हरि विष्णु
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sn vyas
552 views 10 days ago
#हरि विष्णु भगवान विष्णु के परमभक्त शेषनाग जी के रहस्य ? =============================== सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥ सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥ भावार्थ:-जो हजार सिर वाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें॥ हमारे हिन्दू सनातन धर्म में भगवान विष्णु को पालनकर्ता कहा गया है, जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु के दो रूप कहे गए है एक तो उनका सहज एवं सरल स्वभाव है तथा अपने दूसरे रूप में भगवान विष्णु कालस्वरूप शेषनाग के ऊपर बैठे है। भगवान विष्णु का यह स्वरूप थोड़ा भयामह अवश्य है परन्तु भगवान विष्णु की लीलाएं अपरम्पार है। भगवान विष्णु अनेक शक्तिशाली शक्तियों के स्वामी है उनके इन्ही में से एक अत्यधिक शक्तिशाली शक्ति है शेषनाग। आज हम आपको शेषनाग और नागो से जुड़े अनेक ऐसे रहस्यों के बारे में बताने जा रहे है जो सायद ही अपने पहले कभी सुने हो। नागराज अनन्त को ही शेषनाग कहा गया है। शेषनाग भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है तथा उन्हें उनका भगवत्स्वरूप कहा जाता है. प्रलयकाल के दौरान जब नई सृष्टि का निर्माण होता है तो उसमे जो शेष अवक्त शेष रह जाता है, हिंदू धर्मकोश के अनुसार वे उसी के प्रतीक माने गए हैं। भविष्य पुराण में इनका वर्णन एक हजार फन वाले सर्प के रूप में किया गया है. ये जीव तत्व के अधिष्ठाता हैं और ज्ञान व बल नाम के गुणों की इनमें प्रधानता होती है। इनका आवास पाताल लोक के मूल में माना गया है, प्रलयकाल में इन्हीं के मुखों से भयंकर अग्नि प्रकट होकर पूरे संसार को भस्म करती है। ये भगवान विष्णु के पलंग के रूप में क्षीर सागर में रहते हैं और अपने हजार मुखों से भगवान का गुणानुवाद करते हैं.भक्तों के सहायक और जीव को भगवान की शरण में ले जाने वाले भी शेष ही हैं। क्योंकि इनके बल, पराक्रम और प्रभाव को गंधर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग आदि भी नही जान पाते, इसलिए इन्हें अनंत भी कहा गया है। ये पंचविष ज्योति सिद्धांत के प्रवर्तक माने गए हैं. भगवान के निवास शैया, आसन, पादुका, वस्त्र, पाद पीठ, तकिया और छत्र के रूप में शेष यानी अंगीभूत होने के कारण् इन्हें शेष कहा गया है. लक्ष्मण और बलराम इन्हीं के अवतार हैं जो राम व कृष्ण लीला में भगवान के परम सहायक बने। हमारे जीवन का हर क्षण अनेको जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों को अपने अंदर समेटे हुए है, तथा सबसे अत्यधिक एवं महत्वपूर्ण दायित्व जो मनुष्य का होता है वह है अपने परिवार तथा समाज के प्रति। एक वास्तविकता यह भी है की इन जिम्मेदारियों को पूरा करने में हमें अनेको परशानियों का सामना करना पड़ता है और शेषनाग रूपी परेशानियों को अपने कैद में कर भगवान सम्पूर्ण समाज को यही संदेश देना चाहते है की चाहे परिस्थितियां कैसी भी हो परन्तु हमें सदैव अपने परेशनियों को वश में कर सरल एवं प्रसन्न रहना चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रीश्वेतवाराह कल्प में सृष्टि सृजन के आरंभ में ही एकबार किसी कारणवश ब्रह्मा जी को बड़ा क्रोध आया जिनके परिणामस्वरूप उनके आंसुओं की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिरीं और उनकी परिणति नागों के रूप में हुई। इन नागों में प्रमुख रूप से अनन्त, कुलिक, वासुकि, तक्षक, काक्रोटम, महापद्य्म,पद्द्य्म, शंखपाल है। पना पुत्र मानते हुए ब्रह्मा जी ने इन्हें ग्रहों के बराबर ही शक्तिशाली बनाया. इनमें अनंतनाग सूर्य के, वासुकि चंद्रमा के, तक्षक मंगल के, कर्कोटक बुध के, पद्म बृहस्पति के, महापद्म शुक्र के, कुलिक और शंखपाल शनि ग्रह के रूप हैं ! ये सभी नाग भी सृष्टि संचालन में ग्रहों के समान ही भूमिका निभाते हैं. इनसे गणेश और रूद्र यज्ञोपवीत के रूप में, महादेव श्रृंगार के रूप में तथा विष्णु जी शैय्या रूप में सेवा लेते हैं। ये शेषनाग रूप में स्वयं पृथ्वी को अपने फन पर धारण करते हैं. वैदिक ज्योतिष में राहु को काल और केतु को सर्प माना गया है। अतः नागों की पूजा करने से मनुष्य की जन्म कुंडली में राहु-केतु जन्य सभी दोष तो शांत होते ही हैं, इनकी पूजा से कालसर्प दोष और विषधारी जीवो के दंश का भय नहीं रहता। परिवार में वंश वृद्धि, सुख-शांति के लिए नए घर का निर्माण करते समय नींव में चांदी का बना नाग-नागिन का जोड़ा रखा जाता है।
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sn vyas
592 views 22 days ago
।। जय श्रीहरि ।। #हरि विष्णु आप सब ने प्रायः भगवान विष्णु की १६ कलाओं के विषय में सुना होगा। रामायण और महाभारत में ये वर्णित है कि भगवान श्रीराम भगवान विष्णु की १२ कलाओं के साथ जन्में थे और श्रीकृष्ण १६ कलाओं के साथ। वैसे तो श्रीहरि अनंत हैं किन्तु मनुष्यरूप में उनकी कुल १६ कलाएं मानी गयी हैं। उनका जो कोई भी अवतार उनकी जितनी भी कलाओं के साथ जन्मता है वो उनके उतने ही समकक्ष माना जाता है। यही कारण है कि श्रीकृष्ण को पूर्णावतार कहते हैं, क्यूंकि वे श्रीहरि की सभी १६ कलाओं के साथ जन्में थे। श्रीहरि के अंतिम अवतार भगवान कल्कि उनकी ४ कलाओं के साथ अवतरित होंगे। जिस प्रकार चन्द्रमा की १६ कलाएं होती हैं- अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। ठीक उसी प्रकार मनुष्य में भी अधिकतम १६ कलाएं हो सकती हैं। अतः इनके बारे में जानते हैं- श्री: अर्थात लक्ष्मी- माता लक्ष्मी श्रीहरि के साथ सदैव रहती है और जिसके पास भी श्री संपदा होती है वो ऐश्वर्यशाली होता है। किन्तु ऐश्वर्य का अर्थ केवल धन ही नहीं होता। व्यक्ति को मन, वचन एवं कर्म से भी धनी होना चाहिए। श्री कला के स्वामी के पास लक्ष्मी स्थाई रूप से होती है। श्रीकृष्ण के पास अथाह ऐश्वर्य था किन्तु फिर भी वे सत्कर्मी थे। भू: अर्थात भूमि- श्रीहरि इस ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं और भू सम्पदा जिनके पास होती है वो बड़े भू-भाग का स्वामी होता है। राजा, एवं उससे भी बढ़कर चक्रवर्ती सम्राट के पास भू-सम्पदा होती है। इसके अतिरिक्त वो राज्य करने की क्षमता भी रखता है। श्रीकृष्ण ने भी पहले मथुरा और फिर द्वारिका में अपनी भूमि का बहुत विस्तार किया। कीर्ति: अर्थात प्रसिद्धि- प्रसिद्धि कला का स्वामी लोकप्रिय एवं विश्वप्रसिद्ध होता है। ऐसा व्यक्ति सदैव दूसरों की सहायता करता है एवं अपने सत्कर्मों से दिग-दिगांत तक कीर्ति प्राप्त करता है। श्रीकृष्ण की कीर्ति के विषय में तो कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है। वाणी- कुछ लोगों की वाणी में इतना तेज होता है कि वे लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। ऐसे व्यक्ति जब कोई बात करते हैं तो सभी शांत रहकर उनकी बात सुनते हैं। ऐसे व्यक्ति किसी से कुछ भी मनवा लेते हैं। इनकी बातें सुनकर क्रोधी मनुष्य भी अपना क्रोध त्याग देता है। महाभारत में ऐसे कई प्रसंग हैं जहाँ श्रीकृष्ण केवल अपनी वाणी से ही बड़े से बड़ा विवाद हल कर देते हैं। लीला- ऐसे पुरुष चमत्कारी हैं। जो चीजें आम मनुष्य की समझ से परे हो उसे चमत्कार समझा जाता है। श्रीकृष्ण के विषय में तो खैर इस कला के बारे में क्या कहना? वे तो जन्म लेते ही लीला करने लगे। छोटे से बालक होकर भी बड़े-बड़े असुरों का नाश कर दिया। महाभारत का युद्ध भी उनकी लीलाओं से भरा पड़ा है। निःशस्त्र होकर भी उन्होंने अपनी लीला से पांडवों को विजय दिलवाई। कांति- इसका अर्थ होता है मनुष्य का अपना तेज। इस कला के स्वामी के मुख पर सूर्य के सामान तेज होता है जिसे देख कर लोग अपना सुध-बुध भूल जाते हैं। श्रीकृष्ण की कांति और सौंदर्य अद्भुत था। उन्हें देखकर सब मोहित हो जाते थे। विद्या- विद्या सबसे महत्वपूर्ण कला है। कहते हैं "विद्वान सर्वत्र पूज्यते", अर्थात विद्वान की पूजा सभी स्थानों पर होती है। श्रीकृष्ण को महर्षि सांदीपनि बहुत बाद में गुरु के रूप में मिले किन्तु उन्होंने केवल ६४ दिनों में ६४ विद्याओं को प्राप्त कर लिया। ये उनका राजनितिक ज्ञान ही था कि उन्होंने महाभारत जैसी विभीषिका को इतने प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया। विमला- अर्थात निर्मल स्वाभाव का व्यक्ति। ऐसा जो छल-कपट ना जानता हो। जो निष्पाप हो और जिसके मन में किसी के प्रति भी को मैल ना हो। श्रीकृष्ण भी विमल थे, अर्थात उनका मन गंगा की भांति पवित्र था। उत्कर्षिणि- अर्थात किसी को प्रेरित करने की क्षमता। इस कला का स्वामी किसी भी स्थिति में किसी को भी प्रोत्साहित कर सकता है। ठीक इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने मध्ययुद्ध में निराश और हतोत्साहित हो चुके अर्जुन को गीता ज्ञान देकर युद्ध के लिए प्रोत्साहित किया। विवेक- अर्थात अपने ज्ञान एवं परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेना। ऐसा व्यक्ति कभी भी कोई निर्णय बिना सोचे समझे नहीं लेता। वो विवेकशील होता है और अपने विवेक से ही उचित समय पर उचित निर्णय लेता है। श्रीकृष्ण भी विवेकी थे इसी कारण जब तक हो सका उन्होंने महाभारत का युद्ध टाला, किन्तु जब समय आया तो उन्होंने इस युद्ध की पटकथा लिखी। कर्मण्यता- अथात कर्मठ। कर्मयोगी व्यक्ति कभी भाग्य के भरोसे नहीं बैठता और दूसरों को भी अपने सामर्थ्य के अनुसार कर्म करने का उपदेश देता है। श्रीकृष्ण ने अपनी कर्मण्यता से ना केवल मथुरा, बल्कि बाद में द्वारिका को भी समृद्ध किया। और ऐसा ही उपदेश उन्होंने पांडवों को भी दिया जिससे उन्होंने खांडवप्रस्थ जैसे प्रदेश को श्रीकृष्ण की सहायता से इंद्रप्रस्थ बना दिया। योगशक्ति- योग एक अद्भुत कला है। इससे संपन्न व्यक्ति का सम्बन्ध सीधा ईश्वर से जुड़ जाता है। योगशक्ति की कला से संपन्न व्यक्ति अध्यात्म के चरम पर पहुंच जाता है जहाँ उसका सीधा संवाद ईश्वर से हो सके। श्रीकृष्ण महायोगी कहलाते हैं। विनय- अर्थात सभ्य, शिष्ट एवं विनीत व्यक्ति। ऐसे व्यक्ति को कभी किसी भी चीज का अहंकार नहीं होता। ये सब कुछ होते हुए भी संन्यासी की भांति रहते हैं। श्रीकृष्ण के पास भी सबकुछ था किन्तु उन्हें उसका लेशमात्र भी अहंकार नहीं था। सत्य- अर्थात सदैव सच बोलने वाला, चाहे वो सत्य कितना ही कटु क्यों ना हो। जो सत्यवादी होते हैं वो किसी भी परिस्थिति में असत्य का सहारा नहीं लेते। श्रीकृष्ण ने भी महाभारत होने से बहुत पहले ही सबको इसके परिणाम के विषय में बता दिया था। आधिपत्य- इसका अर्थ केवल अधिकार जाताना नहीं अपितु किसी व्यक्ति का प्रभाव भी है। इस कला से संपन्न व्यक्ति बहुतप्रभावी होते हैं और उनके पास कठिन से कठिन परिस्थिति में भी विजित होने की क्षमता होती है। श्रीकृष्ण का अपने युग में कितना प्रभाव था ये बताने की आवश्यकता नहीं। अनुग्रह- अर्थात दूसरों का कल्याण करना और क्षमा करने की क्षमता। ऐसे व्यक्ति स्वाभाव से ही क्षमाशील होते हैं और सदैव दूसरों के कल्याण के लिए तत्पर रहते हैं। मानव कल्याण हेतु ये किसी भी प्रकार का बलिदान देने से भी नहीं हिचकते। श्रीकृष्ण भी सदैव दूसरों का कल्याण करने वाले हैं और क्षमाशील हैं। ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।
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