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#महाभारत #श्रीमहाभारतकथा-2️⃣2️⃣7️⃣ श्रीमहाभारतम् 〰️〰️🌼〰️〰️ ।। श्रीहरिः ।। * श्रीगणेशाय नमः * ।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।। (सम्भवपर्व) चतुसप्ततितमोऽध्यायः शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक...(दिन 227) 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ वैशम्पायन उवाच प्रतिज्ञाय तु दुष्यन्ते प्रतियाते शकुन्तलाम् । (गर्भश्च ववृधे तस्यां राजपुत्र्यां महात्मनः । शकुन्तला चिन्तयन्ती राजानं कार्यगौरवात् ।। दिवारात्रमनिद्रैव स्नानभोजनवर्जिता ।। राजप्रेषणिका विप्राश्चतुरङ्गबलैः सह । अद्य श्वो वा परश्वो वा समायान्तीति निश्चिता ।। दिवसान् पक्षानृतून् मासानयनानि च सर्वशः । गण्यमानेषु सर्वेषु व्यतीयुस्त्रीणि भारत ।।) वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब शकुन्तलासे पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके राजा दुष्यन्त चले गये, तब क्षत्रियकन्या शकुन्तलाके उदरमें उन महात्मा दुष्यन्तके द्वारा स्थापित किया हुआ गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने और पुष्ट होने लगा। शकुन्तला कार्यकी गुरुतापर दृष्टि रखकर निरन्तर राजा दुष्यन्तका ही चिन्तन करती रहती थी। उसे न तो दिनमें नींद आती थी और न रातमें ही। उसका स्नान और भोजन छूट गया था। उसे यह दृढ़ विश्वास था कि राजाके भेजे हुए ब्राह्मण चतुरंगिणी सेनाके साथ आज, कल या परसोंतक मुझे लेनेके लिये अवश्य आ जायेंगे। भरतनन्दन ! शकुन्तलाको दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन तथा वर्ष - इन सबकी गणना करते-करते तीन वर्ष बीत गये। गर्भ सुषाव वामोरूः कुमारममितौजसम् ।। १ ।। त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमद्युतिम् । रूपौदार्यगुणोपेतं दौष्यन्तिं जनमेजय ।। २ ।। जनमेजय! तदनन्तर पूरे तीन वर्ष व्यतीत होनेके बाद सुन्दर जाँघोंवाली शकुन्तलाने अपने गर्भसे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी, रूप और उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न, अमित पराक्रमी कुमारको जन्म दिया, जो दुष्यन्तके वीर्यसे उत्पन्न हुआ था ।। १-२ ।। (तस्मै तदान्तरिक्षात् तु पुष्पवृष्टिः पपात ह । देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।। गायन्त्यो मधुरं तत्र देवैः शक्रोऽभ्युवाच ह । उस समय आकाशसे उस बालकके लिये फूलोंकी वर्षा हुई, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं और अप्सराएँ मधुर स्वरमें गाती हुई नृत्य करने लगीं। उस अवसरपर वहाँ देवताओंसहित इन्द्रने आकर कहा। शक्र उवाच शकुन्तले तव सुतश्चक्रवर्ती भविष्यति ।। बलं तेजश्च रूपं च न समं भुवि केनचित् । आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरवः ।। अनेकानि सहस्राणि राजसूयादिभिर्मखैः। स्वार्थं ब्राह्मणसात् कृत्वा दक्षिणाममितां ददात् ।। इन्द्र बोले- शकुन्तले ! तुम्हारा यह पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् होगा। पृथ्वीपर कोई भी इसके बल, तेज तथा रूपकी समानता नहीं कर सकता। यह पूरुवंशका रत्न सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करेगा। राजसूय आदि यज्ञोंद्वारा सहस्रों बार अपना सारा धन ब्राह्मणोंके अधीन करके उन्हें अपरिमित दक्षिणा देगा। वैशम्पायन उवाच देवतानां वचः श्रुत्वा कण्वाश्रमनिवासिनः । सभाजयन्त कण्वस्य सुतां सर्वे महर्षयः ।। शकुन्तला च तच्छ्रुत्वा परं हर्षमवाप सा । द्विजानाहूय मुनिभिः सत्कृत्य च महायशाः ।।) जातकर्मादिसंस्कारं कण्वः पुण्यकृतां वरः । विधिवत् कारयामास वर्धमानस्य धीमतः ।। ३ ।। वैशम्पायनजी कहते हैं- इन्द्रादि देवताओंका यह वचन सुनकर कण्वके आश्रममें रहनेवाले सभी महर्षि कण्वकन्या शकुन्तलाके सौभाग्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। यह सब सुनकर शकुन्तलाको भी बड़ा हर्ष हुआ। पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ महायशस्वी कण्वने मुनियोंसे ब्राह्मणोंको बुलाकर उनका पूर्ण सत्कार करके बालकका विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार कराया। वह बुद्धिमान् बालक प्रतिदिन बढ़ने लगा ।। ३ ।। दन्तैः शुक्लैः शिखरिभिः सिंहसंहननो महान् । चक्राङ्कितकरः श्रीमान् महामूर्धा महाबलः ।। ४ ।। वह सफेद और नुकीले दाँतोंसे शोभा पा रहा था। उसके शरीरका गठन सिंहके समान था। वह ऊँचे कदका था। उसके हाथोंमें चक्रके चिह्न थे। वह अद्भुत शोभासे सम्पन्न, विशाल मस्तकवाला और महान् बलवान् था ।। ४ ।। क्रमशः... साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
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