कजलियां, जिसे कुछ जगहों पर भुजरिया या भुजलिया भी कहते हैं, मुख्य रूप से बुंदेलखंड, बघेलखंड और महाकौशल क्षेत्रों में मनाया जाने वाला एक पारंपरिक पर्व है। यह त्योहार रक्षाबंधन के अगले दिन मनाया जाता है और इसका संबंध प्रकृति, प्रेम और खुशहाली से है।
कजलियां पर्व का महत्व
कृषि और समृद्धि: कजलियां का त्योहार नई फसल के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। लोग इस दिन अच्छी बारिश और समृद्ध फसल की कामना करते हैं।
भाईचारा और प्रेम: इस दिन लोग एक-दूसरे से गले मिलकर पुरानी कड़वाहट को भूल जाते हैं। बड़े, छोटों के कानों में कजलियां लगाकर उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं।
कजलियां कैसे मनाई जाती हैं?
इस पर्व की तैयारियां कई दिन पहले से शुरू हो जाती हैं:
जौ या गेहूं बोना: सावन माह की नवमी को, बांस की छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी बिछाकर उसमें जौ या गेहूं के दाने बोए जाते हैं। इन्हें रोज पानी और गोबर की खाद दी जाती है।
विसर्जन: रक्षाबंधन के अगले दिन इन टोकरियों को महिलाएं अपने सिर पर रखकर, पारंपरिक लोकगीत गाते हुए तालाब या नदी में विसर्जित करती हैं।
शुभकामनाएँ: विसर्जन के बाद, लोग एक-दूसरे से मिलते हैं और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को कजलियां भेंट करते हैं। इस दौरान वे खुशहाल जीवन और धन-धान्य की कामना करते हैं।
कजलियां से जुड़ी लोककथा
कजलियां का पर्व राजा आल्हा-ऊदल की वीरगाथा से भी जुड़ा हुआ है। एक लोककथा के अनुसार, जब दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर हमला किया था, तो महोबा के राजा परमाल की बेटी राजकुमारी चंद्रावली अपनी सहेलियों के साथ तालाब में कजलियां विसर्जित करने गई थीं। आल्हा और ऊदल ने वीरता से लड़कर राजकुमारी की रक्षा की। इस जीत के बाद से महोबा में कजलियां का त्योहार विजयोत्सव के रूप में भी मनाया जाने लगा। #कजलियां #🗞️10 अगस्त के अपडेट 🔴 #🗞️🗞️Latest Hindi News🗞️🗞️ #🗞breaking news🗞 #aaj ki taaja khabar

