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#बलिदान दिवस #शहीद दिवस #🇮🇳 देशभक्ति #आज जिनकी पुण्यतिथि है #🙏🏻माँ तुझे सलाम
बलिदान दिवस - सितम्बर/ पुण्य तिथि 30 देशभक्त अम्बाप्रसाद प्रखर सूफी  अम्बाप्रसाद का जन्म १८५८ में मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न भटनागर परिवार में हुआ था। जन्म से ही उनका दाहिना हाथ नहीं था। कोई पूछता हंसकर कहते कि १८५७ के संघर्ष में एक हाथ कट गया था। मुरादाबाद बरेली और जालंधर में उन्होंने पायी। पत्रकारिता में रुचि होने के कारण कानून परीक्षा उत्तीर्ण करने पर भी उन्होंने वकालत बदल जाम्मुल अमूलः नामक समाचार पत्र निकाला। उनके नवयुवकों में जागृति की लहर दौड़ने विचार पढ़कर लगी। सूफी जी विद्वान तो थे ही; पर बुद्धिमान  भी बहुत " थ। उन्हें पता लगा कि भोपाल रियासत में अंग्रेज अधिकार्र जनता को बहुत परेशान कर रहा है। वे वेष बदलकर झाड़ू- पोंछे की नौकरी कर ली । गये और उसके घर में 1 ही दिन में उस अधिकारी के व्यवहार और भ्रष्टाच कछै विस्तृत 1 समाचार देश और विदेश में छपने लगे। उसका स्थानांतरण कर दिया गया। भी इस " बौखलाकर घोषणा की किजो ওমন HIHT को छपवाने वाले का पता बताएगा, उसे वे पुरस्कार यह सुनकर सूफी जी सूट बूट पहनकर पुरस्कार सामने जा खड़े हुए। उन्हें देखकर वह चौंक " उसक सूफी जी ने अंग्रेजी में बोलते हुए उसे बताया कि वे समाचार मैंने ही छपवाये हैं। उसका चेहरा उतर गया, फिर भी उसने अपने हाथ की घड़ी उन्हें दे दी। १८९७ में उन पर शासन के विरुद्ध विद्रोह का मुकदम उन्होंने अपना मुकदमा स्वयं लड़ा चलाया गया। उन्हें १ १ वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। से छूटकर वे फिर स्वाधीनता की अलख जगाने लगे। पर उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर उन्हें फिर से जेल [uT TITI जेल से छूटकर वे लाहौर आ गये और वहां से हिन्दुस्तान  नामक समाचार पत्र निकाला। जब वहां धरपकड़ होने लगी, तो वे अपने मित्रों के साथ नेपाल से ही उन्हें पकड़कर लाहौर चले गयेः पर शासन नेपाल " के लिए उन पर मुकदमा ল সামা সীয এন নিকধালন व साहित्य जब्त कर लिय चलाया| उनकी सारी पुस्तकें शासन की आंखों में धूल झोंककर सूफी जी गयाः पर ईरान चले गये और वहां से  आबे हयातः नामक पत्र निकालने लगे। ईरान के लोग आदरपूर्वक उन्हें आका सूफीः कहते थे। १९१5 में अंग्रेजों ने ईरान पर कब्जा करना चाहा। समय शीराज पर घेरा डाला गया, तो ईरान के स्वतंत्रता प्रिय लोगों के साथ ही सूफी जी भी बायें हाथ में ही पिस्तौल लेकर युद्ध करने लगेः पर अंग्रेज सेना संख्या बहुत अधिक थी और उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी पर्याप थे। अतः वे पकड़े गये और उन्हें कारावास में डाल दिय फांसी पर चढ़ाकर मृत्युदंड देना चाहत गया। अंग्रज थे; पर सूफी जी ने उससे पूर्व ही ३० सितम्बर, १९१5 योग साधना द्वारा अपना शरीर छोड़ दिया। थोड़े ही समय में यह समाचार सब ओर फैल गया। जी के प्रति लोगों में अत्यधिक थी। अतः उनकी श्रद्धा  शवयात्रा में हजारों लोग शामिल हुए। एक सुंदर स्थान उनको दफना कर समाधि बना दी गयी। उस स्थान पर भी ईरान के लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं पर आज सूफी अंबा प्रसोद ३० सितंबर 1 ९१ ७ सितम्बर/ पुण्य तिथि 30 देशभक्त अम्बाप्रसाद प्रखर सूफी  अम्बाप्रसाद का जन्म १८५८ में मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न भटनागर परिवार में हुआ था। जन्म से ही उनका दाहिना हाथ नहीं था। कोई पूछता हंसकर कहते कि १८५७ के संघर्ष में एक हाथ कट गया था। मुरादाबाद बरेली और जालंधर में उन्होंने पायी। पत्रकारिता में रुचि होने के कारण कानून परीक्षा उत्तीर्ण करने पर भी उन्होंने वकालत बदल जाम्मुल अमूलः नामक समाचार पत्र निकाला। उनके नवयुवकों में जागृति की लहर दौड़ने विचार पढ़कर लगी। सूफी जी विद्वान तो थे ही; पर बुद्धिमान  भी बहुत " थ। उन्हें पता लगा कि भोपाल रियासत में अंग्रेज अधिकार्र जनता को बहुत परेशान कर रहा है। वे वेष बदलकर झाड़ू- पोंछे की नौकरी कर ली । गये और उसके घर में 1 ही दिन में उस अधिकारी के व्यवहार और भ्रष्टाच कछै विस्तृत 1 समाचार देश और विदेश में छपने लगे। उसका स्थानांतरण कर दिया गया। भी इस " बौखलाकर घोषणा की किजो ওমন HIHT को छपवाने वाले का पता बताएगा, उसे वे पुरस्कार यह सुनकर सूफी जी सूट बूट पहनकर पुरस्कार सामने जा खड़े हुए। उन्हें देखकर वह चौंक " उसक सूफी जी ने अंग्रेजी में बोलते हुए उसे बताया कि वे समाचार मैंने ही छपवाये हैं। उसका चेहरा उतर गया, फिर भी उसने अपने हाथ की घड़ी उन्हें दे दी। १८९७ में उन पर शासन के विरुद्ध विद्रोह का मुकदम उन्होंने अपना मुकदमा स्वयं लड़ा चलाया गया। उन्हें १ १ वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। से छूटकर वे फिर स्वाधीनता की अलख जगाने लगे। पर उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर उन्हें फिर से जेल [uT TITI जेल से छूटकर वे लाहौर आ गये और वहां से हिन्दुस्तान  नामक समाचार पत्र निकाला। जब वहां धरपकड़ होने लगी, तो वे अपने मित्रों के साथ नेपाल से ही उन्हें पकड़कर लाहौर चले गयेः पर शासन नेपाल " के लिए उन पर मुकदमा ল সামা সীয এন নিকধালন व साहित्य जब्त कर लिय चलाया| उनकी सारी पुस्तकें शासन की आंखों में धूल झोंककर सूफी जी गयाः पर ईरान चले गये और वहां से  आबे हयातः नामक पत्र निकालने लगे। ईरान के लोग आदरपूर्वक उन्हें आका सूफीः कहते थे। १९१5 में अंग्रेजों ने ईरान पर कब्जा करना चाहा। समय शीराज पर घेरा डाला गया, तो ईरान के स्वतंत्रता प्रिय लोगों के साथ ही सूफी जी भी बायें हाथ में ही पिस्तौल लेकर युद्ध करने लगेः पर अंग्रेज सेना संख्या बहुत अधिक थी और उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी पर्याप थे। अतः वे पकड़े गये और उन्हें कारावास में डाल दिय फांसी पर चढ़ाकर मृत्युदंड देना चाहत गया। अंग्रज थे; पर सूफी जी ने उससे पूर्व ही ३० सितम्बर, १९१5 योग साधना द्वारा अपना शरीर छोड़ दिया। थोड़े ही समय में यह समाचार सब ओर फैल गया। जी के प्रति लोगों में अत्यधिक थी। अतः उनकी श्रद्धा  शवयात्रा में हजारों लोग शामिल हुए। एक सुंदर स्थान उनको दफना कर समाधि बना दी गयी। उस स्थान पर भी ईरान के लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं पर आज सूफी अंबा प्रसोद ३० सितंबर 1 ९१ ७ - ShareChat