीवन से दूर हो जाता है। धर्म को मंदिरों में कैद मत करो। उसे अपने व्यवहार में उतारो। अगर तुम किसी की मदद कर देते हो, वही धर्म है। अगर तुम क्रोध छोड़ देते हो, वही धर्म है। अगर तुम अहंकार कम कर देते हो, वही धर्म है। अगर तुम सरल और विनम्र हो जाते हो, वही धर्म है।🕉️ 👨‍❤️‍👨याद रखना—कथा पंडाल में शुरू होती है, पर खत्म तुम्हारे व्यवहार में होती है। अगर पंडाल से उठने के बाद तुम्हारा व्यवहार नहीं बदला, तो कथा व्यर्थ गई। और जो कथा तुम्हारे भीतर उतर जाए… वह तुम्हें एक नया व्यक्ति बना देती है। वही सच्चा सत्संग है।👩‍❤️‍👩 ⁉️अब तुम खुद बताओ…क्या तुम कथा सुनते हो, या कथा तुम्हारे भीतर उतरती भी है?⁉️ #☝अनमोल ज्ञान
☝अनमोल ज्ञान - ShareChat
#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩 🚩उपवास का अर्थ:: 🚩 ✍️अर्थ: "उप" (समीप) और "वास" (बैठना) से बना है, जिसका अर्थ है ईश्वर के समीप बैठना। आध्यात्मिक अभ्यास में अगस्त ऋषि ब्रह्म को धारण ( Perception) कर ईश्वर के चिंतन मनन में लीन रहते हैं जिसको उपवास की संज्ञा दी जाती है l✍️ 🪴भोजन का कुछ समय के लिए त्याग करके ईश्वर की भक्ति में लीन रहना, उनका नाम जपना और स्तुति करना और उसके पश्चात अपने आराध्य का "प्रसाद" ग्रहण करना , जिसे भोजन की संज्ञा नहीं दी जा सकती है l उपवास पूर्ण या आंशिक हो सकता है। यह बहुत छोटी अवधि से लेकर महीनो तक का हो सकता है। 🪴 🚩उपवास का आध्यात्मिक अर्थ - उपवास एक ऐसा तरीका है जिससे हम उन सभी बुरी इच्छाओं पर नियंत्रण करना सीखते हैं। यह बुराई की ओर हमारे झुकाव को परास्त करने और प्रलोभनों पर विजय पाने का एक तरीका है। 🚩 💢वेदांत के दृष्टिकोण से:उपवास का अर्थ केवल भोजन न करना नहीं है।बल्कि इसका गहरा आध्यात्मिक अर्थ है —इंद्रियों का नियंत्रण अर्थात संयम l💢
☝अनमोल ज्ञान - ShareChat
#जय श्री कृष्ण 🛐जो मनुष्य अपने दुखों को कृष्ण को सौंप दे, उसका जीवन हल्का हो जाता है।🛐 🌠दुःख हर व्यक्ति के जीवन में आते हैं—कभी भावनात्मक, कभी आर्थिक, कभी रिश्तों से जुड़े। समस्या तब बढ़ती है जब हम उन्हें अपने भीतर दबाकर रखते हैं। परंतु कृष्ण को सब कुछ सौंप देने का अर्थ है—मन को भारमुक्त कर देना। जब व्यक्ति श्याम के सामने अपने दर्द को स्वीकार करता है, अपनी व्यथा को खोलकर रख देता है, तब आधा बोझ वहीं समाप्त हो जाता है। क्योंकि कृष्ण केवल ईश्वर नहीं, एक सखा भी हैं—जो आपके मन की हर बात सुनता है, समझता है, और बिना कुछ कहे आपको राहत देता है। दुख सौंपने का मतलब यह नहीं कि समस्याएँ तुरंत खत्म हो जाएँगी, बल्कि यह कि उनका भार अब अकेले नहीं उठाना पड़ेगा। कृष्ण आपको सहन करने की शक्ति, समझदारी और धैर्य प्रदान करते हैं। और जब मन हल्का होता है, तब समस्याओं का समाधान भी स्पष्ट दिखने लगता है। यही कारण है कि कृष्ण को अपना दुख बता देना भी एक तरह की भक्ति है।🌠 🌹🌹राधे राधे 🌹🌹
जय श्री कृष्ण - bhakti fan post bhakti fan post - ShareChat
#महाभारत श्रीमहाभारतम् 〰️〰️🌼〰️〰️ ।। श्रीहरिः ।। * श्रीगणेशाय नमः * ।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।। (सम्भवपर्व) चतुसप्ततितमोऽध्यायः शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक...(दिन 235) 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ किं नु कर्माशुभं पूर्वं कृतवत्यन्यजन्मनि । यदहं बान्धवैस्त्यक्ता बाल्ये सम्प्रति च त्वया ।। ७१ ।। 'मैंने पूर्व जन्मान्तरोंमें कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिससे बाल्यावस्थामें तो मेरे बान्धवोंने मुझे त्याग दिया और इस समय आप पतिदेवताके द्वारा भी मैं त्याग दी गयी ।। ७१ ।। कामं त्वया परित्यक्ता गमिष्यामि स्वमाश्रमम् । इमं तु बालं संत्यक्तुं नार्हस्यात्मजमात्मनः ।। ७२ ।। 'महाराज! आपके द्वारा स्वेच्छासे त्याग दी जानेपर मैं पुनः अपने आश्रमको लौट जाऊँगी, किंतु अपने इस नन्हे-से पुत्रका त्याग आपको नहीं करना चाहिये' ।। ७२ ।। दुष्यन्त उवाच न पुत्रमभिजानामि त्वयि जातं शकुन्तले। असत्यवचना नार्यः कस्ते श्रद्धास्यते वचः ।। ७३ ।। मेनका निरनुक्रोशा बन्धकी जननी तव । यया हिमवतः पृष्ठे निर्माल्यमिव चोज्झिता ।। ७४ ।। दुष्यन्त बोले-शकुन्तले! मैं तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न इस पुत्रको नहीं जानता। स्त्रियाँ प्रायः झूठ बोलनेवाली होती हैं। तुम्हारी बातपर कौन श्रद्धा करेगा? तुम्हारी माता वेश्या मेनका बड़ी क्रूरहृदया है, जिसने तुम्हें हिमालयके शिखरपर निर्माल्यकी तरह उतार फेंका है ।। ७३-७४ ।। स चापि निरनुक्रोशः क्षत्रयोनिः पिता तव। विश्वामित्रो ब्राह्मणत्वे लुब्धः कामवशं गतः ।। ७५ ।। और तुम्हारे क्षत्रियजातीय पिता विश्वामित्र भी, जो ब्राह्मण बननेके लिये लालायित थे और मेनकाको देखते ही कामके अधीन हो गये थे, बड़े निर्दयी जान पड़ते हैं ।। ७५ ।। मेनकाप्सरसां श्रेष्ठा महर्षीणां पिता च ते । तयोरपत्यं कस्मात् त्वं पुंश्चलीव प्रभाषसे ।। ७६ ।। मेनका अप्सराओंमें श्रेष्ठ बतायी जाती है और तुम्हारे पिता विश्वामित्र भी महर्षियोंमें उत्तम समझे जाते हैं। तुम उन्हीं दोनोंकी संतान होकर व्यभिचारिणी स्त्रीके समान क्यों झूठी बातें बना रही हो ।। ७६ ।। अश्रद्धेयमिदं वाक्यं कथयन्ती न लज्जसे। विशेषतो मत्सकाशे दुष्टतापसि गम्यताम् ।। ७७ ।। तुम्हारी यह बात श्रद्धा करनेके योग्य नहीं है। इसे कहते समय तुम्हें लज्जा नहीं आती? विशेषतः मेरे समीप ऐसी बातें कहनेमें तुम्हें संकोच होना चाहिये। दुष्ट तपस्विनि ! तुम चली जाओ यहाँसे ।। ७७ ।। क्व महर्षिः स चैवाग्रयः साप्सराः क्व च मेनका । क्व च त्वमेवं कृपणा तापसीवेषधारिणी ।। ७८ ।। कहाँ वे मुनिशिरोमणि महर्षि विश्वामित्र, कहाँ अप्सराओंमें श्रेष्ठ मेनका और कहाँ तुम-जैसी तापसीका वेष धारण करनेवाली दीन-हीन नारी? ।। ७८ ।। अतिकायश्च ते पुत्रो बालोऽतिबलवानयम् । कथमल्पेन कालेन शालस्तम्भ इवोद्‌गतः ।। ७९ ।। तुम्हारे इस पुत्रका शरीर बहुत बड़ा है। बाल्यावस्थामें ही यह अत्यन्त बलवान् जान पड़ता है। इतने थोड़े समयमें यह साखूके खंभे-जैसा लम्बा कैसे हो गया? ।। ७९ ।। सुनिकृष्टा च ते योनिः पुंश्चलीव प्रभाषसे । यदृच्छया कामरागाज्जाता मेनकया ह्यसि ।। ८० ।। तुम्हारी जाति नीच है। तुम कुलटा-जैसी बातें करती हो। जान पड़ता है, मेनकाने अकस्मात् भोगासक्तिके वशीभूत होकर तुम्हें जन्म दिया है ।। ८० ।। सर्वमेतत् परोक्षं मे यत् त्वं वदसि तापसि। नाहं त्वामभिजानामि यथेष्टं गम्यतां त्वया ।। ८१ ।। तुम जो कुछ कहती हो, वह सब मेरी आँखोंके सामने नहीं हुआ है। तापसी ! मैं तुम्हें नहीं पहचानता। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, वहीं चली जाओ ।। ८१ ।। शकुन्तलोवाच राजन् सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यसि । आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसि ।। ८२ ।। शकुन्तलाने कहा- राजन् ! आप दूसरोंके सरसों बराबर दोषोंको तो देखते रहते हैं, किंतु अपने बेलके समान बड़े-बड़े दोषोंको देखकर भी नहीं देखते ।। ८२ ।। मेनका त्रिदशेष्वेव त्रिदशाश्चानु मेनकाम् । ममैवोद्रिच्यते जन्म दुष्यन्त तव जन्मनः ।। ८३ ।। मेनका देवताओंमें रहती है और देवता मेनकाके पीछे चलते हैं- उसका आदर करते हैं (उसी मेनकासे मेरा जन्म हुआ है); अतः महाराज दुष्यन्त! आपके जन्म और कुलसे मेरा जन्म और कुल बढ़कर है ।। ८३ ।। क्षितावटसि राजेन्द्र अन्तरिक्षे चराम्यहम् । आवयोरन्तरं पश्य मेरुसर्षपयोरिव ।। ८४ ।। राजेन्द्र ! आप केवल पृथ्वीपर घूमते हैं, किंतु मैं आकाशमें भी चल सकती हूँ। तनिक ध्यानसे देखिये, मुझमें और आपमें सुमेरु पर्वत और सरसोंका-सा अन्तर है ।। ८४ ।। महेन्द्रस्य कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च । भवनान्यनुसंयामि प्रभावं पश्य मे नृप ।। ८५ ।। नरेश्वर! मेरे प्रभावको देख लो। मैं इन्द्र, कुबेर, यम और वरुण- सभीके लोकोंमें निरन्तर आने-जानेकी शक्ति रखती हूँ ।। ८५ ।। सत्यश्चापि प्रवादोऽयं यं प्रवक्ष्यामि तेऽनघ । निदर्शनार्थं न द्वेषाच्छ्रुत्वा तं क्षन्तुमर्हसि ।। ८६ ।। अनघ ! लोकमें एक कहावत प्रसिद्ध है और वह सत्य भी है, जिसे मैं दृष्टान्तके तौरपर आपसे कहूँगी; द्वेषके कारण नहीं। अतः उसे सुनकर क्षमा कीजियेगा ।। ८६ ।। विरूपो यावदादर्श नात्मनः पश्यते मुखम्। मन्यते तावदात्मानमन्येभ्यो रूपवत्तरम् ।। ८७ ।। कुरूप मनुष्य जबतक आइनेमें अपना मुँह नहीं देख लेता, तबतक वह अपनेको दूसरोंसे अधिक रूपवान् समझता है ।। ८७ ।। यदा स्वमुखमादर्श विकृतं सोऽभिवीक्षते। तदान्तरं विजानीते आत्मानं चेतरं जनम् ।। ८८ ।। किंतु जब कभी आइनेमें वह अपने विकृत मुखका दर्शन कर लेता है, तब अपने और दूसरोंमें क्या अन्तर है, यह उसकी समझमें आ जाता है ।। ८८ ।। अतीवरूपसम्पन्नो न कंचिदवमन्यते । अतीव जल्पन् दुर्वाचो भवतीह विहेठकः ।। ८९ ।। जो अत्यन्त रूपवान् है, वह किसी दूसरेका अपमान नहीं करता; परंतु जो रूपवान् न होकर भी अपने रूपकी प्रशंसामें अधिक बातें बनाता है, वह मुखसे खोटे वचन कहता और दूसरोंको पीड़ित करता है ।। ८९ ।। मूर्यो हि जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः । अशुभं वाक्यमादत्ते पुरीषमिव सूकरः ।। ९० ।। मूर्ख मनुष्य परस्पर वार्तालाप करनेवाले दूसरे लोगोंकी भली-बुरी बातें सुनकर उनमेंसे बुरी बातोंको ही ग्रहण करता है; ठीक वैसे ही, जैसे सूअर अन्य वस्तुओंके रहते हुए भी विष्ठाको ही अपना भोजन बनाता है ।। ९० ।। क्रमशः... साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
महाभारत - [ క్డే రీ = 8 ೯ 8 = यणनसाखाबवव a श्रीमह्भारतमु  ITmuಕ எ Piu-uan ` দ্বাল ப यायययचीय झा गारयायय अयसय्य [ క్డే రీ = 8 ೯ 8 = यणनसाखाबवव a श्रीमह्भारतमु  ITmuಕ எ Piu-uan ` দ্বাল ப यायययचीय झा गारयायय अयसय्य - ShareChat
#श्रुमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०४९ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण बालकाण्ड चौवालीसवाँ सर्ग ब्रह्माजीका भगीरथकी प्रशंसा करते हुए उन्हें गंगाजलसे पितरोंके तर्पणकी आज्ञा देना और राजाका वह सब करके अपने नगरको जाना, गंगावतरणके उपाख्यानकी महिमा श्रीराम! इस प्रकार गंगाजीको साथ लिये राजा भगीरथने समुद्रतक जाकर रसातलमें, जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुए थे, प्रवेश किया। वह भस्मराशि जब गंगाजीके जलसे आप्लावित हो गयी, तब सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् ब्रह्माने वहाँ पधारकर राजासे इस प्रकार कहा—॥१-२॥ 'नरश्रेष्ठ! महात्मा राजा सगरके साठ हजार पुत्रोंका तुमने उद्धार कर दिया। अब वे देवताओंकी भाँति स्वर्गलोकमें जा पहुँचे॥३॥ 'भूपाल! इस संसारमें जबतक सागरका जल मौजूद रहेगा, तबतक सगरके सभी पुत्र देवताओंकी भाँति स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित रहेंगे॥४॥ 'ये गंगा तुम्हारी भी ज्येष्ठ पुत्री होकर रहेंगी और तुम्हारे नामपर रखे हुए भागीरथी नामसे इस जगत्‌में विख्यात होंगी॥५॥ 'त्रिपथगा, दिव्या और भागीरथी—इन तीनों नामोंसे गंगाकी प्रसिद्धि होगी। ये आकाश, पृथ्वी और पाताल तीनों पथोंको पवित्र करती हुई गमन करती हैं, इसलिये त्रिपथगा मानी गयी हैं॥६॥ नरेश्वर! महाराज! अब तुम गंगाजीके जलसे यहाँ अपने सभी पितामहोंका तर्पण करो और इस प्रकार अपनी तथा अपने पूर्वजोंद्वारा की हुई प्रतिज्ञाको पूर्ण कर लो॥७॥ 'राजन्! तुम्हारे पूर्वज धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महायशस्वी राजा सगर भी गंगाको यहाँ लाना चाहते थे; किंतु उनका यह मनोरथ नहीं पूर्ण हुआ ॥८॥ 'वत्स! इसी प्रकार लोकमें अप्रतिम प्रभावशाली, उत्तम गुणविशिष्ट, महर्षितुल्य तेजस्वी, मेरे समान तपस्वी तथा क्षत्रिय-धर्मपरायण राजर्षि अंशुमान्ने भी गंगाको यहाँ लानेकी इच्छा की; परंतु वे इस पृथ्वीपर उन्हें लानेकी प्रतिज्ञा पूरी न कर सके॥९-१०॥ 'निष्पाप महाभाग! तुम्हारे अत्यन्त तेजस्वी पिता दिलीप भी गंगाको यहाँ लानेकी इच्छा करके भी इस कार्यमें सफल न हो सके॥११॥ 'पुरुषप्रवर! तुमने गंगाको भूतलपर लानेकी वह प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली। इससे संसारमें तुम्हें परम उत्तम एवं महान् यशकी प्राप्ति हुई है॥१२॥ शत्रुदमन! तुमने जो गंगाजीको पृथ्वीपर उतारनेका कार्य पूरा किया है, इससे उस महान् ब्रह्मलोकपर अधिकार प्राप्त कर लिया है, जो धर्मका आश्रय है॥१३॥ 'नरश्रेष्ठ! पुरुषप्रवर! गंगाजीका जल सदा ही स्नानके योग्य है। तुम स्वयं भी इसमें स्नान करो और पवित्र होकर पुण्यका फल प्राप्त करो॥१४॥ 'नरेश्वर! तुम अपने सभी पितामहोंका तर्पण करो। तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं अपने लोकको जाऊँगा। तुम भी अपनी राजधानीको लौट जाओ'॥१५॥ ऐसा कहकर सर्वलोकपितामह महायशस्वी देवेश्वर ब्रह्माजी जैसे आये थे, वैसे ही देवलोकको लौट गये॥१६॥ नरश्रेष्ठ! महायशस्वी राजर्षि राजा भगीरथ भी गंगाजीके उत्तम जलसे क्रमशः सभी सगर-पुत्रोंका विधिवत् तर्पण करके पवित्र हो अपने नगरको चले गये। इस प्रकार सफलमनोरथ होकर वे अपने राज्यका शासन करने लगे॥१७-१८॥ रघुनन्दन! अपने राजाको पुनः सामने पाकर प्रजावर्गको बड़ी प्रसन्नता हुई। सबका शोक जाता रहा। सबके मनोरथ पूर्ण हुए और चिन्ता दूर हो गयी॥१९॥ श्रीराम! यह गंगाजीकी कथा मैंने तुम्हें विस्तारके साथ कह सुनायी। तुम्हारा कल्याण हो। अब जाओ, मंगलमय संध्यावन्दन आदिका सम्पादन करो। देखो, संध्याकाल बीता जा रहा है॥२०॥ यह गंगावतरणका मंगलमय उपाख्यान आयु बढ़ानेवाला है। धन, यश, आयु, पुत्र और स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा दूसरे वर्णके लोगोंको भी यह कथा सुनाता है, उसके ऊपर देवता और पितर प्रसन्न होते हैं॥२१-२२॥ ककुत्स्थकुलभूषण! जो इसका श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और आयुकी वृद्धि एवं कीर्तिका विस्तार होता है॥२३॥ *इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौवालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४४॥* ###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
##श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५ - !! ओम नमो नारायणाय !! राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान जो श्री रामजी के चरणों में प्रेम चाहता हो या मोक्षपद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृत को प्रेमपूर्वक अपने कान रूपी दोने से पिए अर्थात भगवान कथा अधिक से श्रवण करे अधेक !! ओम नमो नारायणाय !! राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान जो श्री रामजी के चरणों में प्रेम चाहता हो या मोक्षपद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृत को प्रेमपूर्वक अपने कान रूपी दोने से पिए अर्थात भगवान कथा अधिक से श्रवण करे अधेक - ShareChat