यथार्थ गीता
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Jagdish Sharma
539 views 1 days ago
।। ॐ ।। अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥ बहुत से योगी अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं और उसी प्रकार प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं। इससे सूक्ष्म अवस्था हो जाने पर अन्य योगीजन प्राण और अपान दोनों की गति रोककर प्राणायामपरायण हो जाते हैं। जिसे श्रीकृष्ण प्राण-अपान कहते हैं, उसी को महात्मा बुद्ध 'अनापान' कहते हैं। इसी को उन्होंने श्वास-प्रश्वास भी कहा है। प्राण वह श्वास है जिसे आप भीतर खींचते हैं और अपान वह श्वास है जिसे आप बाहर छोड़ते हैं। योगियों की अनुभूति है कि आप श्वास के साथ बाह्य वायुमण्डल के संकल्प भी ग्रहण करते हैं और प्रश्वास में इसी प्रकार आन्तरिक भले-बुरे चिन्तन की लहर फेंकते रहते हैं। बाह्य किसी संकल्प का ग्रहण न करना प्राण का हवन है तथा भीतर संकल्पों को न उठने देना अपान का हवन है। न भीतर से किसी संकल्प का स्फुरण हो और न ही बाह्य दुनिया में चलनेवाले चिन्तन अन्दर क्षोभ उत्पन्न कर पायें, इस प्रकार प्राण और अपान दोनों की गति सम हो जाने पर प्राणों का याम अर्थात् निरोध हो जाता है, यही प्राणायाम है। यह मन की विजितावस्था है। प्राणों का रुकना और मन का रुकना एक ही बात है। प्रत्येक महापुरुष ने इस प्रकरण को लिया है। वेदों में इसका उल्लेख है 'चत्वारि वाक् परिमिता पदानि' (ऋग्वेद १/१६४/४५, अथर्ववेद ९/१५/२७) इसी को 'पूज्य महाराज जी' कहा करते थे- "हो! एक ही नाम चार श्रेणियों से जपा जाता है- बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा। बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाय। नाम का इस प्रकार उच्चारण हो कि आप सुनें और बाहर कोई बैठा हो तो उसे भी सुनायी पड़े। मध्यमा अर्थात् मध्यम स्वर में जप, जिसे केवल आप ही सुनें, बगल में बैठा हुआ व्यक्ति भी उस उच्चारण को सुन न सके। यह उच्चारण कण्ठ से होता है। धीरे-धीरे नाम की धुन बन जाती है, डोर लग जाती है। साधना और सूक्ष्म हो जाने पर पश्यन्ती अर्थात् नाम देखने की अवस्था आ जाती है। फिर नाम को जपा नहीं जाता, यही नाम श्वास में ढल जाता है। मन को द्रष्टा बनाकर खड़ा कर दें, देखते भर रहें कि साँस आती है कब? बाहर निकलती है कब? कहती है क्या?" महापुरुषों का कहना है कि यह साँस नाम के सिवाय और कुछ कहती ही नहीं। साधक नाम का जप नहीं करता, केवल उससे उठनेवाली धुन को सुनता है। साँस को देखता भर है, इसलिये इसे 'पश्यन्ती' कहते हैं। पश्यन्ती में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा करना पड़ता है; किन्तु साधन और उन्नत हो जाने पर सुनना भी नहीं पड़ता। एक बार सुरत लगा भर दें, स्वतः सुनायी देगा। 'जपै न जपावै, अपने से आवै #यथार्थ गीता #❤️जीवन की सीख #🙏गीता ज्ञान🛕 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🧘सदगुरु जी🙏
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Jagdish Sharma
531 views 18 hours ago
।। ॐ ।। अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति । सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥ दूसरे नियमित आहार करनेवाले प्राण को प्राण में ही हवन करते हैं। 'पूज्य महाराज जी' कहा करते थे कि, "योगी का आहार दृढ़, आसन दृढ़ और निद्रा दृढ़ होनी चाहिये।” आहार-विहार पर नियन्त्रण बहुत आवश्यक है। ऐसे अनेक योगी प्राण को प्राण में ही हवन कर देते हैं अर्थात् श्वास लेने पर ही ध्यान केन्द्रित रखते हैं, प्रश्वास पर ध्यान नहीं देते। साँस आयी तो सुना 'ओम्', पुनः साँस आयी तो 'ओम्' सुनते रहें। इस प्रकार यज्ञों द्वारा नष्ट पापवाले ये सभी पुरुष यज्ञ के जानकार हैं। इन निर्दिष्ट विधियों में से यदि कहीं से भी करते हैं तो वे सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं। #❤️जीवन की सीख #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #यथार्थ गीता
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Jagdish Sharma
520 views 2 days ago
।। ॐ ।। द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥ अनेक लोग द्रव्ययज्ञ करते हैं अर्थात् आत्मपथ में, महापुरुषों की सेवा में पत्र-पुष्प अर्पित करते हैं। वे समर्पण के साथ महापुरुषों की सेवा में द्रव्य लगाते हैं। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं- भक्तिभाव से पत्र, पुष्प, फल, जल जो कुछ भी मुझे देता है, उसे मैं खाता हूँ और उसका परमकल्याण-सृजन करनेवाला होता हूँ। यह भी यज्ञ है। हर आत्मा की सेवा करना, भूले हुए को आत्मपथ पर लाना द्रव्ययज्ञ है; क्योंकि प्राकृतिक संस्कारों को जलाने में समर्थ है। इसी प्रकार कई पुरुष 'तपोयज्ञाः' स्वधर्म पालन में इन्द्रियों को तपाते हैं अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न क्षमता के अनुसार यज्ञ की निम्न और उन्नत अवस्थाओं के बीच तपते हैं। इसी पथ की अल्पज्ञता में पहली श्रेणी का साधक शूद्र परिचर्या द्वारा, वैश्य दैवी सम्पद् के संग्रह द्वारा, क्षत्रिय काम-क्रोधादि के उन्मूलन द्वारा और ब्राह्मण ब्रह्म में प्रवेश की योग्यता के स्तर से इन्द्रियों को तपाता है। सबको एक-जैसा परिश्रम करना पड़ता है। वास्तव में यज्ञ एक ही है। अवस्था के अनुसार ऊँची-नीची श्रेणियाँ गुजरती जाती हैं। #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏गीता ज्ञान🛕 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख #यथार्थ गीता
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Jagdish Sharma
506 views 4 days ago
।। ॐ ।। श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥ अन्य योगीजन श्रोत्रादिक (श्रोत्र, नेत्र, त्वचा, जिह्वा और नासिका) इन्द्रियों को संयमरूपी अग्नि में हवन करते हैं अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से समेटकर संयत कर लेते हैं। यहाँ आग नहीं जलती। जैसे अग्नि में डालने से हर वस्तु भस्मसात् हो जाती है, ठीक इसी प्रकार संयम भी एक अग्नि है जो इन्द्रियों के सम्पूर्ण बहिर्मुखी प्रवाह को दग्ध कर देता है। दूसरे योगी लोग शब्दादिक (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) विषयों को इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं अर्थात् उनका आशय बदलकर साधनापरक बना लेते हैं। साधक को संसार में रहकर ही तो भजन करना है। सांसारिक लोगों के भले-बुरे शब्द उससे टकराते ही रहते हैं। विषयोत्तेजक ऐसे शब्दों को सुनते ही साधक उनके आशय को योग, वैराग्य सहायक, वैराग्योत्तेजक भावों में बदलकर इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं। #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏
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