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###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५ #श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०३४ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण बालकाण्ड उनतीसवाँ सर्ग विश्वामित्रजीका श्रीरामसे सिद्धाश्रमका पूर्ववृत्तान्त बताना और उन दोनों भाइयोंके साथ अपने आश्रमपर पहुँचकर पूजित होना अपरिमित प्रभावशाली भगवान् श्रीरामका वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्रने उनके प्रश्नका उत्तर देना आरम्भ किया—॥१॥ 'महाबाहु श्रीराम! पूर्वकालमें यहाँ देववन्दित भगवान् विष्णुने बहुत वर्षों एवं सौ युगोंतक तपस्याके लिये निवास किया था। उन्होंने यहाँ बहुत बड़ी तपस्या की थी। यह स्थान महात्मा वामनका—वामन अवतार धारण करनेको उद्यत हुए श्रीविष्णुका अवतार ग्रहणसे पूर्व आश्रम था॥२-३॥ 'इसकी सिद्धाश्रमके नामसे प्रसिद्धि थी; क्योंकि यहाँ महातपस्वी विष्णुको सिद्धि प्राप्त हुई थी। जब वे तपस्या करते थे, उसी समय विरोचनकुमार राजा बलिने इन्द्र और मरुद्गणोंसहित समस्त देवताओंको पराजित करके उनका राज्य अपने अधिकारमें कर लिया था। वे तीनों लोकोंमें विख्यात हो गये थे॥४-५॥ 'उन महाबली महान् असुरराजने एक यज्ञका आयोजन किया। उधर बलि यज्ञमें लगे हुए थे, इधर अग्नि आदि देवता स्वयं इस आश्रममें पधारकर भगवान् विष्णुसे बोले—॥ "सर्वव्यापी परमेश्वर! विरोचनकुमार बलि एक उत्तम यज्ञका अनुष्ठान कर रहे हैं। उनका वह यज्ञ-सम्बन्धी नियम पूर्ण होनेसे पहले ही हमें अपना कार्य सिद्ध कर लेना चाहिये॥७॥ "इस समय जो भी याचक इधर-उधरसे आकर उनके यहाँ याचनाके लिये उपस्थित होते हैं, वे गो, भूमि और सुवर्ण आदि सम्पत्तियोंमेंसे जिस वस्तुको भी लेना चाहते हैं, उनको वे सारी वस्तुएँ राजा बलि यथावत्-रूपसे अर्पित करते हैं॥८॥ "अतः विष्णो! आप देवताओंके हितके लिये अपनी योगमायाका आश्रय ले वामनरूप धारण करके उस यज्ञमें जाइये और हमारा उत्तम कल्याण-साधन कीजिये'॥९॥ 'श्रीराम! इसी समय अग्निके समान तेजस्वी महर्षि कश्यप धर्मपत्नी अदितिके साथ अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए वहाँ आये। वे एक सहस्र दिव्य वर्षोंतक चालू रहनेवाले महान् व्रतको अदितिदेवीके साथ ही समाप्त करके आये थे। उन्होंने वरदायक भगवान् मधुसूदनकी इस प्रकार स्तुति की—॥१०-११॥ "भगवन्! आप तपोमय हैं। तपस्याकी राशि हैं। तप आपका स्वरूप है। आप ज्ञानस्वरूप हैं। मैं भलीभाँति तपस्या करके उसके प्रभावसे आप पुरुषोत्तमका दर्शन कर रहा हूँ॥१२॥ "प्रभो! मैं इस सारे जगत्‌को आपके शरीरमें स्थित देखता हूँ। आप अनादि हैं। देश, काल और वस्तुकी सीमासे परे होनेके कारण आपका इदमित्थंरूपसे निर्देश नहीं किया जा सकता। मैं आपकी शरणमें आया हूँ'॥१३॥ 'कश्यपजीके सारे पाप धुल गये थे। भगवान् श्रीहरिने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे कहा—'महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अपनी इच्छाके अनुसार कोई वर माँगो; क्योंकि तुम मेरे विचारसे वर पानेके योग्य हो'॥१४॥ 'भगवान्‌का यह वचन सुनकर मरीचिनन्दन कश्यपने कहा—'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वरदायक परमेश्वर! सम्पूर्ण देवताओंकी, अदितिकी तथा मेरी भी आपसे एक ही बातके लिये बारम्बार याचना है। आप अत्यन्त प्रसन्न होकर मुझे वह एक ही वर प्रदान करें। भगवन्! निष्पाप नारायणदेव! आप मेरे और अदितिके पुत्र हो जायँ॥१५-१६॥ "असुरसूदन! आप इन्द्रके छोटे भाई हों और शोकसे पीड़ित हुए इन देवताओंकी सहायता करें॥१७॥ "देवेश्वर! भगवन्! आपकी कृपासे यह स्थान सिद्धाश्रमके नामसे विख्यात होगा। अब आपका तपरूप कार्य सिद्ध हो गया है; अतः यहाँसे उठिये'॥१८॥ 'तदनन्तर महातेजस्वी भगवान् विष्णु अदितिदेवीके गर्भसे प्रकट हुए और वामनरूप धारण करके विरोचनकुमार बलिके पास गये॥१९॥ 'सम्पूर्ण लोकोंके हितमें तत्पर रहनेवाले भगवान् विष्णु बलिके अधिकारसे त्रिलोकीका राज्य ले लेना चाहते थे; अतः उन्होंने तीन पग भूमिके लिये याचना करके उनसे भूमिदान ग्रहण किया और तीनों लोकोंको आक्रान्त करके उन्हें पुनः देवराज इन्द्रको लौटा दिया। महातेजस्वी श्रीहरिने अपनी शक्तिसे बलिका निग्रह करके त्रिलोकीको पुनः इन्द्रके अधीन कर दिया॥२०-२१॥ 'उन्हीं भगवान्‌ने पूर्वकालमें यहाँ निवास किया था; इसलिये यह आश्रम सब प्रकारके श्रम (दुःख-शोक) का नाश करनेवाला है। उन्हीं भगवान् वामनमें भक्ति होनेके कारण मैं भी इस स्थानको अपने उपयोगमें लाता हूँ॥२२॥ 'इसी आश्रमपर मेरे यज्ञमें विघ्न डालनेवाले राक्षस आते हैं। पुरुषसिंह! यहीं तुम्हें उन दुराचारियोंका वध करना है॥२३॥ 'श्रीराम! अब हमलोग उस परम उत्तम सिद्धाश्रममें पहुँच रहे हैं। तात! वह आश्रम जैसे मेरा है, वैसे ही तुम्हारा भी है'॥२४॥ ऐसा कहकर महामुनिने बड़े प्रेमसे श्रीराम और लक्ष्मणके हाथ पकड़ लिये और उन दोनोंके साथ आश्रममें प्रवेश किया। उस समय पुनर्वसु नामक दो नक्षत्रोंके बीचमें स्थित तुषाररहित चन्द्रमाकी भाँति उनकी शोभा हुई॥२५॥ विश्वामित्रजीको आया देख सिद्धाश्रममें रहनेवाले सभी तपस्वी उछलते-कूदते हुए सहसा उनके पास आये और सबने मिलकर उन बुद्धिमान् विश्वामित्रजीकी यथोचित पूजा की। इसी प्रकार उन्होंने उन दोनों राजकुमारोंका भी अतिथि-सत्कार किया॥२६-२७॥ दो घड़ीतक विश्राम करनेके बाद रघुकुलको आनन्द देनेवाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्रसे बोले—॥२८॥ 'मुनिश्रेष्ठ! आप आज ही यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करें। आपका कल्याण हो। यह सिद्धाश्रम वास्तवमें यथानाम तथागुण सिद्ध हो और राक्षसोंके वधके विषयमें आपकी कही हुई बात सच्ची हो'॥२९॥ उनके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र जितेन्द्रियभावसे नियमपूर्वक यज्ञकी दीक्षामें प्रविष्ट हुए। वे दोनों राजकुमार भी सावधानीके साथ रात व्यतीत करके सबेरे उठे और स्नान आदिसे शुद्ध हो प्रातःकालकी संध्योपासना तथा नियमपूर्वक सर्वश्रेष्ठ गायत्रीमन्त्रका जप करने लगे। जप पूरा होनेपर उन्होंने अग्निहोत्र करके बैठे हुए विश्वामित्रजीके चरणोंमें वन्दना की॥३०-३२॥ *इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उनतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२९॥*
##श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५ - हरि शरणं होइहि सोइ जो राम रचि राखा को करि तर्क बढ़ावै साखा जो प्रभु श्रीराम ने पहले से ही रच रखा है वही होगा, हमारे कुछ करने से वो बदल नही सकता, इसलिए निश्चिंत होकर प्रभु का भजन करें प्रभु सब संभाल लेंगे हरि शरणं होइहि सोइ जो राम रचि राखा को करि तर्क बढ़ावै साखा जो प्रभु श्रीराम ने पहले से ही रच रखा है वही होगा, हमारे कुछ करने से वो बदल नही सकता, इसलिए निश्चिंत होकर प्रभु का भजन करें प्रभु सब संभाल लेंगे - ShareChat

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