#मथुरा #जय श्री कृष्ण
मथुरा पुरी का माहात्म्य
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मथुरा का देवता कौन है, क्षत्ता (द्वारपाल) कौन हैं,
उसकी रक्षा कौन करता है, चार कौन है, मन्त्रि प्रवर कौन हैं, किन-किन लोगों के द्वारा वहाँ भूमिका सेवन किया गया है?
साक्षात परिपूर्णतम "भगवान श्रीकृष्ण हरि मथुरा के स्वामी या देवता हैं।" भगवान केशव देव वहाँ के क्लेश नाशक हैं साक्षात भगवान ने कपिल नामक ब्राह्मण को अपनी वाराह मूर्ति प्रदान की थी,कपिल ने प्रसन्न होकर वह मूर्ति देवराज इन्द्र को दे दी, फिर समस्त लोकों को रुलाने वाला राक्षस राज रावण देवताओं को जीतकर उस मूर्ति का स्तवन करके उसे पुष्पक विमान पर रखकर लंका में ले आया उसकी पूजा करने लगा।
राघवेन्द्र श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त करके भगवान वाराह को प्रयत्न पूर्वक अयोध्यापुरी में ले आये और वहाँ उनकी अर्चना करते रहे, तत्पश्चात शत्रुघ्न श्रीराम की स्तुति करके उनकी आज्ञा से उस वाराह विग्रह को प्रयत्न पूर्वक महापुरी मथुरा में ले आये और वहाँ वाराह भगवान की स्थापना करके उनको प्रणाम किया, फिर समस्त मथुरा वासियों ने उन वरदायक भगवान की सेवा- पूजा प्रारम्भ की, वे ही ये साक्षात "कपिल - वाराह मथुरा पुरी में श्रेष्ठ मन्त्री माने गये हैं।"
"'भूतेश्वर' नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव मथुरा के द्वारपाल या क्षेत्रपाल हैं," वे पापियों को दण्ड देकर भक्ति के लिये उन्हें मन्त्रोपदेश करते हैं।
महाविद्या स्वरूपा दुर्गम कष्ट दूर करने वाली चण्डिका देवी दुर्गा सिंह पर आरूढ़ हो सदा मथुरापुरी की रक्षा करती हैं।
"नारद ही मथुरा के चार (गुप्तचर) हैं" और इधर-उधर लोगों पर दृष्टि रखकर सबकी बात महात्मा श्रीकृष्ण को बताते हैं, नगर के मध्य- भाग में स्थित शुभदायिनी करूणामयी मथुरा देवी समस्त भूखे लोगों को अन्न प्रदान करती हैं।
मथुरा में मरे हुए लोगों को विमानों द्वारा ले जाने लिये श्याम अंग वाले चार भुजाधारी श्रीकृष्ण पार्षद आते-जाते रहते हैं, महापुरी मथुरा, जिसके दर्शन मात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है, श्रीकृष्ण के अंग से प्रकट हुई है।
पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने मथुरा में आकर निराहार कहते हुए सौ दिव्य वर्षों तक तपस्या की उस समय वे परब्रह्म श्रीहरि के नाम का जप करते थे, इससे उन्हें स्वायम्भुव मनु जैसे प्रवीण पुत्र की प्राप्ति हुई।
"सतीपति देववर भूतेश मधुवन में एक सौ दिव्य वर्ष तक तप करके श्रीकृष्ण की कृपा से तत्काल मथुरा पुरी और माथुर मण्डल के "क्षेत्रपाल" हो गये।"
श्रीकृष्ण कृपा प्रसाद से ही नारद मथुरा मण्डल का चार बने हैं, और सदा भ्रमण करता रहते हैं, इसी प्रकार 'दुर्गा' मथुरा में जाती हैं और निश्चय ही श्रीकृष्ण सेवा करती हैं।
इन्द्र ने मथुरा में तप करके इन्द्रपद, सूर्य ने तप करके वैवस्वत मनु- जैसा पुत्र, कुबेर ने अक्षय निधि, वरूण ने पाश और मधुवन में तप करके सम्यक ध्रुवपद प्राप्त किया था।
यहीं तपस्या करके अम्बरीष ने मोक्ष पाया, राम ने अक्षय शक्ति एवं लवणासुर से विजय प्राप्त की, राजा रघु ने सिद्धि पायी तथा इसी मधुवन में तप करके चित्रकेतु ने भी अभीष्ट फल प्राप्त किया, यहीं के सुन्दर मधुवन में तप करके अत्यन्त बलिष्ठ हुए महासुर मधु ने माधवमास में मधुसूदन माधव के साथ युद्ध-भूमि में जाकर युद्ध किया,सप्तर्षियों ने मथुरा में आकर यहीं तपस्या करके योग सिद्धि प्राप्त की, पूर्वकाल में अन्य ऋषियों ने भी यहाँ तप करके सर्वतोमुखी सफलता पायी थी और गोकर्ण नामक वैश्य ने भी यहाँ तप करके महानिधि उपलब्ध की थी।
इसी शुभ मधुवन में लोकरावण रावण ने तपस्या करके स्वर्ग के देवताओं पर विजय पायी तथा राक्षसों को अधिकारी बनाकर मन्दिर निर्माण करके लंका में हो प्रतिष्ठित हो बड़ी शोभा प्राप्त की,यहीं सुन्दर मधुवन में तपस्या करके हस्तिनापुर के राजा शांतनु ने अत्यन्त साधु -शिरोमणि तथा तत्त्वार्थ सागर के कर्णधार भीष्म को पुत्र -रूप में प्राप्त किया, आदियुग में भगवान वराह ने महासागर के जल में जहाँ बड़ी ऊँची लहरें उठ रही थीं, डूबी हुई पृथ्वी को, जैसे हाथी सूँड से कमल को उठा ले, उसी प्रकार स्वयं अपनी दाढ से उठाकर जब जलके ऊपर स्थापित किया, तब मथुरा के माहात्म्य का इस प्रकार वर्णन किया था।
यदि मनुष्य 'मथुरा' का नाम ले ले तो उसे भगवन् नामोच्चारण का फल मिलता है, यदि वह मथुरा का नाम सुन ले तो श्रीकृष्ण कथा-श्रवण फल पाता है,मथुरा का स्पर्श प्राप्त करके साधु-संतों के स्पर्श का फल पाता है।
मथुरा में रहकर किसी भी गन्ध को ग्रहण करने वाला मानव भगवच्चरणों पर चढ़ी हुई तुलसी के पत्र की सुगन्ध लेने का फल प्राप्त करता है,इस नगरी में जो लोग शुद्ध विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं---
"मथुरायां महापुर्या ये वसंति शुचिव्रता:।
बलिभिक्षाप्रदातारो देवास्ते नरविग्रहा:।।"
मथुरा का दर्शन करने वाला मानव श्रीहरि के दर्शन का फल पाता हैं, स्वतः किया हुआ आहार भी यहाँ भगवान लक्ष्मीपति के नैवेद्य-प्रसाद भक्षण का फल देता हैं।
दोनों बाँहों से वहाँ कोई भी कार्य करके श्रीहरि की सेवा करने का फल पाता है और वहाँ घूमने-फिरने वाला भी पग-पग पर तीर्थ यात्रा के फल का भागी होता है।
जो राजाधिराजों का हनन करने वाला अपने सगोत्र का घातक तथा तीनों लोकों को नष्ट करने के लिये प्रयत्न शील होता है, ऐसा महापापी भी मथुरा में निवास करने से योगीश्वरों की गति को प्राप्त है---
"वसंति महाभागे मथुरायामितरे जना:।
तेऽपि यांति परमां सिद्धिं मत्प्रसादन्न संशय:।।"
उन पैरों को धिक्कार है, जो कभी मधुवन में नहीं गये। उन नेत्रों को धिक्कार है, जो कभी मथुरा का दर्शन नहीं कर सके, उन कानों को धिक्कार है जो मथुरा का नाम नहीं सुन पाते और उस वाणी को भी धिक्कार है, जो कभी थोड़ा-सा मथुरा का नाम नहीं ले सकी।
मथुरा में चौदह करोड़ वन है, जहाँ तीर्थों का निवास हैं। इन तीर्थों में से प्रत्येक मोक्षदायक है, जिसमें असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति परिपूर्णतम देवता गोलोकनाथ साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र ने स्वयं अवतार लिया, उस मथुरा पुरी को नमस्कार है।
जिस मथुरा का नाम तत्काल पापों का नाश कर देता है, जिसके नामोच्चरण करने वाले को सब प्रकार मुक्तियाँ सुलभ है। तथा जिसकी गली-गली में मुक्ति मिलती है, उस मथुरा को इन्हीं विशेषताओं के कारण विद्वान् पुरुष श्रेष्ठतम मानते है।
यद्यपि संसार में काशी आदि पुरियाँ भी मोक्षदायिनी हैं, तथापि उन सबमें मथुरा ही धन्य है, जो जन्म, मौञ्जीव्रत, मृत्यु और दाह-संस्कारों द्वारा मनुष्यों को चार प्रकार की मुक्ति प्रदान करती है---
"अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका।
पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।।"
जो सब पुरियों ईश्वरी, व्रजेश्वरी, तीर्थोश्वरी, यज्ञ तथा तप की निधिश्वरी, मोक्षदायिनी तथा परम धर्म-धुरंधरा है, मधुवन मे उस श्री कृष्णपुरी मथुरा को मैं नमस्कार करता हूँ, जो लोग एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण में चित्त लगाकर संयम और नियम पूर्वक जहाँ कहीं भी रहते हुए मधुपुरी के इस माहात्म्य को सुनते है, वे मथुरा की परिक्रमा के फल को प्राप्त करते है- इसमें संशय नहीं है, जो लोग इस मथुरा खण्ड को सब ओर सुनतें, गाते और पढ़ते हैं, उनको यहीं सब प्रकार समृद्धि और सिद्धियाँ सदा स्वभाव से ही प्राप्त होती रहती हैं, जो बहुत वैभव की इच्छा करने वाले लोग नियम पूर्वक रहकर इस मथुरा खण्ड का इक्कीस बार श्रवण करते हैं, उनके घर और द्वार को हाथी के कर्णतालों से प्रताड़ित भ्रमरावली अलंकृत करती है।
इसको पढ़ने और सुनने वाला ब्राह्मण विद्वान होता है, राजकुमार यु़द्ध मे विजयी होता है, वैश्य निधियों का स्वामी होता है, तथा शुद्र भी शुद्ध निर्मल हो जाता है। स्त्रियाँ हों या पुरुष- इसे सुनने वालों के अत्यन्त दुर्लभ मनोरथ भी पूर्ण हो जाते हैं।
मथुरा नगरी ब्रह्म रुप ही है, जिस ब्रह्म ज्ञान से जगत का मन्थन होता है, उसका सार अर्थात् ब्रह्म जहाँ निवास करे उसका नाम मथुरा होता है, जैसे आधेय आधार में रहता है,अध्यस्त अधिष्ठान मे रहता है, उसी प्रकार मथुरा मे सब तरह के लोग रहते हैं।
राजा एवं राज्य के नवीन वस्त्र राशि धोने वाला रजक मिला, वस्त्र न देने पर एक चाँटे से उसका काम तमाम हो गया साथी भाग गये, जिनके अन्दर दुर्गुण दृढ़मूल हो और भगवान से विमुखता हो उनके उद्धार की यही प्रक्रिया है, उनके दुर्गुण रुप शरीर छूटने पर ही उनका कल्याण होता है।
दर्जी स्वयं आ गया, भगवान नटवर हैं नट को क्या चाहिए, दर्जी ने किसे कौन सा वस्त्र जँचेगा रुपानुसार बना दिया, माली के घर गये फूलों का श्रृंगार हुआ।
सेवा ने अपने चमत्कार दिखाए भक्ति भी मिली और साथ मे भौतिक सम्पत्ति भी,मथुरा मे कोलाहल मच गया ये सुकुमार नहीं बलवान है।
ये किसान वर्ग मे माली एवं श्रमिक वर्ग मे दर्जी पर भी प्रसन्न होते हैं, हीन वर्ग के पक्षपाती हैं, आगे राजपथ पर कुब्जा मिल गयी जाति से हीन, शरीर से कुब्ड़ी ,भाव से दासी, कंस की सेवा के लिए अंगराग (चंदन) लिए जा रही थी , हीन उद्देश्य भगवान से विमुख परन्तु भगवान की दृष्टि पड़ गयी , स्वयं छेडछाड़ करके उसे अपने सम्मुख किया, उसे सर्वांग सुन्दर , मोहक युवती बना दिया कूबड़ी सीधी हो गई ,असुन्दर सुन्दर हो गई, कंस की दासी श्रीकृष्ण की महरानी बन गई , त्रिवक्रा सुवक्रा हो गई, त्रिवक्रा कुंडलिनी जागकर सीधी होकर अपने लक्ष्य से से जा मिली।
रजक भय से कृष्ण के हो गए , माली और दर्जी श्रीकृष्ण के बन गए , स्त्रियां मुग्ध हो गई असुन्दर को सुन्दर बनाने वाले कृष्ण , पिछड़े को आगे लाने वाले कृष्ण, गिरे को उठाने वाले कृष्ण, पहले ही दिन मथुरा पर विजय हो गई।
शिव धनुष तोड़ दिया, कंस की सेना का उत्साह भंग हो गया, सबका मन खींच लिया - सबके हृदय मे अपनी आसक्ति डाल दी, कंस और उनके साथी भय से ही मर गए थे , उन्हें मारने का तो केवल उपचार ही करना पड़ा।
लौकिक राज्यक्रांति की दृष्टि से भी कम से कम हिंसा करके एवं नागरिकों को अपने पक्ष मे आकृष्ट करके युक्ति की प्रधानता से ही राज्य परिवर्तन हो गया , दुराचारी की जगह सदाचारी उग्रसेन का राज्य हो गया ,भगवद्भाव से भी यही शास्त्र सम्मत है कि जो भय से या द्वेष से भगवान का स्मरण करते हैं, वे मृत्यु के अनन्तर मुक्ति प्राप्त करते हैं।
जो प्रेम करते हैं वे जीवन काल मे ही सुख, शान्ति के भाजन बन गये, कुवलयापीड, मल्ल एवं कंस के वध का अभिप्राय ही यह है कि उन्हें शीघ्रातिशीघ्र कल्याण की प्राप्ति हो।
मथुरा के नागरिकों को सुखशांति की प्राप्ति मे द्वेष करने वालों का उद्धार है मथुरा लीला, विद्याध्यन एवं गुरु दक्षिणा मे मृत गुरुपुत्र को लाकर देना लोकसंग्रह के लिए है, सबको गुरु मुख से ही विद्याध्ययन करना चाहिए एवं अपनी शक्ति के अनुसार गुरु दक्षिणा भी देना चाहिए।
मथुरा के नागरिक पहले कंस के उपद्रव से पीड़ित थे, उससे बचने के लिए उन्होंने भिन्न-भिन्न देश राज्य राजा एवं संबंधियों का आश्रय स्वीकार किया।
श्री कृष्ण का अवतार हुआ उसको उन्होंने देखा नहीं सुना तो किसी को विश्वास हुआ, किसी को नहीं हुआ।
कंस वध के बाद श्रीकृष्ण ने सबको मथुरा बुलाया, बसाया, सुख सुविधा दी संपन्नता हुई है सुख तो मिला परंतु श्रीकृष्ण का योग नहीं मिला ,आपत्ति विपत्ति आने पर अपने हितैषी रक्षक पर दृष्टि जाती है, त्राण कल्याण प्राप्त होने पर उससे आसक्ति हो जाती है।
इसी से मथुरा पर जरासंध का आक्रमण हुआ, सत्तरह आक्रमण जरासंध ने अपने बल से किया, बीच में एक आक्रमण कालयवन का हुआ अट्ठारहवां आक्रमण शिव बल, यज्ञ बल, धर्म बल से परिपुष्ट होकर जरासंध ने किया, जरासंध को भागवत में कर्म पास की संज्ञा दी गई है, वह कर्मों का दो विभाग होने पर भी जरा राक्षसी के द्वारा जोड़ दिया गया है अर्थात पहले तो वाह छिन्न विच्छिन्न था, परंतु प्रजापति की इच्छा से जुड़ गया।
उसकी पुत्री --"अस्ति और प्राप्ति" --इतना हमारे पास है और इतना और मिलेगा, कंस रूप अभिमान के साथ ब्याही गई थी पति के मर जाने पर वह विधवा होकर पिता के घर आ गई, ब्रह्मविद्या प्राप्त होने के पश्चात भी प्रारब्ध कर्म उपद्रव करते रहते हैं।
अतः मथुरा में भी उपद्रव की सृष्टि हुई ,ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति होती है, परंतु प्रारब्ध दुख की निवृत्ति के लिए ज्ञान बल चाहिए।
अतः कृष्ण और बलराम दोनों ने मिलकर उसका निवारण किया संकट बहुत आए ,परंतु श्री कृष्ण के मुखारविंद पर मुस्कान की झलक दुख की परिस्थितियों के आने पर भी चमक उठती थी।
एक ब्रह्मविद्या थी मथुरा, दूसरी ब्रह्मनिष्ठा रूप नगरी बसाई द्वारिका वह मथुरा के समान ही थी, श्री कृष्ण के निवास पर्यंत ही उसका जीवन था श्री कृष्ण का सानिध्य ही मथुरा द्वारका का प्राण है।
शरीर मथुरा है और हृदय गोकुल, नन्द जीव है।
इस शरीर को मथुरा बनाना है, हृदय -गोकुल मे बालकृष्ण को पधराना है, मन को आसक्ति से बचाने पर शरीर मथुरा बनेगा एवं हृदय गोकुल,पवित्र काया ही मथुरा है।
"मथुरा" और "मधुरा"एक है।
कामसुख और संपत्ति मद हैं, इन दो मदों से जो अपने को बचाता है , उसी का शरीर मथुरा बनता है ।इन्हीँ दो वस्तुओ में मन फँसा है, मन को इनसे बचाना है। मनुष्य कई बार तन से तो कामसुख त्यागता है किन्तु मन से नहीं, दो वस्तुओं को प्रभु ने आसक्तिपूर्ण बनाया है - स्त्री एवं धन, इन दो आसक्तियों मे मद -सा आकर्षण है,इन दोनो से हमें बचना होगा।
संपत्ति, शक्ति और भोग की उपस्थिति होने पर भी मन को बचाए रखना ही सच्चा संयम है अन्यथा --
"धातुषु क्षीयमाणेषु शम कस्य न जायते"
अपनी जवानी में जो मन को अंकुशित कर पाए वही सयाना है, भक्ति आसान नहीं है,परस्त्री और परधन की आसक्ति त्यागे बिना भक्ति का आरम्भ नहीं हो सकता।
जब तक भोग बुद्धि है , तब तक ईश्वर की भक्ति कैसे हो पायेगी, द्रव्य का चिंतन करते रहने से तो द्रव्य मिलेगा नहीं, द्रव्य और कामसुख का विचार तक त्यागने पर ही यह काया पवित्र होगी।
यमुना भक्ति की स्वरुप हैं, यदि शरीर को मथुरा एव हृदय को गोकुल बनाना है तो भक्ति - यमुना के तट पर बसना होगा, यमुना का ,भक्ति का तट कभी न त्यागें, चौबीस घण्टे भक्ति तट पर रहने से ही यह शरीर मथुरा और हृदय गोकुल बन पायेगा, जब तक मन में मत्सर होगा,शरीर मथुरा नही बन पायेगा, "मत्सर तो विद्वान एवं धनिक दोनो को सताता है" आजकल के लोग शरीर की अपेक्षा मन से अधिक पाप करते है।
मद से बचने का उपाय है मथुरा शब्द को उलटने से "राथुम" शब्द बनेगा , और बीच से "थु" अक्षर निकालने पर "राम" रह जायेगा, यदि इसी "राम" को सदैव मुख मे रखा जाय तो शरीर मथुरा बन जायेगा , जव परमात्मा से हमेशा सम्बन्ध बना रहेगा तो "राम " रहेगा नही तो "थू" ही रह जायेगा और सभी यमदूत "थू थू " करेगें किसी ने कहा है ---
"मथुरा विपरीतं च मध्याक्षर वर्जित:।
येन मुखे युगलं नास्ति तन्मुखे मध्याक्षर:।।"
गो शब्द का अर्थ है - इन्द्रिय, भक्ति, गाय, उपनिषद , आदि इन्द्रियों को विषयों की ओर बढ़ने देने की अपेक्षा प्रभु की मोड़ दें क्योंकि उनके स्वामी प्रभु ही है, मन में भगवद स्मरण होता रहे, एक एक इन्द्रिय को भक्ति रस में सराबोर करने से हृदय गोकुल बनेगा और परमानंद का प्राकट्य होगा।
#पूजा पाठ
यज्ञादि कर्मों में अग्नि के नाम एवं वेदों में अग्नि की महत्ता
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अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है-सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए-
पावक
पवमान
शुचि
छठे मन्वन्तर में वसु की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक आदि पुत्र हुए, जिनमें 45 अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस प्रकार सब मिलाकर 49 अग्नि हैं। विभिन्न कर्मों में अग्नि के भिन्न-भिन्न नाम हैं। लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम नाम पावक है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम प्रसिद्ध हैं-
अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते।
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:।।
सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि।
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा।।
सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भव:।
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।।
वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजक: स्मृत:।
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।।
प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहस:।
लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:।।
पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा।
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।।
वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषक:।
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।।
अर्थात
गर्भाधान में अग्नि को "मारुत" कहते हैं।
पुंसवन में "चन्द्रमा
शुगांकर्म में "शोभन
सीमान्त में "मंगल
जातकर्म में 'प्रगल्भ
नामकरण में "पार्थिव
अन्नप्राशन में 'शुचि
चूड़ाकर्म में "सत्य
व्रतबन्ध (उपनयन) में "समुद्भव
गोदान में "सूर्य
केशान्त (समावर्तन) में "अग्नि
विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में "वैश्वानर
विवाह में "योजक
चतुर्थी में "शिखी
धृति में "अग्नि
प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिहोम) में "विधु
पाकयज्ञ (अर्थात् पाकांग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस
लक्षहोम में "वह्नि
कोटि होम में "हुताशन
पूर्णाहुति में "मृड
शान्ति में "वरद
पौष्टिक में "बलद
आभिचारिक में "क्रोधाग्नि
वशीकरण में "शमन
वरदान में "अभिदूषक
कोष्ठ में "जठर
और मृत भक्षण में "क्रव्याद" कहा गया है।
ऋग्वेद के अनुसार
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हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप हैं-
व्योम से सूर्य
अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत
पृथ्वी पर साधारण अग्नि
अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गई है। वह मंत्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्त्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है, उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है। जैमिनी ने मीमांसासूत्र के "हवि:प्रक्षेपणाधिकरण" में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं-
गार्हपत्य
आहवनीय
दक्षिणाग्नि
सभ्य
आवसथ्य
औपासन
'अग्नि शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो ऊपर की ओर जाता है'(अगि गतौ, अंगेनलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)।
वैदिक धर्म के अनुसार
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अवेस्ता में अग्नि को पाँच प्रकार का माना गया है। परन्तु अग्नि की जितनी उदात्त तथा विशद कल्पना वैदिक धर्म में है, उतनी अन्यंत्र कहीं पर भी नहीं है। वैदिक कर्मकाण्ड का श्रौत भाग और गृह्य का मुख्य केन्द्र अग्निपूजन ही है। वैदिक देवमण्डल में इन्द्र के अनन्तर अग्नि का ही दूसरा स्थान है। जिसकी स्तुति लगभग दो सौ सूक्तों में वर्णित है। अग्नि के वर्णन में उसका पार्थिव रूप ज्वाला, प्रकाश आदि वैदिक ऋषियों के सामने सदा विद्यमान रहता है। अग्नि की तुलना अनेक पशुओं से की गई है। प्रज्वलित अग्नि गर्जनशील वृषभ के समान है। उसकी ज्वाला सौर किरणों के तुल्य, उषा की प्रभा तथा विद्युत की चमक के समान है। उसकी आवाज़ आकाश की गर्जन जैसी गम्भीर है। अग्नि के लिए विशेष गुणों को लक्ष्य कर अनेक अभिधान प्रयुक्त करके किए जाते हैं। अग्नि शब्द का सम्बन्ध लातोनी 'इग्निस्' और लिथुएनियाई 'उग्निस्' के साथ कुछ अनिश्चित सा है, यद्यपि प्रेरणार्थक अज् धातु के साथ भाषा शास्त्रीय दृष्टि से असम्भव नहीं है। प्रज्वलित होने पर धूमशिखा के निकलने के कारण धूमकेतु इस विशिष्टिता का द्योतक एक प्रख्यात अभिधान है। अग्नि का ज्ञान सर्वव्यापी है और वह उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणियों को जानता है। इसलिए वह 'जातवेदा:' के नाम से विख्यात है। अग्नि कभी द्यावापृथिवी का पुत्र और कभी द्यौ: का सूनु (पुत्र) कहा गया है। उसके तीन जन्मों का वर्णन वेदों में मिलता है। जिनके स्थान हैं-स्वर्ग, पृथ्वी तथा जल। स्वर्ग, वायु तथा पृथ्वी अग्नि के तीन सिर, तीन जीभ तथा तीन स्थानों का बहुत निर्देश वेद में उपलब्ध होता है। अग्नि के दो जन्मों का भी उल्लेख मिलता है-भूमि तथा स्वर्ग। अग्नि के आनयन की एक प्रख्यात वैदिक कथा ग्रीक कहानी से साम्य रखती है। अग्नि का जन्म स्वर्ग में ही मुख्यत: हुआ, जहाँ से मातरिश्वा ने मनुष्यों के कल्याणार्थ उसका इस भूतल पर आनयन किया। अग्नि प्रसंगत: अन्य समस्त वैदिक देवों में प्रमुख माना गया है। अग्नि का पूजन भारतीय संस्कृति का प्रमुख चिह्न है और वह गृहदेवता के रूप में उपासना और पूजा का एक प्रधान विषय है। इसलिए अग्नि 'गृहा', 'गृहपति' (घर का स्वामी) तथा 'विश्वपति' (जन का रक्षक) कहलाता है।
रूप का वर्णन
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अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है-
पिंगभ्रूश्मश्रुकेशाक्ष: पीनांगजठरोऽरुण:।
छागस्थ: साक्षसूत्रोऽग्नि: सप्तार्चि: शक्तिधारक:।।
भौहें, दाढ़ी, केश और आँखें पीली हैं। अंग स्थूल हैं और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ़ हैं, अक्षमाला लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ हैं और शक्ति को धारण करता है।
शुभ लक्षण
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होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं-
अर्चिष्मान् पिण्डितशिख: सर्पि:काञ्चनसन्निभ:।
स्निग्ध: प्रदक्षिणश्चैव वह्नि: स्यात् कार्यसिद्धये।।
ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक होता है।
शब्द उत्पादन
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देहजन्य अग्नि में शब्द उत्पादन की शक्ति होती है, जैसा कि "संगीतदर्पण" में कहा है-
आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम्।
ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावक:।।
पावकप्रेरित: सोऽथ क्रमदूर्ध्वपथे चरन्।
अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुन:।।
पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्च कृत्रिमं वदने तथा।
आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधै:।।
नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विंदु:।
जात: प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते।।
आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को आहत करता है। ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्रेरित वह प्राण क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम प्रकाश करता है। विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि बताया है। नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम है। प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है। सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के सर्वप्रथम मंत्र "अग्निमीले पुरोहितम्" से प्रकट होता है।
रूप का प्रयोग
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योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी "अग्नि" का प्रयोग होता है। गीता में यह कथन है-
'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।'
'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि तमाहु: पण्डितं बुधा:।।'
अग्नि का सर्वप्रथम स्थान
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पृथ्वी-स्थानीय देवों में अग्नि का सर्वप्रथम स्थान है। अग्नि यज्ञीय अग्नि का प्रतिनिधि रूप है। यज्ञ के द्वारा मनुष्य का सम्बन्ध देवों से होता है। अत: यज्ञ की अग्नि मनुष्य और देवता के बीच सम्बन्ध का सूचक है। परन्तु अग्नि का स्वरूप भौतिक भी है। इनका स्वरूप गरजते हुए वृषभ के समान बतलाया गया है। उन्हें सिर और पैर नहीं हैं परन्तु जिह्वा लाल है। वैदिक मंत्रों में बतलाया गया है कि उत्पत्ति के समय अग्नि का स्वरूप बछड़े के समान है, परन्तु प्रज्वलित होने पर उनका स्वरूप अश्व के समान है। उनकी ज्वाला को विद्युत के समान कहा गया है। काष्ठ और घृत को उनका भोजन माना गया है। अग्नि धूम पताके के समान ऊपर की ओर जाता है। इसी कारण से अग्नि को धूमकेतु कहा गया है। यज्ञ के समय इनका आह्वान किया जाता है कि ये कुश के आसन पर विराजमान हों तथा देवों के हविष को ग्रहण करें। अग्नि का जन्म स्थान स्वर्ग माना गया है। स्वर्ग से मातरिश्वा ने धरती पर इन्हें लाया। अग्नि ज्ञान का प्रतीक है। वह सभी प्राणियों के ज्ञाता देव हैं। अत: इन्हें 'जातवेदा:' कहा गया है। अग्नि को द्युस्थानीय देवता सूर्य भी माना गया है। अग्नि को 'त्रिविध' तथा 'द्विजन्मा' भी कहा गया है। उनका प्रथम जन्म स्वर्ग में तथा दूसरा जन्म जल में (पृथ्वी पर) बतलाया गया है। अग्नि दानवों के भक्षक तथा मानवों के रक्षक माने गए हैं। इनका वर्णन दो सौ वैदिक सूक्तों में प्राप्त होता है।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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सूर्य और सात घोडो का रहस्य
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रोचक तथ्य
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हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं तथा उनसे जुड़ी कहानियों का इतिहास काफी बड़ा है या यूं कहें कि कभी ना खत्म होने वाला यह इतिहास आज विश्व में अपनी एक अलग ही पहचान बनाए हुए है। विभिन्न देवी-देवताओं का चित्रण, उनकी वेश-भूषा और यहां तक कि वे किस सवारी पर सवार होते थे यह तथ्य भी काफी रोचक हैं।
सूर्य रथ
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हिन्दू धर्म में विघ्नहर्ता गणेश जी की सवारी काफी प्यारी मानी जाती है। गणेश जी एक मूषक यानि कि चूहे पर सवार होते हैं जिसे देख हर कोई अचंभित होता है कि कैसे महज एक चूहा उनका वजन संभालता है। गणेश जी के बाद यदि किसी देवी या देवता की सवारी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है तो वे हैं सूर्य भगवान।
क्यों जुते हैं सात घोड़े
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सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार होते हैं। सूर्य भगवान जिन्हें आदित्य, भानु और रवि भी कहा जाता है, वे सात विशाल एवं मजबूत घोड़ों पर सवार होते हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं।
सात की खास संख्या
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लेकिन सूर्य देव द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती है? क्या इस सात संख्या का कोई अहम कारण है? या फिर यह ब्रह्मांड, मनुष्य या सृष्टि से जुड़ी कोई खास बात बताती है। इस प्रश्न का उत्तर पौराणिक तथ्यों के साथ कुछ वैज्ञानिक पहलू से भी बंधा हुआ है।
कश्यप और अदिति की संतानें
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सूर्य भगवान से जुड़ी एक और खास बात यह है कि उनके 11 भाई हैं, जिन्हें एकत्रित रूप में आदित्य भी कहा जाता है। यही कारण है कि सूर्य देव को आदित्य के नाम से भी जाना जाता है। सूर्य भगवान के अलावा 11 भाई ( अंश, आर्यमान, भाग, दक्ष, धात्री, मित्र, पुशण, सवित्र, सूर्या, वरुण, वमन, ) सभी कश्यप तथा अदिति की संतान हैं।
वर्ष के 12 माह के समान
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पौराणिक इतिहास के अनुसार कश्यप तथा अदिति की 8 या 9 संतानें बताई जाती हैं लेकिन बाद में यह संख्या 12 बताई गई। इन 12 संतानों की एक बात खास है और वो यह कि सूर्य देव तथा उनके भाई मिलकर वर्ष के 12 माह के समान हैं। यानी कि यह सभी भाई वर्ष के 12 महीनों को दर्शाते हैं।
सूर्यदेव की दो पत्नियां
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सूर्य देव की दो पत्नियां – संज्ञा एवं छाया हैं जिनसे उन्हें संतान प्राप्त हुई थी। इन संतानों में भगवान शनि और यमराज को मनुष्य जाति का न्यायाधिकारी माना जाता है। जहां मानव जीवन का सुख तथा दुख भगवान शनि पर निर्भर करता है वहीं दूसरी ओर शनि के छोटे भाई यमराज द्वारा आत्मा की मुक्ति की जाती है। इसके अलावा यमुना, तप्ति, अश्विनी तथा वैवस्वत मनु भी भगवान सूर्य की संतानें हैं। आगे चलकर मनु ही मानव जाति का पहला पूर्वज बने।
सूर्य भगवान का रथ
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सूर्य भगवान सात घोड़ों वाले रथ पर सवार होते हैं। इन सात घोड़ों के संदर्भ में पुराणों तथा वास्तव में कई कहानियां प्रचलित हैं। उनसे प्रेरित होकर सूर्य मंदिरों में सूर्य देव की विभिन्न मूर्तियां भी विराजमान हैं लेकिन यह सभी उनके रथ के साथ ही बनाई जाती हैं।
कोणार्क मंदिर
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विशाल रथ और साथ में उसे चलाने वाले सात घोड़े तथा सारथी अरुण देव, यह किसी भी सूर्य मंदिर में विराजमान सूर्य देव की मूर्ति का वर्णन है। भारत में प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर भगवान सूर्य तथा उनके रथ को काफी अच्छे से दर्शाता है।
सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं
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लेकिन इस सब से हटकर एक सवाल काफी अहम है कि आखिरकार सूर्य भगवान द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती हैं। यह संख्या सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं है। यदि हम अन्य देवों की सवारी देखें तो श्री कृष्ण द्वारा चालए गए अर्जुन के रथ के भी चार ही घोड़े थे, फिर सूर्य भगवान के सात घोड़े क्यों? क्या है इन सात घोड़ों का इतिहास और ऐसा क्या है इस सात संख्या में खास जो सूर्य देव द्वारा इसका ही चुनाव किया गया।
सात घोड़े और सप्ताह के सात दिन
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सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं - गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति। कहा जाता है कि यह सात घोड़े एक सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं। यह तो महज एक मान्यता है जो वर्षों से सूर्य देव के सात घोड़ों के संदर्भ में प्रचलित है लेकिन क्या इसके अलावा भी कोई कारण है जो सूर्य देव के इन सात घोड़ों की तस्वीर और भी साफ करता है।
सात घोड़े रोशनी को भी दर्शाते हैं
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पौराणिक दिशा से विपरीत जाकर यदि साधारण तौर पर देखा जाए तो यह सात घोड़े एक रोशनी को भी दर्शाते हैं। एक ऐसी रोशनी जो स्वयं सूर्य देवता यानी कि सूरज से ही उत्पन्न होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश में सात विभिन्न रंग की रोशनी पाई जाती है जो इंद्रधनुष का निर्माण करती है।
बनता है इंद्रधनुष
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यह रोशनी एक धुर से निकलकर फैलती हुई पूरे आकाश में सात रंगों का भव्य इंद्रधनुष बनाती है जिसे देखने का आनंद दुनिया में सबसे बड़ा है।
प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न
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सूर्य भगवान के सात घोड़ों को भी इंद्रधनुष के इन्हीं सात रंगों से जोड़ा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। केवल यही कारण नहीं बल्कि एक और कारण है जो यह बताता है कि सूर्य भगवान के रथ को चलाने वाले सात घोड़े स्वयं सूरज की रोशनी का ही प्रतीक हैं।
पौराणिक गाथा से इतर
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यदि आप किसी मंदिर या पौराणिक गाथा को दर्शाती किसी तस्वीर को देखेंगे तो आपको एक अंतर दिखाई देगा। कई बार सूर्य भगवान के रथ के साथ बनाई गई तस्वीर या मूर्ति में सात अलग-अलग घोड़े बनाए जाते हैं, ठीक वैसा ही जैसा पौराणिक कहानियों में बताया जाता है लेकिन कई बार मूर्तियां इससे थोड़ी अलग भी बनाई जाती हैं।
अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति
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कई बार सूर्य भगवान की मूर्ति में रथ के साथ केवल एक घोड़े पर सात सिर बनाकर मूर्ति बनाई जाती है। इसका मतलब है कि केवल एक शरीर से ही सात अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति होती है। ठीक उसी प्रकार से जैसे सूरज की रोशनी से सात अलग रंगों की रोशनी निकलती है। इन दो कारणों से हम सूर्य भगवान के रथ पर सात ही घोड़े होने का कारण स्पष्ट कर सकते हैं।
सारथी अरुण
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पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। एक ओर अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते है !
केवल एक ही पहिया
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रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें 12 तिल्लियां लगी हुई हैं। यह काफी आश्चर्यजनक है कि एक बड़े रथ को चलाने के लिए केवल एक ही पहिया मौजूद है, लेकिन इसे हम भगवान सूर्य का चमत्कार ही कह सकते हैं। कहा जाता है कि रथ में केवल एक ही पहिया होने का भी एक कारण है।
पहिया एक वर्ष को दर्शाता है
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यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी 12 तिल्लियां एक वर्ष के 12 महीनों का वर्णन करती हैं। एक पौराणिक उल्लेख के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के समस्त 60 हजार वल्खिल्या जाति के लोग जिनका आकार केवल मनुष्य के हाथ के अंगूठे जितना ही है, वे सूर्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा करते हैं। इसके साथ ही गांधर्व और पान्नग उनके सामने गाते हैं औरअप्सराएं उन्हें खुश करने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती हैं।
ऋतुओं का विभाजन
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कहा जाता है कि इन्हीं प्रतिक्रियाओं पर संसार में ऋतुओं का विभाजन किया जाता है। इस प्रकार से केवल पौराणिक रूप से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों से भी जुड़ा है भगवान सूर्य का यह विशाल रथ।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#श्रीमहाभारतकथा-2️⃣2️⃣8️⃣
श्रीमहाभारतम्
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।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(सम्भवपर्व)
चतुसप्ततितमोऽध्यायः
शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक...(दिन 228)
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पतिशुश्रूषणं पूर्व मनोवाक्कायचेष्टितैः । अनुज्ञाता मया पूर्व पूजयैतद् व्रतं तव ।। एतेनैव च वृत्तेन विशिष्टां लप्स्यसे श्रियम्।
सती स्त्रियोंके लिये सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि वे मन, वाणी, शरीर और चेष्टाओंद्वारा निरन्तर पतिकी सेवा करती रहें। मैंने पहले भी तुम्हें इसके लिये आदेश दिया है। तुम अपने इस व्रतका पालन करो। इस पतिव्रतोचित आचार-व्यवहारसे ही विशिष्ट शोभा प्राप्त कर सकोगी।
तस्माद् भद्रे प्रयातव्यं समीपं पौरवस्य ह ।। स्वयं नायाति मत्वा ते गतं कालं शुचिस्मिते । गत्वाऽऽराधय राजानं दुष्यन्तं हितकाम्यया ।।
'भद्रे! तुम्हें पूरुनन्दन दुष्यन्तके पास जाना चाहिये। वे स्वयं नहीं आ रहे हैं, ऐसा सोचकर तुमने बहुत-सा समय उनकी सेवासे दूर रहकर बिता दिया। शुचिस्मिते! अब तुम अपने हितकी इच्छासे स्वयं जाकर राजा दुष्यन्तकी आराधना करो।
दौष्यन्तिं यौवराज्यस्थं दृष्ट्वा प्रीतिमवाप्स्यसि । देवतानां गुरूणां च क्षत्रियाणां च भामिनि । भर्तृणां च विशेषेण हितं संगमनं सताम् ।। तस्मात् पुत्रि कुमारेण गन्तव्यं मत्प्रियेप्सया । प्रतिवाक्यं न दद्यास्त्वं शापिता मम पादयोः ।।
'वहाँ दुष्यन्तकुमार सर्वदमनको युवराज-पदपर प्रतिष्ठित देख तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। देवता, गुरु, क्षत्रिय, स्वामी तथा साधु पुरुष- इनका संग विशेष हितकर है। अतः बेटी! तुम्हें मेरा प्रिय करनेकी इच्छासे कुमारके साथ अवश्य अपने पतिके यहाँ जाना चाहिये। मैं अपने चरणोंकी शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम मुझे मेरी इस आज्ञाके विपरीत कोई उत्तर न देना'।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्त्वा सुतां तत्र पौत्रं कण्वोऽभ्यभाषत । परिष्वज्य च बाहुभ्यां मूर्युपाघ्राय पौरवम् ।। वैशम्पायनजी कहते हैं- पुत्रीसे ऐसा कहकर महर्षि कण्वने उसके पुत्र भरतको दोनों बाँहोंसे पकड़कर अंकमें भर लिया और उसका मस्तक सूँघकर कहा।
कण्व उवाच
सोमवंशोद्भवो राजा दुष्यन्तो नाम विश्रुतः । तस्याग्रमहिषी चैषा तव माता शुचिव्रता ।। गन्तुकामा भर्तृवशं त्वया सह सुमध्यमा । गत्वाभिवाद्य राजानं यौवराज्यमवाप्स्यसि ।। स पिता तव राजेन्द्रस्तस्य त्वं वशगो भव । पितृपैतामहं राज्यमनुतिष्ठस्व भावतः ।।
कण्व बोले- वत्स! चन्द्रवंशमें दुष्यन्त नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं। पवित्र व्रतका पालन करनेवाली यह तुम्हारी माता उन्हींकी महारानी है। यह सुन्दरी तुम्हें साथ लेकर अब पतिकी सेवामें जाना चाहती है। तुम वहाँ जाकर राजाको प्रणाम करके युवराज-पद प्राप्त करोगे। वे महाराज दुष्यन्त ही तुम्हारे पिता हैं। तुम सदा उनकी आज्ञाके अधीन रहना और बाप-दादेके राज्यका प्रेमपूर्वक पालन करना।
शकुन्तले शृणुष्वेदं हितं पथ्यं च भामिनि । पतिव्रताभावगुणान् हित्वा साध्यं न किञ्चन ।। पतिव्रतानां देवा वै तुष्टाः सर्ववरप्रदाः । प्रसादं च करिष्यन्ति ह्यापदर्थे च भामिनि ।। पतिप्रसादात् पुण्यगतिं प्राप्नुवन्ति न चाशुभम् । तस्माद् गत्वा तु राजानमाराधय शुचिस्मिते ।।)
(फिर कण्व शकुन्तलासे बोले-) 'भामिनि ! शकुन्तले! यह मेरी हितकर एवं लाभप्रद बात सुनो। पतिव्रताभाव-सम्बन्धी गुणोंको छोड़कर तुम्हारे लिये और कोई वस्तु साध्य नहीं है। पतिव्रताओंपर सम्पूर्ण वरोंको देनेवाले देवतालोग भी संतुष्ट रहते हैं। भामिनि ! वे आपत्तिके निवारणके लिये अपने कृपा-प्रसादका भी परिचय देंगे। शुचिस्मिते ! पतिव्रता देवियाँ पतिके प्रसादसे पुण्यगतिको ही प्राप्त होती हैं; अशुभ गतिको नहीं। अतः तुम जाकर राजाकी आराधना करो'।
तस्य तद् बलमाज्ञाय कण्वः शिष्यानुवाच ह ।। १० ।।
शकुन्तलामिमां शीघ्रं सहपुत्रामितो गृहात् । भर्तुः प्रापयतागारं सर्वलक्षणपूजिताम् ।। ११ ।।
फिर उस बालकके बलको समझकर कण्वने अपने शिष्योंसे कहा- 'तुमलोग समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्मानित मेरी पुत्री शकुन्तला और इसके पुत्रको शीघ्र ही इस घरसे ले जाकर पतिके घरमें पहुँचा दो ।। १०-११ ।।
नारीणां चिरवासो हि बान्धवेषु न रोचते । कीर्तिचारित्रधर्मघ्नस्तस्मान्नयत मा चिरम् ।। १२ ।।
'स्त्रियोंका अपने भाई-बन्धुओंके यहाँ अधिक दिनोंतक रहना अच्छा नहीं होता। वह उनकी कीर्ति, शील तथा पातिव्रत्य धर्मका नाश करनेवाला होता है। अतः इसे अविलम्ब पतिके घरमें पहुँचा दो' ।। १२ ।।
क्रमशः...
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#महाभारत
रावण के गुप्तचरों को देखते ही सुग्रीव को श्री हनुमानजी पर लंका में हुए अत्याचार याद आ गए व वो बोले कि हे वीर वानर सैनिकों रावण ने अपने हनुमानजी की पूंछ जलाने की कोशिश की थी, अब ईंट का जवाब पत्थर से देने का वक्त आ गया है, दोनो के अंग भंग करके जीवित वापस लंका भेज दो, बस तुरन्त उनको रस्से से बांध कर वानर दल के चारों और पीटते हुए घुमाया और बोले ध्यान से प्रभु की सेना देख लो, जा कर अच्छे से बखान करना रावण से ताकि उसको अपनी औकात पता लग जाये।
।। राम राम जी।।
##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
*#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०३२*
*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*
*बालकाण्ड*
*सत्ताईसवाँ सर्ग*
*विश्वामित्रद्वारा श्रीरामको दिव्यास्त्र-दान*
ताटकावनमें वह रात बिताकर महायशस्वी विश्वामित्र हँसते हुए मीठे स्वरमें श्रीरामचन्द्रजीसे बोले॥१॥
'महायशस्वी राजकुमार! तुम्हारा कल्याण हो। ताटकावधके कारण मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ; अतः बड़ी प्रसन्नताके साथ तुम्हें सब प्रकारके अस्त्र दे रहा हूँ॥२॥
'इनके प्रभावसे तुम अपने शत्रुओंको—चाहे वे देवता, असुर, गन्धर्व अथवा नाग ही क्यों न हो, रणभूमिमें बलपूर्वक अपने अधीन करके उनपर विजय पा जाओगे॥३॥
'रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। आज मैं तुम्हें वे सभी दिव्यास्त्र दे रहा हूँ। वीर! मैं तुमको दिव्य एवं महान् दण्डचक्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र तथा अत्यन्त भयंकर ऐन्द्रचक्र दूँगा॥४-५॥
'नरश्रेष्ठ राघव! इन्द्रका वज्रास्त्र, शिवका श्रेष्ठ त्रिशूल तथा ब्रह्माजीका ब्रह्मशिर नामक अस्त्र भी दूँगा। महाबाहो! साथ ही तुम्हें ऐषीकास्त्र तथा परम उत्तम ब्रह्मास्त्र भी प्रदान करता हूँ॥६½॥
'ककुत्स्थकुलभूषण! इनके सिवा दो अत्यन्त उज्ज्वल और सुन्दर गदाएँ, जिनके नाम मोदकी और शिखरी हैं, मैं तुम्हें अर्पण करता हूँ। पुरुषसिंह राजकुमार राम! धर्मपाश, कालपाश और वरुणपाश भी बड़े उत्तम अस्त्र हैं। इन्हें भी आज तुम्हें अर्पित करता हूँ॥७-८॥
'रघुनन्दन! सूखी और गीली दो प्रकारकी अशनि तथा पिनाक एवं नारायणास्त्र भी तुम्हें दे रहा हूँ॥९½॥
'अग्निका प्रिय आग्नेय-अस्त्र, जो शिखरास्त्रके नामसे भी प्रसिद्ध हैं, तुम्हें अर्पण करता हूँ। अनघ! अस्त्रोंमें प्रधान जो वायव्यास्त्र है, वह भी तुम्हें दे रहा हूँ॥१०½॥
'ककुत्स्थकुलभूषण राघव! हयशिरा नामक अस्त्र, क्रौञ्च-अस्त्र तथा दो शक्तियोंको भी तुम्हें देता हूँ॥११½॥
'कङ्काल, घोर मूसल, कपाल तथा किङ्किणी आदि सब अस्त्र, जो राक्षसोंके वधमें उपयोगी होते हैं, तुम्हें दे रहा हूँ॥१२½॥
'महाबाहु राजकुमार! नन्दन नामसे प्रसिद्ध विद्याधरोंका महान् अस्त्र तथा उत्तम खड्ग भी तुम्हें अर्पित करता हूँ॥१३½॥
'रघुनन्दन! गन्धर्वोंका प्रिय सम्मोहन नामक अस्त्र, प्रस्वापन, प्रशमन तथा सौम्य-अस्त्र भी देता हूँ॥१४½॥
'महायशस्वी पुरुषसिंह राजकुमार! वर्षण, शोषण, संतापन, विलापन तथा कामदेवका प्रिय दुर्जय अस्त्र मादन, गन्धर्वोंका प्रिय मानवास्त्र तथा पिशाचोंका प्रिय मोहनास्त्र भी मुझसे ग्रहण करो॥१५-१७॥
'नरश्रेष्ठ राजपुत्र महाबाहु राम! तामस, महाबली सौमन, संवर्त, दुर्जय, मौसल, सत्य और मायामय उत्तम अस्त्र भी तुम्हें अर्पण करता हूँ। सूर्यदेवताका तेजःप्रभ नामक अस्त्र, जो शत्रुके तेजका नाश करनेवाला है, तुम्हें अर्पित करता हूँ॥१८-१९॥
'सोम देवताका शिशिर नामक अस्त्र, त्वष्टा (विश्वकर्मा) का अत्यन्त दारुण अस्त्र, भगदेवताका भी भयंकर अस्त्र तथा मनुका शीतेषु नामक अस्त्र भी तुम्हें देता हूँ॥२०॥
'महाबाहु राजकुमार श्रीराम! ये सभी अस्त्र इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, महान् बलसे सम्पन्न तथा परम उदार हैं। तुम शीघ्र ही इन्हें ग्रहण करो'॥२१॥
ऐसा कहकर मुनिवर विश्वामित्रजी उस समय स्नान आदिसे शुद्ध हो पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये और अत्यन्त प्रसन्नताके साथ उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीको उन सभी उत्तम अस्त्रोंका उपदेश दिया॥२२॥
जिन अस्त्रोंका पूर्णरूपसे संग्रह करना देवताओंके लिये भी दुर्लभ है, उन सबको विप्रवर विश्वामित्रजीने ही श्रीरामचन्द्रजीको समर्पित कर दिया॥२३॥
बुद्धिमान् विश्वामित्रजीने ज्यों ही जप आरम्भ किया त्यों ही वे सभी परम पूज्य दिव्यास्त्र स्वतः आकर श्रीरघुनाथजीके पास उपस्थित हो गये और अत्यन्त हर्षमें भरकर उस समय श्रीरामचन्द्रजीसे हाथ जोड़कर कहने लगे—'परम उदार रघुनन्दन! आपका कल्याण हो। हम सब आपके किङ्कर हैं। आप हमसे जो-जो सेवा लेना चाहेंगे, वह सब हम करनेको तैयार रहेंगे'॥२४-२५½॥
उन महान् प्रभावशाली अस्त्रोंके इस प्रकार कहनेपर श्रीरामचन्द्रजी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें ग्रहण करनेके पश्चात् हाथसे उनका स्पर्श करके बोले—'आप सब मेरे मनमें निवास करें'॥२६-२७॥
तदनन्तर महातेजस्वी श्रीरामने प्रसन्नचित्त होकर महामुनि विश्वामित्रको प्रणाम किया और आगेकी यात्रा आरम्भ की॥२८॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२७॥*
###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
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‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼
🚩 *"सनातन परिवार"* 🚩
*की प्रस्तुति*
🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴
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*इस संसार में जब से मानवी सृष्टि हुई तब से लेकर आज तक मनुष्य के साथ सुख एवं दुख जुड़े हुए हैं | समय समय पर इस विषय पर चर्चायें भी होती रही हैं कि सुखी कौन ? और दुखी कौन है ?? इस पर अनेक विद्वानों ने अपने मत दिये हैं | लोककवि घाघ (भड्डरी) ने भी अपने अनुभव के आधार पर इस विषय पर लिखा :- "बिन व्याही बिटिया मरै , ठाढै ऊँख बिकाय ! बिन मारे वैरी मरै , ई सुख कहाँ अमाय !!" अर्थात :- कुँवारी पुत्री का निधन हो जाय , खेत से ही गन्ना बिक जाय और बिना युद्ध किये शत्रु मर जाय तो यह संसार के सबसे बड़े सुख हैं ! वहीं दुख की व्याख्या करते हुए भड्डरी जी कहते हैं :- नसकट पनही बतकट जोय ! जौ पहिलौटी बिटिया होय !! पातर कृषी बौरहा भाय ! "घाघ कहैं दुख कहाँ अमाय !! अर्थात :- जूता जब पैर काटने लगे , पत्नी बात काटने लगे पहली संतान के रूप में पुत्री हो जाय , खेती ढंग की न हो और भाई अर्द्धपागल हो तो यह दुनिया का सबसे बड़ा दुख है | परंतु क्या इन लोकोत्तियों से सुख - दुख का आंकलन किया जा सकता है ? इन कहावतों को सुनकर यही कहा जा सकता है कि यह घाघ जी का अनुभव है जो उनको समाज में दिखा वह लिख दिया | परंतु इन अनुभव से अलग हटकर हमारे आध्यात्मिक गुरुओं ने सुखी मनुष्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि :- "अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः ! सदा सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमयाः दिशः !! अर्थात :-अकिञ्चन, संयमी, शांत, प्रसन्न चित्तवाले, और संतोषी मनुष्य को सब दिशाएँ सुखमय है | यदि उपरोक्त तथ्य को माना जाय तो विचार किया जा सकता है कि आखिर दु:खी कौन है ??*
*आज समाज में कोई भी सुखी नहीं दिखाई पड़ता है | मानव मात्र को कुछ न कुछ दुख अवश्य घेरे रहता है | मनुष्य के दुख का कारण जहाँ एक ओर उसके अन्त:करण में व्याप्त हो चुकी ईर्ष्या - द्वेष की भावना प्रमुख है वहीं मनुष्य का संसार के प्रति मोह ही मनुष्य के दुख का सबसे बड़ा कारण बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है :- "मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला !" मनुष्य को सुख एवं दुख कभी भी किसी दूसरे के कारण नहीं मिलता बल्कि उसके द्रारा किये गये कर्म ही उसके सुख एवं दुख का कारण बन जाते हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह बात कह सकता हूँ कि :- आज न तो कोई अकिञ्चन है और न ही किसी का भी चित्त ही शान्त है , और जब तक चित्त शान्त नहीं होगा तब तक न तो प्रसन्नता हो सकती है और न ही मनुष्य को संतोष प्राप्त हो सकता है | और जब तक मनुष्य को संतोष नहीं होगा तब तक उसे सुख की अनुभूति नहीं हो सकती | इसीलिए कहा गया है :- "संतोषम् परमं सुखम्" परंतु आज किसी को भी संतोष है ही नहीं और यही मनुष्य के दुख का सबसे बड़ा कारण है | इस विषय पर अनेकों पुस्तकें भी लिखी जा चुकी हैं परंतु यह ऐसा विषय है कि इस पर चर्चा अनवरत होती ही रहेगी |*
*सुख और दुख अपने हृदय में उठ रहे विचारों एवं उनके क्रियान्वयन के अनुसार मनुष्य को प्राप्त होते रहते हैं | इस पर गहनता से विचार करने की परम आवश्यकता है |*
🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺
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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना*🙏🏻🙏🏻🌹
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩
#सत्य वचन
🪷 || सत्य का साथ दें || 🪷
सत्य के पक्ष में खड़ा रहना ही जीवन का सबसे बड़ा साहस भी है। जिम्मेदारियों से बचने वाला व्यक्ति ही असत्य का भाषण करता है। वह असत्य की आड़ में अपनी लापरवाही को छुपाने का प्रयास करता है। निश्चित ही असत्य हमें भीतर से कमजोर बना देता है। जो लोग असत्य भाषित करते हैं, उनका आत्मबल भी बड़ा कमजोर होता है। हमें सत्य का आश्रय लेकर एक जिम्मेदार व्यक्ति बनने का सतत प्रयास करना चाहिए।
उदासी में किये गये प्रत्येक कर्म में पूर्णता का अभाव पाया जाता है। हमें प्रयास करना चाहिए कि प्रत्येक कर्म को प्रसन्नता के साथ किया जाए। निष्कपट, निर्दोष और निर्वैर भाव ही हृदय की पवित्रता है। यदि जीवन में कोई बहुत बड़ी उपलब्धि है तो वह हमारे हृदय की पवित्रता है। पवित्र हृदय से किये गये कार्य भी पवित्र ही होते हैं। हमारी जिह्वा में सत्यता हो, चेहरे में प्रसन्नता हो और हृदय में पवित्रता हो तो इससे बढ़कर सुखद एवं श्रेष्ठ जीवन और नहीं हो सकता है।
जय श्री राधे कृष्ण
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मदद एक ऐसी घटना है।
अगर करें तो लोग भूल जाते हैं..
और ना करें तो लोग याद रखते हैं..😭👆🤔
जय श्री कृष्ण
#🙏सुविचार📿
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#राधे कृष्ण
रोज न आइये जो मन मोहन,
तौ यह नेक मतौ सुन लीजिये।
प्रान हमारे तुम्हारे अधीन,
तुम्हैं बिन देखे सु कैसे कै जीजिये॥
'ठाकुर लालन प्यारे सुनौ,
बिनती इतनी पै अहो चित दीजिये।
दूसरे, तीसरे, पांचयें,
आठयें तो भला आइबो कीजिये॥
ठाकुर जी....
राधे राधे राधे राधे राधे राधे....
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![#सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - सुग्रीव सुनहु सब बानर ] 6 अंग भंग करि पठवहु निसिचर | | सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए। l२ | [ सुग्रीव ने कहा- सब वानरों ! राक्षसों के अंग-भंग करके सुनो, दूतों को बाँधकर भेज दो। के वचन सुनकर वानर दौडे ! सुग्रीव " उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया| ।५२-२। | सदरकाण्द सुग्रीव सुनहु सब बानर ] 6 अंग भंग करि पठवहु निसिचर | | सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए। l२ | [ सुग्रीव ने कहा- सब वानरों ! राक्षसों के अंग-भंग करके सुनो, दूतों को बाँधकर भेज दो। के वचन सुनकर वानर दौडे ! सुग्रीव " उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया| ।५२-२। | सदरकाण्द - ShareChat #सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - सुग्रीव सुनहु सब बानर ] 6 अंग भंग करि पठवहु निसिचर | | सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए। l२ | [ सुग्रीव ने कहा- सब वानरों ! राक्षसों के अंग-भंग करके सुनो, दूतों को बाँधकर भेज दो। के वचन सुनकर वानर दौडे ! सुग्रीव " उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया| ।५२-२। | सदरकाण्द सुग्रीव सुनहु सब बानर ] 6 अंग भंग करि पठवहु निसिचर | | सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए। l२ | [ सुग्रीव ने कहा- सब वानरों ! राक्षसों के अंग-भंग करके सुनो, दूतों को बाँधकर भेज दो। के वचन सुनकर वानर दौडे ! सुग्रीव " उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया| ।५२-२। | सदरकाण्द - ShareChat](https://cdn4.sharechat.com/bd5223f_s1w/compressed_gm_40_img_373778_205d1efe_1763268371535_sc.jpg?tenant=sc&referrer=user-profile-service%2FrequestType50&f=535_sc.jpg)



![🙏सुविचार📿 - ३ँ हं हनुमते नमः एक प्रार्थना है प्रभु अहंकार का भाव न रखूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या भाव रखूँ, भावना ऐसी मेरी, सत्य व्यवहार करूँ सरल EE बने जहाँ तक इस जीवन में, 3 EEE 5 E '9 औरों का उपकार करूँ। | ढिच ೯೯ शिहागसव > ५ ] % ٤ J 41 ] Iட LL LL LL IELL Lu L ३ँ हं हनुमते नमः एक प्रार्थना है प्रभु अहंकार का भाव न रखूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या भाव रखूँ, भावना ऐसी मेरी, सत्य व्यवहार करूँ सरल EE बने जहाँ तक इस जीवन में, 3 EEE 5 E '9 औरों का उपकार करूँ। | ढिच ೯೯ शिहागसव > ५ ] % ٤ J 41 ] Iட LL LL LL IELL Lu L - ShareChat 🙏सुविचार📿 - ३ँ हं हनुमते नमः एक प्रार्थना है प्रभु अहंकार का भाव न रखूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या भाव रखूँ, भावना ऐसी मेरी, सत्य व्यवहार करूँ सरल EE बने जहाँ तक इस जीवन में, 3 EEE 5 E '9 औरों का उपकार करूँ। | ढिच ೯೯ शिहागसव > ५ ] % ٤ J 41 ] Iட LL LL LL IELL Lu L ३ँ हं हनुमते नमः एक प्रार्थना है प्रभु अहंकार का भाव न रखूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या भाव रखूँ, भावना ऐसी मेरी, सत्य व्यवहार करूँ सरल EE बने जहाँ तक इस जीवन में, 3 EEE 5 E '9 औरों का उपकार करूँ। | ढिच ೯೯ शिहागसव > ५ ] % ٤ J 41 ] Iட LL LL LL IELL Lu L - ShareChat](https://cdn4.sharechat.com/bd5223f_s1w/compressed_gm_40_img_664229_c3ddcb8_1763266583806_sc.jpg?tenant=sc&referrer=user-profile-service%2FrequestType50&f=806_sc.jpg)
