स्वायम्भुव मन्वन्तर में वेदशिरा नामक मुनि, जिनकी उत्पत्ति भृगु वंश में हुई थी, विन्ध्य पर्वत पर तपस्या करते थे, उन्हीं के आश्रम पर तपस्या करने के लिये अश्वशिरा मुनि आये, उन्हें देखकर वेदशिरा मुनि के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और वे रोष पूर्वक बोले।
वेदशिरा ने कहा - ब्रह्मन,मेरे आश्रम में तुम तपस्या न करो; क्योंकि वह सुखद नहीं होगी, तपोधन,क्या और कहीं तुम्हारे तप के योग्य भूमि नहीं है। वेदशिरा की यह बात सुनकर अश्वसिरा मुनि के भी नेत्र क्रोध से लाल हो गये, वे मुनिपुंगव वेदशिरा से बोले- यह भूमि तो महाविष्णु की है, न तुम्हारी है न मेरी, यहाँ कितने मुनियों ने उत्तम तप का अनुष्ठान नहीं किया है, तुम व्यर्थ ही सर्प की तरह फुफकारते हुए क्रोध प्रकट करते हो, इसलिये सदा के लिये सर्प हो जाओ और तुम्हें गरुड़ से भय प्राप्त हो।
वेदशिरा बोले-- दुर्मते तुम्हारा भाव बड़ा ही दूषित है, तुम छोटे-से द्रोह या अपराध पर भी महान दण्ड देने के लिये उद्यत रहते हो और अपना काम बनाने के लिये कौए की तरह इस पृथ्वी पर डोलते-फिरते हो, अत: तुम भी कौआ हो जाओ।
इसी समय भगवान विष्णु परस्पर शाप देते हुए दोनों ऋषियों के बीच प्रकट हो गये,वे दोनों अपने-अपने शाप से दु:खी थे।
भगवान ने अपनी वाणी द्वारा उन दोनों को सान्त्वना देते हुए कहा-- मुनियों, जैसे शरीर में दोनों भुजाएँ समान हैं, उसी प्रकार तुम दोनों समान रूप से मेरे भक्त हो।
मुनीश्वरो मैं अपनी बात तो झूठी कर सकता हूँ, परंतु भक्त की बात को मिथ्या करना नहीं चाहता- यह मेरी प्रतिज्ञा है।
वेदशिरा सर्प की अवस्था में तुम्हारे मस्तक पर मेरे दोनों चरण अंकित होंगे, उस समय से तुम्हें गरुड़ से कदापि भय नहीं होगा।
अश्वशिरा अब तुम मेरी बात सुनो -- सोच न करो, सोच न करो, काक रुप में रहने पर भी तुम्हें निश्चय ही उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा, योग सिद्धियों से युक्त उच्च कोटि का त्रिकालदर्शी ज्ञान सुलभ होगा।
ऐसा कहकर भगवान विष्णु जब चले गये, तब अश्वशिरा मुनि साक्षात योगीन्द्र काकभुशुण्डि हो गये और नीलपर्वत पर रहने लगे, वे सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ को प्रकाशित करने वाले महातेजस्वी रामभक्त हो गये, उन्होंने ही महात्मा गरुड़ को रामायण की कथा सुनायी थी।
चाक्षुष मंवंतर के प्रारम्भ में प्रचेताओं के पुत्र प्रजापति दक्ष ने महर्षि कश्यप को अपनी परम मनोहर ग्यारह कन्याएँ पत्नी रुप में प्रदान की, उन कन्याओं में जो श्रेष्ठ कद्रू थी, वही वसुदेव प्रिया रोहिणी होकर प्रकट हुई हैं, जिनके पुत्र बलदेव जी हैं।
कद्रू ने करोड़ों महासर्पों को जन्म दिया,वे सभी सर्प अत्यंत उद्भट, विष रुपी बल से सम्पन्न, उग्र तथा पाँच सौ फनों से युक्त थे, वे महान मणिरत्न धारण किये रहते थे।
उनमें से कोई-कोई सौ मुखों वाले एवं दुस्सह विषधर थे।
उन्हीं में वेदशिरा "कालिय" नाम से प्रसिद्ध महानाग हुए।
उन सब में प्रथम राजा "फणिराज शेष" हुए, जो अनंत एवं परात्पर परमेश्वर हैं, वे ही आजकल ‘बलदेव’ के नाम से प्रसिद्ध हैं,वे ही राम, अनंत और अच्युताग्रज आदि नाम धारण करते हैं।
एक दिन की बात है,प्रकृति से परे साक्षात भगवान श्री हरि ने प्रसन्नचित होकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में शेष से कहा -- इस भूमण्डल को अपने ऊपर धारण करने की शक्ति दूसरे किसी में नहीं है, इसलिये इस भूगोल को तुम्हीं अपने मस्तक पर धारण करो, तुम्हारा पराक्रम अनंत है, इसीलिये तुम्हें ‘अनंत’ कहा गया है, जन- कल्याण हेतु तुम्हें यह कार्य अवश्य करना चाहिये।
शेष ने कहा - प्रभो पृथ्वी का भार उठाने के लिये आप कोई अवधि निश्चित कर दीजिये, जितने दिन की अवधि होगी, उतने समय तक मैं आपकी आज्ञा से भूमि का भार अपने सिर पर धारण करूँगा ।
श्रीभगवान बोले - नागराज तुम अपने सहस्र मुखों से प्रतिदिन पृथक - पृथक मेरे गुणों से स्फुरित होने वाले नूतन नामों का सब ओर उच्चारण किया करो, जब मेरे दिव्य नाम समाप्त हो जायँ, तब तुम अपने सिर से पृथ्वी का भार उतार कर सुखी हो जाना।
शेष ने कहा - प्रभो पृथ्वी का आधार तो मैं हो जाऊँगा, किंतु मेरा आधार कौन होगा, बिना किसी आधार के मैं जल के ऊपर कैसे स्थित रहूँगा।
श्रीभगवान बोले - मेरे मित्र इसकी चिंता मत करो, मैं ‘कच्छप’ बनकर महान भार से युक्त तुम्हारे विशाल शरीर को धारण करुॅंगा, तब शेष ने उठ कर भगवान श्री गरुड़ ध्वज को नमस्कार किया, और पाताल से लाख योजन नीचे चले गये, वहाँ अपने हाथ से इस अत्यंत गुरुतर भूमण्डल को पकड़ कर प्रचण्ड पराक्रमी शेष ने अपने एक ही फन पर धारण कर लिया, परात्पर अनंत देव संकर्षण के पाताल चले जाने पर ब्रह्मा जी की प्रेरणा से अन्यान्य नागराज भी उनके पीछे - पीछे चले गये, कोई अतल में, कोई वितल में, कोई सुतल और महातल में तथा कितने ही तलातल एवं रसातल में जाकर रहने लगे।
ब्रह्मा जी ने उन सर्पों के लिये पृथ्वी पर ‘रमणक द्वीप’ प्रदान किया था, कालिया आदि नाग उसी में सुख पूर्वक निवास करने लगे।
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