###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०४४
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्ड
उनतालीसवाँ सर्ग
इन्द्रके द्वारा राजा सगरके यज्ञसम्बन्धी अश्वका अपहरण, सगरपुत्रोंद्वारा सारी पृथ्वीका भेदन तथा देवताओंका ब्रह्माजीको यह सब समाचार बताना
विश्वामित्रजीकी कही हुई कथा सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कथाके अन्तमें अग्नितुल्य तेजस्वी विश्वामित्र मुनिसे कहा—॥१॥
'ब्रह्मन्! आपका कल्याण हो। मैं इस कथाको विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। मेरे पूर्वज महाराज सगरने किस प्रकार यज्ञ किया था?'॥२॥
उनकी वह बात सुनकर विश्वामित्रजीको बड़ा कौतूहल हुआ। वे यह सोचकर कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसीके लिये ये प्रश्न कर रहे हैं, जोर-जोरसे हंस पड़े। हँसते हुए-से ही उन्होंने श्रीरामसे कहा—॥३॥
'राम! तुम महात्मा सगरके यज्ञका विस्तारपूर्वक वर्णन सुनो। पुरुषोत्तम! शङ्करजीके श्वशुर हिमवान् नामसे विख्यात पर्वत विन्ध्याचलतक पहुँचकर तथा विन्ध्यपर्वत हिमवान्तक पहुँचकर दोनों एक-दूसरेको देखते हैं (इन दोनोंके बीचमें दूसरा कोई ऐसा ऊँचा पर्वत नहीं है, जो दोनोंके पारस्परिक दर्शनमें बाधा उपस्थित कर सके)। इन्हीं दोनों पर्वतोंके बीच आर्यावर्तकी पुण्यभूमिमें उस यज्ञका अनुष्ठान हुआ था॥४-५॥
'पुरुषसिंह! वही देश यज्ञ करनेके लिये उत्तम माना गया है। तात ककुत्स्थनन्दन! राजा सगरकी आज्ञासे यज्ञिय अश्वकी रक्षाका भार सुदृढ़ धनुर्धर महारथी अंशुमान्ने स्वीकार किया था॥६½॥
'परंतु पर्वके दिन यज्ञमें लगे हुए राजा सगरके यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको इन्द्रने राक्षसका रूप धारण करके चुरा लिया॥७½॥
'काकुत्स्थ! महामना सगरके उस अश्वका अपहरण होते समय समस्त ऋत्विजोंने यजमान सगरसे कहा—'ककुत्स्थनन्दन! आज पर्वके दिन कोई इस यज्ञसम्बन्धी अश्वको चुराकर बड़े वेगसे लिये जा रहा है। आप चोरको मारिये और घोड़ा वापस लाइये, नहीं तो यज्ञमें विघ्न पड़ जायगा और वह हम सब लोगोंके लिये अमंगलका कारण होगा। राजन् ! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधाके परिपूर्ण हो'॥८-१०॥
'उस यज्ञ-सभामें बैठे हुए राजा सगरने उपाध्यायोंकी बात सुनकर अपने साठ हजार पुत्रोंसे कहा—'पुरुषप्रवर पुत्रो! यह महान् यज्ञ वेदमन्त्रोंसे पवित्र अन्तःकरणवाले महाभाग महात्माओंद्वारा सम्पादित हो रहा है; अतः यहाँ राक्षसोंकी पहुँच हो, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता (अतः यह अश्व चुरानेवाला कोई देवकोटिका पुरुष होगा)॥११-१२॥
'अतः पुत्रो! तुमलोग जाओ, घोड़ेकी खोज करो। तुम्हारा कल्याण हो। समुद्रसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वीको छान डालो। एक-एक योजन विस्तृत भूमिको बाँटकर उसका चप्पा-चप्पा देख डालो। जबतक घोड़ेका पता न लग जाय, तबतक मेरी आज्ञासे इस पृथ्वीको खोदते रहो। इस खोदनेका एक ही लक्ष्य है—उस अश्वके चोरको ढूँढ़ निकालना॥१३-१५॥
'मैं यज्ञकी दीक्षा ले चुका हूँ, अतः स्वयं उसे ढूँढ़नेके लिये नहीं जा सकता; इसलिये जबतक उस अश्वका दर्शन न हो, तबतक मैं उपाध्यायों और पौत्र अंशुमान्के साथ यहीं रहूँगा'॥१६॥
'श्रीराम! पिताके आदेशरूपी बन्धनसे बँधकर वे सभी महाबली राजकुमार मन-ही-मन हर्षका अनुभव करते हुए भूतलपर विचरने लगे॥१७॥
'सारी पृथ्वीका चक्कर लगानेके बाद भी उस अश्वको न देखकर उन महाबली पुरुषसिंह राजपुत्रोंने प्रत्येकके हिस्सेमें एक-एक योजन भूमिका बँटवारा करके अपनी भुजाओंद्वारा उसे खोदना आरम्भ किया। उनकी उन भुजाओंका स्पर्श वज्रके स्पर्शकी भाँति दुस्सह था॥१८॥
'रघुनन्दन! उस समय वज्रतुल्य शूलों और अत्यन्त दारुण हलोंद्वारा सब ओरसे विदीर्ण की जाती हुई वसुधा आर्तनाद करने लगी॥१९॥
'रघुवीर! उन राजकुमारोंद्वारा मारे जाते हुए नागों, असुरों, राक्षसों तथा दूसरे-दूसरे प्राणियोंका भयंकर आर्तनाद गूँजने लगा॥२०॥
'रघुकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीराम! उन्होंने साठ हजार योजनकी भूमि खोद डाली। मानो वे सर्वोत्तम रसातलका अनुसंधान कर रहे हों॥२१॥
'नृपश्रेष्ठ राम! इस प्रकार पर्वतोंसे युक्त जम्बूद्वीपकी भूमि खोदते हए वे राजकुमार सब ओर चक्कर लगाने लगे॥२२॥
'इसी समय गन्धर्वों, असुरों और नागोंसहित सम्पूर्ण देवता मन-ही-मन घबरा उठे और ब्रह्माजीके पास गये॥२३॥
'उनके मुखपर विषाद छा रहा था। वे भयसे अत्यन्त संत्रस्त हो गये थे। उन्होंने महात्मा ब्रह्माजीको प्रसन्न करके इस प्रकार कहा—॥२४॥
'भगवन्! सगरके पुत्र इस सारी पृथ्वीको खोदे डालते हैं और बहुत-से महात्माओं तथा जलचारी जीवोंका वध कर रहे हैं॥२५॥
'यह हमारे यज्ञमें विघ्न डालनेवाला है। यह हमारा अश्व चुराकर ले जाता है' ऐसा कहकर वे सगरके पुत्र समस्त प्राणियोंकी हिंसा कर रहे हैं'॥२६॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३९॥*

