###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
#वाल्मीकिरामायण३०
*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*
*बालकाण्ड*
*पचीसवाँ सर्ग*
*श्रीरामके पूछनेपर विश्वामित्रजीका उनसे ताटकाकी उत्पत्ति, विवाह एवं शाप आदिका प्रसंग सुनाकर उन्हें ताटका-वधके लिये प्रेरित करना*
अपरिमित प्रभावशाली विश्वामित्र मुनिका यह उत्तम वचन सुनकर पुरुषसिंह श्रीरामने यह शुभ बात कही—॥१॥
'मुनिश्रेष्ठ! जब वह यक्षिणी एक अबला सुनी जाती है, तब तो उसकी शक्ति थोड़ी ही होनी चाहिये; फिर वह एक हजार हाथियोंका बल कैसे धारण करती है?'॥२॥
अमित तेजस्वी श्रीरघुनाथके कहे हुए इस वचनको सुनकर विश्वामित्रजी अपनी मधुर वाणीद्वारा लक्ष्मणसहित शत्रुदमन श्रीरामको हर्ष प्रदान करते हुए बोले—'रघुनन्दन! जिस कारणसे ताटका अधिक बलशालिनी हो गयी है, वह बताता हूँ, सुनो। उसमें वरदानजनित बलका उदय हुआ है; अतः वह अबला होकर भी बल धारण करती है (सबला हो गयी है)॥३-४॥
'पूर्वकालकी बात है, सुकेतु नामसे प्रसिद्ध एक महान् यक्ष थे। वे बड़े पराक्रमी और सदाचारी थे; परंतु उन्हें कोई संतान नहीं थी; इसलिये उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की॥५॥
'श्रीराम! यक्षराज सुकेतुकी उस तपस्यासे ब्रह्माजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुकेतुको एक कन्यारत्न प्रदान किया, जिसका नाम ताटका था॥६॥
ब्रह्माजीने ही उस कन्याको एक हजार हाथियोंके समान बल दे दिया; परंतु उन महायशस्वी पितामहने उस यक्षको पुत्र नहीं ही दिया (उसके संकल्पके अनुसार पुत्र प्राप्त हो जानेपर उसके द्वारा जनताका अत्यधिक उत्पीड़न होता, यही सोचकर ब्रह्माजीने पुत्र नहीं दिया)॥७॥
'धीरे-धीरे वह यक्ष-बालिका बढ़ने लगी और बढ़कर रूप-यौवनसे सुशोभित होने लगी। उस अवस्थामें सुकेतुने अपनी उस यशस्विनी कन्याको जम्भपुत्र सुन्दके हाथमें उसकी पत्नीके रूपमें दे दिया॥८॥
'कुछ कालके बाद उस यक्षी ताटकाने मारीच नामसे प्रसिद्ध एक दुर्जय पुत्रको जन्म दिया, जो अगस्त्य मुनिके शापसे राक्षस हो गया॥९॥
'श्रीराम! अगस्त्यने ही शाप देकर ताटकापति सुन्दको भी मार डाला। उसके मारे जानेपर ताटका पुत्रसहित जाकर मुनिवर अगस्त्यको भी मौतके घाट उतार देनेकी इच्छा करने लगी॥१०॥
'वह कुपित हो मुनिको खा जानेके लिये गर्जना करती हुई दौड़ी। उसे आती देख भगवान् अगस्त्य मुनिने मारीचसे कहा—'तू देवयोनि-रूपका परित्याग करके राक्षसभावको प्राप्त हो जा'॥११½॥
'फिर अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए ऋषिने ताटकाको भी शाप दे दिया—'तू विकराल मुखवाली नरभक्षिणी राक्षसी हो जा। तू है तो महायक्षी; परंतु अब शीघ्र ही इस रूपको त्यागकर तेरा भयङ्कर रूप हो जाय'॥१२-१३॥
'इस प्रकार शाप मिलनेके कारण ताटकाका अमर्ष और भी बढ़ गया। वह क्रोधसे मूर्च्छित हो उठी और उन दिनों अगस्त्यजी जहाँ रहते थे, उस सुन्दर देशको उजाड़ने लगी॥१४॥
'रघुनन्दन! तुम गौओं और ब्राह्मणोंका हित करनेके लिये दुष्ट पराक्रमवाली इस परम भयङ्कर दुराचारिणी यक्षीका वध कर डालो॥१५॥
'रघुकुलको आनन्दित करनेवाले वीर! इस शापग्रस्त ताटकाको मारनेके लिये तीनों लोकोंमें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष समर्थ नहीं है॥१६॥
नरश्रेष्ठ! तुम स्त्री-हत्याका विचार करके इसके प्रति दया न दिखाना। एक राजपुत्रको चारों वर्णोंके हितके लिये स्त्रीहत्या भी करनी पड़े तो उससे मुँह नहीं मोड़ना चाहिये॥१७॥
'प्रजापालक नरेशको प्रजाजनोंकी रक्षाके लिये क्रूरतापूर्ण या क्रूरतारहित, पातकयुक्त अथवा सदोष कर्म भी करना पड़े तो कर लेना चाहिये। यह बात उसे सदा ही ध्यानमें रखनी चाहिये॥१८॥
'जिनके ऊपर राज्यके पालनका भार है, उनका तो यह सनातन धर्म है। ककुत्स्थकुलनन्दन! ताटका महापापिनी है। उसमें धर्मका लेशमात्र भी नहीं है; अतः उसे मार डालो॥१९॥
'नरेश्वर! सुना जाता है कि पूर्वकालमें विरोचनकी पुत्री मन्थरा सारी पृथ्वीका नाश कर डालना चाहती थी। उसके इस विचारको जानकर इन्द्रने उसका वध कर डाला॥२०॥
'श्रीराम! प्राचीन कालमें शुक्राचार्यकी माता तथा भृगुकी पतिव्रता पत्नी त्रिभुवनको इन्द्रसे शून्य कर देना चाहती थीं। यह जानकर भगवान् विष्णुने उनको मार डाला॥२१॥
'इन्होंने तथा अन्य बहुत-से महामनस्वी पुरुषप्रवर राजकुमारोंने पापचारिणी स्त्रियोंका वध किया है। नरेश्वर! अतः तुम भी मेरी आज्ञासे दया अथवा घृणाको त्यागकर इस राक्षसीको मार डालो'॥२२॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पचीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२५॥*
#🪔उत्पन्ना एकादशी📿
एकादशी व्रत को सभी व्रतों का राजा क्यों कहते हैं ?
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वैकुण्ठधाम की प्राप्ति कराने वाला, भोग और मोक्ष दोनों ही देने वाला तथा पापों का नाश करने वाला एकादशी के समान कोई व्रत नहीं है, इसलिए इसे ‘व्रतों का राजा’ कहते हैं। सभी व्रत व सभी दान से अधिक फल एकादशी व्रत करने से होता है।
जैसे देवताओं में भगवान विष्णु, प्रकाश-तत्त्वों में सूर्य, नदियों में गंगा प्रमुख हैं वैसे ही व्रतों में सर्वश्रेष्ठ व्रत एकादशी-व्रत को माना गया है । इस तिथि को जो कुछ दान किया जाता है, भजन-पूजन किया जाता है, वह सब भगवान श्रीहरि के पूजित होने पर पूर्णता को प्राप्त होता है। संसार के स्वामी सर्वेश्वर श्रीहरि पूजित होने पर संतुष्ट होकर प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। इस दिन किया गया प्रत्येक पुण्य कर्म अनन्त फल देता है और मनुष्य के सात जन्मों के कायिक, वाचिक और मानसिक पाप दूर हो जाते हैं।
भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है एकादशी का व्रत की संक्षिप्त कथा👉
पूर्व काल में मुर दैत्य को मारने के लिए भगवान विष्णु के शरीर से एक कन्या प्रकट हुई जो विष्णु के तेज से सम्पन्न और युद्धकला में निपुण थी। उसकी हुंकार मात्र से मुर दैत्य राख का ढेर हो गया। वह कन्या ही एकादशी देवी थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उससे वर मांगने को कहा।
एकादशी देवी ने वर मांगा—‘यदि आप प्रसन्न हैं तो आपकी कृपा से मैं सब तीर्थों में प्रधान, सभी विघ्नों का नाश करने वाली व समस्त सिद्धि देने वाली देवी होऊं। जो लोग उपवास (नक्त और एकभुक्त) करके मेरे व्रत का पालन करें, उन्हें आप धन, धर्म व मोक्ष प्रदान कीजिए।’
भगवान ने वर देते हुए कहा—‘ऐसा ही हो। जो तुम्हारे भक्तजन हैं वे मेरे भी भक्त कहलायेंगे।’
👉 विभिन्न नक्षत्रों का योग होने पर एकादशी-व्रत का महत्व और भी बढ़ जाता है। जैसे—
👉 जब शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘पुनर्वसु’ नक्षत्र हो तो वह तिथि ‘जया’ कहलाती है। इसका व्रत करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
👉 जब शुक्ल पक्ष की द्वादशी को ‘श्रवण’ नक्षत्र हो तो वह तिथि ‘विजया’ कहलाती है। इसमें किया गया व्रत, दान व ब्राह्मण-भोजन सहस्त्र गुना फल देने वाला होता है।
👉 जब शुक्ल पक्ष की द्वादशी को ‘रोहिणी’ नक्षत्र हो तो वह तिथि ‘जयन्ती’ कहलाती है। इस दिन भगवान गोविन्द का व्रत व पूजन करने से वे मनुष्य के सब पाप धो डालते हैं।
👉जब शुक्ल पक्ष की द्वादशी को ‘पुष्य’ नक्षत्र हो तो वह तिथि ‘पापनाशिनी’ कहलाती है। इसका व्रत करने से संसार के स्वामी प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। पुष्प नक्षत्र से युक्त एकादशी का व्रत करने से मनुष्य एक हजार एकादशियों के व्रत का फल प्राप्त कर लेता है। इस दिन किए गये स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय व देव पूजा का अक्षय फल माना गया है।
गोदान व अश्वमेध-यज्ञ करने का जो फल होता है, उससे सौगुना अधिक फल एकादशी व्रत करने वाले को मिलता है।
एकादशी व्रत के करने से सभी रोग व दोष शान्त हो जाते हैं।
मनुष्य को दीर्घायु, सुख-शान्ति व समृद्धि की प्राप्ति होती है।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य ‘भगवान की प्राप्ति’ भी एकादशी व्रत से हो जाती है।
चिन्तामणि के समान एकादशी व्रत मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी करता हैं।
एकादशी व्रत का अखण्ड पालन करने से मनुष्य की सौ पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है।
एकादशी का व्रत सभी पुण्यों को और मोक्ष देने वाला है।
एकादशी के दिन अन्न क्यों नहीं खाना चाहिए..?
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एकादशी के दिन अन्न (गेहूं, चावल आदि) खाने से पाप क्यों लगता है, इसके लिए कहा गया है कि—‘ब्रह्महत्या आदि समस्त पाप एकादशी के दिन अन्न में रहते हैं । अत: एकादशी के दिन जो भोजन करता है, वह पाप-भोजन करता है।’ यदि एकादशी का व्रत न भी कर सकें तो इस दिन चावल और उससे बने पदार्थ नहीं खाने चाहिए।
एकादशी का व्रत क्यों करना चाहिए ?
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1👉 यह संसार भोग-भूमि और मानव योनि भोग-योनि है इसलिए मनुष्य की स्वाभाविक रुचि भोगों की ओर ही रहती है। मनुष्य यदि भोगों में ही लिप्त रहेगा तो वह इस संसार में आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो सकेगा। संसार में सब कार्यों को करते हुए भी कम-से-कम पक्ष में एक बार मनुष्य भोगों से अलग रहकर ‘स्व’ में स्थित रहे और अपने मन व चित्त को सात्विक रखकर भगवान की प्राप्ति की ओर मुड़ सके इसके लिए एकादशी व्रत का विधान किया गया है।
2👉 एकादशी ‘नित्य व्रत’ है इसलिए नित्य-कर्म की तरह सभी वैष्णवों को इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए।
3👉 ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को चन्द्रमा की एकादश (ग्यारह) कलाओं का प्रभाव जीवों पर पड़ता है। चन्द्रमा का प्रभाव शरीर और मन पर होता है, इसलिए इस तिथि में शरीर की अस्वस्थता और मन की चंचलता बढ़ जाती है। इसी तरह कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को सूर्य की एकादश कलाओं का प्रभाव जीवों पर पड़ता है। इसी कारण उपवास से शरीर को संभालने और इष्टदेव के पूजन से चित्त की चंचलता दूर करने और मानसिक बल बढ़ाने के लिए एकादशी का व्रत करने का नियम बनाया गया है।
4👉 एकादशी व्रत करने से वात आदि कितनी ही तरह की व्याधियों से मनुष्य की रक्षा होती है।
5👉 यदि उदयकाल में थोड़ी-सी एकादशी, मध्य में पूरी द्वादशी और अंत में थोड़ी-सी भी त्रयोदशी हो तो वह *•‘त्रिस्पृशा’* एकादशी कहलाती है। यह भगवान को बहुत ही प्रिय है। इसका उपवास करने से एक सहस्त्र एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है।
6👉 दशमी युक्त एकादशी का व्रत कभी नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से संतान का नाश होता है और सद्गति (विष्णुलोक की प्राप्ति) नहीं होती है।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#🪔उत्पन्ना एकादशी📿
उत्पन्ना (उत्पत्ति-वैतरणी) एकादशी विशेष
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उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा व पूजा विधि
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प्रत्येक मास की कृष्ण व शुक्ल पक्ष को मिलाकर दो एकादशियां आती हैं। यह भी सभी जानते हैं कि इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। लेकिन यह बहुत कम जानते हैं कि एकादशी एक देवी थी जिनका जन्म भगवान विष्णु से हुआ था। एकादशी मार्गशीर्ष मास की कृष्ण एकादशी को प्रकट हुई थी जिसके कारण इस एकादशी का नाम उत्पन्ना एकादशी पड़ा। इसी दिन से एकादशी व्रत शुरु हुआ था। हिंदू धर्म में एकादशी व्रत का बहुत अधिक महत्व माना जाता है इसलिये जानकारी होना जरूरी है कि एकादशी का जन्म कैसे और क्यों हुआ।
उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा
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वैसे तो प्रत्येक वर्ष के बारह महीनों में 24 एकादशियां आती हैं लेकिन मलमास या कहें अधिकमास को मिलाकर इनकी संख्या 26 भी हो जाती है। सबसे पहली एकादशी मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी को माना जाता हैं। चूंकि इस दिन एकादशी प्रकट हुई थी इसलिये यह दिन उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस बार यह 15 नवम्बर शनिवार के दिन मनाई जाएगी। एकादशी के जन्म लेने की कथा कुछ इस प्रकार है।
सतयुग में चंद्रावती नगरी में ब्रह्मवंशज नाड़ी जंग राज्य किया करते थे। मुर नामक उनका एक पुत्र भी था। मुर बहुत ही बलशाली दैत्य था। उसने अपने पराक्रम के बल पर समस्त देवताओं का जीना मुहाल कर दिया। इंद्र आदि सब देवताओं को स्वर्गलोक से खदेड़कर वहां अपना अधिकार जमा लिया। कोई भी देवता उसके पराक्रम के आगे टिक नहीं पाता था। सब परेशान रहने लगे कि कैसे इस दैत्य से छुटकारा मिला। देवताओं पर जब भी विपदा आती तो वे सीधे भगवान शिव शंकर के पास पंहुचते। इस बार भी ऐसा ही हुआ। इंद्र के नेतृत्व में समस्त देवता कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के पास पंहुची और अपनी व्यथा सुनाई। भगवान शिव ने उनसे कहा कि भगवान विष्णु ही इस कार्य में उनकी सहायता कर सकते हैं। अब सभी देवता क्षीर सागर पंहुचे जहां श्री हरि विश्राम कर रहे थे। जैसे ही उनकी आंखे खुली तो देवताओं को सामने पाकर उनसे आने का कारण पूछा। देवताओं ने दैत्य मुर के अत्याचार की समस्त कहानी कह सुनाई। भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन देकर भेज दिया। इसके बाद हजारों साल तक युद्ध मुर और श्री हरि के बीच युद्ध होता रहा लेकिन मुर की हार नहीं हुई। भगवान विष्णु को युद्ध के बीच में ही निद्रा आने लगी तो वे बद्रीकाश्रम में हेमवती नामक गुफा में शयन के लिये चले गये। उनके पिछे-पिछ मुर भी गुफा में चला आया। भगवान विष्णु को सोते हुए देखकर उन पर वार करने के लिये मुर ने जैसे ही हथियार उठाये श्री हरि से एक सुंदर कन्या प्रकट हुई जिसने मुर के साथ युद्ध किया। सुंदरी के प्रहार से मुर मूर्छित हो गया जिसके बाद उसका सर धड़ से अलग कर दिया गया। इस प्रकार मुर का अंत हुआ जब भगवान विष्णु नींद से जागे तो सुंदरी को देखकर वे हैरान हो गये। जिस दिन वह प्रकट हुई वह दिन मार्गशीर्ष मास की एकादशी का दिन था इसलिये भगवान विष्णु ने इनका नाम एकादशी रखा और उससे वरदान मांगने की कही। तब एकादशी ने मांगा कि जब भी कोई मेरा उपवास करे तो उसके समस्त पापों का नाश हो। तब भगवान विष्णु ने एकादशी को वरदान दिया कि आज से प्रत्येक मास की एकादशी का जो भी उपवास रखेगा उसके समस्त पापों का नाश होगा और विष्णुलोक में स्थान मिलेगा। मुझे सब उपवासों में एकादशी का उपवास प्रिय होगा। तब से लेकर वर्तमान तक एकादशी व्रत का माहात्म्य बना हुआ है।
एकादशी उपवास की शुरुआत
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जो व्रती एकादशी के उपवास को नहीं रखते हैं और इस उपवास को लगातार रखने का मन बना रहे हैं तो उन्हें मार्गशीर्ष मास की कृष्ण एकादशी अर्थात उत्पन्ना एकादशी से इसका आरंभ करना चाहिये क्योंकि सर्वप्रथम हेमंत ऋतु में इसी एकादशी से इस व्रत का प्रारंभ हुआ ऐसा माना जाता है।
उत्पन्ना एकादशी व्रत व पूजा विधि
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एकादशी के व्रत की तैयारी दशमी तिथि को ही आरंभ हो जाती है। उपवास का आरंभ दशमी की रात्रि से ही आरंभ हो जाता है। इसमें दशमी तिथि को सायंकाल भोजन करने के पश्चात अच्छे से दातुन कुल्ला करना चाहिये ताकि अन्न का अंश मुंह में शेष न रहे। इसके बाद रात्रि को बिल्कुल भी भोजन न करें। अधिक बोलकर अपनी ऊर्जा को भी व्यर्थ न करें। रात्रि में ब्रह्मचर्य का पालन करें। एकादशी के दिन प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। नित्य क्रियाओं से निपटने के बाद स्नानादि कर स्वच्छ हो लें। भगवान का पूजन करें, व्रत कथा सुनें। दिन भर व्रती को बुरे कर्म करने वाले पापी, दुष्ट व्यक्तियों की संगत से बचना चाहिये। रात्रि में भजन-कीर्तन करें। जाने-अंजाने हुई गलतियों के लिये भगवान श्री हरि से क्षमा मांगे। द्वादशी के दिन प्रात:काल ब्राह्मण या किसी गरीब को भोजन करवाकर उचित दान दक्षिणा देकर फिर अपने व्रत का पारण करना चाहिये। इस विधि से किया गया उपवास बहुत ही पुण्य फलदायी होता है।
उत्पन्ना एकादशी मुहूर्त
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एकादशी तिथि आरंभ👉 14 नवम्बर
रात्रि 12:47 से ।
एकादशी तिथि समापन👉 15 नवम्बर को रात्रि 02:45 पर।
व्रत पारण समय और तिथि👉 पारण का समय 16 नवम्बर दिन 01:09 से 03:17 तक रहेगा।
पारण तिथि के दिन हरि वासर समाप्त होने का समय 👉 प्रातः 09:09 पर।
भगवान जगदीश जी की आरती
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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥ ॐ जय जगदीश…
जो ध्यावे फल पावे, दुःख बिनसे मन का।
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय जगदीश…
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी॥ ॐ जय जगदीश…
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी॥ ॐ जय जगदीश…
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय जगदीश…
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय जगदीश…
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे।
करुणा हाथ बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय जगदीश…
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय जगदीश…
साभार~ पं देव शर्मा💐
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Utpanna Ekadashi Vrat Katha : उत्पन्ना एकादशी के दिन जरूर पढ़ें एकादशी माता और भगवान विष्णु की ये दिव्य कथा, हर पाप से मिल जाएगी मुक्ति
#🪔उत्पन्ना एकादशी📿
*Utpanna Ekadashi Vrat Katha : उत्पन्ना एकादशी साल में आने वाली सभी एकादशियों में महत्वपूर्ण मानी जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसी दिन एकादशी माता का जन्म हुआ था और भगवान विष्णु ने उन्हें पूजे जाने का वरदान दिया था। चलिए जानते हैं उत्पन्ना एकादशी की व्रत कथा ?*
*उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा?*
*Utpanna Ekadashi Vrat Katha : मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस साल ये एकादशी 15 नवंबर 2025 को मनाई जाएगी तो वहीं इस व्रत का पारण 16 नवंबर को किया जाएगा। पौराणिक कथा अनुसार जब भगवान विष्णु योगनिद्रा में थे, तब मुर नामक राक्षस ने उन पर वार करने की कोशिश की लेकिन उसी समय भगवान की देह से देवी एकादशी का जन्म हुआ और उन्होंने मुर का वध कर दिया। कहते हैं उसी दिन से यह तिथि उत्पन्ना एकादशी के नाम से प्रसिद्ध हुई। कहते हैं जो भी भक्त इस व्रत को करता है उसके जीवन के सारे अंधकार दूर हो जाते हैं। यहां हम आपको बताएंगे उत्पन्ना एकादशी की पावन कथा के बारे में।*
*उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा (Utpanna Ekadashi Vrat Katha)*
*सतयुग में मुर नाम का एक दैत्य था जो बड़ा बलवान और दुष्ट था। उसने अपनी शक्ति के बल पर इंद्र, आदित्य, वसु, वायु, अग्नि आदि सभी देवताओं को पराजित करके भगा दिया था। तब इंद्र सहित सभी देवता भगवान शिव के पास पहुंचे और उनसें सारा वृत्तांत कहा। तब भगवान शिव ने कहा- हे देवताओं! तुम्हारे दुखों का नाश भगवान विष्णु करेंगे इसलिए तुम उनकी शरण में जाओ। इसके बाद सभी देवता क्षीरसागर में पहुंचे। वहाँ भगवान को शयन करते देख हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे, कि हे देवताओं द्वारा स्तुति करने योग्य प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है, देवताओं की रक्षा करने वाले मधुसूदन! आपको नमस्कार है। आप हमारी रक्षा करें। दैत्यों से भयभीत होकर हम सब आपकी शरण में आए हैं। आप इस संसार के कर्ता, माता-पिता, उत्पत्ति और पालनकर्ता और संहार करने वाले हैं। आकाश भी आप हैं और पाताल भी। सबके पितामह ब्रह्मा, सूर्य, चंद्र, अग्नि, सामग्री, होम, आहुति, मंत्र, तंत्र, जप, यजमान, यज्ञ, कर्म, कर्ता, भोक्ता भी आप ही हैं। आप सर्वव्यापक हैं। आपके सिवा तीनों लोकों में चर तथा अचर कुछ भी नहीं है।*
*हे भगवन्! दैत्यों ने हमें पराजित करके स्वर्ग पर अपनास अधिकार जमा लिया है और हम सब देवता इधर-उधर भागे-भागे फिर रहे हैं, आप उन दैत्यों से हम सबकी रक्षा करें। इंद्र के ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु ने कहा कि ऐसा मायावी दैत्य कौन है जिसने सब देवताअओं को जीत लिया है, उसका नाम क्या है? भगवान के ऐसे वचन सुनकर इंद्र बोले- भगवन! प्राचीन समय में एक नाड़ीजंघ नामक राक्षस था उसके महापराक्रमी और लोकविख्यात मुर नाम का एक पुत्र हुआ। उसकी चंद्रावती नाम की नगरी है। उसी ने सब देवताओं को स्वर्ग से निकालकर वहां अपना अधिकार जमा लिया है। अब वह सूर्य बनकर स्वयं ही प्रकाश करता है। स्वयं ही मेघ बन बैठा है और सबसे अजेय है। यह वचन सुनकर भगवान ने कहा- हे देवताओं, मैं शीघ्र ही उसका वध करूंगा। अब तुम चंद्रावती नगरी जाओ। इसके बाद भगवान सहित सभी देवता चंद्रावती नगरी पहुंचे। उस समय जब दैत्य मुर सेना सहित युद्ध भूमि में गरज रहा था तो उसकी भयानक गर्जना सुनकर सभी देवता डर गए। जब स्वयं भगवान रणभूमि में आए तो दैत्य उन पर भी अस्त्र, शस्त्र, आयुध लेकर दौड़े।*
*भगवान ने उन्हें सर्प के समान अपने बाणों से बींध डाला। अब केवल मुर बचा था जो भगवान के साथ युद्ध करता रहा। भगवान जो-जो भी तीक्ष्ण बाण चलाते वह उसके लिए पुष्प सिद्ध होता। उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो गया किंतु वह लगातार युद्ध करता रहा। इसके बाद दोनों के बीच मल्लयुद्ध हुआ। कहते हैं 10 हजार वर्ष तक उनका युद्ध चलता रहा किंतु मुर नहीं मरा। थककर भगवान बद्रिकाश्रम चले गए और वहां हेमवती नाम की गुफा में आराम करने लगे। ये गुफा 12 योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था। विष्णु भगवान को सोया देखकर मुर उन्हें मारने को उद्यत हुआ लेकिन तभी भगवान के शरीर से उज्ज्वल देवी प्रकट हुई। देवी ने राक्षस मुर को ललकारा और उससे युद्ध किया और उसे मौत के घाट उतार दिया।*
*श्री हरि जब योगनिद्रा से जागे तो सब बातों को जानकर उन्होंने उस देवी से कहा कि आपका जन्म एकादशी के दिन हुआ है, अत: आप उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजित होंगी। जो भी आपकी पूजा करके उसे मेरी कृपा भी प्राप्त होगी।*
प्रभु श्री राम के नाम सुमिरन की महिमा तो देखो की गुप्तचरों के मन का कपट जाता रहा , वो निष्कपट हो गए व प्रेम पुर्वक जोर जोर से प्रभु का गुणगान करने लगे, भूल ही गए कि रावण व श्री राम का बैर है और अपने असली राक्षसी वेश में आ गए, जैसे ही वानरों ने राक्षशों को देखा तो डर गए और तुरन्त उन्हें बन्दी बना कर वनराधीश सुग्रीव के पास ले आये।
जय श्री राम
##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
संसारेऽस्मिन् क्षणार्थोऽपि सत्संगः शेवधिर्नृणाम् ।
यस्य दवाण्यते सर्व पुरुषार्थ चतुष्टयम् ॥
अर्थात 👉🏻 इस संसार में यदि क्षणभर के लिये भी सत्संग मिल जाय तो वह मनुष्यों के लिये निधि का काम देता है , क्योंकि उससे चारों पुरुषार्थ प्राप्त हो जाते हैं ।
🌄🌄 प्रभातवंदन 🌄🌄
#☝अनमोल ज्ञान #🙏सुविचार📿
###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०२९
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायण
बालकाण्ड
चौबीसवाँ सर्ग
श्रीराम और लक्ष्मणका गंगापार होते समय विश्वामित्रजीसे जलमें उठती हुई तुमुलध्वनिके विषयमें प्रश्न करना, विश्वामित्रजीका उन्हें इसका कारण बताना तथा मलद, करूष एवं ताटका वनका परिचय देते हुए इन्हें ताटकावधके लिये आज्ञा प्रदान करना
तदनन्तर निर्मल प्रभातकालमें नित्यकर्मसे निवृत्त हुए विश्वामित्रजीको आगे करके शत्रुदमन वीर श्रीराम और लक्ष्मण गंगानदी के तटपर आये॥१॥
उस समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन पुण्याश्रमनिवासी महात्मा मुनियोंने एक सुन्दर नाव मँगवाकर विश्वामित्रजीसे कहा—॥२॥
'महर्षे! आप इन राजकुमारोंको आगे करके इस नावपर बैठ जाइये और मार्गको निर्विघ्नतापूर्वक तै कीजिये, जिससे विलम्ब न हो'॥३॥
विश्वामित्रजीने 'बहुत अच्छा' कहकर उन महर्षियोंकी सराहना की और वे श्रीराम तथा लक्ष्मणके साथ समुद्र-गामिनी गंगानदीको पार करने लगे॥४॥
गंगाकी बीच धारामें आनेपर छोटे भाईसहित महातेजस्वी श्रीरामको दो जलोंके टकरानेकी बड़ी भारी आवाज सुनायी देने लगी। 'यह कैसी आवाज है? क्यों तथा कहाँसे आ रही है?' इस बातको निश्चितरूपसे जाननेकी इच्छा उनके भीतर जाग उठी॥५½॥
तब श्रीरामने नदीके मध्यभागमें मुनिवर विश्वामित्रसे पूछा—'जलके परस्पर मिलनेसे यहाँ ऐसी तुमुलध्वनि क्यों हो रही है?'॥६½॥
श्रीरामचन्द्रजीके वचनमें इस रहस्यको जाननेकी उत्कण्ठा भरी हुई थी। उसे सुनकर धर्मात्मा विश्वामित्रने उस महान् शब्द (तुमुलध्वनि) का सुनिश्चित कारण बताते हुए कहा—॥७½॥
'नरश्रेष्ठ राम! कैलासपर्वतपर एक सुन्दर सरोवर है। उसे ब्रह्माजीने अपने मानसिक संकल्पसे प्रकट किया था। मनके द्वारा प्रकट होनेसे ही वह उत्तम सरोवर 'मानस' कहलाता है॥८½॥
'उस सरोवरसे एक नदी निकली है, जो अयोध्यापुरीसे सटकर बहती है। ब्रह्मसरसे निकलनेके कारण वह पवित्र नदी सरयूके नामसे विख्यात है॥९½॥
'उसीका जल गंगाजीमें मिल रहा है। दो नदियोंके जलोंके संघर्षसे ही यह भारी आवाज हो रही है; जिसकी कहीं तुलना नहीं है। राम! तुम अपने मनको संयममें रखकर इस संगमके जलको प्रणाम करो'॥१०½॥
यह सुनकर उन दोनों अत्यन्त धर्मात्मा भाइयोंने उन दोनों नदियोंको प्रणाम किया और गंगाके दक्षिण किनारेपर उतरकर वे दोनों बन्धु जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चलने लगे॥११½॥
उस समय इक्ष्वाकुनन्दन राजकुमार श्रीरामने अपने सामने एक भयङ्कर वन देखा, जिसमें मनुष्योंके आने-जानेका कोई चिह्न नहीं था। उसे देखकर उन्होंने मुनिवर विश्वामित्रसे पूछा—॥१२½॥
'गुरुदेव! यह वन तो बड़ा ही अद्भुत एवं दुर्गम है। यहाँ चारों ओर झिल्लियोंकी झनकार सुनायी देती है। भयानक हिंसक जन्तु भरे हुए हैं। भयङ्कर बोली बोलनेवाले पक्षी सब ओर फैले हुए हैं। नाना प्रकारके विहंगम भीषण स्वरमें चहचहा रहे हैं॥१३-१४॥
'सिंह, व्याघ्र, सूअर और हाथी भी इस जंगलकी शोभा बढ़ा रहे हैं। धव (धौरा), अश्वकर्ण (एक प्रकारके शालवृक्ष), ककुभ (अर्जुन), बेल, तिन्दुक (तेन्दू), पाटल (पाड़र) तथा बेरके वृक्षोंसे भरा हुआ यह भयङ्कर वन क्या है?—इसका क्या नाम है?'॥१५½॥
तब महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्रने उनसे कहा—'वत्स! ककुत्स्थनन्दन! यह भयङ्कर वन जिसके अधिकारमें रहा है, उसका परिचय सुनो॥१६½॥
'नरश्रेष्ठ! पूर्वकालमें यहाँ दो समृद्धिशाली जनपद थे—मलद और करूष। ये दोनों देश देवताओंके प्रयत्नसे निर्मित हुए थे॥१७½॥
'राम! पहलेकी बात है वृत्रासुरका वध करनेके पश्चात् देवराज इन्द्र मलसे लिप्त हो गये। क्षुधाने भी उन्हें धर दबाया और उनके भीतर ब्रह्महत्या प्रविष्ट हो गयी॥१८½॥
'तब देवताओं तथा तपोधन ऋषियोंने मलिन इन्द्रको यहाँ गंगाजलसे भरे हुए कलशोंद्वारा नहलाया तथा उनके मल (और कारूष—क्षुधा) को छुड़ा दिया॥१९½॥
इस भूभागमें देवराज इन्द्रके शरीरसे उत्पन्न हुए मल और कारूषको देकर देवतालोग बड़े प्रसन्न हुए॥२०½॥
'इन्द्र पूर्ववत् निर्मल, निष्करूष (क्षुधाहीन) एवं शुद्ध हो गये। तब उन्होंने प्रसन्न होकर इस देशको यह उत्तम वर प्रदान किया—'ये दो जनपद लोकमें मलद और करूष नामसे विख्यात होंगे। मेरे अंगजनित मलको धारण करनेवाले ये दोनों देश बड़े समृद्धिशाली होंगे'॥२१-२२½॥
'बुद्धिमान् इन्द्रके द्वारा की गयी उस देशकी वह पूजा देखकर देवताओंने पाकशासनको बारम्बार साधुवाद दिया॥२३½॥
'शत्रुदमन! मलद और करूष—ये दोनों जनपद दीर्घकालतक समृद्धिशाली, धन-धान्यसे सम्पन्न तथा सुखी रहे हैं॥२४½॥
'कुछ कालके अनन्तर यहाँ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली एक यक्षिणी आयी, जो अपने शरीरमें एक हजार हाथियोंका बल धारण करती है॥२५½॥
'उसका नाम ताटका है। वह बुद्धिमान् सुन्द नामक दैत्यकी पत्नी है। तुम्हारा कल्याण हो। मारीच नामक राक्षस, जो इन्द्रके समान पराक्रमी है, उस ताटकाका ही पुत्र है। उसकी भुजाएँ गोल, मस्तक बहुत बड़ा, मुँह फैला हुआ और शरीर विशाल है॥२६-२७॥
'वह भयानक आकारवाला राक्षस यहाँकी प्रजाको सदा ही त्रास पहुँचाता रहता है। रघुनन्दन! वह दुराचारिणी ताटका भी सदा मलद और करूष—इन दोनों जनपदोंका विनाश करती रहती है॥२८½॥
'वह यक्षिणी डेढ़ योजन (छः कोस) तकके मार्गको घेरकर इस वनमें रहती है; अतः हमलोगोंको जिस ओर ताटकावन है, उधर ही चलना चाहिये। तुम अपने बाहुबलका सहारा लेकर इस दुराचारिणीको मार डालो॥२९-३०॥
'मेरी आज्ञासे इस देशको पुनः निष्कण्टक बना दो। यह देश ऐसा रमणीय है तो भी इस समय कोई यहाँ आ नहीं सकता है॥३१॥
'राम! उस असह्य एवं भयानक यक्षिणीने इस देशको उजाड़ कर डाला है। यह वन ऐसा भयङ्कर क्यों है, यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। उस यक्षिणीने ही इस सारे देशको उजाड़ दिया है और वह आज भी अपने उस क्रूर कर्मसे निवृत्त नहीं हुई है'॥३२॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२४॥*
(((( त्रिभंग मुरलीधर ))))
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एक बाबा जी नंदग्राम में यशोदा कुंड के पीछे निष्किंचन भाव से एक गुफा में बहुत काल से वास करते थे,
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दिन में केवल एक बार संध्या के समय गुफा से बाहर शौचादि और मधुकरी के लिए निकलते थे. वृद्ध हो गए थे, इसलिए नंदग्राम छोड़कर कही नहीं जाते थे.
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एक बार हठ करके बहुत से बाबा जी श्री गोवर्धन में नाम 'यज्ञ महोत्सव' में ले गए.
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तीन दिन बाद जब संध्याकाल में लौटे तो अन्धकार हो गया था, गुफा में जब घुसे, तब वहाँ करुण कंठ से किसी को कहते सुना - ओं बाबा जी महाशय ! पिछले दो दिन से मुझे कुछ भी आहार न मिला.
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बाबा जी आश्चर्य चकित हो बोले - तुम कौन हो ?
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उत्तर मिला आप जिस कूकर को प्रतिदिन एक टूक मधुकरी का देते थे, मै वही हूँ.
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बाबा जी अप्राकृत धाम के अद्भुत अनुभव से विस्मृत हो बोले - आप कृपा करके अपने स्वरुप का परिचय दीजिये,
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वह कूकर कहने लगा - बाबा ! मै बड़ा दुर्भागा जीव हूँ, पूर्वजन्म में, मै इसी नन्दीश्वर मंदिर का पुजारी था
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एक दिन एक बड़ा लड्डू भोग के निमित्त आया मैंने लोभवश उसका भोग न लगाया और स्वयं खा गया, उस अपराध के कारण मुझे यह भूत योनि मिली है.
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आप निष्किंचन वैष्णव है आपकी उचिछ्ष्ट मधुकरी का टूक खाकर मेरी ऊर्ध्वगति होगी, इस लोभ से नित्यप्रति आपके यहाँ आता हूँ तब परस्पर यह वार्ता हुई.
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बाबा बोले - आप तो अप्राकृत धाम के भूत है आपको तो निश्चय ही श्री युगल किशोर के दर्शन होते होगे, उनकी लीलादी प्रत्यक्ष देखते होगे.
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भूत - दर्शन तो होते है, लीला भी देखता हूँ, लेकिन जिस प्रकार उसका आप आस्वादन करते है, मुझे इस देह में आस्वादन नहीं होता क्योकि इसमें वह योग्यता नहीं है
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बाबा - तब तो मुझे भी एक बार दर्शन करा दो ?
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भूत - यह मेरे अधिकार के बाहर की बात है.
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बाबा - अच्छा कोई युक्ति ही बता दो जिससे मुझे दर्शन हो ?
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भूत - हाँ ! यह मै बता सकता हूँ, कल शाम् के समय यशोदा कुंड पर जाना,
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संध्या समय जब ग्वालबाल गोष्ठ में वन से गौए फेर कर लायेगे, तो इन ग्वाल बालों में सबसे पीछे जो बालक होगा वह है - 'श्री कृष्ण". इतना बताकर वह कूकररूपी भूत अन्तहित हो गया.
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अब क्या था उन्मत्त की तरह बाबा इधर-उधर फिरने लगे, वक्त काटना मुश्किल हो गया. कभी रोते, कभी हँसते, कभी नृत्य करते, अधीर थे,
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बड़ी मुश्किल से वह लंबी रात्रि कटी प्रातः होते ही यशोदा कुंड के प्रान्त भाग में एक झाड़ी में छिपकर शाम कि प्रतीक्षा करने लगे, कभी भाव उठता में तो महान अयोग्य हूँ मुझे दर्शन मिलाना असंभव है ? यह विचार कर रोते रोते रज में लोट जाते.
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फिर सावधान हो जब ध्यान आता कि श्री कृष्ण तो करुणासागर है मुझ दीन-हीन पर अवश्य ही वे कृपा करेगे, तो आनन्द मगन हो, नृत्य करने लगते
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ऐसे करते शाम हो गई गोधुलि रंजित आकाश देख बड़े प्रसन्न हुए, देखा कि एक-एक दो-दो ग्वालबाल अपने-अपने गौओ के यूथो को हाँकते चले आ रहे है.
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जब सब निकल गए तो सबके पीछे एक ग्वाल बाल आ रहा था, कृष्णवर्ण कई जगह से शरीर को टेढ़ा करके चल रहा है, इन्होने मन में जान लिया यही है
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जल्दी से बाहर निकल आये उनको सादर दंडवत प्रणाम कर उनके चरणारविन्द को द्रढता से पकड़ लिया तब परस्पर वार्ता शुरू हुई.
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बालक - रे बाबा ! मै बनिए का लाला हूँ, मुझे अपराध होगा, तु मेरा पैर छोड़ दे ! मैया मरेगी ! मधूकारी दूँगा और जो माँगेगा दूँगा, मेरा पैर छोड़ दे.
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बाबा - (सब सुनी अनसुनी कर विनय करने लगे) हे प्रियतम ! एक बार दर्शन देकर मेरे तापित प्राणों को शीतल करो, हे कृष्ण ! अब छल चातुरी मत करो ! मुझे अपने अभय चरणारविन्द में स्थान दो !
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इस तरह तर्क-वितर्क करते-करते जब भक्त और भक्त वस्तल भगवान के बीच आधी रात हो गई और जब बाबा जी ने किसी तरह चरण न छोड़े, तो
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श्री कृष्ण बोले - अच्छा बाबा मेरा स्वरुप देख ! श्री कृष्ण ने त्रिभंग मुरलीधर रूप में बाबा जी को दर्शन दिए.
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तब बाबा जी ने कहा - में केवल मात्र आपका ही तो ध्यान नहीं करता, मै तो युगल रूप का उपासक हूँ,
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अत: हे कृपामय ! एक बार सपरिकर दर्शन देकर मेरे प्राण बचाओ !
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तब श्री श्यामसुंदर, श्री राधा जी और सखिगण परिकर के संग यमुना पुलिन पर अलौकिक प्रकाश करते प्रकट हो गए.
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बाबा जी नयन मन सार्थक करते उस रूप माधुरी में डूब गए उनकी चिर दिन की पोषित वांछा पूर्ण हुई और तीन चार दिन पश्चात ही बाबा अप्रकट हो गए.
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩
#☝अनमोल ज्ञान
दूसरों के हिस्से का भोजन न खाएं
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महाभारत के महानायक भीम को भोजन बेहद पसंद था। महाभारत की यह कहानी कौरव और पांडव के बचपन की है। तब सभी साथ रहते थे। लेकिन जब भोजन होता तो भीम, सबसे ज्यादा भोजन करते थे। इस बात को लेकर दुर्योधन और उनके भाई नाराज रहते थे। क्योंकि भाम उनके हिस्से का भी भोजन खा जाया करते थे।
एक दिन की बात है दुर्योधन ने चुपके से भीम के भोजन में जहर मिला दिया। और उन्हें अपने साथ नदी किनारे घुमाने ले गए। जब भीम मूर्छित हो गए तो उन्हें नदी में फेंक दिया। नदी में एक नाग रहता था। उसने भीम का औषधि से इलाज किया और उन्हें स्वस्थ कर पुनः नदी के किनारे छोड़ दिया।
भीम, अपने घर यानी हस्तिनापुर के राजमहल में पहुंचे। जब भीम वापिस आते हैं तो हस्तिनापुर में शोक सभा हो रही होती है। सबको ये सग रहा था कि भीम मर गये हैं। उनके लिए श्राद्ध का आयोजन उसी दिन रखा गया। भीम, महल में पहुंचे जहां कई तरह की सब्जियां और फल कटे हुए रखे थे।
भीम ने इन सभी सब्जियों और फलों को देख उसका एक व्यंजन बनाया। वर्तमान में तमिल लोग 'अवियल' नामक व्यंजन बनाते हैं, इसका इजाद करने का श्रेय भीम को ही जाता है।
ठीक इसी तरह, जब भीम अज्ञातवास में होते हैं तो राजा विराट के यहां वह बाबर्ची का कार्य करते हैं। वह खाना बनाते हैं, परोसते हैं लेकिन उसे सभी के खाने के बाद ही खा सकते हैं। उनके लिए एक तरह से यह दंड था। क्योंकि भीम जिंदगी भर दूसरों के भाग का भी खाना खा लिया करते थे।
और आखिर में भीम के अंत समय यानी जब वह स्वर्गारोहण पर अपनी माता और भाइयों के साथ जा रहे थे। तो वह बर्फीली चट्टान से गिर गए। उन्हें दूसरों के भाग का खाने के कारण नर्क मिलता लेकिन, उन्होंने जीव कल्याण के भी कार्य किए थे, इसलिए उन्हें स्वर्ग में जगह मिली।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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