ShareChat
click to see wallet page
search
।। ॐ ।। अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥ बहुत से योगी अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं और उसी प्रकार प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं। इससे सूक्ष्म अवस्था हो जाने पर अन्य योगीजन प्राण और अपान दोनों की गति रोककर प्राणायामपरायण हो जाते हैं। जिसे श्रीकृष्ण प्राण-अपान कहते हैं, उसी को महात्मा बुद्ध 'अनापान' कहते हैं। इसी को उन्होंने श्वास-प्रश्वास भी कहा है। प्राण वह श्वास है जिसे आप भीतर खींचते हैं और अपान वह श्वास है जिसे आप बाहर छोड़ते हैं। योगियों की अनुभूति है कि आप श्वास के साथ बाह्य वायुमण्डल के संकल्प भी ग्रहण करते हैं और प्रश्वास में इसी प्रकार आन्तरिक भले-बुरे चिन्तन की लहर फेंकते रहते हैं। बाह्य किसी संकल्प का ग्रहण न करना प्राण का हवन है तथा भीतर संकल्पों को न उठने देना अपान का हवन है। न भीतर से किसी संकल्प का स्फुरण हो और न ही बाह्य दुनिया में चलनेवाले चिन्तन अन्दर क्षोभ उत्पन्न कर पायें, इस प्रकार प्राण और अपान दोनों की गति सम हो जाने पर प्राणों का याम अर्थात् निरोध हो जाता है, यही प्राणायाम है। यह मन की विजितावस्था है। प्राणों का रुकना और मन का रुकना एक ही बात है। प्रत्येक महापुरुष ने इस प्रकरण को लिया है। वेदों में इसका उल्लेख है 'चत्वारि वाक् परिमिता पदानि' (ऋग्वेद १/१६४/४५, अथर्ववेद ९/१५/२७) इसी को 'पूज्य महाराज जी' कहा करते थे- "हो! एक ही नाम चार श्रेणियों से जपा जाता है- बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा। बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाय। नाम का इस प्रकार उच्चारण हो कि आप सुनें और बाहर कोई बैठा हो तो उसे भी सुनायी पड़े। मध्यमा अर्थात् मध्यम स्वर में जप, जिसे केवल आप ही सुनें, बगल में बैठा हुआ व्यक्ति भी उस उच्चारण को सुन न सके। यह उच्चारण कण्ठ से होता है। धीरे-धीरे नाम की धुन बन जाती है, डोर लग जाती है। साधना और सूक्ष्म हो जाने पर पश्यन्ती अर्थात् नाम देखने की अवस्था आ जाती है। फिर नाम को जपा नहीं जाता, यही नाम श्वास में ढल जाता है। मन को द्रष्टा बनाकर खड़ा कर दें, देखते भर रहें कि साँस आती है कब? बाहर निकलती है कब? कहती है क्या?" महापुरुषों का कहना है कि यह साँस नाम के सिवाय और कुछ कहती ही नहीं। साधक नाम का जप नहीं करता, केवल उससे उठनेवाली धुन को सुनता है। साँस को देखता भर है, इसलिये इसे 'पश्यन्ती' कहते हैं। पश्यन्ती में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा करना पड़ता है; किन्तु साधन और उन्नत हो जाने पर सुनना भी नहीं पड़ता। एक बार सुरत लगा भर दें, स्वतः सुनायी देगा। 'जपै न जपावै, अपने से आवै #यथार्थ गीता #❤️जीवन की सीख #🙏गीता ज्ञान🛕 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🧘सदगुरु जी🙏
यथार्थ गीता - I13 Il प्राणं प्राणेडपानं तथापरे।  अपाने जुह्वति प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाःIl बहुत से योगी अपानवायु में प्राणवायु को हवन  करते हैं और उसी प्रकार प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं। इससे सूक्ष्म अवस्था हो जाने पर अन्य योगीजन प्राण और अपान दोनों की गति रोककर प्राणायामपरायण हो जाते हैं।  जिसे श्रीकृष्ण प्राण ्अपान कहते हैं, उसी को महात्मा बुद्ध ' अनापान' कहते हैं। इसी को उन्होंने श्वास प्रश्वास भी कहा है। I13 Il प्राणं प्राणेडपानं तथापरे।  अपाने जुह्वति प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाःIl बहुत से योगी अपानवायु में प्राणवायु को हवन  करते हैं और उसी प्रकार प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं। इससे सूक्ष्म अवस्था हो जाने पर अन्य योगीजन प्राण और अपान दोनों की गति रोककर प्राणायामपरायण हो जाते हैं।  जिसे श्रीकृष्ण प्राण ्अपान कहते हैं, उसी को महात्मा बुद्ध ' अनापान' कहते हैं। इसी को उन्होंने श्वास प्रश्वास भी कहा है। - ShareChat