Davinder Singh Rana
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*इन चीजों के बिना अधूरी है करवा चौथ की पूजा* 🌝🌝🌝🌝🌝🌝🌝🌝🌝🌝🌝🌝 *करवा चौथ* 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹 करवा चौथ दो शब्दों से मिलकर बना है,'करवा' यानि कि मिट्टी का बर्तन व 'चौथ' यानि गणेशजी की प्रिय तिथि चतुर्थी। प्रेम,त्याग व विश्वास के इस अनोखे महापर्व पर मिट्टी के बर्तन यानि करवे की पूजा का विशेष महत्व है,जिससे रात्रि में चंद्रदेव को जल अर्पण किया जाता है । करवा चौथ'.... ये एक ऐसा दिन है जिसका सभी विवाहित स्त्रियां साल भर इंतजार करती हैं और इसकी सभी विधियों को बड़े श्रद्धा-भाव से पूरा करती हैं. करवाचौथ का त्योहार पति-पत्नी के मजबूत रिश्ते, प्यार और विश्वास का प्रतीक है. कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत किया जाता है. कार्तिक मास की चतुर्थी जिस रात रहती है उसी दिन करवा चौथ का व्रत किया जाता है। करवा चौथ के त्‍योहार में पूजापाठ की बहुत ही अहम भूमिका होती है। महिलाएं सारे दिन निर्जला व्रत रखकर शाम को समूह में पूजा करती हैं। करवा चौथ की पूजा सामान्‍य तौर पर अकेले नहीं की जाती है। हालांकि आज के दौर में कई बार महिलाएं परिवार से दूर रहती हैं तो उन्‍हें अकेले ही पूजा करनी पड़ती है। ऐसे में यदि पति भी पूजा में पत्‍नी के साथ शामिल हों तो यह बहुत ही अच्‍छा माना जाता है और दोनों के रिश्‍ते में भी मजबूती आती है। करवाचौथ की पूजा में इन चीजों का बहुत महत्‍व होता है। आइए जानते हैं इनके बारे में… १ ) : - सींक: मां करवा की शक्ति का प्रतीक करवाचौथ के व्रत की पूजा में कथा सुनते समय और पूजा करते समय सींक जरूर रखें। ये सींक मां करवा की उस शक्ति का प्रतीक हैं, जिसके बल पर उन्होंने यमराज के सहयोगी भगवान चित्रगुप्त के खाते के पन्नों को उड़ा दिया था। ( २ ) : - करवा का महत्‍व माता का नाम करवा था। साथ ही यह करवा उस नदी का प्रतीक है, जिसमें मां करवा के पति का पैर मगरमच्छ ने पकड़ लिया था। आजकल बाजार में पूजा के लिए आपको बेहर खूबसूरत करवे मिल जाते हैं। ( ३ ) : - करवा माता की तस्वीर करवा माता की तस्वीर अन्य देवियों की तुलना में बहुत अलग होती है। इनकी तस्वीर में ही भारतीय पुरातन संस्कृति और जीवन की झलक मिलती है। चंद्रमा और सूरज की उपस्थिति उनके महत्व का वर्णन करती है। ( ४ ) : - दीपक के बिना पूजा नहीं होती पूरी हिंदू धर्म में कोई भी पूजा दीपक के बिना पूरी नहीं होती। इसलिए भी दीपक जरूरी है क्योंकि यह हमारे ध्यान को केंद्रित कर एकाग्रता बढ़ाता है। साथ ही इस पूजा में दीपक की लौ, जीवन ज्योति का प्रतीक होती है। ( ५ ) : - छलनी है पति को देखने को लिए व्रत की पूजा के बाद महिलाएं छलनी से अपने पति का चेहरा देखती हैं। इसका कारण करवा चौथ में सुनाई जानेवाली वीरवती की कथा से जुड़ा है। जैसे, अपनी बहन के प्रेम में वीरवती के भाइयों ने छलनी से चांद का प्रतिविंब बनाया था और उसके पति के जीवन पर संकट आ गया था, वैसे कभी कोई हमें छल न सके। ( ६ ) : - लोटे का यह है अर्थ चंद्रदेव को अर्घ्य देने के लिए जरूरी होता है लोटा। पूजा के दौरान लोटे में जल भरकर रखते हैं। यह जल चंद्रमा को हमारे भाव समर्पित करने का एक माध्यम है। वैसे भी हर पूजा में कलश को गणेशजी के रूप में स्‍थापित किया जाता है। ( ७ ) : - थाली है शुभ पूजा की सामग्री, दीये, फल और जल से भरा लोटा रखने के लिए जरूरी होती है एक थाली की। इसी में दीपक रखकर मां करवा की आरती उतारते हैं। सच्चे मन से माता से आशीर्वाद मांगें। करवा चौथ व्रत के नियम ~~~~~~~~~~~~~~~ महिलाएं सुबह सूर्योदय के बाद पूरे दिन भूखी-प्यासी रहती हैं. दिन में शिव, पार्वती और कार्तिक की पूजा की जाती है. शाम को देवी की पूजा होती है, जिसमें पति की लंबी उम्र की कामना की जाती है. चंद्रमा दिखने पर महिलाएं छलनी से पति और चंद्रमा की छवि देखती हैं. पति इसके बाद पत्नी को पानी पिलाकर व्रत तुड़वाते हैं। करवा चौथ में सोलह श्रृंगार ~~~~~~~~~~~~~~~~ इस दिन महिलाएं सोलह श्रृंगार करती हैं। सोलह श्रृंगार में माथे पर लंबी सिंदूर अवश्य हो क्योंकि यह पति की लंबी उम्र का प्रतीक है। सिन्दूर,मंगलसूत्र, मांग टीका, बिंदिया ,काजल, नथनी, कर्णफूल, मेहंदी, कंगन, लाल रंग की चुनरी, बिछिया, पायल, कमरबंद, अंगूठी, बाजूबंद और गजरा ये 16 श्रृंगार में आते हैं। करवा चौथ व्रत विधि ~~~~~~~~~~~~~ व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें- "मम सुख सौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये।'' * दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। * आठ पूरियों की अठावरी बनाएं। हलुआ बनाएं। पक्के पकवान बनाएं। * पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं। * गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें। * जल से भरा हुआ लोटा रखें। * वायना (भेंट) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवा में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें। उसके ऊपर दक्षिणा रखें। * रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाएं। * गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें। पति की दीर्घायु की कामना करें। "नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्‌। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥' * करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें। * कथा सुनने के बाद अपनी सासुजी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। * तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। * रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें। * इसके बाद पति से आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। बाकी व्रत रखने की सबकी आपनी-अपनी परम्परायें और विधि है, आप अपनी कुल परम्परा के अनुसार पूजा करें I जब चंद्र को अर्घ्य दें तो यह मंत्र बोलें.... "करकं क्षीरसंपूर्णा तोयपूर्णमयापि वा। ददामि रत्नसंयुक्तं चिरंजीवतु मे पतिः॥" ।। ॐ_सोम_सोमाय_नम:॥" करवा चौथ व्रत कथा ~~~~~~~~~~~ बहुत समय पहले इन्द्रप्रस्थपुर के एक शहर में वेदशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वेदशर्मा का विवाह लीलावती से हुआ था जिससे उसके सात महान पुत्र और वीरावती नाम की एक गुणवान पुत्री थी। क्योंकि सात भाईयों की वीरावती केवल एक अकेली बहन थी जिसके कारण वह अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने भाईयों की भी लाड़ली थी। जब वह विवाह के लायक हो गयी तब उसकी शादी एक उचित ब्राह्मण युवक से हुई। शादी के बाद वीरावती जब अपने माता-पिता के यहाँ थी तब उसने अपनी भाभियों के साथ पति की लम्बी आयु के लिए करवा चौथ का व्रत रखा। करवा चौथ के व्रत के दौरान वीरावती को भूख सहन नहीं हुई और कमजोरी के कारण वह मूर्छित होकर जमीन पर गिर गई। सभी भाईयों से उनकी प्यारी बहन की दयनीय स्थिति सहन नहीं हो पा रही थी। वे जानते थे वीरावती जो कि एक पतिव्रता नारी है चन्द्रमा के दर्शन किये बिना भोजन ग्रहण नहीं करेगी चाहे उसके प्राण ही क्यों ना निकल जायें। सभी भाईयों ने मिलकर एक योजना बनाई जिससे उनकी बहन भोजन ग्रहण कर ले। उनमें से एक भाई कुछ दूर वट के वृक्ष पर हाथ में छलनी और दीपक लेकर चढ़ गया। जब वीरावती मूर्छित अवस्था से जागी तो उसके बाकी सभी भाईयों ने उससे कहा कि चन्द्रोदय हो गया है और उसे छत पर चन्द्रमा के दर्शन कराने ले आये। वीरावती ने कुछ दूर वट के वृक्ष पर छलनी के पीछे दीपक को देख विश्वास कर लिया कि चन्द्रमा वृक्ष के पीछे निकल आया है। अपनी भूख से व्याकुल वीरावती ने शीघ्र ही दीपक को चन्द्रमा समझ अर्घ अर्पण कर अपने व्रत को तोड़ा। वीरावती ने जब भोजन करना प्रारम्भ किया तो उसे अशुभ संकेत मिलने लगे। पहले कौर में उसे बाल मिला, दुसरें में उसे छींक आई और तीसरे कौर में उसे अपने ससुराल वालों से निमंत्रण मिला। पहली बार अपने ससुराल पहुँचने के बाद उसने अपने पति के मृत शरीर को पाया। अपने पति के मृत शरीर को देखकर वीरावती रोने लगी और करवा चौथ के व्रत के दौरान अपनी किसी भूल के लिए खुद को दोषी ठहराने लगी। वह विलाप करने लगी। उसका विलाप सुनकर देवी इन्द्राणी जो कि इन्द्र देवता की पत्नी है, वीरावती को सान्त्वना देने के लिए पहुँची। वीरावती ने देवी इन्द्राणी से पूछा कि करवा चौथ के दिन ही उसके पति की मृत्यु क्यों हुई और अपने पति को जीवित करने की वह देवी इन्द्राणी से विनती करने लगी। वीरावती का दुःख देखकर देवी इन्द्राणी ने उससे कहा कि उसने चन्द्रमा को अर्घ अर्पण किये बिना ही व्रत को तोड़ा था जिसके कारण उसके पति की असामयिक मृत्यु हो गई। देवी इन्द्राणी ने वीरावती को करवा चौथ के व्रत के साथ-साथ पूरे साल में हर माह की चौथ को व्रत करने की सलाह दी और उसे आश्वासित किया कि ऐसा करने से उसका पति जीवित लौट आएगा। इसके बाद वीरावती सभी धार्मिक कृत्यों और मासिक उपवास को पूरे विश्वास के साथ करती। अन्त में उन सभी व्रतों से मिले पुण्य के कारण वीरावती को उसका पति पुनः प्राप्त हो गया। राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩
. *कार्तिक माहात्म्य* *अध्याय–05* 🎋🎋🎋🎋🎋🎋🎋🎋🎋🎋🎋🎋 *राजा पृथु बोले–‘हे नारद जी! आपने कार्तिक मास में स्नान का फल कहा, अब अन्य मासों में विधि पूर्वक स्नान करने की विधि, नियम और उद्यापन की विधि भी बतलाइये।’ देवर्षि नारद ने कहा–‘हे राजन्! आप भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए हैं, अत: यह बात आपको ज्ञात ही है फिर भी आपको यथाचित विधान बतलाता हूँ। आश्विन माह में शुक्लपक्ष की एकादशी से कार्तिक के व्रत करने चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जल का पात्र लेकर गाँव से बाहर पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जाना चाहिए। दिन में या सांयकाल में कान में जनेऊ चढ़ाकर पृथ्वी पर घास बिछाकर सिर को वस्त्र से ढककर मुँह को भली-भाँति बन्द करके थूक व सांस को रोककर मल व मूत्र का त्याग करना चाहिए। तत्पश्चात मिट्टी व जल से भली-भाँति अपने गुप्ताँगों को धोना चाहिए। उसके बाद जो मनुष्य मुख शुद्धि नहीं करता, उसे किसी भी मन्त्र का फल प्राप्त नहीं होता है। अत: दाँत और जीभ को पूर्ण रूप से शुद्ध करना चाहिए और निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए दातुन तोड़नी चाहिए। ‘हे वनस्पतये! आप मुझे आयु, कीर्ति, तेज, प्रज्ञा, पशु, सम्पत्ति, महाज्ञान, बुद्धि और विद्या प्रदान करो।’ इस प्रकार उच्चारण करके वृक्ष से बारह अंगुल की दांतुन ले, दूध वाले वृक्षों से दांतुन नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार कपास, काँटेदार वृक्ष तथा जले हुए वृक्ष से भी दांतुन लेना मना है। जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऐसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिए। प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, छठी, रविवार को, चन्द्र तथा सूर्यग्रहण में दांतुन नहीं करनी चाहिए। तत्पश्चात भली-भाँति स्नान करके फूलमाला, चन्दन और पान आदि पूजा की सामग्री लेकर प्रसन्नचित्त व भक्ति पूर्वक शिवालय में जाकर सभी देवी-देवताओं की अर्ध्य, आचमनीय आदि वस्तुओं से पृथक-पृथक पूजा करके प्रार्थना एवं प्रणाम करना चाहिए फिर भक्तों के स्वर में स्वर मिलाकर श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिए। मन्दिर में जो गायक भगवान श्रीहरि का कीर्तन करने आये हों उनका माला, चन्दन, ताम्बूल आदि से पूजन करना चाहिए क्योंकि देवालयों में भगवान विष्णु को अपनी तपस्या, योग और दान द्वारा प्रसन्न करते थे परन्तु कलयुग में भगवद गुणगान को ही भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन माना गया है।’ नारद जी राजा पृथु से बोले–‘हे राजन! एक बार मैंने भगवान से पूछा कि हे प्रभु! आप सबसे अधिक कहाँ निवास करते हैं ? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा।’ भगवान् ने कहा–‘हे नारद! मैं वैकुण्ठ या योगियों के हृदय में ही निवास नहीं करता अपितु जहाँ मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहाँ अवश्य निवास करता हूँ। जो मनुष्य चन्दन, माला आदि से मेरे भक्तों का पूजन करते हैं उनसे मेरी ऐसी प्रीति होती है जैसी कि मेरे पूजन से भी नहीं हो सकती।’ नारदजी ने फिर कहा–‘शिरीष, धतूरा, गिरजा, चमेली, केसर, कन्दार और कटहल के फूलों व चावलों से भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए। अढ़हल, कन्द, गिरीष, जूही, मालती और केवड़ा के पुष्पों से भगवान शंकर की पूजा नहीं करनी चाहिए। जिन देवताओं की पूजा में जो फूल निर्दिष्ट हैं उन्हीं से उनका पूजन करना चाहिए। पूजन समाप्ति के बाद भगवान से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए। यथा–‘हे सुरेश्वर, हे देव! न मैं मन्त्र जानता हूँ, न क्रिया, मैं भक्ति से भी हीन हूँ, मैंने जो कुछ भी आपकी पूजा की है उसे पूरा करें।’ ऐसी प्रार्थना करने के पश्चात साष्टांग प्रणाम कर के भगवद कीर्तन करना चाहिए। श्रीहरि की कथा सुननी चाहिए और प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं वह जगत के सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त करते हैं।’ ॥जय जय श्री हरि॥ ॥ राणा जी खेड़ांवाली॥ #🕉️सनातन धर्म🚩 #श्री हरि
*राजा और ब्राह्मण* 🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂 किसी गांव में एक गरीब ब्राहमण रहता था. वह लोगों के घरों में पूजा पाठ कर के अपनी जीविका चलाता था. एक दिन एक राजा ने इस ब्राहमण को पूजा के लिए बुलवाया. ब्राहमण ख़ुशी ख़ुशी राजा के यहाँ चला गया. जब ब्राहमण अपने घर को आने लगा तो राजा ने ब्राहमण से पूछा- आप ईश्वर की बातें करते हैं. पूजा- अर्चना से ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हैं. बताइए, ईश्वर कहाँ रहता है, किधर देखता है और क्या करता है ? ब्राहमण ने कुछ सोचने के बाद राजा से कहा- महाराज मुझे कुछ समय चाहिए इस सवाल का उत्तर देने के लिए. राजा ने एक महीने का समय दिया. एक महीने बाद आकर इस सवाल का उत्तर दे जाना. ब्राहमण इसका उत्तर सोचता रहा और घर की ओर चलता रहा परन्तु उसके कुछ समझ नहीं आ रहा था. समय बीतने के साथ साथ ब्राहमण की चिंता भी बढ़ने लगी और ब्राहमण उदास रहने लगा. ब्रह्ममण का एक बेटा था जो काफी होशियार था उसने अपने पिता से उदासी का कारण पूछा. ब्राहमण ने बेटे को बताया कि राजा ने उस से एक सवाल का जवाब माँगा है कि ईश्वर कहाँ रहता है, किधर देखता है और क्या करता है ? मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है. बेटे ने कहा-पिता जी आप मुझे राजा के पास ले चलना. उनके सवालों का जवाब मैं दूंगा. . ठीक एक महीने बाद ब्राह्मण अपने बेटे को साथ लेकर राजा के पास गया और बोला आप के सवालों के जवाब मेरा बेटा देगा. राजा ने ब्राहमण के बेटे से पूछा बताओ ईश्वर कहाँ रहता है ? ब्राहमण के बेटे ने कहा- राजन ! पहले अतिथि का आदर सत्कार किया जाता है. आपने तो बिना आतिथ्य किए ही प्रश्न पूछना शुरू कर दिया है. राजा इस बात पर कुछ लज्जित हुए और अतिथि के लिए दूध लाने का आदेश दिया. दूध का गिलास आया. लड़के ने गिलास हाथ में पकड़ा और दूध में अंगुली डालकर घुमाकर बार बार दूध को बाहर निकाल कर देखने लगा. राजा ने पूछा ये क्या कर रहे हो ? लड़का बोला- सुना है दूध में मक्खन होता है. मैं वही देख रहा हूं कि दूध में मक्खन कहाँ है ? आपके राज्य के दूध में तो मक्खन ही गायब है. राजा ने कहा दूध में मक्खन होता है, परन्तु वह ऐसे दिखाई नहीं देता. दूध को जमाकर दही बनाया जाता है. फिर दही को मथते हैं तब जाकर मक्खन प्राप्त होता है. ब्राहमण के बेटे ने कहा- महाराज यही आपके सवाल का जवाब है. परमात्मा प्रत्येक जीव के अन्दर विद्यमान है. उसे पाने के लिए नियमों का अनुष्ठान करना पड़ता है. मन से ध्यानपूर्वक अभ्यास से आत्मा में छुपे हुए परम देव पर आत्मा के निवास का आभास होता है. जवाब सुन कर राजा खुश हुआ ओर कहा अब मेरे दूसरे सवाल का जवाब दो, ईश्वर किधर देखता है ? ब्राहमण के बेटे ने तुरंत एक मोमबत्ती मगाई और उसे जलाकर राजा से बोला- महाराज यह मोमबत्ती किधर रोशनी करती है ? राजा ने कहा इसकी रोशनी चारों तरफ है. लड़के ने कहा यह ही आप के दूसरे सवाल का जवाब है. परमात्मा सर्वदृष्टा है और सभी प्राणियों के कर्मों को देखता है. राजा ने खुश होते हुए कहा कि अब मेरे अंतिम सवाल का जवाब दो कि परमात्मा क्या करता है ? ब्राहमण के बेटे ने पूछा- यह बताइए कि आप इन सवालों को गुरु बनकर पूछ रहे हैं या शिष्य बन कर ? राजा थोड़े विनम्र होकर बोल- मैं यह प्रश्न शिष्य बनकर पूछ रहा हूं. यह सुनकर लड़के ने कहा- वाह महाराज ! आप भले शिष्य हैं. गुरु नीचे जमीन पर और शिष्य सिंहासन पर विराजमान है. धन्य है महाराज आप को और आप के शिष्टचार को. यह सुनकर राजा लज्जित हुए. अपने सिहासन से नीचे उतरे और ब्राहमण बेटे को सिंहासन पर बैठा कर पूछा- अब बताइए ईश्वर क्या करता है ? जवाब मिला- अब क्या बतलाना रह गया है ! ईश्वर यही करता है, राजा को रंक और रंक को राजा बना देता है. राजा ने उस ब्राहमण के पुत्र को अपना सलाहकार बना लिया. ।। जय श्री कृष्ण ।। ।। राणा जी खेड़ांवाली।। #🕉️सनातन धर्म🚩
*बुद्ध-अवतार* *( नोट - विष्णु के बुद्ध अवतार पर कुछ विवाद है फिर भी जानकारी के लिए पढ़ें )* *श्रीबुद्ध अवतार* 🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁 एक बार दैत्यों ने इंद्र से पूछा कि किस काम को करने से हमारा राज्य स्थिर रह सकता है। इंद्र ने शुद्ध भाव से उत्तर दिया कि तुम लोग यज्ञ और वेद विहित आचार करो । तब दैत्यों ने भी यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ कर दिया । परन्तु स्वभाव से तमोगुणी होने के कारण उनके सभी धर्म-कर्म, यज्ञ-व्रत, दान तमो बहुल होते थे और उनकी देखा-देखी और लोग भी वैसा ही करने लगे थे। अतः सर्वथा अनाधिकारी, तमोगुणी, देशद्रोही दैत्यों को मोहित कर विहित यज्ञों से विरत करने के लिये द्वापरयुग के अंत में भगवान ने गया में राजा शुद्धोदन की पत्नी माया से बुद्ध अवतार लिया । गौतम गोत्र होने से गौतम नाम ही पड़ा। श्रीमद्भागवतजी में भी श्रीब्रह्माजी ने नारदजी से कहा है कि देवताओं के शत्रु दैत्यगण जब वेदमार्ग का सहारा लेकर वेदमार्ग में स्थित रहकर मय-दानव के बनाये हुए अदृश्य अलक्षित गति वाले पुरों में रहकर लोगों को नष्ट करेंगे तब भगवान उनकी बुद्धि में मोह और लोभ उत्पन्न करने वाला बुद्ध-भेष धारणकर उन्हें कितने ही उपधर्मों का उपदेश करेंगे । श्री अक्रूरजी ने भी बुद्धजी को दैत्य-दानव मोहिने विशेषण दिया है । श्रीबुद्धजी का बचपन का नाम सिद्धार्थ था । ये स्वभाव से बड़े दयावान थे । किसी का भी किंचित मात्र भी दुःख देख लेते तो विह्वल हो जाते । यही कारण है कि उनके पिता राजा शुद्धोदन की ओर से राज्य में ऐसी व्यवस्था थी कि कोई दुःखमय प्रसङ्ग इनके दृष्टिपथ में न आने पाये। परन्तु यह सब होने पर भी दैवयोग से एक दिन सहसा एक रुग्ण पुरुष को, कुछ ही दिन बाद एक अत्यंत वृद्ध पुरुष को, पश्चात एक मृतक को देखकर इनकी आत्मा सिहर उठी और उसी दिन से ये जगत से उदास हो गये । इनकी यह उदासीनता माता-पिता को खली और इन्हें जगत प्रपंच में फँसाने के लिए अत्यन्त रूपवती यशोधरा नाम की कन्या से विवाह कर दिया और समय पर सिद्धार्थ के राहुल नाम का एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ । परन्तु उदासीनता मिटी नहीं बल्कि बढ़ती ही गई । परिणाम स्वरुप अपनी प्रिय पत्नी यशोधरा, नवजात पुत्र राहुल, स्नेह मूर्ति पिता महाराज शुद्धोदन तथा वैभव संपन्न राज्य इन सब को ठुकराकर युवावस्था में ही गौतम घर से निकल पड़े । केवल तर्कपूर्ण बौद्धिक ज्ञान उन्हें संतुष्ट करने में समर्थ नहीं था । उन्हें तो रोग पर, बुढ़ापे पर और मृत्यु पर विजय पाने थी । उन्हें शाश्वत जीवन अमृत अभीष्ट था । प्रख्यात विद्वानों, उद्भट शास्त्रज्ञों के समीप भी गये किन्तुं वहाँ उनको संतोष नहीं हुआ । आश्रमों से विद्वानों से निराश होकर वे गया के समीप वन में आये और तपस्या करने लगे । जाड़ा, गर्मी और वर्षा में भी बुद्धजी वृक्ष के नीचे अपनी वेदिका पर स्थिर बैठे रहे । सब प्रकार का आहार बन्द कर दिया था । दीर्घकालीन तपस्या के कारण उनके शरीर का मांस पर रक्त सूख गया, केवल हड्डियां नशे और चर्म ही शेष रहा । गौतम का धैर्य अविचल था । कष्ट क्या है इसे वे अनुभव ही नहीं करते थे । किन्तु उन्हें अपना अभीष्ट प्राप्त नहीं हो रहा था । सिद्धियां मंडराती, परन्तु एक सच्चे साधक, सच्चे मुमुक्षु के लिए सिद्धियां बाधक है अतः गौतम ने उन पर दृष्टिपात ही नहीं किया । एक दिन जहां गौतम तपस्या कर रहे थे उस स्थान के समीप के मार्ग से कुछ स्त्रियां गाते-बजाते निकलीं । व्हिच गौतम की तपोभूमि के पास पहुँचीं । तब एक गीत गा रही थीं । जिसका आशय था " सितार के तारों को ढीला मत छोड़ो नहीं तो वे बेसुरे हो जायेंगे परन्तु उन्हें इतना खींचो भी मत की वे टूट जायें " गौतम के कानों में वह संगीत ध्वनि पड़ी । उनकी प्रज्ञा में सहसा प्रकाश आ गया- 'साधना के लिए केवल कठिन तपस्या ही उपयुक्त नहीं है, संयमित भोजन एवं नियमित निद्रादि व्यवहार भी आवश्यक है । इस प्रकार सम्यक बोध प्राप्त कर लेने पर गौतम का नाम 'गौतम बुद्ध' पड़ा। तत्वज्ञान होने के बाद भगवान बुद्ध वाराणसी चले आये अपना सर्वप्रथम उपदेश 'सारनाथ' में दिया । उपदेश- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रम्हचर्य, नृत्य गानादि त्याग, सुगंध माला त्याग, असमय भोजन त्याग, कोमल शय्या त्याग, कामिनी-कंचन का त्याग, ये दस सूत्र आपने दुःख उन्मूलन एवं निर्वाण प्राप्ति में परमोपयोगी बताये हैं । धमर्मं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि। यह बुद्धजी का शरणागति मंत्र है । श्री गौतम बुद्ध के अंदर अद्भुत शांति, सहनशीलता और जीवों के प्रति दया थी । एक बार भरद्वाज नाम का एक व्यक्ति भगवान बुद्ध से दीक्षा लेकर भिक्षु हो गया । उसका एक सम्बन्धी इससे अत्यंत क्षुब्ध होकर बुद्धजी के समीप पहुँचा और उन्हें अपशब्द कहने लगा । बुद्धदेव देव तो ठहरे देवता के समान ही वे शांत और मौन बने रहे । अब बुद्ध जी ने पूछा क्यों भाई ! तुम्हारे घर कभी अतिथि आते हैं ? उसे उत्तर दिया- "आते तो हैं ।" बुधदेवजी ने पूछा, " तुम उनका सत्कार करते हो ।" वह खीझकर बोला " अतिथि का सत्कार कौन मूर्ख नहीं करेगा ।" बुद्धजी बोले, " मान लो कि तुम्हारी अर्पित वस्तुएँ अतिथि स्वीकार न करें, तू वे कहां जायेंगी ।" उसने ने फिर झुंझलाकर कहा, " वह जायेंगी कहाँ, अतिथि उन्हें नहीं लेगा तो वह मेरे पास आ जायेंगी ।" बुद्ध ने शांति से कहा- तुम्हारी दी हुई क्या बात गालियाँ मैं स्वीकार नहीं करता अब यह गालियाँ कहाँ जायेंगी ? " किसके पास रहेंगी ? " उसका मस्तक लज्जा से झुक गया । उसने भगवान बुद्ध से क्षमा माँगी । भगवान बुद्ध का एक पूर्ण नामक शिष्य उनके समीप एक दिन आया और उसने तथागत से धर्मोपदेश करके 'सुनापरान्त' प्रान्त में धर्म प्रचार के लिए जाने की आज्ञा मांगी । तथागत ने कहा- 'प्रांत के लोग तो अत्यंत कठोर तथा बहुत क्रूर हैं । वह तुम्हें गाली देंगे, तुम्हारी निन्दा करेंगे, तो तुम्हें कैसा लगेगा ? पूर्ण बोले- भगवन ! मैं समझूंगा कि वे लोग बहुत बड़े लोग हैं, क्योंकि वह हमें थप्पड़ घुसे तो नहीं मारते ।' बुद्ध बोले- 'यदि वे तुम्हें थप्पड़ और घूँसे मारने लगे तो ? पूर्ण बोले- 'मुझे पत्थर डंडों से तो नहीं पीटते, इससे मैं सत्पुरुष मानूँगा ।' बुद्ध बोले- 'वे पत्थर- डंडों से भी पीट सकते हैं ।' पूर्ण बोले- 'वे शस्त्र-प्रहार तो नहीं करते, इससे वे दयालु हैं- ऐसा मानूँगा ।' बुद्ध बोले - 'यदि वे शस्त्र-प्रहार करें ?' पूर्ण बोले- 'मुझे वे मार नहीं डालते, इससे मुझे उनकी कृपा दिखेगी ।' बुद्ध बोले- 'ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे तुम्हारा वध नहीं करेंगे ।' पूर्ण बोले- भगवन् ! यह संसार दुःख रूप है । यह शरीर रोगों का घर है । आत्मघात पाप है, इसलिए जीवन धारण करना पड़ता है । यदि 'सुनापरान्त ( सीमा प्रान्त ) के लोग मुझे मार डाले तो मुझ पर वे उपकार ही करेंगे । वे लोग बहुत अच्छे सिद्ध होंगे ।' भगवान बुद्ध प्रसन्न होकर बोले- पूर्ण !' जो किसी दशा में किसी को भी दोषी नहीं देखता, वही सच्चा साधु है । तुम अब चाहे जहाँ जा सकते हो, धर्म सर्वत्र तुम्हारी रक्षा करेगा ।' बुद्ध जी की अद्भुत उपदेश शैली ~~~~~~~~~~~~~~~~~~ गौतमी का प्यारा इकलौता पुत्र मर गया । उसको बहुत बड़ा शौक हुआ । वह पगली-सी हो गयी और पुत्र की लाश को छाती से चिपकाकर 'कोई दवा दो' 'कोई मेरे बच्चे को अच्छा कर दो' एवं प्रकारेण चिल्लाती हुई इधर-उधर दौड़ने लगी । लोगों ने बहुत समझाया, परंतु उसकी समझ में कुछ नहीं आया । उसकी बड़ी दयनीय स्थिति देखकर एक सज्जन ने उसे भगवान बुद्ध के पास यह कहकर भेज दिया कि- 'तुम सामने कि बिहार में भगवान के पास जा कर दवा माँगो, वह निश्चय ही तुम्हारा दुख मिटा देंगे ।' गौतमी दौड़ी हुई गयी और बच्चे को जलाने के लिए भगवान बुद्ध से रो-रो कर प्रार्थना करने लगी । भगवान ने कहा- बड़ा अच्छा किया, तुम यहाँ आ गयीं । बच्चे को मैं वापस जिंदा कर दूंगा । तुम जाकर जिसके घर में कोई भी आज तक मरा नहीं हो, उससे कुछ सरसों के दाने मांग लावो ।' गौतमी बच्चे की लाश को छाती से चिपकाए दौड़ी और लोगों से सरसों के दाने माँगने लगीं, जब किसी ने देना चाहा, तब उसने कहा- 'तुम्हारे घर में आज तक कोई मरा तो नहीं है न ? मुझे उसी से सरसों लेनी है जिसके घर में कोई मरा नहीं हूं उसकी इस बात को सुनकर घरवालों ने कहा- 'भला ऐसा भी कोई घर होगा जिसमे कोई आज तक मरा नहीं हो ।' मनुष्य तो हर घर में मरते ही हैं । वह घर-घर फिरी पर सभी जगह एक ही जवाब मिला । तब उसकी समझ में आया कि मरना तो हर घर का रिवाज है । जो जन्मता है, वह मरता भी है । मृत्यु किसी भी उपाय से टलती नहीं । टलती होती तो क्यों कोई अपने प्यारे को मरने देता ? एक घर में ही नहीं जगत भर में सभी जगह मृत्यु का विस्तार है । बस जब यह बात ठीक-ठीक समझ में आ गयी तब उसने बच्चे की लाश को ले जाकर श्मशान में गाड़ दिया और लौटकर भगवान बुद्ध से सारी बात कह दी । भगवान ने उसे फिर समझाया कि देखो- यहाँ जो जन्म 'लेता है उसे मरना पड़ेगा । यह निश्चय है । जैसे हमारे घर के मरते हैं, वैसे हम भी मर जायेंगे । इसलिए मृत्यु का शोक न करके उस स्थिति की चिंता करनी चाहिए, जिसमें पहुँच जाने पर जन्म ही न हो । जन्म में होगा तो मृत्यु आप ही मिट जायेगी । बस समझदार व्यक्ति को यही करना चाहिये ।' राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #श्री हरि
*आनन्दरामायणम्* *श्रीसीतापतये नमः* *श्रीवाल्मीकि महामुनि कृत शतकोटि रामचरितान्तर्गतं ('ज्योत्स्ना' हृया भाषा टीकयाऽटीकितम्)* *(सारकाण्डम्) नवम सर्गः* 🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾 *(राम का दण्डकवन में प्रवेश)...* 🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹 सिंह के समान महाबलवान् और नखों तथा दाँतों से लड़ने वाले वानर आकर लंका में प्रवेश नहीं करते, उसके पहले ही तू सीता को ले जाकर राम को दे दे । दे दे ॥ १६५ ॥ अब तुझे राम जीवित नहीं छोड़ेंगे। चाहे तेरी रक्षा सुरेंद्र करें, चाहे शंकर करें, चाहे तू अपना प्राण बचाने के लिये देवराज की शरण में जा। चाहे यमलोक या पाताल लोक में जाकर छिप, चाहे कुछ कर ले ॥ १६६ ॥ किन्तु उस दुष्ट रावण ने हनुमानु की शुभ, हितकारी तथा पवित्र बात कों नहीं माना। जैसे मुमूषु पुरुष औषधि नहीं खाता ।। १६७ ।। रावण ने हनुमान्‌ की बात सुनकर कहा कि मैंने सब देवताओं को जीत लिया है। मेरे पुरुषार्थ को तू नहीं जानता। इसीलिये व्यर्थ बकवास कर रहा है। सुन, मैं तुझे कुछ सुनाता हूँ। देख, ब्रह्मा को मैने पञ्चाङ्ग पाठक बना दिया है ॥ १६८ ॥ १६९ ॥ सूर्य को प्रतिहारी, चन्द्रमा को छत्रधारी, वरुण-को जल भरने वाला, पवन को झाडू लगाने वाला, अग्नि को धोबी, शचीपति इंद्र को माली, दण्डधारी यमराज को द्वार पाल, देवताओं की स्त्रियों को दासिया, मार्तण्ड को नाई, गणपति को गधों का रक्षक सईस और मंगल-बुध आदि सातों ग्रहों को मैंने अपने आसन की सीढ़ियें बना लिया है। षष्ठी देवी कात्यायनी को मैने बच्चों को खेलाने वाली बाई बनाया है। कैलास को मैने हो हिलाया था। कुबेर को भी मैंने जीत लिया है ॥१७०-१७३॥ हे प्लवङ्गमों में अधम वानर ! त मेरे आगे क्यों वृथा प्रलाप करता है? तू बड़ा ही मूर्ख दीखता है। अरे। वनवासी राम मेरे सामने क्या चीज है। मनुष्यों मे नीच राम को तो सुग्रीव सहित में मार ही डालूँगा ।। १७४ ।। इतना कहकर दशानन रावण बीच सभा में उनको मारने दौड़ा।। ।। तब विभीषण ने उसको रोककर कहा कि दूसरे के दूत को मारना अन्याय है। पश्चात् लोगों को रुलाने वाले रावण ने कोप करके सिपाहियों को आज्ञा दी कि इस बानर की पूछ काट डालो। रावण की आशा पाकर हजारों राक्षस अपने-अपने कुल्हाड़ों और ऋच (आरा) आदि हथियारों से उनकी पूछ काटने लगे। इसी समय हनुमानुजी ने तनिक अपनी पूछ हिला दी। उसके हिलनेमात्र से उन हथियारों के सैकड़ों टुकड़े होकर गिर पड़े ॥१७५-१७८॥ वे चूर-चूर हो गये, परन्तु हनुमानजी का बाल भी बाँका नहीं हुआ। यह देखकर दशानन मारुति से कहने लगा ॥ १७६ ॥ वीर पुरुष अपनो मृत्यु के उपाय को भी छिपाकर नहीं रखते। इसलिए साफ-साफ बता दे कि तेरी पूछ किस उपाय से नष्ट होगी ॥१८०॥ क्रमशः... जय सिया राम🙏 राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #🎶जय श्री राम🚩 #🙏श्री राम भक्त हनुमान🚩 #🙏रामायण🕉
*श्रृंगी ऋषि कौन थे?* 📒📒📒📒📒📒📒📒📒📒📒📒 उन दिनों देवता व अप्सरायें पृथ्वी लोक में आते-जाते रहते थे। बस्ती मण्डल में हिमालय का जंगल दूर-दूर तक फैला हुआ करता था। जहां ऋषियों व मुनियों के आश्रम हुआ करते थे। आबादी बहुत ही कम थी। आश्रमों के आस-पास सभी हिंसक पशु-पक्षी हिंसक वृत्ति और वैर-भाव भूलकर एक साथ रहते थे। परम पिता ब्रहमा के मानस पुत्र महर्षि कश्यप थे। उनके पुत्र महर्षि विभाण्डक थे। वे उच्च कोटि के सिद्ध सन्त थे। पूरे आर्यावर्त में उनको बड़े श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उनके तप से देवतागण भयभीत हो गये थे। इन्द्र को अपना सिंहासन डगमगाता हुआ दिखाई दिया था। महर्षि की तपस्या भंग करने के लिए उन्होंने अपने प्रिय अप्सरा उर्वशी को भेजा था। जिसके प्रेमपाश में पड़कर महर्षि का तप खंडित हुआ और दोनों के संयोग से बालक श्रृंगी का जन्म हुआ। पुराण में श्रृंगी को इन दोनों का संतान कहा गया है। बालक के मस्तक पर एक सींग था। अतः उनका नाम श्रृंगी पड़ा । बालक को जन्म देने के बाद उर्वशी का काम पूरा हो गया और वह स्वर्गलोक वापस लौट गई। इस धोखे से विभाण्डक इतने आहत हुए कि उन्हें नारी जाति से ही घृणा हो गई। वे क्रोधित रहने लगे तथा लोग उनके शाप से बहुत डरने लगे थे। उन्होंने अपने पुत्र को मां, बाप तथा गुरू तीनों का प्यार दिया और तीनों की कमी पूरी की। उस आश्रम में किसी भी नारी का प्रवेश वर्जित था। वे अपने पूरे मनोयोग से बालक का पालन पोषण किये थे। बालक अपने पिता के अलावा अन्य किसी को जानता तक नहीं था। सांसारिक वृत्तियों से मुक्त यह आश्रम साक्षात् स्वर्ग सा लगता था। शक्ति और रूप अपनी अप्रत्याशित मण्डनहीन ताजगी में बालक श्रृंगी को अभिसिंचित कर रहे थे। यह आश्रम मनोरमा जिसे सरस्वती भी कहा जाता था, के तट पर स्थित था। एक अन्य जनश्रुति कथा के अनुसार एक बार महर्षि विभाण्डक इन्द्र के प्रिय अप्सरा उर्वशी को देखते ही उस पर मोहित हो गये तथा नदी में स्नान करते समय उनका वीर्यपात हुआ। एक शापित देवकन्या मृगी के रूप में वहां विचरण कर रही थी। उसने जल के साथ वीर्य को ग्रहण कर लिया । इससे एक बालक का जन्म हुआ उसके सिर पर सींग उगे हुए थे। उस विचित्र बालक को जन्म देकर वह मृगी शापमुक्त होकर स्वर्ग लोक चली गई। उस आश्रम में कोई तामसी वृत्ति नहीं पायी जाती थी। महर्षि विभाण्डक तथा नव ज्वजल्यमान बालक श्रृंगी का आश्रम अंग देश से लगा हुआ था। देवताओं के छल से आहत महर्षि विभाण्डक तप और क्रोध करने लगे थे।जिसके कारण उन दिनों वहां भयंकर सूखा पड़ा था। अंग के राजा रोमपाद ( चित्ररथ ) ने अपने मंत्रियों व पुरोहितों से मंत्रणा किया। ऋषि श्रृंगी अपने पिता विभाण्डक से भी अधिक तेजवान एवं प्रतिभावान बन गये। उसकी ख्याति दिग-दिगन्तर तक फैल गई थी। अंगराज को सलाह दिया गया कि महर्षि श्रृंगी को अंग देश में लाने पर ही अंग देश का अकाल खत्म होगा। एक बार महर्षि विभाण्डक कहीं बाहर गये थे । अवसर की तलाश में अंगराज थे। उन्होंने श्रृंगी ऋषि को रिझाने के लिए देवदासियों तथा सुन्दिरियों का सहारा लिया और उन्हें वहां भेज दिया। उनके लिए गुप्त रूप में आश्रम के पास एक शिविर भी लगवा दिया था। त्वरित गति से उस आश्रम में सुन्दरियों ने तरह-तरह के हाव-भाव से श्रृंगी को रिझाने लगी। उन्हें तरह-तरह के खान-पान तथा पकवान उपलब्ध कराये गये। श्रृंगी इन सुन्दरियों के गिरफ्त में आ चुके थे। महर्षि विभाण्डक के आने के पहले वे सुन्दरियां वहा से पलायन कर चुकी थीं। श्रृंगी अब चंचल मन वाले हो गये थे। पिता के कहीं वाहर जाते ही वह छिपकर उन सुन्दिरियों के शिविर में स्वयं पहुच जाते थे। सुन्दरियों ने श्रृंगी को अपने साथ अंग देश ले लाने मे सफल हुई। वहां उनका बड़े हर्श औेर उल्लास से स्वागत किया गया। श्रृंगी ऋषि के पहुचते ही अंग देश में वर्षा होने लगी। सभी लोग अति आनन्दित हुए। अपने आश्रम में श्रृंगी को ना पाकर महर्षि विभाण्डक को आश्चर्य हुआ। उन्होने अपने योग के बल से सब जानकारी प्राप्त कर लिया। अपने पुत्र को वापस लाने तथा अंग देश के राजा को दण्ड देने के लिए महर्षि विभाण्डक अपने आश्रम से अंग देश के लिए निकल पड़े । अंगदेश के राजा रोमपाद तथा दशरथ दोनों मित्र थे। महर्षि विभाण्डक के शाप से बचने के लिए रोमपाद ने राजा दशरथ की कन्या शान्ता को अपनी पोश्या पुत्री का दर्जा प्रदान करते हुए जल्दी से श्रृंगी ऋषि से उसकी शादी कर दिये। महर्षि विभाण्डक को देखकर एक योजना के तहत अंगदेश के वासियों ने जोर-जोर से शोर मचाना शुरू किया कि ’इस देश के राजा महर्षि श्रृंगी है।’ पुत्र को पुत्रवधू के साथ देखने पर महर्षि विभाण्डक का क्रोध दूर हो गया और उन्होंने अपना विचार बदलते हुए बर वधू के साथ राजा रोमपाद को भी आशीर्वाद दिया। पुत्र व पुत्रवधू को साथ लेकर महर्षि विभाण्डक अपने आश्रम लौट आये और शान्ति पूर्वक रहने लगे। अयोध्या के राजा दशरथ के कोई सन्तान नहीं हो रही थी। उन्होने अपनी चिन्ता महर्षि वशिष्ठ से कह सुनाई। महर्षि वशिष्ठ ने श्रृंगी ऋषि के द्वारा अश्वमेध तथा पुत्रेष्ठीकामना यज्ञ करवाने का सुझाव दिया। दशरथ नंगे पैर उस आश्रम में गयें थे। तरह-तरह से उन्होंने महर्षि श्रृंगी की बन्दना की। ऋषि को उन पर तरस आ गया। महर्षि वशिष्ठ की सलाह को मानते हुए वह यज्ञ का पुरोहिताई करने को तैयार हो गये। उन्होने एक यज्ञ कुण्ड का निर्माण कराया । इस स्थान को मखौड़ा कहा जाता है। रूद्रायामक अयोध्याकाण्ड 28 में मख स्थान की महिमा इस प्रकार कहा गया है – कुटिला संगमाद्देवि ईशान्ये क्षेत्रमुत्तमम्। मखःस्थानं महत्पूर्णा यम पुण्यामनोरमा।। स्कन्द पुराण के मनोरमा महात्य में मखक्षेत्र को इस प्रकार महिमा मण्डित किया गया है- मखःस्थलमितिख्यातं तीर्थाणामुत्तमोत्तमम्। हरिष्चन्ग्रादयो यत्र यज्ञै विविध दक्षिणे।। महाभारत के बनपर्व में यह आश्रम चम्पा नदी के किनारे बताया है। उत्तर प्रदेश के पूवोत्तर क्षेत्र के पर्यटन विभाग के बेवसाइट पर इस आश्रम को फ़ैजाबाद जिले में होना बताया है। परन्तु अयोध्या से इस स्थान की निकटता तथा परम्परागत रूप से 84 कोस की परिक्रमा मार्ग इसे सम्मलित होने कारण इसकी सत्यता स्वमेव प्रमाणित हो जाती है। ऋषि श्रृंगी के यज्ञ के परिणाम स्वरूप राजा दशरथ को राम ,लक्ष्मण , भरत तथा शत्रुघ्न नामक चार सन्तानें हुई थी। जिस स्थान पर उन्होंने यह यज्ञ करवाये थे वहां एक प्राचीन मंदिर बना हुआ है। यहां श्रृंगी ऋषि व माता शान्ता का मंदिर बना हुआ है। इनकी समाधियां भी यहीं बनी हुई है। यह स्थान अयोध्या से पूरब में स्थित है। आषाढ़ माह के अन्तिम मंगलवार को बुढ़वा मंगल का मेला लगता है। माताजी को पूड़ी व हलवा का भोग लगाया जाता है। इसी दिन त्रेतायुग में यज्ञ का समापन हुआ था। यहां पर शान्ता माता ने 45 दिनों तक अराधना किया था। यज्ञ के बाद ऋषि श्रृंगी अपनी पत्नी शान्ता को अपने साथ लिवा जाना चाहते थे जो वहां नहीं गई और वर्तमान मंदिर में पिण्डी बनकर समां गयी । पुरातत्वविदों के सर्वेक्षणों में इस स्थान के ऊपरी सतह पर लाल मृदभाण्डों, भवन संरचना के अवशेष तथा ईंटों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। ।। जय जय सियाराम ।। ।। राणा जी खेड़ांवाली।। #🕉️सनातन धर्म🚩
*दुर्गा सप्तशती पाठ - दसवाँ अध्याय हिन्दी में* *शुम्भ वध* 🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱🔱 महर्षि मेधा ने कहा- हे राजन्! अपने प्यारे भाई को मरा हुआ तथा सेना को नष्ट हुई देखकर क्रोध में भरकर दैत्यराज शुम्भ कहने लगा-दुष्ट दुर्गे! तू अहंकार से गर्व मत कर क्योंकि तू दूसरों के बल पर लड़ रही है। देवी ने कहा-हे दुष्ट! देख मैं तो अकेली ही हूँ। इस संसार में मेरे सिवा दूसरा कौन है? यह सब मेरी शक्तियाँ हैं। देख, यह सब की सब मुझ में प्रविष्ट हो रही हैं। इसके पश्चात ब्राह्मणी आदि सब देवियाँ उस देवी के शरीर में लीन हो गई और देवी अकेली रह गई तब देवी ने कहा-मैं अपनी ऎश्वर्य शक्ति से अनेक रूपों में यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपों को मैंने समेट लिया है अब अकेली ही यहाँ खड़ी हूँ, तुम भी यहीं ठहरो। महर्षि मेधा ने कहा-तब देवताओं तथा राक्षसों के देखते-2 देवी तथा शुम्भ में भयंकर युद्ध होने लगा। अम्बिका देवी ने सैकड़ों अस्त्र-शस्त्र छोड़े, उधर दैत्यराज ने भी भयंकर अस्त्रों का प्रहार आरम्भ कर दिया। देवी के छोड़े हुए सैकड़ो अस्त्रों को दैत्य ने अपने अस्त्रों द्वारा काट डाला, इसी प्रकार शुम्भ ने जो अस्त्र छोड़े उनको देवी ने अपनी भयंकर हुँकार के द्वारा ही काट डाला। दैत्य ने जब सैकड़ो बाण छोड़कर देवी को ढक दिया तो क्रोध में भरकर देवी ने अपने बाणों से उसका धनुष नष्ट कर डाला। धनुष कट जाने पर दैत्येन्द्र ने शक्ति चलाई लेकिन देवी ने उसे भी काट कर फेंक दिया फिर दैत्येन्द्र चमकती हुई ढाल लेकर देवी की ओर दौड़ा किन्तु जब वह देवी के समीप पहुँचा तो देवी ने अपने तीक्ष्ण वाणों से उसकी चमकने वाली ढाल को भी काट डाला फिर दैत्येन्द्र का घोड़ा मर गया, रथ टूट गया, सारथी मारा गया तब वह भयंकर मुद्गर लेकर देवी पर आक्रमण करने के लिए चला किन्तु देवी ने अपने तीक्ष्ण बाणों से उसके मुद्गर को भी काट दिया। इस पर दैत्य ने क्रोध में भरकर देवी की छाती में बड़े जोर से एक मुक्का मारा, दैत्य ने जब देवी को मुक्का मारा तो देवी ने भी उसकी छाती में जोर से एक थप्पड़ मारा, थप्पड़ खाकर पहले तो दैत्य पृथ्वी पर गिर पड़ा किन्तु तुरन्त ही वह उठ खड़ा हुआ फिर वह देवी को पकड़ कर आकाश की ओर उछला और वहाँ जाकर दोनों में युद्ध होने लगा, वह युद्ध ऋषियों और देवताओं को आश्चर्य में डालने वाला था। देवी आकाश में दैत्य के साथ बहुत देर तक युद्ध करती रही फिर देवी ने उसे आकाश में घुमाकर पृथ्वी पर गिरा दिया। दुष्टात्मा दैत्य पुन: उठकर देवी को मारने के लिए दौड़ा तब उसको अपनी ओर आता हुआ देखकर देवी ने उसकी छाती विदीर्ण कर के उसको पृथ्वी पर पटक दिया। देवी के त्रिशूल से घायल होने पर उस दैत्य के प्राण पखेरू उड़ गए और उसके मरने पर समुद्र, द्वीप, पर्वत और पृथ्वी सब काँपने लग गये। तदनन्तर उस दुष्टात्मा के मरने से सम्पूर्ण जगत प्रसन्न व स्वस्थ हो गया तथा आकाश निर्मल हो गया। पहले जो उत्पात सूचक मेघ और उल्कापात होते थे वह सब शान्त हो गये। उसके मारे जाने पर नदियाँ अपने ठीक मार्ग से बहने लगी। सम्पूर्ण देवताओं का हृदय हर्ष से भर गया और गन्धर्वियाँ सुन्दर गान गाने लगी। गन्धर्व बाजे बजाने लगे और अप्सराएँ नाचने लगी, पपवित्र वायु बहने लगी, सूर्य की कांति स्वच्छ हो गई, यज्ञशालाओं की बुझी हुई अग्नि अपने आप प्रज्वलित हो उठी तथा चारों दिशाओं में शांति फैल गई। जय माता की राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #जय माता की
*पंचाध्यायी- महारासलीला* *पोस्ट–05 (अन्तिम)* 🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻 महारास गोपियाँ भगवान की इस प्रकार प्रेम भरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरहजन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं और सौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्राण प्यारे के अंग-संग से सफल-मनोरथ हो गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह-में-बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्री रत्नों के साथ यमुना जी के पुलिन पर भगवान ने अपनी रसमयी रासक्रीडा प्रारम्भ की। सम्पूर्ण योगों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गये और उनके गले में अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं। इस प्रकार सहस्र-सहस्र गोपियों से शोभायमान भगवान श्रीकृष्ण का दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाश में शत-शत विमानों की भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुँचे। रासोत्सव के दर्शन की लालसा से, उत्सुकता से उनका मन उनके वश में नहीं था। स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भगवान के निर्मल यश का गान करने लगे। रासमण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करने लगीं। उनकी कलाइयों के कंगन, पैरों के पायजेब और करधनी के छोटे-छोटे घुँघरु एक साथ बज उठे। असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिये यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोर की हो रही थी। यमुना जी की रमणरेती पर व्रज सुन्दरियों के बीच में भगवान श्रीकृष्ण की बड़ी अनोखी शोभा हुई। ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियों के बीच में ज्योतिर्मयी नीलमणि चामल रही हो। नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखतीं, तो कभी बड़े वेग से; कभी चाक की तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकार से उन्हें चमकतीं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंग से मुस्करातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो। झुकने, बैठने, उठने और चलने की फुर्ती से उनके स्तन हिल रहे थे तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे। कानों के कुण्डल हिल-हिलकर कपोलों पर आ जाते थे। नाचने के परिश्रम से उनके मुँह पर पसीने की बूँदे झलकने लगी थीं। केशों की चोटियाँ कुछ ढीली पड़ गयी थीं। नीवीं की गाँठे खुली जा रही थीं। इस प्रकार नटवर नन्दलाल की प्रेम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रहीं थीं। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीच में चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी। गोपियों का जीवन भगवान की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्ण से सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वर से मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्ण का संस्पर्श पा-पाकर और भी आनन्दमग्न हो रही थीं। उनके राग-रागिनियों से पूर्ण गान से यह सारा जगत अब भी गूँज रहा है। कोई गोपी भगवान के साथ-उनके स्वर में स्वर मिलाकर गा रही थी। वह श्रीकृष्ण के स्वर की अपेक्षा और भी ऊँचे स्वर से राग अलापने लगी। उनके विलक्षण और उत्तम स्वर को सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और वाह-वाह करके उनकी प्रशंसा करने लगे। उसी राग को एक दूसरी सखी ने ध्रुपद में गाया। उसका भी भगवान ने बहुत सम्मान किया। एक गोपी नृत्य करते-करते थक गयी। उसकी कलाइयों से कंगन और चोटियों से बेला के फूल खिसकने लगे। तब उसने अपने बगल में ही खड़े मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर के कंधे को अपनी बांह से कसकर पकड़ लिया। भगवान श्रीकृष्ण अपना एक हाथ दूसरी गोपी के कंधे पर रख रखा था। वह स्वभाव से तो कमल के समान सुगन्ध से युक्त था ही, उस पर बड़ा सुंगधित चन्दन का लेप भी था। उसकी सुगन्ध से वह गोपी पुलकित हो गयी, उसका रोम-रोम खिल उठा। उसने झटसे उसे चूम लिया। एक गोपी नृत्य कर रही थी। नाचने के कारण उसके कुण्डल हिल रहे थे, उनकी छटा से उसके कपोल और भी चमक रहे थे। उसने अपने कपोलों को भगवान श्रीकृष्ण के कपोल से सटा दिया और भगवान ने उसके मुँह में अपना चबाया हुआ पान दे दिया। कोई गोपी नुपुर और करधनी के घुँघरुओं को झंकारती हुई नाच और गा रही थी। वह जब बहुत थक गयी, तब उसने अपने बगल में ही खड़े श्यामसुन्दर के शीतल करकमलों को आने दोनों स्तनों पर रख लिया। गोपियों का सौभाग्य लक्ष्मी जी से भी बढ़कर है। लक्ष्मी जी के परम प्रियतम एकान्त वल्लभ भगवान श्रीकृष्ण को अपने परम प्रियतम के रूप में पाकर गोपियाँ गान करती हुईं उनके साथ विहार करने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण ने उनके गलों को अपने भुजपाश में बाँध रख था, उस समय गोपियों की बड़ी अपूर्व शोभा थी। उनके कानों में कमल के कुण्डल शोभायमान थे। घुँघराली अलकें कपोलों पर लटक रही थीं। पसीने की बूँदें झलकने से उनके मुख की छटा निराली ही हो गयी थी। वे रासमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं। उनके कंगन और पायजेबों के बाजे बज रहे थे। भौंरे उनके ताल-सुर में अपना सुर मिलाकर गा रहे थे। और उनके जूड़ों तथा चोटियों में गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने हृदय से लगा लेते, कभी हाथ ने उनका अंगस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते तो कभी लीला से उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दारियों के साथ क्रीड़ा की, विहार किया। भगवान के अंगों का संस्पर्श प्राप्त करके गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेम और आनन्द से विह्वल हो गयीं। उनके केश बिखर गये। फूलों के हार टूट गये और गहने अस्त-व्यस्त हो गये। वे अपने केश, वस्त्र और कंचुकी को भी पूर्णतया सँभालने में असमर्थ हो गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की यह रासक्रीडा देखकर स्वर्ग की देवांगनाएँ भी मिलन की कामना से मोहित हो गयीं और समस्त तारों तथा ग्रहों के साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गये। जितनी गोपियाँ थीं, भगवान् ने उतने ही रूप धारण किये और खेल-खेल में उनके साथ इस प्रकार विहार किया। जब बहुत देर तक गान और नृत्य आदि विहार करने के कारण गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े प्रेम से स्वयं अपने सुखद करकमलों के द्वारा उनके मुँह पोंछे। भगवान के करकमल और नख स्पर्श के गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने अपने उन कपोलों के सौन्दर्य से, जिनपर सोने के कुण्डल झिल-मिला रहे थे और घुँघराले अलकें लटक रहीं थीं, तथा उस प्रेमभरी चितवन से, जो सुधा से भी मीठी मुस्कान से उज्ज्वल हो रही थी, भगवान श्रीकृष्ण का सम्मान किया और प्रभु की परम पवित्र लीलाओं का गान करने लगीं। इसके बाद जैसे थका हुआ गजराज किनारों को तोड़ता हुआ हथिनियों के साथ जल में घुसकर क्रीडा करता है, वैसे ही लोक और वेद की मर्यादा का अतिक्रमण करने वाले भगवान ने अपनी थकान दूर करने के लिये गोपियों के साथ जलक्रीडा करने के उद्देश्य से यमुना के जल में प्रवेश किया। उस समय भगवान की वनमाला गोपियों के अंग की रगड़ से कुछ कुचल-सी गयी थी और उनके वक्षःस्थल की केसर से वह रँग भी गयी थी। उसके चारों ओर गुनगुनाते हुए भौंरें उनके पीछे-पीछे इस प्रकार चल रहे थे, मानों गन्धर्वराज उनकी कीर्ति का गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों। यमुना जल में गोपियों ने प्रेमभरी चितवन से भगवान की ओर देख-देखकर तथा हँस-हँसकर उन पर इधर-उधर से जल की खूब बौछारें डालीं। जल उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया। विमानों पर चढ़े हुए देवता पुष्पों की वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार यमुना जल में भगवान श्रीकृष्ण ने गजराज के समान जलविहार किया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण व्रज युवतियों और भौंरों की भीड़ से घिरे हुए यमुना तट के उपवन में गये। वह बड़ा ही रमणीय था। उसके चारों ओर जल और स्थल में बड़ी सुन्दर सुगन्ध वाले फूल खिले हुए थे। उनकी सुवास लेकर मन्द-मन्द वायु चल रही थी। उसमें भगवान इस प्रकार विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज हथिनियों के झुंड के साथ घूम रहा हो। ब्रह्मा की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गयी। ब्रह्ममुहूर्त आया। यद्यपि गोपियों की इच्छा अपने घर लौटने की नहीं थी, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से वे अपने-अपने घर चली गयीं। क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टा से, प्रत्येक संकल्प से केवल भगवान को ही प्रसन्न करना चाहती थीं। व्रजवासी गोपों ने भगवान श्रीकृष्ण में तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की। वे उनकी योगमाया से मोहित होकर ऐसा समझ रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही हैं। जो धीर पुरुष व्रज युवतियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रास-विलास का श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान के चरणों में परा भक्ति की प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने हृदय के रोग, कामविकार से छुटकारा पा जाता है। उसका कामभाव सर्वदा के लिये नष्ट हो जाता है। ॥जय जय श्री राधे॥ ॥ राणा जी खेड़ांवाली॥ #🕉️सनातन धर्म🚩 #🌸 जय श्री कृष्ण😇
*कार्तिक की कहानीयां* *पोस्ट-2* *विनायक जी की कथा* 🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀 एक विनायक महाराज थे चुटकी में कुलिया में दुध लिए फिर रहे थे कोई मेरी खीर बना दे। कोई न बनावे। जरा से दुध चावल की खीर कैसे बने। एक बुढीया थी। बोली-बेटा ला मैं बना दूं। बुढीया बाहर जाने लगी तो विनायक जी बोले-कहां जा रही हो'बेटा! बर्तन मांग कर ला रही हुं। बोली! देख तेरे आंगन में। अन्दर देखा दुध का टोकना भरा पड़ा है चावल की परात भरी पड़ी है चुल्हा जला कर खीर बनाई, खीर निकलने लगी, बहु ने कटोरा भर के किवाड़ के पिछे विनायक बाबा का छींटा लगाकर खा ली। जब सारी खीर बन गई तो बुढीया बोली- आ बेटा जीम ले। विनायक जी बोले मैने तो खा ली, बुढीया ने पूछा _ कब खाई? विनायक जी बोले , _ जब तेरी बहु ने खाई बुढीया बोली- बहु। तैने खीर जुठी कर ली। बहु बोली- मां जी खीर निकल रही थी मैने कटोरा भर के विनायक का छींटा लगाकर, खा ली। विनायक से बुढीया बोली, - अब क्या करूँ? विनायक जी बोले, खा, और बांट दो। बुढीया खीर बांटने लगी तो दुनिया निरचा-चरचा करने लगी कि, कल तो बुढीया भुखी मरती थी और आज खीर बांट रही है। झोंपड़ी को लात मारी महल बन गया। खुब धन हो गया। हे विनायक जी महाराज! जैसे आपने बुढीया का घर भरा वैसे ही आप कहानी कहने और सुनने वाले का भी घर भरना। जय विनायक जी महाराज राणा जी खेड़ांवाली🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #श्री हरि
*श्रीमद्वाल्मीकीय–रामायण* *पोस्ट–569* 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐 *(उत्तरकाण्ड–सर्ग-028)* 🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹🏹 *आज की कथा में:–मेघनाद और जयन्त का युद्ध, पुलोमा का जयन्त को अन्यत्र ले जाना, देवराज इन्द्र का युद्ध भूमि में पदार्पण, रुद्रों तथा मरुद्गणों द्वारा राक्षस सेना का संहार और इन्द्र तथा रावण का युद्ध* सुमाली मारा गया, वसु ने उसके शरीर को भस्म कर दिया और देवताओं से पीड़ित होकर मेरी सेना भागी जा रही है, यह देख रावण का बलवान् पुत्र मेघनाद कुपित हो समस्त राक्षसों को लौटाकर देवताओं से लोहा लेने के लिये स्वयं खड़ा हुआ। वह महारथी वीर इच्छानुसार चलने वाले अग्नितुल्य तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हो वन में फैलाने वाले प्रज्वलित दावानल के समान उस देवसेना की ओर दौड़ा। नाना प्रकार के आयुध धारण करके अपनी सेना में प्रवेश करने वाले उस मेघनाद को देखते ही सब देवता सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भाग चले। उस समय युद्ध की इच्छा वाले मेघनाद के सामने कोई भी खड़ा न हो सका। तब भयभीत हुए उन समस्त देवताओं को फटकारकर इन्द्र ने उनसे कहा–‘देवताओ! भय न करो, युद्ध छोड़कर न जाओ और रणक्षेत्र में लौट आओ। यह मेरा पुत्र जयन्त, जो कभी किसी से परास्त नहीं हुआ है, युद्ध के लिये जा रहा है।’ तदनन्तर इन्द्रपुत्र जयन्तदेव अद्भुत सजावट से युक्त रथ पर आरूढ़ हो युद्ध के लिये आया। फिर तो सब देवता शचीपुत्र जयन्त को चारों ओर से घेरकर युद्धस्थल में आये और रावण के पुत्र पर प्रहार करने लगे। उस समय देवताओं का राक्षसों के साथ और महेन्द्रकुमार का रावणपुत्र के साथ उनके बल पराक्रम के अनुरूप युद्ध होने लगा। रावणकुमार मेघनाद जयन्त के सारथि मातलिपुत्र गोमुख पर सुवर्ण भूषित बाणों की वर्षा करने लगा। शचीपुत्र जयन्त ने भी मेघनाद के सारथि को घायल कर दिया। तब कुपित हुए मेघनाद ने जयन्त को भी सब ओर से क्षत-विक्षत कर दिया। उस समय क्रोध से भरा हुआ बलवान् मेघनाद इन्द्रपुत्र जयन्त को आँखें फाड़-फाड़कर देखने और बाणों की वर्षा पीड़ित करने लगा। अत्यन्त कुपित हुए रावणकुमार ने देवताओं की सेना पर भी तीखी धार वाले नाना प्रकार के सहस्रों अस्त्र-शस्त्र बरसाये। उसने शतघ्नी, मुसल, प्रास, गदा, खड्ग और फरसे गिराये तथा बड़े-बड़े पर्वत शिखर भी चलाये। शत्रुसेनाओं के संहार में लगे हुए रावणकुमार की माया से उस समय चारों ओर अन्धकार छा गया; अतः समस्त लोक व्यथित हो उठे। तब शचीकुमार के चारों ओर खड़ी हुई देवताओं की वह सेना बाणों द्वारा पीड़ित हो अनेक प्रकार से अस्वस्थ हो गयी। राक्षस और देवता आपस में किसी को पहचान न सके। वे जहाँ-तहाँ बिखरे हुए चारों ओर चक्कर काटने लगे। अन्धकार से आच्छादित होकर वे विवेकशक्ति खो बैठे थे। अतः देवता देवताओं को और राक्षस राक्षसों को ही मारने लगे तथा बहुतेरे योद्धा युद्ध से भाग खड़े हुए। इसी बीच में पराक्रमी वीर दैत्यराज पुलोमा युद्ध में आया और शचीपुत्र जयन्त को पकड़कर वहाँ से दूर हटा ले गया। वह शची का पिता और जयन्त का नाना था, अत: अपने दौहित्र को लेकर समुद्र में घुस गया। देवताओं को जब जयन्त के गायब होने की बात मालूम हुई, तब उनकी सारी खुशी छिन गयी और वे दुःखी होकर चारों ओर भागने लगे। उधर अपनी सेनाओं से घिरे हुए रावणकुमार मेघनाद ने अत्यन्त कुपित हो देवताओं पर धावा किया और बड़े जोर से गर्जना की। पुत्र लापता हो गया और देवताओं की सेना में भगदड़ मच गयी है–यह देखकर देवराज इन्द्र ने मातलि से कहा–‘मेरा रथ ले आओ।’ मातलि ने एक सजा सजाया महाभयंकर, दिव्य एवं विशाल रथ लाकर उपस्थित कर दिया। उसके द्वारा हाँका जाने वाला वह रथ बड़ा ही वेगशाली था। तदनन्तर उस रथ पर बिजली से युक्त महाबली मेघ उसके अग्र भाग में वायु से चञ्चल हो बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे। देवेश्वर इन्द्र के निकलते ही नाना प्रकार के बाजे बज उठे, गन्धर्व एकाग्र हो गये और अप्सराओं के समूह नृत्य करने लगे। तत्पश्चात् रुद्रों, वसुओं, आदित्यों, अश्विनीकुमारों और मरुद्रणों से घिरे हुए देवराज इन्द्र नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र साथ लिये पुरी से बाहर निकले। इन्द्र के निकलते ही प्रचण्ड वायु चलने लगी। सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी और आकाश से बड़ी-बड़ी उल्काएँ गिरने लगीं। इसी बीच में प्रतापी वीर दशग्रीव भी विश्वकर्मा के बनाये हुए दिव्य रथ पर सवार हुआ। उस रथ में रोंगटे खड़े कर देने वाले विशालकाय सर्प लिपटे हुए थे। उनकी नि:श्वास-वायु से वह रथ उस युद्धस्थल में ज्वलित-सा जान पड़ता था। दैत्यों और निशाचरों ने उस रथ को सब ओर से घेर रखा था। समराङ्गण की ओर बढ़ता हुआ रावण का वह दिव्य रथ महेन्द्र के सामने जा पहुँचा। रावण अपने पुत्र को रोककर स्वयं ही युद्ध के लिये खड़ा हुआ। तब रावणपुत्र मेघनाद युद्धस्थल से निकलकर चुपचाप अपने रथ पर जा बैठा। फिर तो देवताओं का राक्षसों के साथ घोर युद्ध होने लगा। जल की वर्षा करने वाले मेघों के समान देवता युद्धस्थल में अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। राजन्! दुष्टात्मा कुम्भकर्ण नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये किसके साथ युद्ध करता था, इसका पता नहीं लगता था, अर्थात् मतवाला होने के कारण अपने और पराये सभी सैनिकों के साथ जूझने लगता था। वह अत्यन्त कुपित हो दाँत, लात, भुजा, हाथ, शक्ति, तोमर और मुद्गर आदि जो ही पाता उसी से देवताओं को पीटता था। वह निशाचर महाभयंकर रुद्रों के साथ भिड़कर घोर युद्ध करने लगा। संग्राम में रुद्रों ने अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा उसे ऐसा क्षत-विक्षत कर दिया था कि उसके शरीर में थोड़ी-सी भी जगह बिना घाव के नहीं रह गयी थी। कुम्भकर्ण का शरीर शस्त्रों से व्याप्त हो खून की धारा बहा रहा था। उस समय वह बिजली तथा गर्जना से युक्त जल की धारा गिराने वाले मेघ के समान जान पड़ता था। तदनन्तर घोर युद्ध में लगी हुई उस सारी राक्षस सेना को रणभूमि में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले रुद्रों और मरुद्रणों ने मार भगाया। कितने ही निशाचर मारे गये। कितने ही कटकर धरती पर लोटने और छटपटाने लगे और बहुत-से राक्षस प्राणहीन हो जाने पर भी उस रणभूमि में अपने वाहनों पर ही चिपटे रहे। कुछ राक्षस रथों, हाथियों, गदहों, ऊँटों, सर्पों, घोड़ों, शिशुमारों, वराहों तथा पिशाचमुख वाहनों को दोनों भुजाओं से पकड़कर उनसे लिपटे हुए निश्चेष्ट हो गये थे। कितने ही जो पहले से मूर्छित होकर पड़े थे, मूर्च्छा दूर होने पर उठे, किन्तु देवताओं के शस्त्रों से छिन्नभिन्न हो मौत के मुख में चले गये। प्राणों से हाथ धोकर धरती पर पड़े हुए उन समस्त राक्षसों का इस तरह युद्ध में मारा जाना जादू सा आश्चर्यजनक जान पड़ता था। युद्ध के मुहाने पर खून की नदी बह चली, जिसके भीतर अनेक प्रकार के शस्त्र ग्राहों का भ्रम उत्पन्न करते थे। उस नदी के तट पर चारों ओर गीध और कौए छा गये थे। इसी बीच में प्रतापी दशग्रीव ने जब देखा कि देवताओं ने हमारे समस्त सैनिकों को मार गिराया है. तब उसके क्रोध की सीमा न रही। वह समुद्र के समान दूर तक फैली हुई देवसेना में घुस गया और समराङ्गण में देवताओं को मारता एवं धराशायी करता हुआ तुरन्त ही इन्द्र के सामने जा पहुँचा। तब इन्द्र ने जोर-जोर से टंकार करने वाले अपने विशाल धनुष को खींचा। उसकी टंकार-ध्वनि से दसों दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं। उस विशाल धनुष को खींचकर इन्द्र ने रावण के मस्तक पर अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी बाण मारे। इसी प्रकार महाबाहु निशाचर दशग्रीव ने भी अपने धनुष से छूटे हुए बाणों की वर्षा से इन्द्र को ढक दिया। वे दोनों घोर युद्ध में तत्पर हो जब बाणों की वृष्टि करने लगे, उस समय सब ओर सब कुछ अन्धकार से आच्छादित हो गया। किसी को किसी भी वस्तु की पहचान नहीं हो पाती थी। इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के उत्तरकाण्ड में अट्ठाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२८॥ राणा जी खेड़ांवाली🚩 ॐश्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः🚩 #🕉️सनातन धर्म🚩 #🙏श्री राम भक्त हनुमान🚩 #🙏रामायण🕉 #🎶जय श्री राम🚩 #श्री हरि