#श्रीमहाभारतकथा-2️⃣4️⃣8️⃣
श्रीमहाभारतम्
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।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(सम्भवपर्व)
षट्सप्ततितमोऽध्यायः
कचका शिष्यभाव से शुक्राचार्य और देवयानी की सेवा में संलग्न होना और अनेक कष्ट सहने के पश्चात् मृतसंजीवनी
विद्या प्राप्त करना...(दिन 248)
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कच उवाच
स्मरामि सर्वं यच्च यथा च वृत्तम् । न त्वेवं स्यात् तपसः संक्षयो मे ततः क्लेशं घोरमिमं सहामि ।। ५४ ।।
कचने कहा- गुरुदेव ! आपके प्रसादसे मेरी स्मरणशक्तिने साथ नहीं छोड़ा है। जो बात जैसे हुई है, वह सब मुझे याद है। इस प्रकार पेट फाड़कर निकल आनेसे मेरी तपस्याका नाश होगा। वह न हो, इसीलिये मैं यहाँ घोर क्लेश सहन करता हूँ ।। ५४ ।।
असुरैः सुरायां भवतोऽस्मि दत्तो हत्वा दग्ध्वा चूर्णयित्वा च काव्य । ब्राह्मीं मायां चासुरीं विप्र मायां त्वयि स्थिते कथमेवातिवर्तेत् ।। ५५ ।।
आचार्यपाद! असुरोंने मुझे मारकर मेरे शरीरको जलाया और चूर्ण बना दिया। फिर उसे मदिरामें मिलाकर आपको पिला दिया! विप्रवर! आप ब्राह्मी, आसुरी और दैवी तीनों प्रकारकी मायाओंको जानते हैं। आपके होते हुए कोई इन मायाओंका उल्लंघन कैसे कर सकता है? ।। ५५ ।।
शुक्र उवाच
किं ते प्रियं करवाण्यद्य वत्से वधेन मे जीवितं स्यात् कचस्य । नान्यत्र कुक्षेर्मम भेदनेन दृश्येत् कचो मद्गतो देवयानि ।। ५६ ।।
शुक्राचार्य बोले-बेटी देवयानी! अब तुम्हारे लिये कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? मेरे वधसे ही कचका जीवित होना सम्भव है। मेरे उदरको विदीर्ण करनेके सिवा और कोई ऐसा उपाय नहीं है, जिससे मेरे शरीरमें बैठा हुआ कच बाहर दिखायी दे ।। ५६ ।।
देवयान्युवाच
द्वौ मां शोकावग्निकल्पौ दहेतां कचस्य नाशस्तव चैवोपघातः ।
कचस्य नाशे मम नास्ति शर्म
तवोपघाते जीवितुं नास्मि शक्ता ।। ५७ ।।
देवयानीने कहा-पिताजी ! कचका नाश और आपका वथ-ये दोनों ही शोक अग्निके समान मुझे जला देंगे। कचके नष्ट होनेपर मुझे शान्ति नहीं मिलेगी और आपका वध हो जानेपर मैं जीवित नहीं रह सकूँगी ।। ५७ ।।
शुक्र उवाच
संसिद्धरूपोऽसि बृहस्पतेः सुत यत् त्वां भक्तं भजते देवयानी । विद्यामिमां प्राप्नुहि जीविनीं त्वं न चेदिन्द्रः कचरूपी त्वमद्य ।। ५८ ।।
शुक्राचार्य बोले- बृहस्पतिके पुत्र कच! अब तुम सिद्ध हो गये, क्योंकि तुम देवयानीके भक्त हो और वह तुम्हें चाहती है। यदि कचके रूपमें तुम इन्द्र नहीं हो, तो मुझसे मृतसंजीवनी विद्या ग्रहण करो ।। ५८ ।।
न निवर्तेत् पुनर्जीवन् कश्चिदन्यो ममोदरात् ।
ब्राह्मणं वर्जयित्वैकं तस्माद् विद्यामवाप्नुहि ।। ५९ ।।
केवल एक ब्राह्मणको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे पेटसे पुनः जीवित निकल सके। इसलिये तुम विद्या ग्रहण करो ।। ५९ ।।
पुत्रो भूत्वा भावय भावितो मा-
मस्मद्देहादुपनिष्क्रम्य तात । समीक्षेथा धर्मवतीमवेक्षां गुरोः सकाशात् प्राप्य विद्यां सविद्यः ।। ६० ।।
तात ! मेरे इस शरीरसे जीवित निकलकर मेरे लिये पुत्रके तुल्य हो मुझे पुनः जिला देना। मुझ गुरुसे विद्या प्राप्त करके विद्वान् हो जानेपर भी मेरे प्रति धर्मयुक्त दृष्टिसे ही देखना ।। ६० ।।
वैशम्पायन उवाच
गुरोः सकाशात् समवाप्य विद्यां भित्त्वा कुक्षिं निर्विचक्राम विप्रः । कचोऽभिरूपस्तत्क्षणाद् ब्राह्मणस्य
शुक्लात्यये पौर्णमास्यामिवेन्दुः ।। ६१ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! गुरुसे संजीवनी विद्या प्राप्त करके सुन्दर रूपवाले विप्रवर कच तत्काल ही महर्षि शुक्राचार्यका पेट फाड़कर ठीक उसी तरह बाहर निकल आये, जैसे दिन बीतनेपर पूर्णिमाकी संध्याको चन्द्रमा प्रकट हो जाते हैं ।। ६१ ।।
क्रमशः...
साभार~ पं देव शर्मा💐
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