#📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏देवी कालरात्री🙏 #🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🕉️सनातन धर्म🚩
श्री दुर्गा सप्तशती भाषा
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आठवां अध्याय
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ऊँ नमश्चण्डिकायै नम:
(रक्तबीज वध)
ॐ अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखैरहमित्येव विभावये भवानीम्।।
महर्षि मेधा ने कहा-चण्ड और मुण्ड नामक असुरों के मारे जाने से और बहुत सी सेना के नष्ट हो जाने से असुरों के राजा, प्रतापी शम्भु ने क्रोध युक्त होकर अपनी सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा दी। उसने कहा-अब उदायुध नामक छियासी असुर सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये जायें और कम्बू नामक चौरासी सेनापति भी युद्ध के लिये जाएँ और कोटि वीर्य नामक पचास सेनापति और धौम्रकुल नाम के सौ सेनापति प्रस्थान करें, कालक, दौहृद, मौर्य और कालकेय यह दैत्य भी मेरी आज्ञा से सजकर युद्ध के लिए कूच करें, भयानक शासन करने वाला असुरों का स्वामी शुम्भ इस प्रकार आज्ञा देकर बहुत बड़ी सेना के साथ युद्ध के लिए चला। उसकी सेना को अपनी ओर आता देखकर चण्डिका ने अपनी धनुष की टंकोर से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुँजा दिया।
हे राजन्! इसके पश्चात देवी के सिंह ने दहाड़ना आरम्भ कर दिअय और अम्बिका के घंटे के शब्दों ने उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया, धनुष की टंकोर, शेर की दहाड़ और घण्टे के शब्द से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गूँज उठा और इसके साथ ही देवी ने अपने मुख को और भी भयानक बना लिया। ऎसे भयंकर शब्द को सुनकर राक्षसी सेना ने देवी तथा सिंह को चारों ओर से घेर लिया। हे राजन्! उस समय दैत्यों के नाश के लिए और देवताओं के हित के लिए ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ जो अत्यंत पराक्रम और बल से सम्पन्न थी, उनके शरीर से निकल कर उसी रूप में चण्डिका देवी के पास गई। जिस देवता का जैसा रूप था, जैसे आभूषण थे और जैसा वाहन था, वैसा ही रूप, आभूषण और वाहन लेकर उन देवताओं की शक्तियाँ दैत्यों से युद्ध करने के लिए आई।
हंस युक्त विमान में बैठकर और रुद्राक्ष की माला तथा कमण्डलु धारण कर के ब्रह्माजी की शक्ति आई, वृषभ पर सवार होकर, हाथ में त्रिशूल लेकर, महानाग का कंकण पहन कर और चन्द्ररेखा से भूषित होकर भगवान शंकर की शक्ति माहेश्वरी आई और मोर पर आरूढ़ होकर, हाथ में शक्ति लिये दैत्यों से युद्ध करने के लिये कार्तिकेय जी की शक्ति उन्हीं का रूप धारण करके आई। भगवान विष्णु की शक्ति गरुड़ पर सवार होकर शंख, चक्र, श्रांग गदा, धनुष तथा खंड्ग हाथ में लिये हुए आई। श्रीहरि की शक्ति वाराही, वाराह का शरीर धारण करके आई और नृसिंह के समान शरीर धारण करके उनकी शक्ति नारसिंही भी आई, उसकी गर्दन के झटकों से आकाश के तारे टूट पड़ते थे और इसी प्रकार देवराज इन्द्र की शक्ति ऎंन्द्री भी ऎरावत के ऊपर सवार होकर आई, पश्चात इन देव शक्तियों से घिरे हुए भगवान शंकर ने चंडिका से कहा-मेरी प्रसन्नता के लिये तुम शीघ्र ही इन असुरों को मारो।
इसके पश्चात देवी के शरीर में से अत्यन्त उग्र रूप वाली और सैकड़ों गीदड़ियों के समान आवाज करने वाली चण्डिका शक्ति प्रकट हुई, उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटा वाले भगवान श्रीशंकर जी से कहा-हे प्रभो! आप मेरी ओर से दूत बनकर शुम्भ और निशुम्भ के पास जाइए और उन अत्यन्त गर्वीले दैत्यों से कहिये तथा उनके अतिरिक्त और भी जो दैत्य वहाँ युद्ध के लिए उपस्थित हों, उनसे भी कहिये-जो तुम्हें अपने जीवित रहने की इच्छा हो तो त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दे दो, देवताओं को उनका यज्ञ भाग मिलना आरम्भ हो जाये और तुम पाताल को लौट जाओ, किन्तु यदि बल के गर्व से तुम्हारी लड़ने की इच्छा हो तो फिर आ जाओ, तुम्हारे माँस से मेरी योगिनियाँ तृप्त होंगी, चूँकि उस देवी ने भगवान शंकर को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह संसार में शिवदूती के नाम से विख्यात हुई।
भगवान शंकर से देवी का सन्देश पाकर उन दैत्यों के क्रोध का कोई आर-पार न रहा और वह जिस स्थान पर देवी विराजमान थी वहाँ पहुँचे, और जाने के साथ ही उस पर बाणों और शक्तियों की वर्षा करने लगे। देवी ने उनके फेंके हुए बाणों, शक्तियों, त्रिशूल और फरसों को अपने वाणों से काट डाला और काली देवी उस देवी के साथ आगे खड़ी होकर शत्रुओं को त्रिशूल से विदीर्ण करने लगी और खटवांग से कुचलने लगी, ब्राह्मणी जिस तरफ दौड़ती थी, उसी तरफ अपने कमण्डलु का जल छिड़क कर दैत्यों के वीर्य व बल को नष्ट कर देती थी और इसी प्रकार माहेश्वरी त्रिशूल से, वैष्णवी चक्र से और अत्यन्त कोपवाली कौमारी शक्ति द्वारा असुरों को मार रही थी और ऎन्द्री के बाजू के प्रहार से सैकड़ों दैत्य रक्त की नदियाँ बहाते हुये पृथ्वी पर सो गये।
वाराही ने कितने ही राक्षसों को अपनी थूथन द्वारा मृत्यु के घाट उतार दिया, दाढ़ो के अग्रभाग से कितने ही राक्षसों की छाती को चीर डाला और चक्र की चोट से कितनों ही को विदीर्ण करके धरती पर डाल दिया। बड़े-2 राक्षसों को नारसिंही अपने नखों से विदीर्ण करकेव भक्षण कर रही थी और सिंहनाद से चारों दिशाओं को गुंजाती हुई रणभूमि में विचर रही थी, शिवदूती के प्रचण्ड अट्टहास से कितने ही दैत्य भयभीत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और उनके गिरते ही वह उनको भक्षण कर गई।
इस तरह क्रोध में भरे हुए मातृगणों द्वारा नाना प्रकार के उपायों से बड़े-बड़े असुरों को मरते हुए देखकर राक्षसी सेना भाग खड़ी हुई और उनको इस प्रकार भागता देखकर रक्तबीज नामक महा पराक्रमी राक्षस क्रोध में भरकर युद्ध के लिये आगे बढ़ा। उसके शरीर से रक्त की बूँदे पृथ्वी पर जैसे ही गिरती थी तुरंत वैसे ही शरीर वाला तथा वैसा ही बलवान दैत्य पृथ्वी से उत्पन्न हो जाता था। रक्तबीज गदा हाथ में लेकर ऎन्द्री के साथ युद्ध करने लगा, जब ऎन्द्रीशक्ति ने अपने वज्र से उसको मारा तो घायल होने के कारण उसके शरीर से बहुत सा रक्त बहने लगा और उसकी प्रत्येक बूँद से उसके समान ही बलवान तथा महा पराक्रमी अनेकों दैत्य भयंकर रूप से प्रकट हो गये, वह सबके सब दैत्य बीज के समान ही बलवान तेज वाले थे, वह भी भयंकर अस्त्र-शस्त्र लेकर देवियों के साथ लड़ने लगे। जब ऎन्द्री के वज्र प्रहार से उसके मस्तक पर चोट लगी और रक्त बहने लगा तो उसमें से हजारों ही पुरूष उत्पन्न हो गये।
वैष्णवी ने चक्र से और ऎन्द्री ने गदा से रक्तबीज को चोट पहुँचाई और वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर उसके शरीर से जो रक्त बहा, उससे हजारों महा असुर उत्पन्न हुए, जिनके द्वारा यह जगत व्याप्त हो गया, कौमारी ने शक्ति से, वाराही ने खड्ग से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से उसको घायल किया। इस प्रकार क्रोध में भरकर उस महादैत्य ने सब मातृ शक्तियों पर पृथक-पृथक गदा से प्रहार किया, और माताओं ने शक्ति तथा शूल इत्यादि से उसको बार-बार घायल किया, उससे सैकडो़ माहदैत्य उत्पन हुए और इस प्रकार उस रक्रबीज के रुधिर से उत्पन्न हुए असुरों से सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो गया जिससे देवताओं को भय हुआ, देवताओं को भयभीत देखकर चंडिका ने काली से कहा-हे चामुण्डे! अपने मुख को बड़ा करो और मेरे शस्त्रघात से उत्पन्न हुए रक्त बिन्दुओं तथा रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न हुए महा असुरों को तुम अपने इस मुख से भक्षण करती जाओ। इस प्रकार रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न हुए महादैत्यों को भक्षण करती हुई तुम रण भूमि में विचरो। इस प्रकार रक्त क्षीण होने से यह दैत्य नष्ट हो जाएगा, तुम्हारे भक्षण करने के कारण अन्य दैत्य नहीं होगे।
काली से इस प्रकार कहकर चण्डिका देवी ने रक्तबीज पर अपने त्रिशूल से प्रहार किया और काली देवी ने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया, तब उसने गदा से चण्डिका पर प्रहार किया, प्रहार से चंडिका को तनिक भी कष्ट न हुआ, किंतु रक्तबीज के शरीर से बहुत सा रक्त बहने लगा, लेकिन उसके गिरने के साथ ही काली ने उसको अपने मुख में ले लिया। काली के मुख में उस रक्त से जो असुर उत्पन्न हुए, उनको उसने भक्षण कर लिया और रक्त को पीती गई, तदनन्तर देवी ने रक्तबीज को जिसका कि खून काली ने पिया था, चण्डिका ने उस दैत्य को बज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि इत्यादि से मार डाला। हे राजन्! अनेक प्रकार के शस्त्रों से मारा हुआ और खून से वंचित वह महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा। हे राजन्! उसके गिरने से देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और माताएँ उन असुरों का रक्त पीने के पश्चात उद्धत होकर नृत्य करने लगी।
आठवां अध्याय सम्पूर्ण👏🏻
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#🙏शुभ नवरात्रि💐 #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏देवी कालरात्री🙏 श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)
(अष्टमोध्याय)
।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।
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अष्टमोऽध्यायः रक्तबीज-वध
ध्यानम्
अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं
धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम्
अणिमादिभिरावृतां मयूखै-
रहमित्येव विभावये भवानीम्॥
मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणों से आवृत भवानी का ध्यान करता हूँ। उनके शरीर का रंग लाल है, नेत्रों में करुणा लहरा रही है तथा हाथों में पाश, अंकुश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं।
ॐ' ऋषिरुवाच॥ १॥
ऋषि कहते हैं-॥ १॥
चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः ॥ २ ॥
ततः कोपपराधीनचेता: शुम्भः प्रतापवान्।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह ॥ ३ ॥
चण्ड और मुण्ड नामक दैत्यों के मारे जाने तथा बहुत-सी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यों के राजा प्रतापी शुम्भ के मन में बड़ा क्रोध हुआ और उसने दैत्यों की सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिये कूच करने की
आज्ञा दी॥ २-३॥
अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः ।
कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्या्न्तु स्वबलैर्वृताः॥ ४॥
वह बोला-'आज उदायुध नाम के छियासी दैत्य-सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये प्रस्थान करें । कम्बु नाम वाले दैत्यों के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे हुए यात्रा करें ॥ ४ ॥
कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै।र
शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया ॥ ५ ॥
पचास कोटिवीर्य-कुल के और सौ धौम्र-कुल के असुर सेनापति मेरी आज्ञा से
सेना सहित कूच करें ॥ ५ ॥
कालका दौर्हदा मौर्याः कालकेयास्तथासुराः ।
युद्धाय सज्जा निय्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम ॥ ६ ॥
कालक, दौर्हृद, मौर्य और कालकेय असुर भी युद्ध के लिये तैयार हो मेरी आज्ञा से तुरंत प्रस्थान करें' ॥ ६ ॥
इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः ।
निर्जगाम महासैन्यसहस्त्रैर्बहुभिर्वृतः ॥ ७ ॥
भयानक शासन करने वाला असुरराज शुम्भ इस प्रकार आज्ञा दे सहस्रों बड़ी-बड़ी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये प्रस्थित हुआ॥ ७॥
आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा तत्सैन्यमतिभीषणम् ।
ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम्॥ ८ ॥
उसकी अत्यन्त भयंकर सेना आती देख चण्डिका ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुँजा दिया॥ ८॥
ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप।
घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका चोपबृंहयत् ॥ ९ ॥
राजन् ! तदनन्तर देवी के सिंह ने भी बड़े जोर-जोर से दहाड़ना आरम्भ किया, फिर अम्बिका ने घण्टे के शब्द से उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया॥ ९ ॥
धनुज्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मुखा ।
निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना ॥ १० ॥
धनुष की टंकार, सिंह की दहाड़ और घण्टे की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठीं । उस भयंकर शब्द से काली ने अपने विकराल मुख को और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयिनी हुईं॥ १० ॥
तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम् ।
देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः॥ ११॥
उस तुमुल नाद को सुनकर दैत्यों की सेनाओं ने चारों ओर से आकर चण्डिका देवी, सिंह तथा कालीदेवी को क्रोधपूर्वक घेर लिया ॥ ११ ॥
एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम् ।
भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः ॥ १२॥
ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः।
शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः ॥ १३ ॥
राजन्! इसी बीच में असुरों के विनाश तथा देवताओं के अभ्युदय के लिये ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ, जो अत्यन्त पराक्रम और बल से सम्पन्न थीं, उनके शरीरों से निकलकर उन्हीं के रूपमें चण्डिकादेवी के पास गयीं॥ १२-
१३॥
यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम् ।
तद्वदेव हि तच्छत्तिरसुरान् योद्धुमाययौ ॥ १४॥
जिस देवता का जैसा रूप, जैसी वेश- भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही साधनों से सम्पन्न हो उसकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिये आयी॥ १४॥
हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः।
आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते ॥ १५॥
सबसे पहले हंसयुक्त विमान पर बैठी हुई अक्षसूत्र और कमण्डलु से सुशोभित
ब्रह्माजी की शक्ति उपस्थित हुई, जिसे 'ब्रह्माणी' कहते हैं॥ १५ ॥
माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी।
महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा ॥ १६॥
महादेवजी की शक्ति वृषभ पर आरूढ़ हो हाथों में श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किये महानाग का कंकण पहने, मस्तक में चन्द्रेखा से विभूषित हो वहाँ आ पहुँची॥ १६ ॥
कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना।
योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी ॥ १७ ॥
कार्तिकेयजी की शक्ति रूपा जगदम्बिका उन्हीं का रूप धारण किये श्रेष्ठ मयूर पर आरूढ़ हो हाथ में शक्ति लिये दैत्यों से युद्ध करने के लिये आयीं ॥ १७॥
तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता।
शङ्खचक्रगदाशाङ्गखड्गहस्ताभ्युपाययौ
॥१८॥
इसी प्रकार भगवान् विष्णु की शक्ति गरुड़ पर विराजमान हो शंख, चक्र, गदा,
शाङ्ग्गधनुष तथा खड्ग हाथ में लिये वहाँ आयी॥ १८॥
यज्ञवाराहमतुलं रूपं या बिभ्रतो' हरेः।
शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम्।॥ १९ ॥
अनुपम यज्ञवाराह का रूप धारण करने वाले श्रीहरि की जो शक्ति है, वह भी वाराह-शरीर धारण करके वहाँ उपस्थित हुई॥ १९ ॥
नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः ।
प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः ॥ २०॥
नारसिंही शक्ति भी नृसिंह के समान शरीर धारण करके वहाँ आयी। उसकी गर्दन के बालों के झटके से आकाश के तारे बिखरे पड़ते थे ॥ २० ॥
वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता ।
प्राप्ता सहस्त्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा ॥ २१ ॥
इसी प्रकार इन्द्र की शक्ति वज्र हाथ में लिये गजराज ऐरावत पर बैठकर आयी। उसके भी सहस्त्र नेत्र थे। इन्द्र का जैसा रूप है, वैसा ही उसका भी था ॥ २१ ॥
ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभि: ।
हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याऽऽह चण्डिकाम् ॥ २२ ॥
तदनन्तर उन देव-शक्तियों से घिरे हुए महादेवजी ने चण्डिकाबसे कहा- 'मेरी
प्रसन्नता के लिये तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो' ॥ २२ ॥
ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा।
चण्डिकाशक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी ॥ २३ ॥
तब देवी के शरीर से अत्यन्त भयानक और परम उग्र चण्डिका- शक्ति प्रकट हुई। जो सैकड़ों गीदड़ियों की भाँति आवाज करने वाली थी ॥ २३ ॥
चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता।
दूत त्वं गच्छ भगवन् पाश्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ २४॥
उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटावाले महादेवजी से कहा- भगवन्! आप शुम्भ-निशुम्भ के पास दूत बनकर जाइये ॥ २४॥
बूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ ।
ये चान्ये दानवास्त्र युद्धाय समुपस्थिताः॥ २५ ॥
और उन अत्यन्त गवीले दानव शुम्भ एवं निशुम्भ दोनों से कहिये। साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्ध के लिये वहाँ उपस्थित हों उनको भी यह संदेश दीजिये- ॥२५ ॥
त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः ।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ॥ २६॥
'दैत्यो ! यदि तुम जीवित रहना चाहते
हो तो पाताल को लौट जाओ । इन्द्रको त्रिलोकी का राज्य मिल जाय और देवता
यज्ञभाग का उपभोग करें॥ २६ ॥
बलावलेपादथ चेद्धवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः ।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः ॥ २७ ॥
यदि बल के घमंड में आकर तुम युद्ध की अभिलाषा रखते हो तो आओ। मेरी शिवाएँ (योगिनियाँ) तुम्हारे कच्चे मांस से तृप्त हों' ॥ २७ ॥
यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम् ।
शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता ॥ २८ ॥
चूँकि उस देवी ने भगवान् शिव को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिये वह
'शिवदूती' के नाम से संसार में विख्यात हुई।॥ २८ ॥
तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः।
अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र* कात्यायनी स्थिता।॥ २९ ॥
वे महादैत्य भी भगवान् शिव के मुँह से देवी के वचन सुनकर क्रोध में भर गये और जहाँ कात्यायनी विराजमान थीं, उस ओर बढ़े॥ २९ ॥
ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः ।
ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः ॥ ३० ॥
तदनन्तर वे दैत्य अमर्ष में भरकर पहले ही देवी के ऊपर बाण, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्रोंकी वृष्टि करने लगे ॥ ३० ॥
सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान् ।
चिच्छेद लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः ॥ ३१ ॥
तब देवी ने भी खेल-खेल में ही धनुष की टंकार की और उससे छोड़े हुए बड़े-बड़े
बाणों द्वारा दैत्यों के चलाये हुए बाण, शूल, शक्ति और फरसों को काट डाला॥ ३१ ॥
तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्।
खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन् कुर्वती व्यचरत्तदा ॥ ३२ ॥
फिर काली उनके आगे होकर शत्रुओं को शूलके प्रहार से विदीर्ण करने लगी
और खट्वांग से उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमि में विचरने लगी॥ ३२ ॥
कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः ।
ब्रह्माणी चाकरोच्छन्रून् येन येन स्म धावति ॥ ३३॥
ब्रह्माणी भी जिस-जिस ओर दौड़ती, उसी-उसी ओर अपने कमण्डलु का जल
छिड़ककर शत्रुओं के ओज और पराक्रम को नष्ट कर देती थी॥ ३३ ॥
माहेश्वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी ।
दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना ॥ ३४॥
माहेश्वरी ने त्रिशूल से तथा वैष्णवी ने चक्र से और अत्यन्त क्रोध में भरी हुई कुमार कार्तिकेय की शक्ति ने शक्ति से दैत्यों का संहार आरम्भ किया॥ ३४॥
ऐन्द्रीकुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः ।
पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः ॥ ३५॥
इन्द्रशक्ति के वज्रप्रहार से विदीर्ण हो सैकड़ों दैत्य-दानव रक्तकी धारा बहाते हुए पृथ्वी पर सो गये ॥ ३५ ॥
तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः।
वाराहमूत्त्या न्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः ॥ ३६ ॥
वाराही शक्ति ने कितनों को अपनी थूथुन की मार से नष्ट किया, दाढ़ों के अग्रभाग से
कितनों की छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य उसके चक्र की चोट से विदीर्ण
होकर गिर पड़े॥ ३६॥
नखैर्विदारितांश्चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान्।
नारसिंही चर्चाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा ॥ ३७|॥
नारसिंही भी दूसरे-दूसरे महादैत्यों को अपने नखों से विदीर्ण करके खाती और सिंहनाद से दिशाओं एवं आकाश को गुँजाती हुई युद्धक्षेत्र में विचरने लगी॥ ३७ ॥
चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः।
पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा ॥ ३८ ॥
कितने ही असुर शिवदूती के प्रचण्ड अट्टहास से अत्यन्त भयभीत हो पृथ्वी पर गिर पड़े और गिरने पर उन्हें शिवदूती ने उस
समय अपना ग्रास बना लिया॥ ३८॥
इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान् ।
दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः ॥३९॥
इस प्रकार क्रोध में भरे हुए मातृगणों को नाना प्रकार के उपायों से बड़े- बड़े असुरों का मर्दन करते देख दैत्य सैनिक भाग खड़े हुए॥ ३९ ॥
पलायनपरान् दृष्ट्वा दैत्यान् मातृगणार्दितान् ।
योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः॥ ४०॥
मातृगणों से पीड़ित दैत्यों को युद्ध से भागते देख रक्तबीज नामक महादैत्य क्रोध में भरकर युद्ध करने के लिये आया॥ ४० ॥
रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः।
समुत्पतति मेदिन्यां * तत्प्रमाणस्तदासुरः ॥ ४१ ॥
उसके शरीर से जब रक्त की बूँद पृथ्वी पर गिरती, तब उसी के समान शक्तिशाली एक दूसरा महादैत्य पृथ्वी पर पैदा हो जाता॥ ४१ ॥
ययुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः।
ततश्चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत् ॥ ४२ ॥
महासुर रक्तबीज हाथमें गदा लेकर इन्द्र शक्ति के साथ युद्ध करने लगा। तब ऐन्द्री ने अपने वज्र से रक्तबीज को मारा॥
४२ ॥
कुलिशेनाहतस्याशु बहु * सुख्त्राव शोणितम् ।
समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्भूपास्तत्पराक्रमाः ॥ ४३॥
वज्र से घायल होने पर उसके शरीर से बहुत-सा रक्त चूने लगा और उससे उसी के समान रूप तथा पराक्रम वाले योद्धा उत्पन्न होने लगे ॥ ४३ ॥
यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः ।
तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥ ४४॥
उसके शरीर से रक्त की जितनी बूँदें गिरीं, उतने ही पुरुष उत्पन्न हो गये वे सब रक्तबीज के समान ही वीर्यवान्, बलवान् तथा पराक्रमी थे॥ ४४॥
ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः।
समं
मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम् ॥ ४५| ॥
वे रक्तसे उत्पन्न होने वाले पुरुष भी अत्यन्त
भयंकर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए वहाँ मातृगणों के साथ घोर युद्ध करने
लगे॥ ४५ ॥
पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः॥ ४६॥
पुनः वज्र के प्रहार से जब उसका मस्तक घायल हुआ, तब रक्त बहने लगा और उससे हजारों पुरुष उत्पन्न हो गये॥४६॥
वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह ।
गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम् ॥ ४७॥
वैष्णवी ने युद्धमें रक्तबीज पर चक्रका प्रहार किया तथा ऐन्द्री ने उस दैत्य सेनापति को गदा से चोट पहुँचायी॥ ४७ ॥
वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्त्रावसम्भवैः ।
सहस्त्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः ॥ ४८ ॥
वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर उसके शरीर से जो रक्त बहा और उससे जो उसी के बराबर आकार वाले सहस्रों महादैत्य प्रकट हुए, उनके द्वारा सम्पूर्ण जगत्
व्याप्त हो गया॥ ४८ ॥
शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासिना ।
माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम् ॥४९॥
कौमारी ने शक्ति से, वाराही ने खड्ग से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से महादैत्य रक्तबीज को घायल किया॥ ४९ ॥
स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक् ।
मातृः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः ॥ ५० ॥
क्रोध में भरे हुए उस महादैत्य रक्तबीज ने भी गदा से सभी मातृ-शक्तियों पर पृथक्-पृथक् प्रहार किया॥ ५०॥
तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि।
पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥ ५१ ॥
शक्ति और शूल आदि से अनेक बार घायल होने पर जो उसके शरीर से रक्त की धारा पृथ्वी पर गिरी, उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए॥ ५१ ॥
तैश्चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत् ।
व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम् ॥ ५२॥
इस प्रकार उस महादैत्य के रक्त से प्रकट हुए असुरों द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया। इससे उन देवताओं को बड़ा भय हुआ॥ ५२ ॥
तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरा।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्ण* वदनं कुरु ॥ ५३॥
देवताओं को उदास देख चण्डिका ने काली से शीघ्रतापूर्वक कहा-'चामुण्डे! तुम अपना मुख और भी फैलाओ॥ ५३ ॥
मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना ।॥ ५४ ॥
तथा मेरे शस्त्रपात से गिरने वाले रक्तबिन्दुओं और उनसे उत्पन्न होने वाले
महादैत्यों को तुम अपने इस उतावले मुख से खा जाओ ॥ ५४॥
भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति ॥ ५५॥
इस प्रकार रक्त से उत्पन्न होने वाले महादैत्यों का भक्षण करती हुई तुम रण में विचरती रहो। ऐसा करने से उस दैत्य का सारा रक्त क्षीण हो जाने पर वह स्वयं भी नष्ट हो जायगा॥ ५५॥
भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे ।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम् ॥ ५६॥
उन भयंकर दैत्यों को जब तुम खा जाओगी, तब दूसरे नये दैत्य उत्पन्न नहीं हो सकेंगे।' कालीसे यों कहकर चण्डिकादेवी ने
शूल से रक्तबीज को मारा॥ ५६॥
मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम् ।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम्॥५७॥
और काली ने अपने मुख में उसका रक्त ले
लिया। तब उसने वहाँ चण्डिका पर गदा से प्रहार किया॥ ५७॥
न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्त्राव शोणितम् ॥ ५८॥
किंतु उस गदापात ने देवी को तनिक भी वेदना नहीं पहुँचायी। रक्तबीज के घायल शरीर से बहुत-सा रक्त गिरा॥ ५८॥
यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति।
मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः॥ ५९॥
तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्।
देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिर्ऋष्टिभिः ॥ ६०॥
जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम् ।
स पपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः ॥ ६१॥
नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः।
ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥ ६२॥
किंतु ज्यों ही वह गिरा त्यों ही चामुण्डा ने उसे अपने मुख में ले लिया। रक्त गिरने से काली के मुख में जो महादैत्य उत्पन्न हुए, उन्हें भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीज का रक्त भी पी लिया। तदनन्तर देवी ने रक्तबीज को, जिसका रक्त चामुण्डा ने पी लिया था, वज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि आदि से मार डाला। राजन्! इस प्रकार शस्त्रोंके समुदायसे आहत एवं रतक्तहीन हुआ महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा। नरेश्वर ! इससे देवताओं को अनुपम हर्ष की प्राप्ति हुई॥ ५९-६२॥
तेषां मातृगणो जातो ननतर्तासृङ्मदोद्धतः ॥ ॐ॥ ६३ ॥
और मातृगण उन असुरों के रक्तपान के मद से उद्धत-सा होकर नृत्य करने लगा॥ ६३॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः॥ ८॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'रक्तबीज-वध' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।॥ ८॥
क्रमशः....
अगले लेख में नवम अध्याय👏🏻
साभार~ पं देव शर्मा💐
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*शिवलिंग के 7 स्थान कौन से हैं जहां चंदन लगाने से भोलेनाथ होते हैं प्रसन्न! जानिए यहां,?👇*
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●शिवलिंग की पूजा :- कहा जाता है भगवान शिव भोले हैं, उन्हें मनाना बहुत आसान है. खासतौर से सावन के महीने में. क्योंकि मान्यता है श्रावण मास में भोलेनाथ धरती पर निवास करते हैं. इसलिए शिव भक्त उनकी मन भाव से पूजा अर्चना करते हैं. ताकि भगवान महादेव प्रसन्न होकर उनपर अपना कृपा बरसाएं. इस माह में शिवलिंग की पूजा का विशेष महत्व होता है. सावन के सोमवार के दिन विधि-विधान से पूजा करना और उनको धतुरा,बेलपत्र, दूध, शहद, दही आदि चीजें चढ़ाने और शिवलिंग पर 7 जगह चंदन लगाने से भगावन शिव प्रसन्न होकर भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।ऐसे में आइए जानते हैं ज्योतिषाचार्य अरविंद मिश्र से शिवलिंग के वो सात स्थान जहां लगाया जाता है शिव जी को चंदन।
*●शिवलिंग पर कहां-कहां चंदन लगाएं,?*
अरविंद मिश्र बताते हैं कि शिवलिंग पर सात स्थानों पर चंदन लगाने की प्रथा है, जो भगवान शिव के परिवार के विभिन्न सदस्यों को समर्पित है. ये स्थान हैं: शिवलिंग, जलाधारी, गणेश जी का स्थान, कार्तिकेय जी का स्थान, अशोक सुंदरी का स्थान, और नंदी के दोनों सींग।
ऐसे में आइए जानते हैं ज्योतिषाचार्य अरविंद मिश्र से शिवलिंग के वो सात स्थान जहां लगाया जाता है शिव जी को चंदन।
●यहां उन सात स्थानों का विस्तृत विवरण दिया गया है:-👇
●1. शिवलिंग: यह भगवान शिव का मुख्य स्थान है और चंदन का लेप शिवलिंग के ऊपर लगाया जाता है.
●2. जलाधारी: यह वह स्थान है जहाँ से जल बहता है और यह स्थान माता पार्वती को समर्पित है.
●3. गणेश जी का स्थान: शिवलिंग के दाईं ओर, जलाधारी के ऊपर का स्थान गणेश जी का माना जाता है.
●4. कार्तिकेय जी का स्थान: शिवलिंग के बाईं ओर, जलाधारी के ऊपर का स्थान कार्तिकेय जी का माना जाता है.
●5. अशोक सुंदरी का स्थान: जलाधारी से बहने वाले जल के रास्ते पर अशोक सुंदरी का स्थान माना जाता है.
●6. नंदी के दोनों सींग: नंदी, जो भगवान शिव के वाहन हैं, उनके दोनों सींगों पर भी चंदन लगाया जाता है.
●7. शिवलिंग के पीछे: शिवलिंग के पीछे का स्थान भी चंदन लगाने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. ।
●धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं पर है आधारित:
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये सात स्थान धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं पर आधारित हैं, और विभिन्न परंपराओं में थोड़े भिन्न हो सकते हैं. भगवान शिव जी का पूजन करते समय उपरोक्त सात स्थानों पर चन्दन अवश्य लगाना चाहिए. इससे भगवान शिव के साथ उनका पूरा शिव परिवार प्रसन्न हो कर अपने भक्तों पर कृपा करते हैं.भगवान शिव का परिवार हमें अपने परिवार के साथ सम्मिलित और संगठित होकर रहने की सीख देता है. हर मुसीबत और दुख-सुख में हमारा परिवार ही काम आता है. और जो परिवार साथ रहता है उस पर मुसीबतें भी कम आती है और सुरक्षित रहता है।
देवाधिदेव भगवान शिव जहाँ हृदय में विराजमान हों तो वहाँ जीवन स्वयं तप बन जाता है,इसमे कोई संदेह नहीं।
भगवान शिव को समर्पित यह मास सभी के जीवन में सुख, समृद्धि, आरोग्य और आध्यात्मिक उन्नति का सृजन करे।
जयति जयति जय पुण्य सनातन संस्कृति,
जयति जयति जय पुण्य भारतभूमि,
मङ्गल कामनाओं के साथ,
हर हर महादेव,
जय श्रीराम,
शुभमस्तु,🙏
#🕉️सनातन धर्म🚩 #ॐ नमः शिवाय
क्या आपको पता है कि भगवान_शिव के प्रतिक माने जाने वाले रुद्राक्ष कुल कितने प्रकार है और उनके पहनने से क्या-क्या लाभ होते हैं।
रूद्राक्ष को धारने करने वाले के जीवन से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। शिवमहापुराण ग्रंथ में कुल सोलह प्रकार के रूद्राक्ष बताएं गए है औऱ सभी के देवता, ग्रह, राशि एवं कार्य भी अलग-अलग बताएं है।
जानें रुद्राक्ष के प्रकार एवं उनसे होने वाले लाभ।
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जानें जीवन में बुरा समय कब-कब शुरू होता है, पहले से मिलने लगते हैं ऐसे संकेत
1- एक मुखी रुद्राक्ष- इसे पहनने से शोहरत, पैसा, सफलता प्राप्ति और ध्यान करने के लिए सबसे अधिक उत्तम होता है। इसके देवता भगवान शंकर, ग्रह- सूर्य और राशि सिंह है।
मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम: ।।
2- दो मुखी रुद्राक्ष- इसे आत्मविश्वास और मन की शांति के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता भगवान अर्धनारिश्वर, ग्रह- चंद्रमा एवं राशि कर्क है।
मंत्र- ।। ॐ नम: ।।
3- तीन मुखी रुद्राक्ष- इसे मन की शुद्धि और स्वस्थ जीवन के लिए पहना जाता है। इसके देवता अग्नि देव, ग्रह- मंगल एवं राशि मेष और वृश्चिक है।
मंत्र- ।। ॐ क्लीं नम: ।।
4- चार मुखी रुद्राक्ष- इसे मानसिक क्षमता, एकाग्रता और रचनात्मकता के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता ब्रह्म देव, ग्रह- बुध एवं राशि मिथुन और कन्या है।
मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम: ।।
5- पांच मुखी रुद्राक्ष- इसे ध्यान और आध्यात्मिक कार्यों के लिए पहना जाता है। इसके देवता भगवान कालाग्नि रुद्र, ग्रह- बृहस्पति एवं राशि धनु व मीन है।
मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम: ।।
6- छह मुखी रुद्राक्ष- इसे ज्ञान, बुद्धि, संचार कौशल और आत्मविश्वास के लिए पहना जाता है। इसके देवता भगवान कार्तिकेय, ग्रह- शुक्र एवं राशि तुला और वृषभ है।
मंत्र : ।। ॐ ह्रीं हूं नम:।।
7- सात मुखी रुद्राक्ष- इसे आर्थिक और करियर में विकास के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता माता महालक्ष्मी, ग्रह- शनि एवं राशि मकर और कुंभ है।
मंत्र- ।। ॐ हूं नम:।।
8- आठ मुखी रुद्राक्ष- इसे करियर में आ रही बाधाओं और मुसीबतों को दूर करने के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता भगवान गणेश, ग्रह- राहु है।
मंत्र- ।। ॐ हूं नम:।।
9- नौ मुखी रुद्राक्ष- इसे ऊर्जा, शक्ति, साहस और निडरता पाने के लिए पहना जाता है। इसके देवता माँ दुर्गा, एवं ग्रह- केतु है।
मंत्र- ।। ॐ ह्रीं हूं नम:।।
10- दस मुखी रुद्राक्ष- इसे नकारात्मक शक्तियों, नज़र दोष एवं वास्तु और कानूनी मामलों से रक्षा के लिए धारण किया है। इसके देवता भगवान विष्णु जी हैं।
मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम: ।।
11- ग्यारह मुखी रुद्राक्ष- इसे आत्मविश्वास में बढ़ोत्तरी, निर्णय लेने की क्षमता, क्रोध नियंत्रण और यात्रा के दौरान नकारात्मक ऊर्जा से सुरक्षा पाने के लिए पहना जाता है। इसके देवता हनुमान जी, ग्रह- मंगल एवं राशि मेष और वृश्चिक है।
मंत्र- ।। ॐ ह्रीं हूं नम:।
12- बारह मुखी रुद्राक्ष- इसे नाम, शोहरत, सफलता, प्रशासनिक कौशल और नेतृत्व करने के गुणों का विकास करने के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता सूर्य देव, ग्रह- सूर्य एवं राशि सिंह है।
मंत्र- ।। ॐ रों शों नम: ऊं नम:।।
13- तेरह मुखी रुद्राक्ष- इसे आर्थिक स्थिति को मजबूत करने, आकर्षण और तेज में वृद्धि के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता इंद्र देव, ग्रह- शुक्र एवं राशि तुला और वृषभ है।
मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम:।।
14- चौदह मुखी रुद्राक्ष- इसे छठी इंद्रीय जागृत कर सही निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करने के उद्देश्य से धारण किया जाता है। इसके देवता शिव जी, ग्रह- शनि एवं राशि मकर और कुंभ है।
मंत्र- ।। ॐ नम:।।
15- गणेश रुद्राक्ष- इसे ज्ञान, बुद्धि और एकाग्रता में वृद्धि, सभी क्षेत्रों में से सफलता के लिए, एवं केतु के अशुभ प्रभावों से बचने के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता भगवान गणेश जी हैं।
मंत्र- ।। ॐ श्री गणेशाय नम:।।
16- गौरी शंकर रुद्राक्ष- इसे परिवार में सुख-शांति, विवाह में देरी, संतान नहीं होना और मानसिक शांति के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता भगवान शिव-पार्वती जी, ग्रह- चंद्रमा एवं राशि कर्क है।
मंत्र- ।। ॐ गौरी शंकराय नम:।।
जय_सनातन_धर्म_की 🙏🚩
#ॐ नमः शिवाय
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‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼
🚩 *"सनातन परिवार"* 🚩
*की प्रस्तुति*
🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴
🚩 *" शारदीय नवरात्रि " पर विशेष* 🚩
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*इस सृ्ष्टि में काल अजेय है इससे कोई भी बच नहीं पाया है परंतु अपने भक्तों को काल से भी बचाने में सक्षम हैं आदिशक्ति "कालरात्रि" ! नवरात्र की सप्तमी तिथि को देवी कालरात्रि की उपासना का विधान है। पौराणिक मतानुसार देवी कालरात्रि ही महामाया हैं और भगवान विष्णु की योगनिद्रा भी हैं। काल का अर्थ है (कालिमा यां मृत्यु) रात्रि का अर्थ है निशा, रात व अस्त हो जाना। कालरात्रि का अर्थ हुआ काली रात जैसा अथवा काल का अस्त होना। अर्थात प्रलय की रात्रि को भी जीत लेना | एक नारी को कालरात्रि की संज्ञा इसलिए दी जा सकती है क्योंकि वह अपनी सेवा, त्याग, पातिव्रतधर्म का पालन करके काल को भी जीतने की क्षमता रखती है | हमारे भारतीय वांग्मय में ऐसी महान नारियों की गाथायें देखने को मिलती हैं | सती सावित्री ने किस प्रकार पतिसेवा के ही बल पर अपने पति के प्राण यमराज से वापस ले लिया , अर्थात उस प्रलय की रात्रि पर विजय प्राप्त की | सती नर्मदा ने सूर्य की गति को रोक दिया | और सबसे आश्चर्यजनक एवं ज्वलंत उदाहरण सती सुलोचना का है, जिसके पातिव्रतधर्म में इतना बल था कि पति का कटा हुआ सर भी रामादल में हंसने लगता है | सतियों में सर्वश्रेष्ठ माता अनुसुइया को कैसे भुलाया जा सकता है जिन्होंने ॐ पति परमेश्वराय का जप करके त्रिदेवों को भी बालक बना दिया |*
*आज पुरातन मान्यतायें क्षीण होती दिख रही हैं ! आज के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाय तो नारी अपने बल को भूलती हुई दिख रही है क्योंकि वह पतिसेवा व पातिव्रतधर्म को वह किनारे पर करके तमाम सुख, ऐश्वर्य व परिवार की सुखकामना के लिए स्वयं में विश्वसनीय न होकर अनेक प्रकार के पूजा-पाठ, यंत्र-मंत्र-तंत्र के चक्कर में पड़कर स्वयं व परिवार को भी अंधकार की ओर ही ले जा रही है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूँ कि आज नारियां अपना स्वाभाविक धर्म कर्म भूल सी गयी हैं जबकि नारियों के धर्म के विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में बताते हैं-- एकइ धर्म एक व्रत नेमा | कायं वचन मन पति पद प्रेमा || नारियों का एक धर्म एक ही नियम एवं ही पूजा होनी चाहिए कि मन, वचन, कर्म से केवल पति की सेवा करें तो समझ लो कि तैंतीस कोटि देवताओं का पूजन हो गया | ऐसा करने पर आज की नारी भी काल को जीतने वाली "कालरात्रि" बन सकती है एवं एक बार यमराज से भी लड़कर पति को जीवित करा सकती है | परंतु आज की चकाचौंध में नारियाँ अपना धर्म निभाना भूल गयी हैं आज तो नारियाँ पति एवं परिवार का वशीकरण करने - कराने के लिए ओझाओं के चक्कर लगाती दिख रही हैं | विचार कीजिए कि नारियां सदैव से महान रही हैं | सृष्टि के सम्पूर्ण गुण एवं अवगुण नारी में विद्यमान हैं , आवश्यकता है अवगुणों को छोड़कर सद्गुणों को अपनाने की | परंतु दुर्भाग्य है पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में आज नारी भ्रमित होकर अपने आदर्शों, कर्तव्यों को भूलती दिख रही है | वह पति की सेवा करने के बजाय मन्दिरों,मठों एवं संतो-महन्थों के चक्कर लगा रही है | और ऐसा करके वह स्वयं के साथ-साथ पूरे परिवार को संकट की ओर ले जा रही है |*
*आज नारियों को आवश्यकता है स्वयं को पहचानने की | अपने अन्दर काल को भी जीतने की क्षमता को पुनर्स्थापित करने की | ऐसा करके वह परिवार के ऊपर छायी "प्रलय की रात्रि" को भी हरा करके "कालरात्रि" बन सकती है |*
🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺
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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना*🙏🏻🙏🏻🌹
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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#🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🙏देवी कालरात्री🙏
विभीषण को श्री राम डेरे के बाहर खड़ा करके रखवाले वनाराधीश सुग्रीव को आ कर यह कहते हैं कि एक विचित्र राक्षस आया है और बोल रहा है कि प्रभु श्री राम के दर्शन करने हैं, हमने परिचय व उद्देश्य पूछा तो कहता है कि मैं लंकापति रावण का छोटा भाई हूँ व प्रभु की शरणागति में आया हूँ , सुग्रीव ने प्रभु श्री राम के चरणों मे नमन करके कहा कि हे प्रभु रावण का छोटा भाई विभीषण आया है और मुझे तो लगता है कि ये सारा कुनबा ही भांड व नटों का है, मामा मारीच मृग बना, बहिन सूर्फ़नखां विश्व सुंदरी बन के आयी, अब ये भाई विभीषण परम् भक्त का रूप धारण करके जाने किस प्रयोजन से आया है।
।। राम राम जी।।
##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
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🙏 जय श्री कृष्ण 🙏
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नित्यं भूमौ च शयनं कुमारीणां च पूजनम्।
वस्त्रालङ्करणैर्दिव्यैर्भोजनैश्च सुधामयैः।।
एकैकां पूजयेन्नित्यमेकवृद्ध्या तथा पुनः।
द्विगुणं त्रिगुणं वाऽपि प्रत्येकं नवकं च वा।।
देवीभागवत ३/२७/३७-३८
"नवरात्र व्रतकर्ता नित्य भूमि पर शयन करे और वस्त्र, आभूषण तथा अमृत के सदृश्य दिव्य भोजन आदि से कुमारी कन्याओं का पूजन करे।
नवरात्र में नित्य एक ही कुमारी का पूजन करें अथवा प्रतिदिन एक-एक कुमारी की संख्या के वृद्धिक्रम से पूजन करें अथवा प्रतिदिन दुगुना-तिगुना के वृद्धिक्रम से या प्रत्येक दिन नौ कुमारी कन्याओं का पूजन करे ।"
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🙏 जय माता दी🙏
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#🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🕉️सनातन धर्म🚩
#📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🙏देवी कात्यायनी 🌸
श्री दुर्गा सप्तशती भाषा
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सातवाँ अध्याय
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ऊँ नमश्चण्डिकायै नम:
(चण्ड और मुण्ड का वध)
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं
न्यस्तैकाङि्घ्रं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्।।
महर्षि मेधा ने कहा-दैत्यराज की आज्ञा पाकर चण्ड और मुण्ड चतुरंगिनी सेना को साथ लेकर हथियार उठाये हुए देवी से लड़ने के लिए चल दिये। हिमालय पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने मुस्कुराती हुई देवी जो सिंह पर बैठी हुई थी देखा, जब असुर उनको पकड़ने के लिए तलवारें लेकर उनकी ओर बढ़े तब अम्बिका को उन पर बड़ा क्रोध आया और मारे क्रोध के उनका मुख काला पड़ गया, उनकी भृकुटियाँ चढ़ गई और उनके ललाट में से अत्यंत भयंकर तथा अत्यंत विस्तृत मुख वाली, लाल आँखों वाली काली प्रकट हुई जो कि अपने हाथों में तलवार और पाश लिये हुए थी, वह विचित्र खड्ग धारण किये हुए थी तथा चीते के चर्म की साड़ी एवं नरमुण्डों की माला पहन रखी थी। उसका माँस सूखा हुआ था और शरीर केवल हड्डियों का ढाँचा था और जो भयंकर शब्द से दिशाओं को पूर्ण कर रही थी, वह असुर सेना पर टूट पड़ी और दैत्यों का भक्षण करने लगी।
वह पार्श्व रक्षकों, अंकुशधारी महावतों, हाथियों पर सवार योद्धाओं और घण्टा सहित हाथियों को एक हाथ से पकड़-2 कर अपने मुँह में डाल रही थी और इसी प्रकार वह घोड़ों, रथों, सारथियों व रथों में बैठे हुए सैनिकों को मुँह में डालकर भयानक रूप से चबा रही थी, किसी के केश पकड़कर, किसी को पैरों से दबाकर और किसी दैत्य को छाती से मसलकर मार रही थी, वह दैत्य के छोड़े हुए बड़े-2 अस्त्र-शस्त्रों को मुँह में पकड़कर और क्रोध में भर उनको दाँतों में पीस रही थी, उसने कई बड़े-2 असुर भक्षण कर डाले, कितनों को रौंद डाला और कितनी उसकी मार के मारे भाग गये, कितनों को उसने तलवार से मार डाला, कितनों को अपने दाँतों से समाप्त कर दिया और इस प्रकार से देवी ने क्षण भर में सम्पूर्ण दैत्य सेना को नष्ट कर दिया।
यह देख महा पराक्रमी चण्ड काली देवी की ओर पलका और मुण्ड ने भी देवी पर अपने भयानक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी और अपने हजारों चक्र उस पर छोड़े, उस समय वह चमकते हुए बाण व चक्र देवी के मुख में प्रविष्ट हुए इस प्रकार दिख रहे थे जैसे मानो बहुत से सूर्य मेघों की घटा में प्रविष्ट हो रहे हों, इसके पश्चात भयंकर शब्द के साथ काली ने अत्यन्त जोश में भरकर विकट अट्टहास किया। उसका भयंकर मुख देखा नहीं जाता था, उसके मुख से श्वेत दाँतों की पंक्ति चमक रही थी, फिर उसने तलवार हाथ में लेकर “हूँ” शब्द कहकर चण्ड के ऊपर आक्रमण किया और उसके केश पकड़कर उसका सिर काटकर अलग कर दिया, चण्ड को मरा हुआ देखकर मुण्ड देवी की ओर लपखा परन्तु देवी ने क्रोध में भरे उसे भी अपनी तलवार से यमलोक पहुँचा दिया।
चण्ड और मुण्ड को मरा हुआ देखकर उसकी बाकी बची हुई सेना वहाँ से भाग गई। इसके पश्चात काली चण्ड और मुण्ड के कटे हुए सिरों को लेकर चण्डिका के पास गई और प्रचण्ड अट्टहास के साथ कहने लगी-हे देवी! चण्ड और मुण्ड दो महा दैत्यों को मारकर तुम्हें भेंट कर दिया है, अब शुम्भ और निशुम्भ का तुमको स्वयं वध करना है।
महर्षि मेधा ने कहा-वहाँ लाये हुए चण्ड और मुण्ड के सिरों को देखकर कल्याणकायी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा-हे देवी! तुम चूँकि चण्ड और मुण्ड को मेरे पास लेकर आई हो, अत: संसार में चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।
सातवाँ अध्याय पूर्ण
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#🙏शुभ नवरात्रि💐 #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏जय माता दी📿 #🙏देवी कात्यायनी 🌸
श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)
(सप्तमोध्याय)
।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।
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सप्तमोऽध्यायः
चण्ड और मुण्डका वध
ध्यानम्
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वरती श्यामलाङ्गीं
न्यस्तैकाङ्घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम् ।
कह्वाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रं
मातङ्गीं शङ्खपत्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्धासिभालाम् ॥
मैं मातंगीदेवी का ध्यान करता हूँ। वे रत्नमय सिंहासन पर बैठकर पढ़ते हुए तोते का मधुर शब्द सुन रही हैं। उनके शरीर का वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमल पर रखे हुए हैं और मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा कह्वार-पुष्पों की माला धारण किये वीणा बजाती हैं। उनके अंग में कसी हुई चोली शोभा पा रही है। वे लाल रंग की साड़ी पहने हाथ में शंखमय पात्र लिये हुए हैं। उनके वदन पर मधु का हलका-हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाट में बेंदी शोभा दे रही है ।
'ॐ' ऋषिरुवाच॥ १ ॥
ऋषि कहते हैं-॥ १॥
आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः।
चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः॥ २ ॥
तदनन्तर शुम्भ की आज्ञा पाकर वे चण्ड-
मुण्ड आदि दैत्य चतुरंगिणी सेना के साथ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो चल दिये॥ २॥
ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने ॥ ३ ॥
फिर गिरिराज हिमालय के सुवर्णमय ऊँचे शिखर पर पहुँचकर उन्होंने सिंहप र बैठी देवी को देखा। वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं॥ ३॥
ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः।
आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः ॥ ४ ॥
उन्हें देखकर दैत्यलोग तत्परता से पकड़ने का उद्योग करने लगे। किसी ने धनुष तान
लिया, किसी ने तलवार सँभाली और कुछ लोग देवी के पास आकर खड़े हो गये॥ ४॥
ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति ।
कोपेन चास्या वदनं मषींवर्णमभूत्तदा ॥ ५ ॥
तब अम्बिका ने उन शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध किया। उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया॥ ५॥
भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्भुतम्।
काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ॥ ६ ॥
ललाट में भौंहें टेढ़ी हो गयीं और वहाँ से
तुरंत विकराल मुखी काली प्रकट हुईं, जो तलवार और पाश लिये हुए थीं ॥ ६ ॥
विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ॥ ७ ॥
वे विचित्र खट्वांग धारण किये और चीते के चर्म की साड़ी पहने नर-मुण्डों की माला से विभूषित थीं। उनके शरीर का मांस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढाँचा था, जिससे वे अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थीं॥ ७॥
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ॥ ८ ॥
उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं उनकी आँखें भीतर को धँसी हुई और कुछ लाल थीं, वे अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को
गुँजा रही थीं॥ ८॥
सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान्।
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ॥ ९॥
बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुई वे कालिका देवी बड़े वेग से दैत्यों की उस सेनापर टूट पड़ीं और उन सबको भक्षण करने लगीं ॥ ९ ॥
पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान् ।
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान्॥ १०॥
वे पार्श्वरक्ष कों, अंकुशधारी महावतों, योद्धाओं और घण्टा सहित कितने ही
हाथियों को एक ही हाथ से पकड़कर मुँह में डाल लेती थीं॥ १० ॥
तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह।
निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् ॥ ११॥
इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथि के साथ रथी सैनिकों को मुँह में डालकर वे उन्हें बड़े भयानक रूप से चबा डालती थीं॥ ११ ॥
एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम्।
पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ॥ १२ ॥
किसी के बाल पकड़ लेतीं, किसी का गला दबा देतीं, किसी को पैरों से कुचल डालतीं और किसी को छाती के धक्के से गिराकर मार डालती थीं॥ १२ ॥
तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः।
मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि ॥ १३ ॥
वे असुरों के छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुँहसे पकड़ लेतीं और रोष में भरकर उनको दाँतों से पीस डालती थीं॥ १३ ॥
ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा।
बलिनां तद् बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम् ।
॥ १४॥
काली ने बलवान् एवं दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद डाली, खा डाली और कितनों को मार भगाया॥ १४॥
असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः
जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा ॥ १५ ॥
कोई तलवार के घाट उतारे गये, कोई खट्वांग से पीटे गये और कितने ही असुर दाँतों के अग्रभाग से कुचले जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए॥ १५॥
क्षणेन तद् बलं सर्वमसुराणां निपातितम् ।
दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् ॥ १६ ॥
इस प्रकार देवी ने असुरों की उस सारी सेना को क्षणभर में मार गिराया। यह देख चण्ड उन अत्यन्त भयानक कालीदेवी की ओर दौड़ा॥ १६॥
शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः।
छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहसत्रशः॥ १७ ॥
तथा महादैत्य मुण्डने भी अत्यन्त भयंकर बाणों की वर्षा से तथा हजारों बार चलाये
हुए चक्रों से उन भयानक नेत्रों वाली देवी को आच्छादित कर दिया ॥ १७ ॥
तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम् ।
बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् ॥ १८॥
वे अनेकों चक्र देवी के मुख में समाते हुए ऐसे जान पड़े, मानो सूर्य के बहुतेरे
मण्डल बादलों के उदर में प्रवेश कर रहे हों ॥ १८ ॥
ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी।
कालीकरालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला ॥१९ ॥
तब भयंकर गर्जना करने वाली काली ने अत्यन्त रोष में भरकर विकट अट्टहास किया। उस समय उनके विकराल वदन के भीतर कठिनता से देखे जा सकने वाले दाँतों की प्रभा से वे अत्यन्त उज्ज्वल दिखायी देती थीं॥ १९॥
उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत।
गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत्* ॥ २०॥
देवी ने बहुत बड़ी तलवार हाथ में
ले ' हं का उच्चारण करके चण्ड पर धावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवार से उसका मस्तक काट डाला ॥ २० ॥
अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् ।
तमप्यपातयद्भमौ सा खड्गाभिहतं रुषा ॥ २१॥
चण्ड को मारा गया देखकर मुण्ड भी देवी की ओर दौड़ा। तब देवी ने रोष में
भरकर उसे भी तलवार से घायल करके धरती पर सुला दिया॥ २१ ॥
हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।
मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् ॥ २२॥
महापराक्रमी चण्ड और मुण्ड को मारा गया देख मरने से बची हुई बाकी सेना भय से व्याकुल हो चारों ओर भाग गयी॥ २२ ॥
शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च।
प्राह प्रचण्डाटृटहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् ॥ २३॥
तदनन्तर काली ने चण्ड और मुण्डका मस्तक हाथ में ले चण्डिका के पास जाकर प्रचण्ड अट्टहास करते हुए कहा-॥ २३॥
मया तवात्रोपहतौ चण्डमुण्डौ महापशू।
युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि ॥ २४॥
'देवि! मैंने चण्ड और मुण्ड नामक इन दो महापशुओं को तुम्हें भेंट किया है। अब युद्धयज्ञ में तुम शुम्भ और निशुम्भ का स्वयं ही वध करना' ॥ २४ ॥
ऋषिरुवाच॥ २५ ॥
ऋषि कहते हैं-॥ २५ ॥
तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ।
उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः ॥ २६ ॥
वहाँ लाये हुए उन चण्ड-मुण्ड नामक
महादैत्योंको देखकर कल्याणमयी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा- ॥२६॥
यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि ॥ ॐ॥ २७ ॥
'देवि! तुम चण्ड और मुण्ड को लेकर मेरे पास आयी हो, इसलिये संसार में
चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी' ॥ २७॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'चण्ड-मुण्ड-वध' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।॥ ७ ॥
क्रमशः....
अगले लेख में अष्टम अध्याय जय माता जी की।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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*आज मनुष्य बहुत प्रेम से नवरात्र में "दुर्गापूजा" का आयोजन करते हैं यह नौ दिन पूर्णरूप से भक्तिमय रहता है | कन्यापूजन करके मनुष्य स्वयं को कृतार्थ मानता है | परंतु जिस प्रकार महर्षि कात्यायन ने कन्या का वरदान माँगा क्या उसी प्रकार की भक्ति हमारी भी है | शायद आज हमारी मानसिकता बदल गयी है | आज के मनुष्य का दोहरा चरित्र देखने को मिलता है | दूसरों की कन्या बुलाकर कन्या पूजन करने वाले स्वयं अपने घर में कन्या नहीं चाहते हैं | आज प्रगतिशील युग में गर्भ की जाँच कराके कन्याओं की गर्भ में ही हत्या करा देने वाले कन्या पूजन करने के लिए मुहल्ले भर में कन्याओं को खोजा करते हैं | विचार कीजिए कि जिस प्रकार आज लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के जन्म का अनुपात कम होता जा रहा है आने वाला भविष्य क्या होगा ?? मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इस दुर्गापूजा के आयोजन करने वालों से पूंछना चाहता हूँ कि जब घर में कन्या सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं तो दुर्गा पूजन करने का क्या अर्थ है | आज समाज इतना विकृत हो गया है कि एक ओर तो दुर्गापूजा मनाया जा रहा है दूसरी ओर पांडालों में सजी भव्य मूर्तियों का दर्शन करने जा रही कन्याओं पर कुछ सिरफिरे अश्लील छींटाकशी करते हुए देखे एवं पकड़े जाते हैं | विचार कीजिए कि ऐसा करने वाले कैसी दुर्गापूजा एवं कन्याओं की पूजा का पर्व मना रहे हैं |*
*अपने - अपने घर में कन्या भ्रूण हत्या रोकने पर ही कन्या पूजन का फल मिलना है अन्यथा दिखावा मात्र करने से कुछ नहीं होने वाला है |*
🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺
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