###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०२९
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायण
बालकाण्ड
चौबीसवाँ सर्ग
श्रीराम और लक्ष्मणका गंगापार होते समय विश्वामित्रजीसे जलमें उठती हुई तुमुलध्वनिके विषयमें प्रश्न करना, विश्वामित्रजीका उन्हें इसका कारण बताना तथा मलद, करूष एवं ताटका वनका परिचय देते हुए इन्हें ताटकावधके लिये आज्ञा प्रदान करना
तदनन्तर निर्मल प्रभातकालमें नित्यकर्मसे निवृत्त हुए विश्वामित्रजीको आगे करके शत्रुदमन वीर श्रीराम और लक्ष्मण गंगानदी के तटपर आये॥१॥
उस समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन पुण्याश्रमनिवासी महात्मा मुनियोंने एक सुन्दर नाव मँगवाकर विश्वामित्रजीसे कहा—॥२॥
'महर्षे! आप इन राजकुमारोंको आगे करके इस नावपर बैठ जाइये और मार्गको निर्विघ्नतापूर्वक तै कीजिये, जिससे विलम्ब न हो'॥३॥
विश्वामित्रजीने 'बहुत अच्छा' कहकर उन महर्षियोंकी सराहना की और वे श्रीराम तथा लक्ष्मणके साथ समुद्र-गामिनी गंगानदीको पार करने लगे॥४॥
गंगाकी बीच धारामें आनेपर छोटे भाईसहित महातेजस्वी श्रीरामको दो जलोंके टकरानेकी बड़ी भारी आवाज सुनायी देने लगी। 'यह कैसी आवाज है? क्यों तथा कहाँसे आ रही है?' इस बातको निश्चितरूपसे जाननेकी इच्छा उनके भीतर जाग उठी॥५½॥
तब श्रीरामने नदीके मध्यभागमें मुनिवर विश्वामित्रसे पूछा—'जलके परस्पर मिलनेसे यहाँ ऐसी तुमुलध्वनि क्यों हो रही है?'॥६½॥
श्रीरामचन्द्रजीके वचनमें इस रहस्यको जाननेकी उत्कण्ठा भरी हुई थी। उसे सुनकर धर्मात्मा विश्वामित्रने उस महान् शब्द (तुमुलध्वनि) का सुनिश्चित कारण बताते हुए कहा—॥७½॥
'नरश्रेष्ठ राम! कैलासपर्वतपर एक सुन्दर सरोवर है। उसे ब्रह्माजीने अपने मानसिक संकल्पसे प्रकट किया था। मनके द्वारा प्रकट होनेसे ही वह उत्तम सरोवर 'मानस' कहलाता है॥८½॥
'उस सरोवरसे एक नदी निकली है, जो अयोध्यापुरीसे सटकर बहती है। ब्रह्मसरसे निकलनेके कारण वह पवित्र नदी सरयूके नामसे विख्यात है॥९½॥
'उसीका जल गंगाजीमें मिल रहा है। दो नदियोंके जलोंके संघर्षसे ही यह भारी आवाज हो रही है; जिसकी कहीं तुलना नहीं है। राम! तुम अपने मनको संयममें रखकर इस संगमके जलको प्रणाम करो'॥१०½॥
यह सुनकर उन दोनों अत्यन्त धर्मात्मा भाइयोंने उन दोनों नदियोंको प्रणाम किया और गंगाके दक्षिण किनारेपर उतरकर वे दोनों बन्धु जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चलने लगे॥११½॥
उस समय इक्ष्वाकुनन्दन राजकुमार श्रीरामने अपने सामने एक भयङ्कर वन देखा, जिसमें मनुष्योंके आने-जानेका कोई चिह्न नहीं था। उसे देखकर उन्होंने मुनिवर विश्वामित्रसे पूछा—॥१२½॥
'गुरुदेव! यह वन तो बड़ा ही अद्भुत एवं दुर्गम है। यहाँ चारों ओर झिल्लियोंकी झनकार सुनायी देती है। भयानक हिंसक जन्तु भरे हुए हैं। भयङ्कर बोली बोलनेवाले पक्षी सब ओर फैले हुए हैं। नाना प्रकारके विहंगम भीषण स्वरमें चहचहा रहे हैं॥१३-१४॥
'सिंह, व्याघ्र, सूअर और हाथी भी इस जंगलकी शोभा बढ़ा रहे हैं। धव (धौरा), अश्वकर्ण (एक प्रकारके शालवृक्ष), ककुभ (अर्जुन), बेल, तिन्दुक (तेन्दू), पाटल (पाड़र) तथा बेरके वृक्षोंसे भरा हुआ यह भयङ्कर वन क्या है?—इसका क्या नाम है?'॥१५½॥
तब महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्रने उनसे कहा—'वत्स! ककुत्स्थनन्दन! यह भयङ्कर वन जिसके अधिकारमें रहा है, उसका परिचय सुनो॥१६½॥
'नरश्रेष्ठ! पूर्वकालमें यहाँ दो समृद्धिशाली जनपद थे—मलद और करूष। ये दोनों देश देवताओंके प्रयत्नसे निर्मित हुए थे॥१७½॥
'राम! पहलेकी बात है वृत्रासुरका वध करनेके पश्चात् देवराज इन्द्र मलसे लिप्त हो गये। क्षुधाने भी उन्हें धर दबाया और उनके भीतर ब्रह्महत्या प्रविष्ट हो गयी॥१८½॥
'तब देवताओं तथा तपोधन ऋषियोंने मलिन इन्द्रको यहाँ गंगाजलसे भरे हुए कलशोंद्वारा नहलाया तथा उनके मल (और कारूष—क्षुधा) को छुड़ा दिया॥१९½॥
इस भूभागमें देवराज इन्द्रके शरीरसे उत्पन्न हुए मल और कारूषको देकर देवतालोग बड़े प्रसन्न हुए॥२०½॥
'इन्द्र पूर्ववत् निर्मल, निष्करूष (क्षुधाहीन) एवं शुद्ध हो गये। तब उन्होंने प्रसन्न होकर इस देशको यह उत्तम वर प्रदान किया—'ये दो जनपद लोकमें मलद और करूष नामसे विख्यात होंगे। मेरे अंगजनित मलको धारण करनेवाले ये दोनों देश बड़े समृद्धिशाली होंगे'॥२१-२२½॥
'बुद्धिमान् इन्द्रके द्वारा की गयी उस देशकी वह पूजा देखकर देवताओंने पाकशासनको बारम्बार साधुवाद दिया॥२३½॥
'शत्रुदमन! मलद और करूष—ये दोनों जनपद दीर्घकालतक समृद्धिशाली, धन-धान्यसे सम्पन्न तथा सुखी रहे हैं॥२४½॥
'कुछ कालके अनन्तर यहाँ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली एक यक्षिणी आयी, जो अपने शरीरमें एक हजार हाथियोंका बल धारण करती है॥२५½॥
'उसका नाम ताटका है। वह बुद्धिमान् सुन्द नामक दैत्यकी पत्नी है। तुम्हारा कल्याण हो। मारीच नामक राक्षस, जो इन्द्रके समान पराक्रमी है, उस ताटकाका ही पुत्र है। उसकी भुजाएँ गोल, मस्तक बहुत बड़ा, मुँह फैला हुआ और शरीर विशाल है॥२६-२७॥
'वह भयानक आकारवाला राक्षस यहाँकी प्रजाको सदा ही त्रास पहुँचाता रहता है। रघुनन्दन! वह दुराचारिणी ताटका भी सदा मलद और करूष—इन दोनों जनपदोंका विनाश करती रहती है॥२८½॥
'वह यक्षिणी डेढ़ योजन (छः कोस) तकके मार्गको घेरकर इस वनमें रहती है; अतः हमलोगोंको जिस ओर ताटकावन है, उधर ही चलना चाहिये। तुम अपने बाहुबलका सहारा लेकर इस दुराचारिणीको मार डालो॥२९-३०॥
'मेरी आज्ञासे इस देशको पुनः निष्कण्टक बना दो। यह देश ऐसा रमणीय है तो भी इस समय कोई यहाँ आ नहीं सकता है॥३१॥
'राम! उस असह्य एवं भयानक यक्षिणीने इस देशको उजाड़ कर डाला है। यह वन ऐसा भयङ्कर क्यों है, यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। उस यक्षिणीने ही इस सारे देशको उजाड़ दिया है और वह आज भी अपने उस क्रूर कर्मसे निवृत्त नहीं हुई है'॥३२॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२४॥*


