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।। ॐ ।। मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥ इसलिये अर्जुन ! तू 'अध्यात्मचेतसा'- अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके, ध्यानस्थ होकर, सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। जब चित्त ध्यान में स्थित है, लेशमात्र भी कहीं आशा नहीं, कर्म में ममत्व नहीं है, असफलता का सन्ताप नहीं है तो वह पुरुष कौन-सा युद्ध करेगा? जब सब ओर से चित्त सिमटकर हृदय-देश में निरुद्ध होता जा रहा है तो वह लड़ेगा किसलिये, किससे और वहाँ है कौन? वास्तव में जब आप ध्यान में प्रवेश करेंगे तभी युद्ध का सही स्वरूप खड़ा होता है, तो काम-क्रोध, राग-द्वेष, आशा-तृष्णा इत्यादि विकारों का समूह विजातीय प्रवृत्तियाँ जो 'कुरु' कहलाती हैं, संसार में प्रवृत्ति देती ही रहती हैं। बाधा के रूप में भयंकर आक्रमण करती हैं। बस, इनका पार पाना ही युद्ध है। इनको मिटाते हुए अन्तरात्मा में सिमटते जाना, ध्यानस्थ होते जाना ही यथार्थ युद्ध है। इसी पर पुनः बल देते हैं- #यथार्थ गीता #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख
यथार्थ गीता - 11 3০ 11 जब सब ओर से चित्त सिमटकर हृदय देश में निरुद्ध मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याष्यात्मचेतसा [ होता जा रहा है तो वह लड़ेगा किसलिये, किससे और निराशीर्निर्ममो भूत्वा युष्यस्व विगतज्वरः।  वहाँ है कौन? वास्तव में जब आप ध्यान में प्रवेश करेंगे तभी युद्ध का सही स्वरूप खडा होता है, तो इसलिये अर्जुन ! तू अध्यात्मचेतसा  अन्तरात्म काम-क्रोध, राग ्द्वेष, आशान्तृष्णा इत्यादि विकारों में चित्त का निरोध करके, थ्यानस्थ होकर, सम्पूर्ण  समूह विजातीय प्रवृत्तियाँ जो 'कुरु' कहलाती हैं, का कर्मो को अर्पण करके आशारहित मुझ्में  संसार में प्रवृत्ति देती ही रहती हैं। बाधा के रूप में ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। भयंकर आक्रमण करती हैं। बस, इनका पार पाना ही जब चित्त ध्यान में स्थित है॰ लेशमात्र भी कहीं  युद्ध है। इनको मिटाते हुए अन्तरात्मा में सिमटते आशा नहीं, कर्म में ममत्व नहीं है॰ असफलता का जाना, ध्यानस्थ होते जाना ही यथार्थ युद्ध है।  नहीं है तो वह पुरुष कौन सा युद्ध करेगा ? सन्ताप 11 3০ 11 जब सब ओर से चित्त सिमटकर हृदय देश में निरुद्ध मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याष्यात्मचेतसा [ होता जा रहा है तो वह लड़ेगा किसलिये, किससे और निराशीर्निर्ममो भूत्वा युष्यस्व विगतज्वरः।  वहाँ है कौन? वास्तव में जब आप ध्यान में प्रवेश करेंगे तभी युद्ध का सही स्वरूप खडा होता है, तो इसलिये अर्जुन ! तू अध्यात्मचेतसा  अन्तरात्म काम-क्रोध, राग ्द्वेष, आशान्तृष्णा इत्यादि विकारों में चित्त का निरोध करके, थ्यानस्थ होकर, सम्पूर्ण  समूह विजातीय प्रवृत्तियाँ जो 'कुरु' कहलाती हैं, का कर्मो को अर्पण करके आशारहित मुझ्में  संसार में प्रवृत्ति देती ही रहती हैं। बाधा के रूप में ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। भयंकर आक्रमण करती हैं। बस, इनका पार पाना ही जब चित्त ध्यान में स्थित है॰ लेशमात्र भी कहीं  युद्ध है। इनको मिटाते हुए अन्तरात्मा में सिमटते आशा नहीं, कर्म में ममत्व नहीं है॰ असफलता का जाना, ध्यानस्थ होते जाना ही यथार्थ युद्ध है।  नहीं है तो वह पुरुष कौन सा युद्ध करेगा ? सन्ताप - ShareChat