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जय श्री कृष्ण घर पर रहे-सुरक्षित रहे
###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५ #श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०४४ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण बालकाण्ड उनतालीसवाँ सर्ग इन्द्रके द्वारा राजा सगरके यज्ञसम्बन्धी अश्वका अपहरण, सगरपुत्रोंद्वारा सारी पृथ्वीका भेदन तथा देवताओंका ब्रह्माजीको यह सब समाचार बताना विश्वामित्रजीकी कही हुई कथा सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कथाके अन्तमें अग्नितुल्य तेजस्वी विश्वामित्र मुनिसे कहा—॥१॥ 'ब्रह्मन्! आपका कल्याण हो। मैं इस कथाको विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। मेरे पूर्वज महाराज सगरने किस प्रकार यज्ञ किया था?'॥२॥ उनकी वह बात सुनकर विश्वामित्रजीको बड़ा कौतूहल हुआ। वे यह सोचकर कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसीके लिये ये प्रश्न कर रहे हैं, जोर-जोरसे हंस पड़े। हँसते हुए-से ही उन्होंने श्रीरामसे कहा—॥३॥ 'राम! तुम महात्मा सगरके यज्ञका विस्तारपूर्वक वर्णन सुनो। पुरुषोत्तम! शङ्करजीके श्वशुर हिमवान् नामसे विख्यात पर्वत विन्ध्याचलतक पहुँचकर तथा विन्ध्यपर्वत हिमवान्तक पहुँचकर दोनों एक-दूसरेको देखते हैं (इन दोनोंके बीचमें दूसरा कोई ऐसा ऊँचा पर्वत नहीं है, जो दोनोंके पारस्परिक दर्शनमें बाधा उपस्थित कर सके)। इन्हीं दोनों पर्वतोंके बीच आर्यावर्तकी पुण्यभूमिमें उस यज्ञका अनुष्ठान हुआ था॥४-५॥ 'पुरुषसिंह! वही देश यज्ञ करनेके लिये उत्तम माना गया है। तात ककुत्स्थनन्दन! राजा सगरकी आज्ञासे यज्ञिय अश्वकी रक्षाका भार सुदृढ़ धनुर्धर महारथी अंशुमान्ने स्वीकार किया था॥६½॥ 'परंतु पर्वके दिन यज्ञमें लगे हुए राजा सगरके यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको इन्द्रने राक्षसका रूप धारण करके चुरा लिया॥७½॥ 'काकुत्स्थ! महामना सगरके उस अश्वका अपहरण होते समय समस्त ऋत्विजोंने यजमान सगरसे कहा—'ककुत्स्थनन्दन! आज पर्वके दिन कोई इस यज्ञसम्बन्धी अश्वको चुराकर बड़े वेगसे लिये जा रहा है। आप चोरको मारिये और घोड़ा वापस लाइये, नहीं तो यज्ञमें विघ्न पड़ जायगा और वह हम सब लोगोंके लिये अमंगलका कारण होगा। राजन् ! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधाके परिपूर्ण हो'॥८-१०॥ 'उस यज्ञ-सभामें बैठे हुए राजा सगरने उपाध्यायोंकी बात सुनकर अपने साठ हजार पुत्रोंसे कहा—'पुरुषप्रवर पुत्रो! यह महान् यज्ञ वेदमन्त्रोंसे पवित्र अन्तःकरणवाले महाभाग महात्माओंद्वारा सम्पादित हो रहा है; अतः यहाँ राक्षसोंकी पहुँच हो, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता (अतः यह अश्व चुरानेवाला कोई देवकोटिका पुरुष होगा)॥११-१२॥ 'अतः पुत्रो! तुमलोग जाओ, घोड़ेकी खोज करो। तुम्हारा कल्याण हो। समुद्रसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वीको छान डालो। एक-एक योजन विस्तृत भूमिको बाँटकर उसका चप्पा-चप्पा देख डालो। जबतक घोड़ेका पता न लग जाय, तबतक मेरी आज्ञासे इस पृथ्वीको खोदते रहो। इस खोदनेका एक ही लक्ष्य है—उस अश्वके चोरको ढूँढ़ निकालना॥१३-१५॥ 'मैं यज्ञकी दीक्षा ले चुका हूँ, अतः स्वयं उसे ढूँढ़नेके लिये नहीं जा सकता; इसलिये जबतक उस अश्वका दर्शन न हो, तबतक मैं उपाध्यायों और पौत्र अंशुमान्के साथ यहीं रहूँगा'॥१६॥ 'श्रीराम! पिताके आदेशरूपी बन्धनसे बँधकर वे सभी महाबली राजकुमार मन-ही-मन हर्षका अनुभव करते हुए भूतलपर विचरने लगे॥१७॥ 'सारी पृथ्वीका चक्कर लगानेके बाद भी उस अश्वको न देखकर उन महाबली पुरुषसिंह राजपुत्रोंने प्रत्येकके हिस्सेमें एक-एक योजन भूमिका बँटवारा करके अपनी भुजाओंद्वारा उसे खोदना आरम्भ किया। उनकी उन भुजाओंका स्पर्श वज्रके स्पर्शकी भाँति दुस्सह था॥१८॥ 'रघुनन्दन! उस समय वज्रतुल्य शूलों और अत्यन्त दारुण हलोंद्वारा सब ओरसे विदीर्ण की जाती हुई वसुधा आर्तनाद करने लगी॥१९॥ 'रघुवीर! उन राजकुमारोंद्वारा मारे जाते हुए नागों, असुरों, राक्षसों तथा दूसरे-दूसरे प्राणियोंका भयंकर आर्तनाद गूँजने लगा॥२०॥ 'रघुकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीराम! उन्होंने साठ हजार योजनकी भूमि खोद डाली। मानो वे सर्वोत्तम रसातलका अनुसंधान कर रहे हों॥२१॥ 'नृपश्रेष्ठ राम! इस प्रकार पर्वतोंसे युक्त जम्बूद्वीपकी भूमि खोदते हए वे राजकुमार सब ओर चक्कर लगाने लगे॥२२॥ 'इसी समय गन्धर्वों, असुरों और नागोंसहित सम्पूर्ण देवता मन-ही-मन घबरा उठे और ब्रह्माजीके पास गये॥२३॥ 'उनके मुखपर विषाद छा रहा था। वे भयसे अत्यन्त संत्रस्त हो गये थे। उन्होंने महात्मा ब्रह्माजीको प्रसन्न करके इस प्रकार कहा—॥२४॥ 'भगवन्! सगरके पुत्र इस सारी पृथ्वीको खोदे डालते हैं और बहुत-से महात्माओं तथा जलचारी जीवोंका वध कर रहे हैं॥२५॥ 'यह हमारे यज्ञमें विघ्न डालनेवाला है। यह हमारा अश्व चुराकर ले जाता है' ऐसा कहकर वे सगरके पुत्र समस्त प्राणियोंकी हिंसा कर रहे हैं'॥२६॥ *इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३९॥*
##श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५ - ऊँ श्री परमात्मने नमः  35 নমী নায়যণায श्रीकृष्णार्पणमस्तु हरि अनंत हरि कथा अनंता , कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता Il रामचंद्र के चरित सुहाए, कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।l  अर्थ : हरि अनंत हैं और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते। ऊँ श्री परमात्मने नमः  35 নমী নায়যণায श्रीकृष्णार्पणमस्तु हरि अनंत हरि कथा अनंता , कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता Il रामचंद्र के चरित सुहाए, कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।l  अर्थ : हरि अनंत हैं और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते। - ShareChat
#🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान 🌺🌺हरि शरणम 🌺🌺 जो व्यक्ति गीताका पाठ करता है वह उनसे श्रेष्ठ है जो पाठ नहीं करता। उससे अच्छा वह है जो शब्दों का अर्थ समझते हुए पाठ करता है। इससे भी श्रेष्ठ वह है जो काम में लाता है, धारण कर लेता है, अपने को गीता के उपदेश में ढाल लेता है। जो एक चरण भी काम में ले आता है, वह पाठ करने वाले की अपेक्षा महान् श्रेष्ठ है। इस संसार में जिन व्यक्तियों को हम तुच्छ समझते हैं, उनके द्वारा हम उपदेश ग्रहण नहीं कर सकते। उसी के उपदेश का हम पर प्रभाव पड़ सकता है जिसे हम अपने से श्रेष्ठ समझते हैं। उसी के वचनों का प्रभाव हमारे ऊपर पड़ेगा। वही बात कोई एक साधारण मनुष्य सुनाता है, वही एक महात्मा सुनाता है तो महात्मा का प्रभाव पड़ता है। उदाहरणके लिये भिखारी आते हैं, बढ़िया बढ़िया दोहे सुनाते हैं, अच्छे लगते हुए भी उनका उपदेश धारण नहीं होता, क्योंकि हम समझते हैं कि ये पैसा माँगते फिरते हैं। वही उपदेश किसी महात्माके द्वारा मिले तो उसका प्रभाव पड़ता है। < 💐💐🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 परम श्रद्धेय श्री सेठ जी महत्वपूर्ण कल्याणकारी बातें पुस्तक से
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#श्रीमहाभारतकथा-2️⃣3️⃣3️⃣ श्रीमहाभारतम् 〰️〰️🌼〰️〰️ ।। श्रीहरिः ।। * श्रीगणेशाय नमः * ।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।। (सम्भवपर्व) चतुसप्ततितमोऽध्यायः शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक...(दिन 233) 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ सुसंरब्धोऽपि रामाणां न कुर्यादप्रियं नरः। रतिं प्रीतिं च धर्मं च तास्वायत्तमवेक्ष्य हि ।। ५१ ।। 'रति, प्रीति तथा धर्म पत्नीके ही अधीन हैं, ऐसा सोचकर पुरुषको चाहिये कि वह कुपित होनेपर भी पत्नीके साथ कोई अप्रिय बर्ताव न करे ।। ५१ ।। (आत्मनोऽर्धमिति श्रौतं सा रक्षति धनं प्रजाः । शरीरं लोकयात्रां वै धर्म स्वर्गमृषीन् पितॄन् ।।) 'पत्नी अपना आधा अंग है, यह श्रुतिका वचन है। वह धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, धर्म, स्वर्ग, ऋषि तथा पितर- इन सबकी रक्षा करती है। आत्मनो जन्मनः क्षेत्रं पुण्यं रामाः सनातनम् । ऋषीणामपि का शक्तिः स्रष्टुं रामामृते प्रजाम् ।। ५२ ।। 'स्त्रियाँ पतिके आत्माके जन्म लेनेका सनातन पुण्य क्षेत्र हैं। ऋषियोंमें भी क्या शक्ति है कि बिना स्त्रीके संतान उत्पन्न कर सकें ।। ५२ ।। प्रतिपद्य यदा सूनुर्धरणीरेणुगुण्ठितः । पितुराश्लिष्यतेऽङ्गानि किमस्त्यभ्यधिकं ततः ।। ५३ ।। 'जब पुत्र धरतीकी धूलमें सना हुआ पास आता और पिताके अंगोंसे लिपट जाता है, उस समय जो सुख मिलता है, उससे बढ़कर और क्या हो सकता है? ।। ५३ ।। स त्वं स्वयमभिप्राप्तं साभिलाषमिमं सुतम् । प्रेक्षमाणं कटाक्षेण किमर्थमवमन्यसे ।। ५४ ।। अण्डानि बिभ्रति स्वानि न भिन्दन्ति पिपीलिकाः । न भरेथाः कथं नु त्वं धर्मज्ञः सन् स्वमात्मजम् ।। ५५ ।। 'देखिये, आपका यह पुत्र स्वयं आपके पास आया है और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवनसे आपकी ओर देखता हुआ आपकी गोदमें बैठनेके लिये उत्सुक है; फिर आप किसलिये इसका तिरस्कार करते हैं। चींटियाँ भी अपने अण्डोंका पालन ही करती हैं; उन्हें फोड़तीं नहीं। फिर आप धर्मज्ञ होकर भी अपने पुत्रका भरण-पोषण क्यों नहीं करते? ।। ५४-५५ ।। (ममाण्डानीति वर्धन्ते कोकिलानपि वायसाः । किं पुनस्त्वं न मन्येथाः सर्वज्ञः पुत्रमीदृशम् ।। मलयाच्चन्दनं जातमतिशीतं वदन्ति वै । शिशोरालिङ्ग्यमानस्य चन्दनादधिकं भवेत् ।।) 'ये मेरे अपने ही अण्डे हैं' ऐसा समझकर कौए कोयलके अण्डोंका भी पालन-पोषण करते हैं; फिर आप सर्वज्ञ होकर अपनेसे ही उत्पन्न हुए ऐसे सुयोग्य पुत्रका सम्मान क्यों नहीं करते? लोग मलयगिरिके चन्दनको अत्यन्त शीतल बताते हैं, परंतु गोदमें सटाये हुए शिशुका स्पर्श चन्दनसे भी अधिक शीतल एवं सुखद होता है। न वाससां न रामाणां नापां स्पर्शस्तथाविधः । शिशोरालिङ्ग्यमानस्य स्पर्शः सूनोर्यथा सुखः ।। ५६ ।। 'अपने शिशु पुत्रको हृदयसे लगा लेनेपर उसका स्पर्श जितना सुखदायक जान पड़ता है, वैसा सुखद स्पर्श न तो कोमल वस्त्रोंका है, न रमणीय सुन्दरियोंका है और न शीतल जलका ही है ।। ५६ ।। ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम् । गुरुर्गरीयसां श्रेष्ठः पुत्रः स्पर्शवतां वरः ।। ५७ ।। 'मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ है, चतुष्पदों (चौपायों) में गौ श्रेष्ठतम है, गौरवशाली व्यक्तियोंमें गुरु श्रेष्ठ है और स्पर्श करनेयोग्य वस्तुओंमें पुत्र ही सबसे श्रेष्ठ है ।। ५७ ।। स्पृशतु त्वां समाश्लिष्य पुत्रोऽयं प्रियदर्शनः । पुत्रस्पर्शात् सुखतरः स्पर्शो लोके न विद्यते ।। ५८ ।। 'आपका यह पुत्र देखनेमें कितना प्यारा है। यह आपके अंगोंसे लिपटकर आपका स्पर्श करे। संसारमें पुत्रके स्पर्शसे बढ़कर सुखदायक स्पर्श और किसीका नहीं है ।। ५८ ।। त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु प्रजाताहमरिंदम । इमं कुमारं राजेन्द्र तव शोकविनाशनम् ।। ५९ ।। आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरव । इति वागन्तरिक्षे मां सूतकेऽभ्यवदत् पुरा ।। ६० ।। 'शत्रुओंका दमन करनेवाले सम्राट् ! मैंने पूरे तीन वर्षोंतक अपने गर्भमें धारण करनेके पश्चात् आपके इस पुत्रको जन्म दिया है। यह आपके शोकका विनाश करनेवाला होगा। पौरव ! पहले जब मैं सौरमें थी, उस समय आकाशवाणीने मुझसे कहा था कि यह बालक सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला होगा ।। ५९-६० ।। ननु नामाङ्कमारोप्य स्नेहाद् ग्रामान्तरं गताः । मूर्ध्नि पुत्रानुपाघ्राय प्रतिनन्दन्ति मानवाः ।। ६१ ।। 'प्रायः देखा जाता है कि दूसरे गाँवकी यात्रा करके लौटे हुए मनुष्य घर आनेपर बड़े स्नेहसे पुत्रोंको गोदमें उठा लेते हैं और उनके मस्तक सूँघकर आनन्दित होते हैं ।। ६१ ।। वेदेष्वपि वदन्तीमें मन्त्रग्रामं द्विजातयः । जातकर्मणि पुत्राणां तवापि विदितं तथा ।। ६२ ।। 'पुत्रोंके जातकर्म संस्कारके समय वेदज्ञ ब्राह्मण जिस वैदिक मन्त्रसमुदायका उच्चारण करते हैं, उसे आप भी जानते हैं ।। ६२ ।। अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ।। ६३ ।। '(उस मन्त्रसमुदायका भाव इस प्रकार है-) हे बालक ! तुम मेरे अंग-अंगसे प्रकट हुए हो; हृदयसे उत्पन्न हुए हो। तुम पुत्र नामसे प्रसिद्ध मेरे आत्मा ही हो, अतः वत्स ! तुम सौ वर्षोंतक जीवित रहो ।। ६३ ।। क्रमशः... साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ #महाभारत
महाभारत - श्रीमहाभारतम् 0 4 श्रीमहाभारतम् 0 4 - ShareChat
#जय श्री कृष्ण #राधे कृष्ण उद्धव ने श्रीकृष्ण से पूछा, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी,तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया! *लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं ?* उसे एक आदमी घसीटकर भरी सभा में लाता है,और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है! एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया? अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा? *क्या यही धर्म है?"* इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं! उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए। *भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-* "प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं। *यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"* उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार? चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की! और वह यह- उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए। क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं।इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया। मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए। बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे! अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही।तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा।उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया।जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर- *'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम'*- की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला। जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया। अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?" उद्धव बोले- "कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई! *क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"* *कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-* "इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?" *कृष्ण मुस्कुराए-* "उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।यही ईश्वर का धर्म है।" "वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण! तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?" हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे? आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?" उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा! तब कृष्ण बोले- "उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।" जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे। जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो,तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो... *☘🍁 जय श्रीकृष्ण 🍁☘*
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#🕉️सनातन धर्म🚩 आपका अगला जीवन कैसा रहेगा या ? जीवन के शतपथ होते हैं। 100 शुभ कर्मों को करने वाला व्यक्ति मरने के बाद उसी के आधार पर अगला जीवन शुभ या अशुभ प्राप्त करता है। 94 कर्म मनुष्य के अधीन हैं। वह इन्हें करने में समर्थ है पर 6 कर्म का परिणाम ब्रह्माजी के अधीन होता है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश- अपयश ये 6 कर्म विधि के नियंत्रण में होते हैं। अतः मनुष्य की चिता शांत होने पर 100 - 6 = 94 लिखा जाता है। यानी 94 कर्म भस्म हुए और उस चिता के साथ तुम्हारे 6 कर्म साथ जा रहे हैं। जो तुम्हारे लिए नया जीवन सृजित करने मे सहायक होगे। गीता में भी प्रतिपादित है कि मृत्यु के बाद मन अपने साथ 5 ज्ञानेन्द्रियों को लेकर जाता है। यह संख्या 6 होती है। मन और पांच ज्ञान इन्द्रियाँ। अगला जन्म किस देश में कहाँ और किन लोगों के बीच होगा यह प्रकृति के अतिरिक्त किसी को ज्ञात नहीं होता है। आपके लिए इन 100 शुभ कर्मों का विस्तृत विवरण दिया जा रहा है जो जीवन को धर्म और सत्कर्म की ओर ले जाते हैं एवं यह सूची आपके जीवन को सत्कर्म करने की प्रेरणा देगी। _100 शुभ कर्मों की गणना_ धर्म और नैतिकता के कर्म 1.सत्य बोलना 2.अहिंसा का पालन 3.चोरी न करना 4.लोभ से बचना 5.क्रोध पर नियंत्रण 6.क्षमा करना 7.दया भाव रखना 8.दूसरों की सहायता करना 9.दान देना (अन्न, वस्त्र, धन) 10.गुरु की सेवा 11.माता-पिता का सम्मान 12.अतिथि सत्कार 13.धर्मग्रंथों का अध्ययन 14.वेदों और शास्त्रों का पाठ 15.तीर्थ यात्रा करना 16.यज्ञ और हवन करना 17.मंदिर में पूजा-अर्चना 18.पवित्र नदियों में स्नान 19.संयम और ब्रह्मचर्य का पालन 20.नियमित ध्यान और योग सामाजिक और पारिवारिक कर्म 21.परिवार का पालन-पोषण 22.बच्चों को अच्छी शिक्षा देना 23.गरीबों को भोजन देना 24.रोगियों की सेवा 25.अनाथों की सहायता 26.वृद्धों का सम्मान 27.समाज में शांति स्थापना 28.झूठे वाद-विवाद से बचना 29.दूसरों की निंदा न करना 30.सत्य और न्याय का समर्थन 31.परोपकार करना 32.सामाजिक कार्यों में भाग लेना 33.पर्यावरण की रक्षा 34.वृक्षारोपण करना 35.जल संरक्षण 36.पशु-पक्षियों की रक्षा 37.सामाजिक एकता को बढ़ावा देना 38.दूसरों को प्रेरित करना 39.समाज में कमजोर वर्गों का उत्थान 40.धर्म के प्रचार में सहयोग आध्यात्मिक और व्यक्तिगत कर्म 41.नियमित जप करना 42.भगवान का स्मरण 43.प्राणायाम करना 44.आत्मचिंतन 45.मन की शुद्धि 46.इंद्रियों पर नियंत्रण 47.लालच से मुक्ति 48.मोह-माया से दूरी 49.सादा जीवन जीना 50.स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन) 51.संतों का सान्निध्य 52.सत्संग में भाग लेना 53.भक्ति में लीन होना 54.कर्मफल भगवान को समर्पित करना 55.तृष्णा का त्याग 56.ईर्ष्या से बचना 57.शांति का प्रसार 58.आत्मविश्वास बनाए रखना 59.दूसरों के प्रति उदारता 60.सकारात्मक सोच रखना सेवा और दान के कर्म 61.भूखों को भोजन देना 62.नग्न को वस्त्र देना 63.बेघर को आश्रय देना 64.शिक्षा के लिए दान 65.चिकित्सा के लिए सहायता 66.धार्मिक स्थानों का निर्माण 67.गौ सेवा 68.पशुओं को चारा देना 69.जलाशयों की सफाई 70.रास्तों का निर्माण 71.यात्री निवास बनवाना 72.स्कूलों को सहायता 73.पुस्तकालय स्थापना 74.धार्मिक उत्सवों में सहयोग 75.गरीबों के लिए निःशुल्क भोजन 76.वस्त्र दान 77.औषधि दान 78.विद्या दान 79.कन्या दान 80.भूमि दान नैतिक और मानवीय कर्म 81.विश्वासघात न करना 82.वचन का पालन 83.कर्तव्यनिष्ठा 84.समय की प्रतिबद्धता 85.धैर्य रखना 86.दूसरों की भावनाओं का सम्मान 87.सत्य के लिए संघर्ष 88.अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना 89.दुखियों के आँसू पोंछना 90.बच्चों को नैतिक शिक्षा 91.प्रकृति के प्रति कृतज्ञता 92.दूसरों को प्रोत्साहन 93.मन, वचन, कर्म से शुद्धता 94.जीवन में संतुलन बनाए रखना विधि के अधीन 6 कर्म 95.हानि 96.लाभ 97.जीवन 98.मरण 99.यश 100.अपयश 94 कर्म मनुष्य के नियंत्रण में उपरोक्त सूची में 1 से 94 तक के कर्म वे हैं, जो मनुष्य अपने विवेक, इच्छाशक्ति, और प्रयास से कर सकता है। ये कर्म धर्म, सत्य, और नैतिकता पर आधारित हैं, जो जीवन को सार्थक बनाते हैं। 6 कर्म - विधि के अधीन अंतिम 6 कर्म ( हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश ) मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हैं। इन्हें भाग्य, प्रकृति, या ईश्वर की इच्छा के अधीन माना जाता है। #🙏सुविचार📿
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#रामायण नल-नील द्वारा पुल बाँधना, श्री रामजी द्वारा श्री रामेश्वर की स्थापना सीताराम सीताराम सीताराम * परम शक्तिमान प्रभु श्री रामचन्द्र जी की असीम कृपा का आश्रय पाकर वानर और भालू विशालकाय पर्वतों और वृक्षों को खेल-खेल में ही उखाड़ लेते हैं और कंदुक की भाँति उछालकर नल-नील को थमा देते हैं, जो प्रभु के प्रताप का प्रत्यक्ष प्रमाण है। . * विश्वकर्मा के अंश नल और नील, प्रभु श्री रघुनाथ जी के नाम के प्रभाव से भारी-भरकम शिलाओं को समुद्र के जल पर ऐसे तैरा रहे हैं जैसे वे फूल हों, यह अद्भुत चमत्कार केवल राम नाम की महिमा के कारण ही संभव हो पा रहा है। . * समुद्र के वक्षस्थल पर सेतु की अत्यंत सुंदर और सुदृढ़ रचना को देखकर करुणा के सागर, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी का हृदय हर्षित हो उठा और वे मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपनी वानर सेना के उत्साह और भक्ति की सराहना करने लगे। . * समुद्र तट की उस परम रमणीय और पवित्र भूमि को निहारकर त्रिभुवन पति श्री राम के मन में महादेव की स्थापना करने का संकल्प जागा, जिससे यह सिद्ध होता है कि प्रभु श्री हरि और भगवान शंकर में तात्विक रूप से कोई भेद नहीं है। . * वानरराज सुग्रीव के माध्यम से श्रेष्ठ मुनियों को आमंत्रित कर भगवान श्री राम ने विधि-विधान पूर्वक 'श्री रामेश्वर' शिवलिंग की स्थापना की और उनका पूजन करके यह जगजाहिर कर दिया कि शिवजी के समान उन्हें संसार में कोई दूसरा प्रिय नहीं है। . * रघुकुल भूषण श्री राम जी ने स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की कि जो व्यक्ति शिव से द्रोह रखकर मेरी भक्ति करने का दंभ भरता है, वह स्वप्न में भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि शिव और राम एक दूसरे के हृदय में वास करते हैं। . * भगवान श्री रामचन्द्र जी ने कहा कि जो भी प्राणी श्रद्धापूर्वक श्री रामेश्वर भगवान के दर्शन करेगा, वह इस नश्वर शरीर को त्यागने के पश्चात मेरे परम धाम को प्राप्त होगा; यह वरदान प्रभु की अहैतुकी कृपा और शिवजी के प्रति उनके अनन्य प्रेम को दर्शाता है। . * पतितपावन गंगाजल को लाकर जो भक्त निष्काम भाव से श्री रामेश्वर महादेव पर चढ़ाएगा, उसे सायुज्य मुक्ति प्राप्त होगी, अर्थात वह जीव परमात्मा में लीन हो जाएगा, यह वचन स्वयं सत्यसंध प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने अपने मुखारविंद से कहे हैं। . * जो जीव कपट और छल को त्यागकर श्री रामेश्वर जी की सेवा करेगा, भगवान शंकर उसे मेरी (श्री राम की) अविचल भक्ति प्रदान करेंगे, क्योंकि शंकर जी राम-भक्ति के दाता हैं और राम जी शिव-भक्ति के प्रेरक हैं। . * प्रभु श्री रामचन्द्र जी द्वारा निर्मित इस सेतु का जो दर्शन करेगा, वह बिना किसी परिश्रम के ही इस दुस्तर संसार रूपी सागर से तर जाएगा, क्योंकि यह सेतु केवल समुद्र पर नहीं, अपितु भवसागर पर भी विजय प्राप्त करने का साधन है। . * भगवान के मुख से ऐसे कल्याणकारी वचन सुनकर सभी श्रेष्ठ मुनियों और वानरों का हृदय आनंद से भर गया, और वे समझ गए कि श्री रघुनाथ जी शरणागत वत्सल हैं और अपने भक्तों पर सदैव स्नेह की वर्षा करते रहते हैं। . * चतुर शिल्पी नल और नील द्वारा बाँधा गया यह सेतु श्री राम जी की कीर्ति को तीनों लोकों में उज्ज्वल कर रहा है; जो पत्थर स्वभाव से डूबने वाले थे, वे प्रभु की कृपा से स्वयं तैरने वाले और दूसरों को तारने वाले जहाज बन गए। . * यह न तो समुद्र की कोई महिमा है, न ही पाषाणों का कोई गुण है, और न ही वानरों का कोई कौशल है, यह तो केवल और केवल श्री रघुवीर के प्रताप का चमत्कार है कि पत्थर भी जल पर तैर रहे हैं। . * ऐसे परम समर्थ और कृपालु श्री राम जी को त्यागकर जो मंदबुद्धि मनुष्य अन्य देवी-देवताओं की शरण में भटकते हैं, वे वास्तव में अपना अहित ही करते हैं, क्योंकि राम नाम ही कलयुग में एकमात्र आधार और तरने का उपाय है। . * नल और नील द्वारा रचित वह सेतु अत्यंत मजबूत और सुंदर बना, जिसे देखकर कृपानिधान प्रभु के मन को बहुत सुख मिला और उन्होंने अपनी वानर सेना को उस पर से लंका की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया। . * प्रभु की आज्ञा पाते ही वानर सेना गर्जना करती हुई चली, जिसका वर्णन करना असंभव है; उस समय वीर वानरों के जयघोष से आकाश और पाताल गूंज उठे, मानो साक्षात् काल ही रावण के विनाश के लिए उमड़ पड़ा हो। . * सेतुबंध के समीप खड़े होकर जब करुणा कंद भगवान श्री राम ने समुद्र की विशालता को निहारा, तो उनके दर्शन पाने की लालसा में समुद्र के भीतर छिपे हुए असंख्य जलचर प्राणी जल की सतह पर प्रकट हो गए। . * सौ-सौ योजन लंबे विशालकाय मगरमच्छ, घड़ियाल, मछलियाँ और सर्प प्रभु के अलौकिक रूप-सौंदर्य को निहारने के लिए व्याकुल होकर बाहर निकल आए, जो यह दर्शाता है कि जड़-चेतन सभी जीव श्री राम के दर्शन के प्यासे हैं। . * समुद्र के वे जीव, जो एक-दूसरे को खा जाते थे और एक-दूसरे से भयभीत रहते थे, वे सब भगवान श्री राम के मोहिनी रूप को देखकर अपना वैर-भाव और भय भूल गए और केवल प्रभु की छवि में मग्न हो गए। . * जलचरों की संख्या इतनी अधिक थी कि समुद्र का जल दिखाई ही नहीं दे रहा था, वे सब प्रभु श्री राम को एकटक निहार रहे थे और हटाने पर भी नहीं हटते थे, मानो उन्हें परम आनंद की प्राप्ति हो गई हो। . * प्रभु श्री रामचन्द्र जी की सेना की विशालता और वैभव का वर्णन करने में सरस्वती और शेषनाग भी समर्थ नहीं हैं; उस सेना के भार से कच्छप और शेषनाग की पीठ भी डगमगा रही थी, ऐसी प्रभु की लीला अपरंपार है। . * यह सेतु केवल लंका जाने का मार्ग नहीं था, अपितु यह धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश का प्रतीक था, जिसे स्वयं धर्मधुरंधर श्री राम ने अपनी देखरेख में बनवाया था ताकि सीता जी के उद्धार का कार्य संपन्न हो सके। . * भगवान शंकर की स्थापना करके श्री राम ने यह संदेश दिया कि विजय प्राप्ति के लिए शक्ति और भक्ति दोनों की आवश्यकता होती है, और शिव की आराधना के बिना राम का कार्य पूर्ण नहीं होता। . * श्री रामेश्वरम की महिमा गाते हुए प्रभु ने जगत को यह शिक्षा दी कि जो बड़प्पन पाकर भी विनम्र बना रहता है और अपने इष्ट का सम्मान करता है, वही सच्चा वीर और मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने योग्य है। . * वानर भालुओं द्वारा पत्थरों पर 'श्री राम' लिखकर समुद्र में तैराना यह सिद्ध करता है कि नाम में नामी (जिसका नाम है) से भी अधिक शक्ति होती है, और राम नाम के सहारे असंभव भी संभव हो जाता है। . * प्रभु श्री राम की वह छवि अत्यंत मनमोहक है जब वे धनुष-बाण धारण किए हुए सेतु पर शोभायमान हो रहे थे, मानो नीले मेघों के बीच बिजली चमक रही हो और वे अपने भक्तों को अभयदान दे रहे हों। . * सेतु निर्माण के कार्य में गिलहरी जैसे छोटे प्राणी का सहयोग स्वीकार कर भगवान ने यह दर्शाया कि भक्ति में बड़ा या छोटा नहीं देखा जाता, अपितु भाव की प्रधानता होती है और प्रभु प्रेम के भूखे हैं। . * श्री राम जी की कृपा से वानर सेना में इतना बल आ गया था कि वे बड़े-बड़े पर्वतों को भी तिनके के समान उठा रहे थे, यह सब उस महाशक्ति का प्रभाव था जो कण-कण में व्याप्त रघुनंदन के रूप में उनके साथ थी। . * जब वानर सेना सेतु पार कर रही थी, तब उनकी गर्जना और पैरों की धमक से समुद्र भी कांप रहा था, किंतु प्रभु श्री राम की सौम्य उपस्थिति ने वातावरण को शांत और मंगलमय बना रखा था। . * भगवान श्री रामेश्वर की स्थापना करके प्रभु ने भारतवर्ष की एकता और अखंडता को एक आध्यात्मिक सूत्र में पिरो दिया, जहाँ उत्तर के राम दक्षिण के सागर तट पर शिव की पूजा करते हैं। . * जो भी मनुष्य इस पवित्र कथा को सुनता है या गाता है, कि कैसे भगवान ने पत्थरों को तैराकर सेतु बाँधा, उसके हृदय में अचल विश्वास और भक्ति का संचार होता है और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। . * प्रभु का यह चरित्र अत्यंत पावन है, जहाँ वे ईश्वर होते हुए भी एक साधारण मनुष्य की भाँति लीला करते हैं और अपने भक्तों (वानरों) को बड़प्पन देकर स्वयं पीछे रहते हैं, यह उनकी महान उदारता है। . * सेतु के दर्शन मात्र से भवसागर तरने की बात कहकर श्री राम ने कलयुग के जीवों के लिए मोक्ष का मार्ग अत्यंत सुलभ कर दिया, जिससे यह सिद्ध होता है कि वे परम दयालु और कृपालु स्वामी हैं। . * भगवान श्री राम के चरणों में अनुराग रखने वाले वानर, भालू और निशाचर (विभीषण) सभी परम गति को प्राप्त हुए, क्योंकि प्रभु का स्पर्श और सानिध्य ही जीव का कल्याण करने के लिए पर्याप्त है। . * आकाश मार्ग से देवता, गंधर्व और सिद्धगण प्रभु की इस अद्भुत लीला को देखकर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे और 'जय श्री राम' के उद्घोष से दसों दिशाओं को गुंजायमान कर रहे थे। . * भगवान की सेना में अनुशासन और उत्साह का ऐसा अद्भुत संगम था कि लाखों की संख्या में होते हुए भी वे सब एक ही लक्ष्य 'राम काज' के लिए समर्पित थे, जो प्रभु की नेतृत्व क्षमता का अनुपम उदाहरण है। . * श्री रामेश्वरम लिंग का अभिषेक करते समय प्रभु श्री राम के नेत्रों में जो प्रेम अश्रु थे, वे यह बताते हैं कि भक्त और भगवान का रिश्ता कितना गहरा और भावुक होता है, चाहे वह शिव और राम का ही क्यों न हो। . * इस सेतु बंधन लीला के माध्यम से भगवान ने पुरुषार्थ का महत्त्व समझाया कि ईश्वर कृपा के साथ-साथ कर्म करना भी आवश्यक है, तभी समुद्र जैसे विशाल अवरोध भी पार किए जा सकते हैं। . * अंततः प्रभु श्री राम अपनी अपार सेना के साथ समुद्र के पार उतर गए, और लंका की भूमि उनके चरण कमलों के स्पर्श से धन्य हो गई, जिससे यह निश्चित हो गया कि अब रावण के अत्याचारों का अंत निकट है। . * हम बारंबार उन रघुकुल नंदन, जानकी वल्लभ, कौशल्या नंदन भगवान श्री रामचन्द्र जी के चरणों में नमन करते हैं, जिनकी महिमा का गान वेद और पुराण भी "नेति-नेति" कहकर करते हैं और जिनका नाम ही जगत का आधार है। सीताराम सीताराम सीताराम
रामायण - CONSECRATION OF RAMESHNARAM THE DIVINE CONSTRUCTION SYMBOL OF UNITY THE GRAND MARCH CONSECRATION OF RAMESHNARAM THE DIVINE CONSTRUCTION SYMBOL OF UNITY THE GRAND MARCH - ShareChat
#रामायण सीता के अशोक वाटिका से विदाई के बाद त्रिजटा ने शेष जीवन काशी में बिताया, होती है उनकी पूजा त्रिजटा नाम की राक्षसी का जीवन अशोक वाटिका के बाद का शायद ही कोई जानता हो लेकिन काशी में आज भी आगे की कहानी लोग जानते हैं और त्रिजटा की पूजा भी करते हैं। रामायण कथा में पूरी रामकथा के दौरान सीता हरण के बाद उनकी सुरक्षा में तैनात त्रिजटा राक्षसी के बारे में भी जिक्र है। त्रिजटा सीता के बंदी जीवन के दौरान उनके साथ मौजूद रहीं और रावण के निर्देश पर सीता की देखरेख का जिम्‍मा उन्‍हीं का था। राक्षसी होने के बाद भी त्रिजटा का चरित्र लंका की अशोक वाटिका में बंधक रहने के दौरान भी सीता के प्रति कठोर नहीं रहा और वह सीता के दुखों की साक्षी भी रही हैं। ऐसे में कई ग्रंथों में त्रिजटा के चरित्र के बारे में भी काफी लिखा गया है। पौराणिक मान्‍यता यह है कि त्रिजटा की कार्तिक पूर्णिमा के अगले दिन जो भी पूजा करता है वह सीता की ही भांति उसकी भी रक्षा करती हैं। वहीं, त्रिजटा को भक्‍त मूली और बैंगन चढ़ाकर पूजा करते हैं और प्रसाद भी ग्रहण करते हैं। काशी में यह परंपरा आज की नहीं, बल्कि त्रेतायुग से अनवरत जारी है। काशी में विश्‍वनाथ गली के साक्षी विनायक मंदिर में उनकी मूर्ति और उनके होने की मान्‍यता है। कार्तिक पूर्णिमा के अगले दिन विशेष पूजा का मान होने की वजह से भक्‍त उनके दर्शन के लिए बैंगन और मूली का भोग लगाने के लिए पहुंचते हैं। मान्‍यताओं के अनुसार अशोक वाटिका में अंतिम समय में सीता की विदायी का समय आया तो वह कच्‍ची सब्‍जी मूली और बैंगन बनाने पहुंची थीं। सीता ने त्रिजटा की सेवा से खुश होकर उनको आशीर्वाद दिया था कि कलयुग में एक दिन तुम्‍हारी भी पूजा देवी के तौर पर होगी। जो सब्‍जी मुझे खिलाने आई हो उसका भोग भक्‍त लगाएंगे। राक्षसी योनि से मुक्ति पाने के लिए विनय करने पर सीता ने उनको काशी निवास करने और भगवान शिव की पूजा करने की राह बताई। तबसे त्रिजटा काशी आकर निवास करने लगीं और शिव की पूजा करने के साथ ही राक्षसी से देवी तक का सफर तय किया।
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#🙏हनुमान चालीसा🏵 ‼️हनुमान चालीसा ‼️ महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी।३। सरलार्थ - श्री रामदूत हनुमान जी के बारे में तुलसीदास जी बताते हैं कि हनुमान जी महान वीर , विक्रम और बजरंगी थे। वे सर्वदा कुमति (गलत विचार) रखनेवाले लोगों को छोड़कर सुमति (सही एवं सुंदर विचार) रखनेवाले लोगों का संग करते थे। निहितार्थ - अब एक-एक शब्दों को समझने का प्रयास करें। 🚩महावीर - हनुमान जी के लिए पहला विशेषण दिया गया है - महावीर , केवल वीर नहीं कहा गया। महर्षि वाल्मीकिकृत रामायण में हनुमान जी अपने बारे में स्वयं कहते हैं - बाहुवेगप्रणुन्नेन सागरेणाहमुत्सहे। समाप्लावयितुं लोकं सपर्वतनदीह्रदम्।। अर्थ - अपनी भुजाओं के वेग से समुद्र को विक्षुब्ध करके उसके जल से मैं पर्वत , नदी और जलाशयों सहित संपूर्ण जगत् को आप्लावित कर सकता हूं। वासवस्य सवज्रस्य ब्रह्मणो वा स्वयम्भुव:। विक्रम्य सहसा हस्तादमृतं तदिहानये।। लंका वापि समुत्क्षिप्य गच्छेयमिति मे मति। अर्थ - वज्रधारी इंद्र अथवा स्वयंभू ब्रह्मा जी के हाथ से भी मैं बलपूर्वक अमृत छीनकर सहसा यहां ला सकता हूं। समूची लंका को भी भूमि से उखाड़ कर हाथ पर उठाये चल सकता हूं - ऐसा मेरा विश्वास है। भला ऐसी विभूति को महावीर कौन नहीं कहेगा ? 🚩विक्रम - वामन अवतार में भगवान विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिए जब तीन पग बढ़ाये थे और तीव्र गति से अपना विशाल रूप प्रकट किया था। तब उन्हें विक्रम की उपाधि से विभूषित किया गया था। जामवंत जी हनुमान जी को कहते हैं - विक्रमस्व महावेग विष्णुस्त्रीन् विक्रमानिव। अर्थ - महान वेगशाली वीर ! जैसे भगवान विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिए तीन पग बढ़ाये थे , उसी प्रकार तुम भी अपने पग बढ़ाओ। तब हनुमान जी ने अपने शरीर को काफी बढ़ाकर कहा - भविष्यति हि में रूपं प्लवमानस्य सागरम्। विष्णो: प्रक्रममाणस्य तदा त्रीन् विक्रमानिव।। अर्थ - समुद्र को लांघते समय मेरा वही रूप प्रकट होगा , जो तीनों पगों को बढ़ाते समय वामनरूपधारी भगवान विष्णु का हुआ था। अतः तुलसीदास जी ने हनुमान जी को के लिए विक्रम शब्द का प्रयोग किया है। 🚩बजरंगी - हिंदी भाषा में अनेक शब्द ऐसे प्रचलित है , जो संस्कृत के ही हैं। जैसे - अग्नि। हिंदी व्याकरण में शब्दों की उत्पत्ति की दृष्टि से इन शब्दों को " तत्सम " शब्द कहते हैं। लेकिन ऐसे अनेक शब्द हैं , जो संस्कृत के शब्दों से ही उद्भव होकर परिवर्तित रूप में आए हैं , जैसे - आग। आग शब्द का उद्भव संस्कृत शब्द अग्नि से हुआ है। ऐसे शब्दों को " तद्भव " शब्द कहते हैं। इसी प्रकार संस्कृत का शब्द है - वज्र अंग अर्थात् वज्र के समान मजबूत शरीर का अंग। यही हिंदी में बन गया - बजरंग। जिस व्यक्ति का अंग वज्र के सदृश हो , वह कहलाने लगा - बजरंगी। जब बाल्यावस्था में आंजनेय (माता अंजनी के पुत्र) सूर्य के समीप पहुंच गए , तब देवराज इंद्र ने कुपित होकर इन पर तेज वज्र से प्रहार किया। इन पर प्रहार का कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा , केवल हनु (ठोड़ी) का बायां भाग वज्र की चोट से खंडित हो गया , तभी से इनका नाम हनुमान पड़ गया। साथ ही तभी से वज्रांगी (बजरंगी) के नाम से भी ये लोक-विख्यात हुए। हनुमान चालीसा कुमति निवार सुमति के संगी।। सरलार्थ - कुमति (कुबुद्धि) को छोड़कर सुमति (अच्छी बुद्धि) का संग करना चाहिए। 🚩निहितार्थ - गोस्वामी तुलसीदास जी रामभक्त हनुमान जी को निमित्त बनाकर हम सभी को सुमति का संग करना चाहिए - इस पर विशेष बल दे रहे हैं। तो आइए! कुमति और सुमति पर गहराई से विचार करें। कुमति और सुमति दोनों शब्दों में " मति " शब्द लगा हुआ है। मति का साधारण अर्थ बुद्धि तथा विचार होता है। तुलसीदास जी ' कुमति ' का त्याग करने के लिए और ' सुमति ' को ग्रहण करने के लिए क्यों कह रहे हैं ? इसका उत्तर तुलसीदास जी ने सुंदरकांड में विभीषण जी से कहलवाया है। विभीषण अपने अग्रज लंकापति रावण को कहते हैं - जहां सुमति तहं संपति नाना। जहां कुमति तहं बिपति निदाना।। अर्थ - जहां सुबुद्धि रहती है , वहां नाना प्रकार की संपदाएं (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहां कुबुद्धि रहती है , वहां परिणाम में विपत्ति (दुःख की स्थिति) रहती है। प्रत्येक मनुष्य के भीतर बुद्धि रहती है। सामान्यतः बुद्धि दो प्रकार की होती है - कुबुद्धि और सुबुद्धि। इसे ही रामचरितमानस में विभीषण इस प्रकार व्यक्त करते हैं - सुमति कुमति सब के उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।। सुमति होने पर --- क्या सही है और क्या गलत है ? क्या धर्म है और क्या अधर्म है? क्या न्याय है और क्या अन्याय है ? --- इसका सम्यक् ज्ञान होता है। कुमति होने पर --- सही को गलत और गलत को सही , धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म एवं न्याय को अन्याय तथा अन्याय को न्याय --- समझा जाता है। इसी तथ्य को विभीषण अपने भाई रावण से कहते हैं - तब उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रितु प्रीता।। अर्थ - आपके (रावण के) हृदय में कुबुद्धि आ बसी है। इसी से आप सब कुछ विपरीत (उल्टा) देख रहे हैं। आप हित को अनहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। यह सुनकर रावण काफी क्रोधित हुआ और अपने भाई को केवल " खल "(दुष्ट) ही नहीं कहा , वरन् उस पर अपने लात का प्रहार भी कर दिया। यही कुमति का प्रभाव है। इसके बाद हम जानते हैं कि इसी कुमति के कारण लंका का सर्वनाश हुआ तथा रावण अपने पुत्रों सहित मारा गया। अतएव हनुमान चालीसा का पाठ करनेवालों को सचेत करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि हमें कुमति छोड़कर सर्वदा सुमति का आश्रय लेना चाहिए। ।। श्री रामदूत महावीर हनुमान की जय ।।
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#जय हनुमानजी 🙏🙏 #शनिदेव हनुमान जी कलियुग में भी वास कर रहे हैं. हनुमान जी कलियुग के देवता माने जाते हैं. हिंदू धर्म में बड़े भक्ति भाव से हनुमान जी की पूजा की जाती है. माना जाता है कि हनुमान जी की पूजा से जीवन के सभी दुख-दर्द दूर हो जाते हैं. साथ ही मान्यता ये भी है कि जो हनुमान जी की पूजा और भक्ति करता है, वो शनि देव के प्रकोप से बचा रहता है. हनुमान जी के भक्तों को शनि देव किसी भी प्रकार से परेशान नहीं करते. शनि देव ऐसा क्यों नहीं करते? इसके पीछे एक पौराणिक कथा है. आइए जानते हैं. पौराणिक कथा के अनुसार… पौराणिक कथा के अनुसार, शनि देव को अपनी शक्तियों पर घमंड था, क्योंकि वो जिस पर अपनी वक्र दृष्टि डालते उसका अहित हो सकता था. एक बार जब हनुमान जी जंगल में बैठकर श्रीराम नाम जप रहे थे. उसी समय वहां से शनि देव गुजर रहे थे. उन्होंने बजरंगबली को देखा तो सोचा उन पर वक्र दृष्टि डाली जाए, लेकिन हुमान जी वक्र दृष्टि से प्रभावित नहीं हुए. इस पर शनि देव को क्रोध आ गया और उन्होंने पवन पुत्र को ललकारा, लेकिन बजरंगबली ध्यान में लीन रहे. शनि देव जब देखा कि हनुमान जी उनको अनदेखा कर रहे हैं, तो वो और क्रोध में आ गए. शनि देव ने कहा अब मैं आपकी राशि में प्रवेश करने जा रहा हूं. हनुमान जी ने शनि देव को पूंछ में लपेटा इस पर बजरंगबली ने जवाब दिया कि आपको जहां जाना है जाइए. मुझे प्रभु की भक्ति करने दीजिए. इस पर शनि देव ने हनुमान जी की भुजा पकड़ ली, लेकिन बजरंगबली ने अपनी भुजा छुड़ा ली. इसके बाद शनि देव ने विकराल रूप धारण कर लिया और हनुमान जी की दूसरी बांह पकड़ने का प्रयास किया. इस पर हनुमान जी भी क्रोध में आ गए और उन्होंने शनि देव को पूंछ में लपेट लिया. इसके बाद शनि देव ने हनुमान जी से कहा कि आपके श्रीराम भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते. अपने आराध्य देव के बारे में ऐसी बात सुनने के बाद हनुमान जी का क्रोध और अधिक बढ़ गया. फिर उन्होंने पूंछ में लिपटे शनि देव को इधर-उधर पटकना शुरू कर दिया, जिससे शनि देव बुरी तरह घायल हो गए. फिर शनि देव को अहसास हुआ कि हनुमान जी कोई साधारण वानर नहीं हैंं. शनि देव ने मांगी क्षमा और दिया ये वचन शनि देव ने सभी देवताओं से सहायता मांगी, लेकिन कोई भी उनकी सहायता के लिए आगे नहीं आया. फिर शनि देव ने हनुमान जी से क्षमा याचना की. साथ ही कहा कि मैं आपकी छाया के पास भी कभी नहीं आऊंगा. तब हनुमान जी ने शनि देव से कहा आप मुझे वचन दो कि आप मेरे मेरे भक्तों को भी कभी सताएंगे. शनि देव ने ये वचन दे दिया. तभी से यह कहा जाता है कि शनि देव हनुमान जी के भक्तों को परेशान नहींं करते. 🌸💫जय श्री राम जी💫🌸
जय हनुमानजी 🙏🙏 - क्यों हनुमान जी के भक्तों को परेशान नहीं करते शनि देव? बजरंगबली ने तोडा था घमंड, पढ़़ें रोचक कथा FBIGRPI@ वृन्दावन की राधा परमात्याका स्वरुप सम्रुह @Ra0 शनि देव और बजरंगबली की कथा क्यों हनुमान जी के भक्तों को परेशान नहीं करते शनि देव? बजरंगबली ने तोडा था घमंड, पढ़़ें रोचक कथा FBIGRPI@ वृन्दावन की राधा परमात्याका स्वरुप सम्रुह @Ra0 शनि देव और बजरंगबली की कथा - ShareChat
#🙏हनुमान चालीसा🏵 #जय बजरंगबली 🔥 हनुमान जी सिर्फ शक्ति नहीं… वो भरोसा हैं जो गिरकर भी फिर से खड़ा होना सिखाता है। 🔥 🕉️ “अंजनि पुत्र पवनसुत नामा, राम दूत अतुलित बल धामा।” 🌺 भावार्थ: हे अंजनीनंदन! आप पवनदेव के पुत्र हैं, श्रीराम के प्रिय दूत हैं, और बल, बुद्धि व भक्ति के अद्वितीय स्वरूप हैं। ✨ कहते हैं — 💥 डर अगर सामने हो, तो “जय हनुमान” कह देना। 💥 मन अगर डगमगा जाए, तो “राम नाम” जप लेना। 💥 और अगर दुनिया तकलीफ़ दे — तो “संकटमोचन” पुकार लेना। क्योंकि _ 🚩 जो हनुमान को पुकारता है, वह कभी अकेला नहीं रहता। 🌟 🚩 जय बजरंगबली हनुमान 🚩
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