#श्रीमहाभारतकथा-2️⃣2️⃣8️⃣
श्रीमहाभारतम्
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।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(सम्भवपर्व)
चतुसप्ततितमोऽध्यायः
शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक...(दिन 228)
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पतिशुश्रूषणं पूर्व मनोवाक्कायचेष्टितैः । अनुज्ञाता मया पूर्व पूजयैतद् व्रतं तव ।। एतेनैव च वृत्तेन विशिष्टां लप्स्यसे श्रियम्।
सती स्त्रियोंके लिये सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि वे मन, वाणी, शरीर और चेष्टाओंद्वारा निरन्तर पतिकी सेवा करती रहें। मैंने पहले भी तुम्हें इसके लिये आदेश दिया है। तुम अपने इस व्रतका पालन करो। इस पतिव्रतोचित आचार-व्यवहारसे ही विशिष्ट शोभा प्राप्त कर सकोगी।
तस्माद् भद्रे प्रयातव्यं समीपं पौरवस्य ह ।। स्वयं नायाति मत्वा ते गतं कालं शुचिस्मिते । गत्वाऽऽराधय राजानं दुष्यन्तं हितकाम्यया ।।
'भद्रे! तुम्हें पूरुनन्दन दुष्यन्तके पास जाना चाहिये। वे स्वयं नहीं आ रहे हैं, ऐसा सोचकर तुमने बहुत-सा समय उनकी सेवासे दूर रहकर बिता दिया। शुचिस्मिते! अब तुम अपने हितकी इच्छासे स्वयं जाकर राजा दुष्यन्तकी आराधना करो।
दौष्यन्तिं यौवराज्यस्थं दृष्ट्वा प्रीतिमवाप्स्यसि । देवतानां गुरूणां च क्षत्रियाणां च भामिनि । भर्तृणां च विशेषेण हितं संगमनं सताम् ।। तस्मात् पुत्रि कुमारेण गन्तव्यं मत्प्रियेप्सया । प्रतिवाक्यं न दद्यास्त्वं शापिता मम पादयोः ।।
'वहाँ दुष्यन्तकुमार सर्वदमनको युवराज-पदपर प्रतिष्ठित देख तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। देवता, गुरु, क्षत्रिय, स्वामी तथा साधु पुरुष- इनका संग विशेष हितकर है। अतः बेटी! तुम्हें मेरा प्रिय करनेकी इच्छासे कुमारके साथ अवश्य अपने पतिके यहाँ जाना चाहिये। मैं अपने चरणोंकी शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम मुझे मेरी इस आज्ञाके विपरीत कोई उत्तर न देना'।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्त्वा सुतां तत्र पौत्रं कण्वोऽभ्यभाषत । परिष्वज्य च बाहुभ्यां मूर्युपाघ्राय पौरवम् ।। वैशम्पायनजी कहते हैं- पुत्रीसे ऐसा कहकर महर्षि कण्वने उसके पुत्र भरतको दोनों बाँहोंसे पकड़कर अंकमें भर लिया और उसका मस्तक सूँघकर कहा।
कण्व उवाच
सोमवंशोद्भवो राजा दुष्यन्तो नाम विश्रुतः । तस्याग्रमहिषी चैषा तव माता शुचिव्रता ।। गन्तुकामा भर्तृवशं त्वया सह सुमध्यमा । गत्वाभिवाद्य राजानं यौवराज्यमवाप्स्यसि ।। स पिता तव राजेन्द्रस्तस्य त्वं वशगो भव । पितृपैतामहं राज्यमनुतिष्ठस्व भावतः ।।
कण्व बोले- वत्स! चन्द्रवंशमें दुष्यन्त नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं। पवित्र व्रतका पालन करनेवाली यह तुम्हारी माता उन्हींकी महारानी है। यह सुन्दरी तुम्हें साथ लेकर अब पतिकी सेवामें जाना चाहती है। तुम वहाँ जाकर राजाको प्रणाम करके युवराज-पद प्राप्त करोगे। वे महाराज दुष्यन्त ही तुम्हारे पिता हैं। तुम सदा उनकी आज्ञाके अधीन रहना और बाप-दादेके राज्यका प्रेमपूर्वक पालन करना।
शकुन्तले शृणुष्वेदं हितं पथ्यं च भामिनि । पतिव्रताभावगुणान् हित्वा साध्यं न किञ्चन ।। पतिव्रतानां देवा वै तुष्टाः सर्ववरप्रदाः । प्रसादं च करिष्यन्ति ह्यापदर्थे च भामिनि ।। पतिप्रसादात् पुण्यगतिं प्राप्नुवन्ति न चाशुभम् । तस्माद् गत्वा तु राजानमाराधय शुचिस्मिते ।।)
(फिर कण्व शकुन्तलासे बोले-) 'भामिनि ! शकुन्तले! यह मेरी हितकर एवं लाभप्रद बात सुनो। पतिव्रताभाव-सम्बन्धी गुणोंको छोड़कर तुम्हारे लिये और कोई वस्तु साध्य नहीं है। पतिव्रताओंपर सम्पूर्ण वरोंको देनेवाले देवतालोग भी संतुष्ट रहते हैं। भामिनि ! वे आपत्तिके निवारणके लिये अपने कृपा-प्रसादका भी परिचय देंगे। शुचिस्मिते ! पतिव्रता देवियाँ पतिके प्रसादसे पुण्यगतिको ही प्राप्त होती हैं; अशुभ गतिको नहीं। अतः तुम जाकर राजाकी आराधना करो'।
तस्य तद् बलमाज्ञाय कण्वः शिष्यानुवाच ह ।। १० ।।
शकुन्तलामिमां शीघ्रं सहपुत्रामितो गृहात् । भर्तुः प्रापयतागारं सर्वलक्षणपूजिताम् ।। ११ ।।
फिर उस बालकके बलको समझकर कण्वने अपने शिष्योंसे कहा- 'तुमलोग समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्मानित मेरी पुत्री शकुन्तला और इसके पुत्रको शीघ्र ही इस घरसे ले जाकर पतिके घरमें पहुँचा दो ।। १०-११ ।।
नारीणां चिरवासो हि बान्धवेषु न रोचते । कीर्तिचारित्रधर्मघ्नस्तस्मान्नयत मा चिरम् ।। १२ ।।
'स्त्रियोंका अपने भाई-बन्धुओंके यहाँ अधिक दिनोंतक रहना अच्छा नहीं होता। वह उनकी कीर्ति, शील तथा पातिव्रत्य धर्मका नाश करनेवाला होता है। अतः इसे अविलम्ब पतिके घरमें पहुँचा दो' ।। १२ ।।
क्रमशः...
साभार~ पं देव शर्मा💐
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