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#जय श्री कृष्ण #राधे कृष्ण जब महाभारत समाप्त हुआ अर्जुन भगवान् कृष्ण के साथ द्वारिका गए थे ।और जब वहां से लौट रहे थे तब युधिष्ठिर को जो सब बाते बताई वो आपके हृदय को झकझोर कर रख देगा भगवान् श्रीकृष्ण के प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्ण के विरह से कृश हो रहे थे, उस पर राजा युधिष्ठिर ने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषय में कई प्रकार की आशंकाएँ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा दी ॥ शोक से अर्जुन का मुख और हृदय-कमल सूख गया था, मुख मलिन पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण के ध्यान में ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाई प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सके श्रीकृष्ण की आँखों से ओझल हो जाने के कारण वे बड़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठा के परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदि के समय भगवान् ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्न-हृदयता और प्रेम से भरे हुए व्यवहार किये थे, उनका स्मरण हो रहा था,बड़े कष्ट से उन्होंने अपने शोक का वेग रोका, हाथ से नेत्रों के आँसू पोंछे और फिर रूँधे गले से महाराज युधिष्ठिर से कहा: अर्जुन बोले— महाराज! मेरे अत्यन्त घनिष्ठ मित्र का रूप धारणकर श्री कृष्ण ने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रम से बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्य में डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझसे छीन लिया ॥ जैसे यह शरीर प्राण से रहित होने पर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षण भर के वियोग से यह संसार अप्रिय दीखने लगा है ॥ उनके आश्रय से द्रौपदी-स्वयंवर में राजा द्रुपद के महल आये हुए कामोन्मत्त राजाओं का तेज मैंने हरण कर लिया, धनुषपर बाण चढ़ाकर मत्स्य भेद किया और इस प्रकार द्रौपदी को प्राप्त किया था ॥ उनकी सन्निधि मात्र से मैंने समस्त देवताओं के साथ इन्द्र को अपने बल से जीतकर अग्निदेव की तुष्टि के लिये खाण्डव वन का दान कर दिया और मय दानव को निर्माण की हुई, अलौकिक कला कौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकारकी भेंट समर्पित कीं ॥ दस सहस्त्र हाथियों की शक्ति और बल से सम्पन्न अपने छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की शक्ति से राजाओं के सिरपर पैर रखनेवाले अभिमानी जरासन्ध का वध किया था तदनन्तर उन्हें भगवान् ने उन बहुत-से राजाओं को मुक्त किया, जिनको जरासन्ध ने महाभैरव-यज्ञ में बलि चढ़ाने के लिये बन्दी बना रखा था। उन सब राजाओं ने आपके यज्ञ में अनेकों प्रकार के उपहार दिये थे ॥ महाव्रती द्रौपदी राजसूय यज्ञ के महान् अभिषेक से पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशों को, जिन्हें दुष्टों ने भरी सभा में छूने का साहस किया था, बिखेर तथा आँखों में आँसू भरकर जब श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा करके उन धूर्तों की स्त्रियों को ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े ॥ वनवास के समय हमारे वैरी दुर्योधन के षड्यन्त्र से दस हजार शिष्यों को साथ बिठाकर भोजन करने वाले महर्षि दुर्वासा ने हमें दुस्तर संकट में डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदी के पात्र में बची हुई शाक की एक पत्ती का ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की थी। उनके ऐसा करते ही नदी में स्नान करती हुई मुनि-मण्डली को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है उनके प्रताप से मैंने युद्ध में पार्वती सहित भगवान् शंकर को आश्चर्य में डाल दिया तथा उन्होंने मुझ को अपना पाशुपत नाम अस्त्र दिया साथ ही दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपा से मैं इसी शरीर से स्वर्ग में गया और देवराज इन्द्र की सभा में उनके बराबर आधे आसनपर बैठनेका सम्मान मैंने प्राप्त किया ॥ ॥ उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनों तक रह गया, तब इन्द्र के साथ समस्त देवताओं ने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करने वाली भुजाओं का निवातकवच आदि दैत्यों को मारने के लिये आश्रय लिया। महाराज! यह सब जिनकी महती कृपा का फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे आज ठग लिया? ॥ महाराज! कौरवों की सेना भीष्म-द्रोण आदि अजस्र महामत्य्सों से पूर्ण अपार समुद्र के समान दुस्तर थी, परन्तु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेली ही रथ पर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हीं की सहायता से, आपको स्मरण होगा, मैंने शत्रुओं से राजा विराट् का सारा गोधन तो वापस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अँगों के अलंकार तक छीन लिये थे ॥ भाईजी! कौरवों की सेना भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथों से शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टि से ही उन महारथी यूथपतियों की आयु, मन, उत्साह और बल को छीन लिया करते थे ॥ द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाह्लीक आदि वीरों में से मुझपर कभी न चूकने वाले अस्त्र चलाये थे परन्तु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्यों के अस्त्र-शस्त्र भगवान के प्रह्लाद का स्पर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छू नहीं सके। यह श्रीकृष्ण के भुजदण्डों की छत्रछाया में रहनेका ही प्रभाव था ॥ श्रेष्ठ पुरुष संसार से मुक्त होने के लिये जिनके चरण कमलों का सेवन करते हैं, अपने-अपने आप्तकों को दालने वाले उन भगवान को मुझ दुर्बुद्धि ने अपने साथ बना डाला। अहा! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथ से उतरकर पृथ्वी पर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझ पर प्रहार न कर सके क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रभाव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी ॥ महाराज! माधव के उन्मुक्त और मधुसूदन के हास परिहास से युक्त, विनो दभरे एवं हृदयस्पर्शी वचन और उनका मुझे 'पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन' आदि कहकर पुकारना, मुझे स्मरण आने पर मेरे हृदय में उथल-पुथल मचा देते हैं ॥ शयन.आसन.भ्रमण वार्तालाप तथा भोजन आदि करने में मैं प्रायः एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्य से उन्हें कह बैठता, 'मित्र! तुम तो बड़े सत्यवादी हो!' उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावता के कारण, जैसे मित्र अपने मित्र का और पिता अपने पुत्र का अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धि के अपराधों को सह लिया करते थे ॥ महाराज! जो मेरे सखा, प्रिय मित्र—नहीं—नहीं मेरे हृदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान के आदेश से द्वारिका की स्त्रियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था, परन्तु मार्ग में दुष्टों ने मुझे एक अबला की भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका ॥ वही गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथ में अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्ण के बिना वे सब एक ही क्षण में नहीं के समान सारशून्य हो गये—ठीक उसी तरह, जैसे भस्म में डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसर में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है ॥ राजन्! आपके द्वारकावासी अपने जिन सुहृद्-सम्बन्धियों की बात पूछी है, वे ब्राह्मणों के शापवश मोहग्रस्त होकर और वारुणी मदिरा के पान से मदोन्मत्त होकर अपरिचितों की भाँति आपस में ही एक-दूसरे से युद्ध करके सब-के-सब नष्ट हो गये। उनमें से केवल चार-पाँच जन ही बचे हैं ॥ वास्तवमें यह सर्वशक्तिमान् भगवान की ही लीला है कि संसार के प्राणी परस्पर एक-दूसरे का पालन-पोषण भी करते हैं और एक-दूसरे को मार भी डालते हैं ॥ राजन्! जिस प्रकार जलचरों में बड़े-बड़े छोटे को, बलवान् दुर्बलों को एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरे को खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशीयों के द्वारा भगवान् ने दूसरे राजाओं का संहार करवाया। तत्पश्चात् यदुवंशीयों के द्वारा ही एक-दूसरे यदुवंशी का नाश करा के पूर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप तथा हृदय के ताप को शान्त करने वाली थीं स्मरण आते ही वे हमारे चित्त का हरण कर लेती हैं ॥ इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों का चिन्तन करते-करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी ॥ उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेग ने उनके हृदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया ॥ उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुनः स्मरण आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी ॥ ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से माया का आवरण भंग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैतका संशय नष्ट हो गया। सूक्ष्मशरीर भंग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्यु के चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये ॥ 🔥⚔️🔥जय श्री राम🔥⚔️🔥
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