कहानी
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AMAR PARASTE REAL HINDUSTANI
431 views 4 days ago
शिक्षाप्रद कहानी 🌴🌴🌴 *लॉरेंस लेम्यूक्स* (एक नाविक की सच्ची कहानी) हम सबके कुछ सपने होते हैं जिन्हें साकार करने के लिए हम कोई कसर बाकी नहीं रख छोड़ते। हम जैसे-जैसे अपने लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढ़ते हैं हमारे प्रयास और अधिक तेज़ हो जाते हैं। लक्ष्य के अत्यधिक निकट पहुंचने पर हमें अपने लक्ष्य के अतिरिक्त और कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ता। यह स्वाभाविक ही है। सफलता का मूल मंत्र भी यही है। ओलंपिक खेलों को ही लीजिए। दशकों तक कठिन परिश्रम करने के बाद ही कोई खिलाड़ी पदक हासिल करने के लिए आगे आ पाता है। वर्ष 1988 में सियोल में आयोजित ओलंपिक मुकाबलों में नौकायन की एकल प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के लिए कनाडा के लॉरेंस लेम्यूक्स एक दशक से भी अधिक समय से कठोर प्रशिक्षण ले रहे थे। उनका सपना साकार होने में बस थोड़ा सा ही समय शेष रह गया था। लॉरेंस लेम्यूक्स के गोल्ड मेडल जीतने की प्रबल संभावना थी। वह तेजी से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे और दूसरी पोजीशन पर बने हुए थे; अब उनका कोई न कोई पदक जीतना पक्का था। लेकिन तभी उन्होंने देखा कि एक दूसरी प्रतिस्पर्धा के नाविकों की नाव बीच समुद्र में उलटी पड़ी है। एक नाविक किसी तरह नाव से लटका हुआ था जबकि दूसरा समुद्र में बह रहा था। दोनों बुरी तरह से घायल थे। लॉरेंस ने अनुमान लगाया कि सुरक्षा नौका अथवा बचाव दल के आने में देर लगेगी और यदि तत्क्षण सहायता नहीं मिली तो इनका बचना असंभव होगा। अब उनके सामने दो विकल्प थे: पहला विकल्प था इस दुर्घटनाग्रस्त नाव के चालकों को नज़रंदाज़ करके अपना पूरा ध्यान केवल अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपनी नौका और रेस पर केंद्रित करना और दूसरा विकल्प था दुर्घटनाग्रस्त नाव के चालकों की मदद करना। लॉरेंस लेम्यूक्स ने बिना किसी हिचकिचाहट के फ़ौरन अपनी नाव उस दिशा में मोड़ दी जिधर उलटी हुई दुर्घटनाग्रस्त नाव समुद्र की विकराल लहरों में हिचकोले खा रही थी। लेम्यूक्स ने बिना देर किए दोनों घायल नाविकों को एक एक करके अपनी नाव में खींच लिया और तब तक वहीं इंतज़ार किया जब तक कि कोरिया की नौसेना आकर उन्हें सुरक्षित निकाल नहीं ले गई। प्रश्न उठता है कि लॉरेंस लेम्यूक्स ने अपने जीवन की एकमात्र महान उपलब्धि को अपने हाथ से यूँ ही क्यों फिसल जाने दिया? वास्तव में लॉरेंस लेम्यूक्स के जीवन मूल्य इस तथ्य पर निर्भर नहीं थे कि विजेता होने के लिए किसी भी कीमत पर ओलंपिक मेडल प्राप्त करना ही एकमात्र विकल्प है। लॉरेंस लेम्यूक्स को प्रतिस्पर्धा में तो कोई पदक नहीं मिल सका लेकिन अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी द्वारा लॉरेंस लेम्यूक्स को उनके साहस, आत्म-त्याग और खेल भावना के लिए पियरे द कूबर्तिन पदक प्रदान किया जो अत्यंत सम्मान का सूचक है। हमारे जीवन में भौतिक लक्ष्य भी हों और उन्हें पाने के लिए हम सदैव प्रयासरत रहें लेकिन जीवन का एकमात्र लक्ष्य भौतिक उपलब्धियाँ ही न हों। करुणा के वशीभूत होकर जब हम हर हाल में दूसरों की मदद के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं तभी हम वास्तविक विजेता बन पाते हैं। लॉरेंस लेम्यूक्स की करुणा की भावना व वास्तविक मदद ने उसे अपने देश के लोगों के दिलों का ही नहीं दुनिया के लोगों के दिलों का सम्राट बना दिया। 🌴🌴🌴 #कहानी
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Jaydev Samal
407 views 5 days ago
#कहानी *🌳🦚आज की कहानी🦚🌳* *💐💐लहू की ख़ुशबू💐💐* वो सुबह कुछ अलग थी—हल्की-सी ठंडक, पर हवा में बारूद और मिट्टी की मिली-जुली गंध। हर ओर से “वंदे मातरम्” और “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” की आवाज़ें गूँज रही थीं। गाँव के चौक पर खड़ा *भैरव*, अपनी फटी कमीज़ में भी किसी सैनिक की तरह सीना ताने खड़ा था। भैरव कोई बड़ा क्रांतिकारी नहीं था, न ही उसका नाम अख़बारों की सुर्ख़ियों में आता था। पर उसके भीतर आग थी—वो आग जो उसके पिता *गोविंद राय* ने उसकी रगों में बहाई थी। गोविंद राय 1857 के संग्राम में अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हुए थे। कहते हैं, उनकी आख़िरी साँसों के साथ भी “भारत माँ की जय” की पुकार थी। बचपन में जब भी भैरव ने अपनी माँ से पिता के बारे में पूछा, तो माँ चुपचाप उसकी हथेली पकड़कर बोली थी, “बेटा, तेरे पिता ने मिट्टी में जो लहू गिराया था, उसकी ख़ुशबू अब तक इस ज़मीन में है... उसे कभी मिटने मत देना।” वक़्त बीतता गया। आज़ादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। आसमान में धुआँ और धरती पर सैनिकों की टापों का शोर। पर उसी कोलाहल में कुछ नौजवानों की फुसफुसाहटें थीं—जिन्हें इतिहास “क्रांतिकारी” कहने वाला था। भैरव उन्हीं में एक था। रातों को जब सब सो जाते, वह अपने छोटे-से कमरे में बैठकर पर्चे लिखता—“अंग्रेज़ों को इस देश से निकलना होगा!” उसके शब्द बारूद की तरह थे—हर पर्चे में ग़ुलामी के ख़िलाफ़ एक विस्फोट। एक रात, चाँदनी में भी डर छिपा हुआ था। भैरव और उसके साथी— रामनारायण, और लता दीदी—पुरानी कोठरी में मिले। लता ने धीरे से कहा, “कल सुबह अंग्रेज़ों का हथियारों का काफ़िला रेलवे स्टेशन से गुज़रेगा... हमें रोकना होगा।” भैरव ने सिर्फ़ सिर हिलाया। उसकी आँखों में कोई डर नहीं था, बस वही अटल निश्चय जो कभी भगत सिंह के चेहरे पर चमका था। सुबह का सूरज जैसे किसी बलिदान की प्रतीक्षा में था। रेल की पटरियों के पास भैरव ने मिट्टी में हाथ डालकर कुछ पल के लिए आँखें बंद कीं। उसे लगा जैसे इस धरती से आवाज़ आ रही हो— *"जिस लहू से ये चमन गुलनार हुआ करता था..."* उसने पटरियों पर बम लगाया और दूर झाड़ियों में छिप गया। ट्रेन की सीटी गूँजी, पहियों की खड़खड़ाहट नज़दीक आई, और फिर... एक ज़ोरदार धमाका! धुआँ, चीखें, और उसके बाद सन्नाटा। अंग्रेज़ों के हथियार राख में बदल चुके थे। पर उसी धुएँ में भैरव का साया गुम हो गया। जब गाँववालों ने अगले दिन नदी किनारे उसकी फटी चप्पल और खून से सना झंडा देखा, तो कोई नहीं रोया। सबकी आँखों में आँसू थे, पर होंठों पर गर्व भी। उसकी माँ ने झंडे को सीने से लगाया और बोली— “मेरे बेटे ने अपना वादा निभाया... ये मिट्टी फिर महक उठी है।” सालों बाद जब देश आज़ाद हुआ, तो उसी जगह एक स्मारक बना— एक साधारण-सी दीवार, जिस पर लिखा था: “यहाँ वह सोया है, जिसका नाम इतिहास भूल सकता है, पर जिसकी ख़ुशबू इस वतन की मिट्टी में हमेशा रहेगी — भैरव।” हर 15 अगस्त को बच्चे वहाँ फूल चढ़ाते हैं। हवा में झंडा लहराता है और कहीं दूर किसी पुरानी आवाज़ की गूँज सुनाई देती है— "आज भी ख़ून की ख़ुशबू ये पुकार देती है, ये वतन माँ है, यहाँ प्यार हुआ करता था..." *जय जय श्री राम 🙏🏻* *जय हिन्द 🇮🇳* *सदैव प्रसन्न रहिए 🙏🏻* *जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।*
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