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#जय श्री राम 🌿🌼 केवट प्रसंग 🌼🌿 गंगा पार करनी थी सो गंगा किनारे आए। लक्ष्मणजी ने केवट को पुकारा और पूछा, क्या तू हमें पार ले जाएगा ? केवट अपनी नौका में-से ही कहने लगा- मैं तुम्हारा मर्म जानता हूँ। लक्ष्मणजी- अरे भाई ! कौन सा मर्म जानता है तू? केवट- राम के चरणों की धुलि के स्पर्श से पत्थर की अहिल्या सजीव हो गई। मेरी नौका तो लकडी की है। राम-चरण स्पर्श से मेरी नौका भी यदि स्त्री बन जाए तो मैं अपने कुटुम्ब का परिपालन कैसे करूँगा और इस दूसरी स्त्री का क्या करूँगा ? यदि मेरी नौका में आप बैठना ही चाहते हैं तो पहले मुझे रामचन्द्रजी के चरण धोने की अनुमति दी जाए। उनके चरण धोकर धुलि साफ करने के बाद ही मैं उन्हें अपनी नौका में बैठने दूँगा। केवट के प्रेमपूर्ण वचन से रघुनाथजी को प्रसन्नता हुई। उन्होंने केवट को अपने पास बुलाया। वह लकड़ी का बर्तन लेकर आया और कहने लगा कि मेरी इच्छा है कि आपके चरण पखारूँ। रामचन्द्र सोच रहे हैं कि मेरे दोनों पाँवों के स्वामी तो यहाँ हैं ही, अब तीसरा आ गया। वसिष्ठजी ने न्याय किया था। निर्विकारी लक्ष्मण दक्षिण चरण की सेवा करेगा और सीताजी वाम चरण की। केवट भाग्यशाली था। वह दोनों चरणों की सेवा कर सका। गंगाजल से दोनों पाँव पखारने लगा। बड़ी लगन से पाँव पखारे। मेरी इच्छा पूर्ण होने दीजिए। जिन चरनन की चरन पादुका भरत रह्यो लौ लाई। सोइ चरन केवट धोय लीन्हें तब हरि नाव चलाई ॥ भज मन रामचरण सुखदायी। यह केवट पूर्वजन्म में क्षीरसमुद्र में कच्छप था। वह नारायण की चरण सेवा करना चाहता था। लक्ष्मीजी और शेष ने अनुमति नहीं दी। आज लक्ष्मीजी सीता बनी हैं और शेष लक्ष्मण । पिछले जन्म में तो आपने मुझे नारायण की चरण सेवा नहीं करने दी थी। आज आप दोनों खडे हैं और मैं सेवा कर रहा हूं। केवट ने साष्टांग प्रणाम किया। केवट ने राम, लक्ष्मण, सीता को गंगा पार करा दिया। रामजी ने सोचा कि इसे कुछ देना चाहिए, किन्तु क्या दूँ ? मेरे पास कुछ है तो नहीं। सीताजी रामजी का मनोभाव जान गई। उन्होंने अपनी अँगूठी राम को दे दी। रघुनाथ केवट को वह अंगूठी देने लगे। हम तुझे दाम के रूप में नहीं, सेवा के उपहार के रूप में यह देते हैं। केवट ने कहा- मेरी प्रतिज्ञा है कि साधू-सन्तों को बिना दाम ही पार लगाऊँ। श्रीराम- प्रसाद के रूप मे ले लो। केवट- आज का प्रसंग प्रसाद लेने के जैसा नहीं है। चौदह वर्ष के वनवास की समाप्ति के बाद जब आपका राज्याभिषेक होगा तभी मैं प्रसाद लूंगा। केवट ने अँगूठी लेने से बार-बार इन्कार किया तो लक्ष्मणजी उससे स्वीकारने के लिए आग्रह करने लगे। तो केवट ने कहा- मैं और राम एक ही जाति के हैं। मैं अपने भाई से दाम कैसे लूँ ? केवट, केवट से उतराई लेता है क्या? लक्ष्मण ने क्रोधित होकर कहा- क्या बकता है तू ? क्या हम तुम एक जाति के हैं? केवट - मेरी और आपकी नहीं, किन्तु मेरी और रामचन्द्रजी की जाति एक है। मैं गंगा नदी का केवट हूँ, लोगों को गंगा पार कराता हूँ। तो रामचन्द्र जी संसार सिन्धु के केवट हैं, लोगों को संसार-सागर पार करा देते हैं। इस जीव को भी संसार-सागर के किनारे लगा दीजिएगा। जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिन्धु अपारा ॥ राज्याभिषेक के समय केवट आ नहीं सका था क्योंकि रामचन्द्र विमान द्वारा अयोध्या लौटे थे, किन्तु रामचन्द्र ने उसे याद करके गुहक द्वारा प्रसाद भिजवाया था। अब तीनों आगे बढने लगे। सीताजी साहजिक विवेक और संकोच से चलती थीं। आगे राम चल रहे थे, बीच में सीताजी और अन्त में लक्ष्मणजी। राम और लक्ष्मण के बीच चल रही सीताजी की शोभा की क्या बात करें? ब्रह्म जीव बिच माया जैसी। मानों जीव और ब्रह्म के बीच माया चल रही है। पगडण्डी बडी संकरी थी । लक्ष्मण काँटों पर चल रहे थे। राम से यह देखा नहीं गया। उन्होंने लक्ष्मण को आगे और स्वयं सीता के पीछे चलने लगे। रास्ते में मुकाम किया। गाँव के लोग दर्शनार्थ आए। स्त्रियाँ सीताजी को वन्दन करती जा रही थीं। ग्रामजन आपस में बातें कर रहे थे- ऐसे सकुमारों ने रास्ते में मुकाम किया। गाँव के लोग दर्शनार्थ आए। स्त्रियाँ बोली सीताजी को को वन में भेजते हुए कैकेयी को लाज भी न आई ? गाँव की स्त्रियों ने सीताजी से पूछा- ये दोनों आपके क्या लगते हैं ? सीताजी ने कहा- जो गोरे हैं, वह मेरे देवरजी हैं। राम का परिचय शब्द से नहीं, आँखों के संकेत से दिया। श्रुति ने भी परमात्मा का वर्णन निषेधपूर्ण ही किया है- 'न इति, न इति'। राम-सीता ने दर्भासन पर शयन किया। गुहक और लक्ष्मणजी चौकसी करने लगे। गुहक ने कैकेयी के विषय में कटु वचन सुनाए तो लक्ष्मणजी उसे समझाने लगे। यह उपदेश लक्ष्मण गीता नाम से प्रसिद्ध है। सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता। मनुष्य को उसका कर्म ही सुख या दुःख देता है। इस सृष्टि का आधार ही कर्म है। इसी कारण से ज्ञानी- महात्मा किसी को भी दोषी नहीं मानते हैं। रामचन्द्रजी स्वेच्छा से ही वनवासी बने हैं। सीताराम के चरणारविन्द का नित्य स्मरण ही परमार्थ है। सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम वचन राम पद नेहू ॥ सुख-दुःख का कारण जो अपने अन्दर ही खोजे, वह सन्त है। ज्ञानी पुरुष सुख-दुःख का कारण बाहर नहीं खोजते हैं। मनुष्य के सुख-दुःख का दाता बाहर जगत् में कोई नहीं है। यह कल्पना ही भ्रामक है कि मुझे कोई सुख- दुःख दे रहा है। ऐसी कल्पना तो अन्यों के प्रति वैरी भाव जगाएगी। वस्तुतः सुख या दुःख कोई दे ही नहीं सकता है। यह मन की कल्पना मात्र है। सुख-दुःख तो कर्म का ही फल है। सदा सर्वदा मन को समझाओ कि उसे जो सुख-दुःखानुभव हो रहा है, वह उसी के कर्मों का फल है। कोउ न काहु सुख दुःख का दाता। निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ॥ राम तो परमानन्द स्वरूप हैं। जो उनका स्मरण करते हैं, उन्हें दुःख नहीं होता। सुख ही होता है। सो उनको दुःख होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। उनके मन में कैकेयी के प्रति कोई क्रोध नहीं है। राम को कर्म का बन्धन तो है नहीं. वे कर्म से परे हैं। वे अपनी इच्छा से ही प्रकट होते हैं। जीव को अपने कर्म के कारण जन्म लेना पड़ता है। ईश्वर स्वेच्छा से प्रकट होते हैं। फिर भी परमात्मा लीला करने के लिए प्रकट हुए हैं, सो कर्म की मर्यादा में रहते हैं। जगत् के सामने एक आदर्श रखते हैं कि स्वयं परमात्मा होते हुए भी कर्म के बन्धन में हैं। वे स्वेच्छा से ही अवतरित हुए हैं। जीव अपने कर्म से जन्म लेता है। रामकथा कई ग्रन्थों में वर्णित की गई है। कैकेयी ने राम को वनवास दिया। कौशल्या माता को अति दुःख हुआ - कैकेयी ने राम को वनवास दिया। । रामचन्द्र कहते हैं कि यह मेरे कर्मों का फल है। पूर्वजन्म में मैंने कैकेयी को दुःख दिया था, उसकी ही ये फल है। पूर्व में कैकेयी जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका थी। परशुराम ने परशुरामावतार में जो किया उसका फल इस अवतार में पा रहा हूं। परशुराम उन्हीं के पुत्र थे। एक बार गन्धर्व चित्रसेन कई अप्सराओं के साथ सरोवर में विहार कर रहा था। रेणुका ने वह दृश्य देखा तो उसके मन में भी विकार जागा और कुछ असंतोष भी। इन अप्सराओं को जैसा सुख मिल रहा है, वैसा तो कभी मुझे मिला ही नहीं है। रेणुका को लौटने में देर हई, जमदग्नि जान गए कि रेणुका ने मन से व्यभिचार किया है।जमदग्नि खिन्न हो गए। उन्होंने पुत्र से कहा- तेरी माता ने पाप किया है. उसकी हत्या कर दे। पिता की आज्ञा सुनकर, बिना कुछ सोचे-विचारे ही परशुराम ने रेणुका का शिरोच्छेद कर दिया। रामचन्द्र कौशल्या को समझा रहे हैं कि उस जन्म में मैंने माता को दुःख दिया था सो इस जीवन में वह मुझे दुःख दे रही है। महात्मा तो यहाँ तक कहते हैं कि राम ने बालि की हत्या की थी तो बालि कृष्णावतार के समय पारधि का रूप लेकर आया और भगवान् को उसके बाण से प्राण त्यागने पड़े। किए हुए कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। सारी रात लक्ष्मणजी और गुहक बातचीत करते हुए चौकसी करते रहे। ब्रह्ममुहूर्त में रामचन्द्रजी ने स्नानादि से निवृत्त होकर शिवजी की पूजा की। अपने जीवन में कुछ नियम होने ही चाहिए। जिसके जीवन में कुछ शुभसंकल्प नहीं है, वह पशु से भी अधम है। नियम के पालन के अभाव में मनुष्य पशु से भी बदतर हो जाता है। रघुनाथ ने जगत् के समक्ष आदर्श रखा कि वे स्वयं ईश्वर हैं फिर भी भगवान् शंकर की पूजा करते हैं। गुहक को वापस लौटने को कहा गया किन्तु वह न माना। तो रामजी ने कहा, ठीक है। हम चित्रकूट पहुँच जाएँ, तब लौट जाना। भगवान् धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे हैं। प्रयागराज में आए और वहाँ भरद्वाज मुनि के आश्रम में पधारे। तुम भरद्वाज बन जाओगे तो तुम्हारे यहाँ भी भगवान् पधारेंगे। भरद्वाज अर्थात् उपदेश को कान में भर लेना। इस जगत की बातों पर अधिक ध्यान देने से कोई लाभ नहीं होता है परन्तु भक्ति में विक्षेप होता है। भरद्वाज अधिक बोलते नहीं है। वे बार-बार रामकथा सुनते थे और रामचरण के बडे अनुरागी थे। राम-सीता-लक्ष्मण के आगमन से वे बडे आनन्दित हुए । आसपास के अन्य ऋषि भी आने लगे। भरद्वाज कहते हैं. आज तक की कडी साधना का फल मिल गया। सभी साधना का फल है, भगवान् का दर्शन । भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन के बिना शान्ति नहीं है। भगवान् ने एक रात उनके आश्रम में बिताई। सियावर रामचंद्र की जय 🙏🚩🏹
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