#☝अनमोल ज्ञान
🪷 || बल से नहीं, प्रेम से जीतें || 🪷
किसी को बल पूर्वक जीतने की अपेक्षा प्रेम पूर्वक जीतना कई गुना श्रेष्ठ एवं सरल है। किसी को बलपूर्वक हराकर जीतना आसान है, लेकिन उनसे प्रेमपूर्वक हार जाना कई गुना श्रेष्ठ है। जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वही तो बुद्धिमान है। वर्तमान समय में हमारे आपसी संबंधों में मतभेद का प्रमुख कारण ही यह है, कि हम दूसरों को प्रेम की शक्ति से नहीं अपितु बल की शक्ति से जीतना चाहते हैं।
दूसरों को जीतने के लिए बल का प्रयोग नहीं अपितु प्रेम का उपयोग करें। घर-परिवार में भी आज सुनाने को सब तैयार हैं पर सुनने को कोई तैयार ही नहीं है। दूसरों को सुनाने की अपेक्षा स्वयं सुन लेना भी हमारे आपसी संबंधों की मजबूती के लिये अति आवश्यक हो जाता है। अपने को सही साबित करने के लिए पूरे परिवार को ही अशांत बनाकर रख देना कदापि उचित नहीं। घर-परिवार में जितना हम एक दूसरे को समझेंगे उतने हमारे आपसी संबंध भी सुलझेंगे।
जय श्री राधे कृष्ण
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#पौराणिक मंदिर
देवप्रयाग की पुराणोक्त कथा महात्म्य
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देवप्रयाग👉 यह प्रसिद्ध तीर्थ पतितपावनी गंगा और अलकनन्दा के संगम पर ह़ै! उत्तराखंड के पंच प्रयागों , (देवप्रयाग,रुद्रप्रयाग,कर्णप्रयाग,नन्दप्रयाग,और बिष्णुप्रयाग) में परम मंगलकारक माना जाता है ! यह स्थान समुद्र तल से दो हजार (2000) फीट की ऊंचाई पर स्थित है ! इस स्थान की दूरी हरिद्वार से 57 मील है ! उत्तराखंड के अन्य मुख्य तीर्थों ( बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री) के मार्ग यहीं से होकर जाते है ! देवप्रयाग से बद्रीनाथ 126 मील, केदारनाथ 93 मील, गंगोत्री 130 मील, और यमनोत्री 113 मील आगे है !
देवप्रयाग में चट्टान काट कर दो कुण्ड बने हुये है ! जो कुण्ड गंगा जी की ओर है उसे ब्रह्मकुण्ड और जो अलकनन्दा की ओर है उसको वशिष्ठकुण्ड कहते है ! इन दोनों ही कुण्डो मे श्रद्धालु स्नान करते है ! यहां पर दो नदिया मिलकर बड़े वेग से बहती है, अत: यहां सावधानी पूर्वक स्नान करना चाहिये ! स्नानघाट से बहुत सी सीढ़ियां चढ़कर कुछ ऊपर आगे एक चट्टान के नीचे श्री रघुनाथ जी का विशाल मन्दिर है ! जो यहां का मुख्य दर्शन स्थान है ! मन्दिर के भीतर श्रीरघुनाथ जी की 6 फीट ऊंची श्याम रंग की पाषाण की मूर्ती है ! मन्दिर के आगे गरुड़ जी की मूर्ति है ! कुछ दूर आगे विश्वेश्वर,दुर्गा जी, क्षेत्रपाल और गढ़वाल राजवंश की कुछ पुरानी सती रानियों के मन्दिर भी बने हुये है !
पौराणिक कथा👉 पूर्व काल में जब विष्णु भगवान वामन रूप धरकर राक्षस राज बली से जो उन दिनों इंद्रासन पर विराजमान थे, तीन पग पृथ्वी दान मांगने गए थे ,और महादानी राजा बलि ने उनको दान का संकल्प देकर तीन पग पृथ्वी नापने को कहा था ! तब वामन भगवान ने तीन पग में तीनों लोगों को नाप डाला था ,उस समय उनका जो चरण ब्रह्मलोक में निपतित हुआ उसकी अंगुली के नख से ब्रह्मांड सस्फुटित होकर एक जलधारा निकली जो ब्रह्मद्रव कहलाई , यह जलधारा ब्रह्मलोक से ध्रुवलोक और वहां से सप्तऋषि मंडल में होती हुई भगवान शंकर की जचाओं मे नियंत्रित होती हुयी ,सुमेरू श्रृंग पर बेग के साथ पड़ी, उससे सुमेरु पर्वत दो श्रृंगों मे विभक्त हो गया ,और वह जलधारा भी दो भागों में विभक्त हो गई, एक धारा गंगोत्री होकर भागीरथी नाम से ,एवं दूसरी धारा अल्कापुरी होती हुयी अलकनन्दा नाम से प्रकट हुयी, इन्ही दोनों धाराओं के मिलन(संगम) का स्थान यह तीर्थ देवप्रयाग है ! इसका नाम देवप्रयाग होने का कारण यह है कि, एक समय देवशर्मा नाम के मुनि ने यहां पर भगवान बिष्णू की आराधना की थी,तब भगवान बिष्णू ने उन देवशर्मा को यहां पर प्रकट होकर दर्शन दिये थे, और कहा था कि यह क्षेत्र तुम्हारे नाम (देवप्रयाग)से विख्यात होगा ! तभी से इस स्थान में बिष्णू भगवान प्रतिष्ठित हैं! यहां गंगा और अलकनन्दा के संगम पर ब्रह्मा जी ने भी नारायण की स्तुति की थी ,इसी कारण यहां ब्रह्मकुण्ड नाम का तीर्थ हुवा! त्रेतायुग में जब भगवान ने रामचन्द्र का अवतार धारण कर रावण का वध किया था और रावण के ब्राह्मण कुल में होने की वजह से रामचन्देर जी को ब्रह्महत्या का दोष लग गया था ,तब रामचन्द्र जी इस तीर्थ में आकर प्रायश्चित तप करके ब्रह्महत्या दोष से मुक्त हुये थे ! तभी से यहां पर भगवान रामचन्द्र जी ने बैठ कर तपस्या की वहां पर (रघुनाथजी) की प्रतिष्ठा मुनियों के द्वारा हुयी थी,
यह स्थान बड़ा रमणीय एवं पुण्यमयी है।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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बाल दिवस विशेष (चार साहिबजादे)
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सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत । पूर्जा पूर्जा कट मरे, कबहू न छोड़े खेत ।।
हमारा देश कुर्बानियों और शहादत के लिए जाना जाता है और यहां तक के हमारे गुरूओं ने भी देश कौम के लिए अपनी जानें न्यौछावर की हैं…देश और कौम के लिए अपनी शहादत देने के लिए गुरूओं के लाल भी पीछे नहीं रहें…जी हां गुरूओं के बच्चों ने भी देश और कौम की खातिर अपनी जान की बाजी लगा दी…दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहीदी को कौन भुला सकता है …जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अजीम और महान शहादत दी..उनकी शहादत से तो मानो सरहंद की दीवारें भी कांप उठी थी… वो भी नन्हें बच्चों के साथ हो रहे कहर को सुन कर रो पड़ी ।
गुरू गोबिन्द सिंह को चारों साहिबजादों की शहीदी को कोई भूले से भी नहीं भुला सकता…आज भी जब कोई उस दर्दनाक घटना को याद करता है तो कांप उठता है…गुरू गोबिन्द सिंह के बड़े साहिबजादें बाबा अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर की जंग मुगलों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे…उन्होंने ये शहीदी 22 दिसम्बर और 27 दिसम्बर 1704 को पाई… इस दौरान बडे़ साहिबजादों में बाबा अजीत सिंह की उम्र 17 साल थी जबकि बाबा जुझार सिंह की उम्र महज 13 साल की थी….मगर जो उम्र बच्चों के खेलने कूदने की होती है उस उम्र में छोटे साहिबजादों ने शहीदी प्राप्त की…छोटे साहिबजादों को सरहंद के सूबेदार वजीर खान ने जिंदा दीवारों में चिनवा दिया था… उस समय छोटे साहिबजादों में बाबा जोरावर सिंह की उम्र आठ साल थी …जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र केवल 5 साल की थी…इस महान शहादत के बारे में हिन्दी के कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है …
जिस कुल जाति देश के बच्चे दे सकते हैं जो बलिदान…
उसका वर्तमान कुछ भी हो भविष्य है महा महान
गुरूमत के अनुसार अध्यात्मिक आनन्द पाने के लिए मनुष्य को अपना सर्वस्व मिटाना पड़ता है…और उस परम पिता परमेश्वर की रजा में रहना पड़ता है…इस मार्ग पर गुरू का भगत , गुरू का प्यारा या सूरमा ही चल चल सकता है…इस मार्ग पर चलने के लिए श्री गुरू नानक देव जी ने सीस भेंट करने की शर्त रखी थी…एक सच्चा सिख गुरू को तन , मन और धन सौंप देता है और वो किसी भी तरह की आने वाली मुसीबत से नहीं घबराता…इसी लिए तो कहा भी गया है…
तेरा तुझको सौंप के क्या लागै है मेरा
भारत पर मुगलों ने कई सौ बरस तक राज किया…उन्होंने इस्लाम धर्म को पूरे भारत में फैलाने के लिए हिन्दुओं पर जुल्म भी किए… मुगल शासक औरगंजेब ने तो जुल्म की इंतहा कर दी और जुल्म की सारी हदें तोड़ डाली…हिन्दुओं को पगड़ी पहनने और घोड़ी पर चढ़ने की रोक लगाई गई… और एक खास तरह टैक्स भी हिन्दु जाति पर लगाया गया जिसे जजिया टैक्स कहा जाता था…हिन्दुओं में आपसी कलह के कारण जुल्मों का विरोध नहीं हो रहा था… इन्हीं जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाई दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी ने…उन्होंने निर्बल हो चुके हिन्दुओं में नया उत्साह और जागृति पैदा करने का मन बना लिया…इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए गुरू गोबिन्द सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की…कई स्थानों पर सिखों और हिन्दुओं ने खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया… मुगल शासकों के साथ साथ कट्टर हिन्दुओं और उच्च जाति के लोगों ने भी खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया… कई स्थानों पर माहौल तनाव पूर्ण हो गया…सरहंद के सूबेदार वजीर खान और पहाड़ी राजे एकजुट हो गए और 1704 पर गुरू गोबिन्द सिंह जी पर आक्रमण कर दिया…सिखों ने बड़ी दलेरी से इनका मुकाबला किया और सात महीने तक आनन्दपुर के किले पर कब्जा नहीं होने दिया–आखिर हार कर मुगल शासकों ने कुरान की कसम खाकर और हिन्दु राजाओं ने गऊ माता की कसम खाकर गुरू जी से किला खाली कराने के लिए विनती की…20 दिसम्बर 1704 की रात को गुरू गोबिन्द जी ने किले को खाली कर दिया गया और गुरू जी सेना के साथ रोपड़ की और कूच कर गए…जब इस बात का पता मुगलों को लगा तो उन्होंने सारी कसमें तोड़ डाली और गुरू जी पर हमला कर दिया…लड़ते – लड़ते सिख सिरसा नदी पार कर गए और चमकौर की गढ़ी में गुरू जी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला…ये जंग अपने आप में खास है क्योंकि 80 हजार मुगलों से केवल 40 सिखों ने मुकाबला किया था…जब सिखों का गोला बारूद खत्म हो गया तो गुरू गोबिन्द सिंह जी ने पांच पांच सिखों का जत्था बनाकर उन्हें मैदाने जंग में भेजा ..इस लड़ाई में गुरू जी से इजाजत लेकर बड़े साहिबजादें भी शामिल हो गए लड़ते लड़ते वो सिरसा नदी पार कर गए…बड़े साहिबजादें छोटी सी उम्र में मुगलों से मुकाबला करते हुए शहीद हो गए…अब सवाल ये उठता है कि छोटे साहिबजादों का आखिर क्या कसूर था कि सरहंद के सूबेदार ने नन्हें बच्चों की उम्र का भी लिहाज नहीं रखा…और उन्हें जिन्दा सरहंद की दीवारों में चिनवा दिया । मगर छोटे साहिबजादों ने इन जुल्मों की परवाह नहीं की…
दूसरी ओर सिरसा नदी पार करते वक्त गुरू जी की माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे बिछुड़ गए…गुरू जी का रसोईया गंगू ब्राहम्ण उन्हें अपने साथ ले गया …रात को उसने माता जी की सोने की मोहरों वाली गठरी चोरी कर ली…सुबह जब माता जी ने गठरी के बारे में पूछा तो वो न सिर्फ आग बबूला ही हुआ…बल्कि उसने गांव के चौधरी को गुरू जी के बच्चों के बारे में बता दिया…और इस तरह ये बात सरहिन्द के नवाब तक पहुंच गई…सरहंद के नवाब ने उन्हें ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया….नवाब ने दो तीन दिन तक उन बच्चों को इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा…जब वो नहीं माने तो उन्हें खूब डराया धमकाया गया ,मगर वो नहीं डोले और वो अडिग रहें …उन्हें कई लालच दिए गए…लेकिन वो न तो डरे , न ही किसी बात का लोभ और लालच ही किया…न ही धर्म को बदला… सुचानंद दीवान ने नवाब को ऐसा करने के लिए उकसाया और यहां तक कहां कि यह सांप के बच्चे हैं इनका कत्ल कर देना ही उचित है…आखिर में काजी को बुलाया गया…जिसने उन्हें जिंदा ही दीवार में चिनवा देने का फतवा दे दिया…उस समय मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खां भी वहां उपस्थित थे…उसने इस बात का विरोध किया…फतवे के अनुसार जब 27 दिसम्बर 1704 में छोटे साहिबजादों को दीवारों में चिना जाने लगा तो…जब दीवार गुरू के लाडलों के घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काट दिया गया ताकि दीवार टेढी न हो जाए…जुल्म की इंतहा तो तब हो गई…जब दीवार साहिबजादों के सिर तक पहुंची तो शाशल बेग और वाशल बेग जल्लादों ने शीश काट कर साहिबजादों को शहीद कर दिया…छोटे साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर उनकी दादी स्वर्ग सिधार गई…इतने से भी इन जालिमों का दिल नहीं भरा और लाशों को खेतों में फेंक दिया गया…जब इस बात की खबर सरहंद के हिन्दू साहूकार टोडरमल को लगी तो उन्होंने संस्कार करने की सोची..उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए…उतनी जगह पर सोने की मोहरें बिछानी पड़ेगी…कहते हैं कि टोडरमल जी ने उस जगह पर अपने घर के सब जेवर और सोने की मोहरें बिछा कर साहिबजादों और माता गुजरी का दाह संस्कार किया…संस्कार वाली जगह पर बहुत ही सुन्दर गुरूव्दारा ज्योति स्वरूप बना हुआ है जबकि शहादत वाली जगह पर बहुत बड़ा गुरूव्दारा है…यहां हर साल 25से 27 दिसम्बर तक शहीदी जोड़ मेला लगता है…जो तीन दिन तक चलता है…धर्म की रक्षा के लिए …नन्हें बालकों ने हंसते हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए मगर हार नहीं मानी…मुगल नवाब वजीर खान के हुक्म पर इन्हें फतेहगढ़ साहिब के भौरा साहिब में जिंदा चिनवा दिया गया …यही नहीं छोटे साहिबजादे बाबा फतेह सिंह के नाम पर इस स्थान का नाम फतेहगढ़ साहिब रखा गया था….
जी हां धर्म ईमान की खातिर दशम पिता के इन राजकुमारों ने शहीदी पाई …लेकिन वो सरहंद के सूबेदार के आगे झुके नहीं …बल्कि उन्होंने खुशी खुशी शहीदी प्राप्त की…पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में हर साल साहिबजादों की याद में तीन दिवसीय मेला लगता है… गुरूव्दारा श्री फतेहगढ़ साहिब में बना ठंडा बुर्ज का भी अहम महत्व है…यही पर माता गुजरी ने तकरीबन आठ वर्ष तक दोनों छोटे साहिबजादों को धर्म और कौम की रक्षा का पाठ पढ़ाया था..इसी ठंडे बुर्ज में पोष माह की सर्द रातों में माता गुजरी ने बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह को धर्म की रक्षा के लिए शीश न झुकाते हुए अपने धर्म पर कायम रहने की शिक्षा दी थी …गुरू गोबिन्द सिंह जी के चारो साहिबजादों की पढ़ाई और शस्त्र विद्या गुरू साहिब की निगरानी में हुई …उन्होंने घुड़सवारी , शस्त्र विद्या और तीर अंदाजी में अपने राजकुमारों को माहिर बना दिया….दशम पातशाह के चारों राजकुमारों को साहिबजादें इसलिए कहा जाता है …क्योंकि दो दो साहिबजादें इक्टठे शहीद हुए थे … इसलिए इनको बड़े साहिबजादें और छोटे साहिबाजादे कहकर याद किया जाता है…जोरावर सिंह जी की शहीदी के समय उम्र 9 साल जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र 7 साल की थी ….इनके नाम के साथ बाबा शब्द इसलिए लगाया क्योंकि उन्होंने इतनी छोटी उम्र में शहादत देकर मिसाल पेश की …उनकी इन बेमिसाल कुर्बानियों के कारण इन्हें बाबा पद से सम्मानित किया गया…
आप सभी से निवेदन है बाल दिवस मनाना है तो कृपया हमारे सनातनी बालको जिन्होंने अपने देश के लिये अपने प्राण न्योछावर किये उनके लिये मनाये तो उन नन्हे बालको के लिये यही सच्ची श्रध्दांजलि होगी।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#बाल दिवस
प्रभु श्री राम के द्वार विभीषण को शरणागति में लेना, मित्र का पद देना, लंका का राज देना, सलाहकार मानना, भाई लक्ष्मण की अनिच्छा के वावजूद विभीषण की सलाह मानकर सागर से विनय करना आदि सब लीलायें उन गुप्तचर राक्षशों ने वानर रूप धारण करके अपनी आंखों से देखी और अब तो जी उनका हृदय प्रभु प्रेम से भर आया और वो तो मन ही मन प्रभु की जयजयकार करने लगे ,रामनाम जपने लगे,आनंद से झूमने लगे, और रामनाम सुमिरन के प्रभाव से उनके अंदर दैविक गुण प्रकट होने लगे।
जय श्री राम
##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
सन्तापाद् भ्रश्यते रुपं सन्तापाद् भ्रश्यते बलम् ।
सन्तापाद् भ्रश्यते ज्ञानं सन्तापाद् व्याधिमृच्छति॥
अर्थात 👉🏻 शोक करने से रूप-सौंदर्य नष्ट होता है , शोक करने से पौरुष नष्ट होता है , शोक करने से ज्ञान नष्ट होता है और शोक करने से मनुष्य का शरीर दुःखो का घर हो जाता है , अतः शोक करना त्याज्य है ।
🌄🌄 प्रभातवंदन 🌄🌄
#☝अनमोल ज्ञान #🙏सुविचार📿
भृंगराज के फायदे
#🌿आयुर्वेदिक नुस्खों पर चर्चा
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1. प्लीहा वृद्धि (तिल्ली) : लगभग 10 मिलीलीटर भांगरे के रस को सुबह और शाम रोगी को देने से तिल्ली का बढ़ना बंद हो जाता है।
2. कान का दर्द : भांगरा का रस 2 बूंद कान में डालने से कान का दर्द ठीक हो जाता है।
3. पेट के कीड़े : भृंगराज को एरंड के तेल के साथ सेवन करने से पेट के कीड़े नष्ट होकर मल के साथ बाहर निकल जाते हैं।
4. पेट में दर्द : भांगरे के पत्तों को पीसकर निकाले हुए रस को 5 ग्राम की मात्रा में 1 ग्राम काला नमक मिलाकर पानी के साथ पीने से पेट का दर्द नष्ट हो जाता है।
5. बालों को काला करने वाली दवा : भृंगराज तेल बालों में डालने से, रस सेवन करने से एवं भृंगराजासव का प्रयोग करने से सफेद बाल काले हो जाते हैं। भृंगराज तेल आयुर्वेदिक तेलों में एक प्रमुख तेल है।
6. बवासीर :भांगरा के पत्ते 3 ग्राम व कालीमिर्च 5 नग दोनों का महीन चूर्ण ताजे पानी से दोनों समय सेवन करने से 7 दिन में ही बहुत लाभ मिलता है।
7. बालों के रोग : बालों को छोटा करके उस स्थान पर जहां पर बाल न हों भांगरा के पत्तों के रस से मालिश करने से कुछ ही दिनों में अच्छे काले बाल निकलते हैं जिनके बाल टूटते हैं या दो मुंहे हो जाते हैं। उन्हें इस प्रयोग को अवश्य ही करना चाहिए।
8. आंखों के रोग : भांगरा के पत्तों की पोटली बनाकर आंखों पर बांधने से आंखों का दर्द नष्ट होता है।
9. कंठमाला : भांगरा के पत्तों को पीसकर टिकिया बनाकर घी में पकाकर कंठमाला की गांठों पर बांधने से तुरन्त ही लाभ मिलता है।
10. मुंह के छाले : भांगरा के 5 ग्राम पत्तों को मुंह में रखकर चबाएं तथा लार थूकते जाएं। दिन में ऐसा कई बार करना से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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💕_*।। भगवद्गीता और धर्म ।।*_❤️🚩
( भगवद्गीता ने धार्मिक होने के छह लक्षण गिनाए हैं )
धर्म शब्द के अर्थ को लेकर इतनी भिन्नता है कि लगभग अराजकता जैसी स्थिति है। अपनी अपनी मर्जी को उस अर्थ पर थोप देते हैं कि यही धर्म का अर्थ है। लोकमन में धर्म शब्द का अर्थ संकीर्ण होता तो वह उसे क्यों मान लेता?
धर्म शब्द बोल देना कितना आसान है! किन्तु
भगवद्गीता ने किस प्रकार के मनुष्य की प्रतिष्ठा की है ?
इस मनुष्य की नित-नित प्रणम्य परिकल्पना भी असाधारण है।
गीता ने धार्मिक होने के छह लक्षण गिनाए हैं जो इस प्रकार से है -
*1* - *अद्वेष्टा सर्वभूतानां* - किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष-भाव न हो।
*2* - *मैत्र: करुण एव च* - द्वेष न होना ही काफी नहीं है, सभी के प्रति मैत्रीभाव हो और निर्बल के प्रति दया हो।
*3* - *निर्ममो - निरहंकार:* - मेरा पन न हो, अभिमान भी न हो।
*4* - *समदु:ख:सुखक्षमी* - सुखदुख में समान क्षमता से युक्त हो।
*5* - *यस्मान्नोद्विजते लोको* - जिससे लोक को उद्विग्नता न हो।
*लोकान्नोद्विजते च य:* - उसे स्वयं भी लोक से उद्वेग न हो।
*6* - *सम: शत्रौ च मित्रेषु तथा मानापमानयो:* - मान हो या अपमान, शत्रु हो या मित्र समान दृष्टि वाला हो।
*🙏जय श्रीमन्नारायण🙏*
#गीता ज्ञान
#🕉️सनातन धर्म🚩
लक्ष्मी हिंदू धर्म में धन, समृद्धि, और सौभाग्य की देवी मानी जाती हैं। वे भगवान विष्णु की पत्नी हैं और संसार में सुख-समृद्धि लाने वाली देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। दिवाली के त्योहार पर, विशेष रूप से लक्ष्मी पूजन किया जाता है ताकि घर और परिवार में सुख-समृद्धि और धन का वास हो।
लक्ष्मी देवी का वर्णन सुंदरता, शांति और ऐश्वर्य के प्रतीक के रूप में किया जाता है। उन्हें चार हाथों वाली देवी के रूप में दर्शाया जाता है, जिनमें से एक हाथ से वे आशीर्वाद देती हैं और अन्य हाथों से सोने के सिक्के बरसाते हुए दिखाई देती हैं। उनके साथ कमल का फूल भी जुड़ा हुआ है, जो शुद्धता और उन्नति का प्रतीक है।
लक्ष्मी की उपासना से भक्तों को आर्थिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समृद्धि प्राप्त होती है। उन्हें "श्री" भी कहा जाता है, जो कीर्ति, सौभाग्य और वैभव का प्रतीक है।
#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩
🌿🌼 *अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे* 🌼🌿
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना ।
सोइ सरबग्य रामु भगवाना।
रोना, माया का धर्म है। सगुण परमात्मा की लीला में माया का धर्म भले ही दृष्टिगोचर हो परन्तु वे माया-रहित शुद्ध ब्रह्म हैं। ईश्वर ही हैं। सतीजी को आश्चर्य हुआ। परमात्मा श्रीरामचन्द्र के अनेक स्वरूपों का वर्णन ग्रन्थों में हुआ है। परमात्मा सगुण-साकार हैं और परमात्मा निर्गुण-निराकार भी हैं।
सगुण- साकार परमात्मा के साथ प्रेम होता है। जो निर्गुण-निराकार हैं उन ईश्वर के साथ प्रेम होता नहीं। ज्ञानी पुरुष ब्रह्म-चिंतन करते हैं, परन्तु घंटे-आधा घंटे बाद उनको थकान होने लगती है। निराकार निष्क्रिय ब्रह्म का चिंतन करते हुए आनन्द तो आता है परन्तु पीछे मन भटक जाता है। जो परमात्मा हिलता नहीं, चलता नहीं, बोलता नहीं, उस प्रभु का ध्यान करते हुए मन थक जाता है।
वैष्णवजन निष्क्रिय ब्रह्म का चिंतन करते नहीं, परन्तु लीला-विशिष्ट ब्रह्म का ध्यान करते हैं। वैष्णवों का ब्रह्म तो बोलता है, चलता है, हँसता है, खेलता है, नाचता है, प्रेम करता है। घूम-घूम करते हुए कन्हैया जिस प्रकार चलता है ऐसा चलना किसी को भी आता नहीं, वैष्णवजन अष्टयाम सेवा का चिन्तन करते हैं। सुबह कन्हैया उठते हैं, यशोदा माँ कन्हैया का सुन्दर श्रृंगार करती हैं, माताजी लाल को माखन-मिश्री आरोगवाती हैं, कन्हैया गायों को लेकर आते हैं, गायों की सेवा करते हैं। प्रातः काल से रात्रि तक जब तक रासलीला होती है, तब तक एक-एक लीला का वैष्णव लोग अत्यन्त प्रेम से चिंतन करते हैं।
सगुण- साकार परमात्मा के साथ प्रेम होता है; निर्गुण-निराकार ईश्वर का बुद्धि में अनुभव होता है। निराकार ब्रह्म बस 'है' केवल इतना ही है, परन्तु इन निराकार ब्रह्म का अपने को अधिक उपयोग नहीं है। लकड़ी में अग्नि होती है। सभी जानते हैं कि लकड़ी के एक-एक कण में अग्नि है, परन्तु जिस समय अत्यन्त ठंड लग रही हो और उस समय कोई लकड़ी का स्पर्श करे तो लकड़ी में रहनेवाली अग्नि क्या गर्मी देती है? लकड़ी में अग्नि है, मात्र इतना ही जाना जाता है, लकड़ी के अणु-परमाणु में अग्नि है, दूध के एक-एक कण में माखन है, परन्तु वह निराकार रूप में है। निराकार ईश्वर सर्वव्यापक है, परन्तु किसी को दिखाई देता नहीं। बुद्धि से ही उसका अनुभव होता है।
सगुण के साथ प्रेम करो और निर्गुण-निराकार ईश्वर सबमें विराजमान है, ऐसा सर्वकाल में अनुभव करो। परमात्मा सभी में है, ऐसा हर समय जो समझता है उसको पाप करने की जगह मिलती नहीं। जो लोग ऐसा मानते हैं कि भगवान् वैकुण्ठ में और मन्दिर में ही बैठे हैं, उनके हाथों से पाप हो जाता है। तुम जहाँ हो, वहीं ईश्वर है। जगत् में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ भगवान् न विराजते हों।परमात्मा सर्वव्यापक हैं।
राजा राजमहल में रहता है परन्तु राजा की सत्ता उसके राज्य में सभी जगह होती है, राज्य के अणु-परमाणु में भी व्याप्त रहती है। सत्ता का कोई आकार नहीं होता, कोई रंग नहीं होता। सत्ता काली, सफेद या पीली नहीं होती। राजा भले ही राजमहल में रहे, परन्तु सत्तारूप से राजा सबमें होता है। राजा में सत्ता न रहे तो राजा का अस्तित्व ही न रहे। कल्पना करो कि एक अतिशय श्रीमंत की मोटर सड़क पर जा रही है। श्रीमंत को बहुत ही महत्त्व का काम है इसलिये मोटर बहुत वेग से चली जा रही है। फिर भी मार्ग पर वाहन के नियमों का पालन कराने के लिये खड़ा हुआ सिपाही यदि हाथ ऊँचा करे तो श्रीमंत को भी मोटर खड़ी रखनी पड़ेगी। यह सम्मान सिपाही के लिये नहीं, राज्य-सत्ता के लिये होता है। श्रीमान् के मन में कदाचित् घमण्ड होवे कि ऐसे अनेक सिपाहियों को तो मैं घर में नौकर रख सकता है। तो बात तो यह सत्य है, परन्तु उस राज-सिपाही में राजसत्ता है। सत्ता का कोई रंग नहीं, सत्ता का कोई आकार नहीं, परन्तु सत्ता है। यह बात सत्य है।
निर्गुण-निराकार ईश्वर सभी के अन्दर सर्वकाल में विराजमान है। निर्गुण और सगुण, भगवान् के इन दो स्वरूपों का वर्णन ग्रन्थों में आता है। वेद में अनेक स्थानों पर ऐसा वर्णन आता है कि ईश्वर का कोई आकार नहीं, ईश्वर निराकार है, तेजोमय है। ईश्वर का आकार नहीं, इसका अर्थ यह है कि ईश्वर का कोई एक आकार नहीं है।
अरे! शंख, चक्र, गदा, पद्म हाथ में हो, उसी को ईश्वर कहते हैं क्या? हाथ में त्रिशूल धारण करनेवाला ईश्वर नहीं है क्या? धनुष, बाण हाथ में हो, वह ईश्वर नहीं है क्या? ईश्वर का कोई एक स्वरूप निश्चित नहीं किया गया है कि अमुक स्वरूप में जो दिखाई देता है, वही ईश्वर कहलाएगा। जगत् में जितने रूप दिखाई देते हैं, वे तत्त्व से परमात्मा के ही स्वरूप हैं।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे।
आकार भले ही भिन्न दिखाई दे, परन्तु उन सब प्रकार के आकारों में ईश्वर-तत्त्व एक ही है। माला में फूल अनेक हैं, अनेक प्रकार के हैं, परन्तु धागा एक ही है। गीताजी में भगवान् ने आज्ञा की है-
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
आकार भिन्न-भिन्न हैं परन्तु सबमें रहने वाला ईश्वर तत्त्व एक ही है। गाय काली हो, धौरी हो अथवा लाल हो, उसका दूध सफेद ही होता है। रूप-रंग अथवा आकार का महत्त्व नहीं होता; आकार में रहनेवाले परमात्म-तत्त्व का महत्त्व है। नरसिंह मेहता ने कहा है-
अखिल ब्रह्माण्ड में एक तू श्रीहरि, जूजवे रूपे अनन्त भासे॥
वेद तो एय वदे, श्रुति-स्मृति शौखदे, कनक कुण्डल विशे भेद न होये।
घाट घडिया पछी नाम रूप जूजवाँ, अंते तो हेमनुं हेम होय॥
सुवर्ण के आभूषण अनेक होते हैं, अनेक प्रकार के आकार के होते हैं परन्तुइन सब आभूषणों में एक ही सुवर्ण होता है। तुम बाजार में चन्द्रहार लेकर जाओ तो चन्द्रहार की कीमत मिलती है क्या? नहीं! कीमत सोने की ही मिलती है। सोना यदि दस तोला होगा तो दस तोले सोने का ही मूल्य मिलेगा। चन्द्रहार की कीमत मिलेगी नहीं। आकार की कीमत नहीं। कीमत सुवर्ण की है।
एक महात्मा के पास सुवर्ण के गणपति और सुवर्ण का चूहा था। शरीर वृद्ध हुआ। काल समीप आया जानकर महात्मा ने विचार किया कि मेरे जाने के बाद ये शिष्य लोग मूर्ति के लिए झगड़ा करेंगे। इसलिये उचित यही है कि मूर्ति को बेच दिया जाय और उस मूल्य से भंडारा करा दिया जाय। महात्मा मूर्ति बेचने गये। गणपति की मूर्ति दस तोले की बैठी और मूषक की ग्यारह तोले की। स्वर्णकार ने कहा-गणपति का मूल्य चार हजार रूपया और मूषक का मूल्य चार हजार चार सौ है। महात्मा ने कहा-अरे गणपति तो मालिक हैं। उनका मूल्य कम क्यों देते हो? सुवर्णकार ने कहा- मैं तो सुवर्ण की कीमत देता हूँ, मालिक की नहीं।
आकार की कीमत अधिक नहीं होती। परमात्मा निराकार है, ऐसा जहाँ वर्णन किया है, वहाँ उसका अर्थ यही है कि ईश्वर का कोई एक आकार निश्चित नहीं है। जगत् में जितने आकार दिखाई देते हैं, वे सभी तत्त्वदृष्टि से भगवान् के ही आकार हैं।
सुवर्णाज्जायमानस्य सुवर्णत्वं च शाश्वतम्।
ब्रह्मणो जायमानस्य ब्रह्मत्वं च तथा भवेत्॥
सुवर्ण में से बने हुए आभूषणों में सुवर्ण-तत्त्व जिस प्रकार एक ही है, उसी प्रकार ईश्वर से उत्पन्न हुए इस सृष्टि के सब जीवों में ही क्या, सब पदार्थों में ईश्वर-तत्त्व एक ही है। ईश्वर सर्वाकार है। ईश्वर का कोई एक आकार निश्चित नहीं। इसलिए भगवान् को निराकार कहते हैं।
भगवान विश्वनाथ और माँ भवानी की जय 🙏🌷
आनन्दरूप सीयावर रामचंद्र की जय 🙏🌷
श्री हनुमान की जय 🙏🌷
- परम पूज्य संत श्री रामचंद्र केशव डोंग्रेजी महाराज के दिव्य प्रवचनों से 🙏
#🕉️सनातन धर्म🚩
🌿🌼 *एक ही परमात्मा अनेक प्रकार की लीला करने के लिये अनेक स्वरूप धारण करता है* 🌼🌿
अपने सनातन धर्म में देव अनेक हैं, परन्तु ईश्वर अनेक नहीं। एक ही ईश्वर अनेक स्वरूप धारण करता है। हाथ में जब धनुष-बाण धारण करता है तो लोग कहते हैं कि 'ये श्रीरामजी विराज रहे हैं;' और वही परमात्मा बाँसुरी हाथ में धारण करते हैं तो लोग कहते हैं कि 'ये मुरलीमनोहर श्रीकृष्ण हैं।' ठाकुरजी को नित्य पीताम्बर धारण करने में बोझा लगता है, इसलिये कन्हैयाजी कभी-कभी माँ यशोदा से कहते हैं कि माँ! आज तो मुझे बाघम्बर ओढ़कर साधु बनकर बैठना है। लाला को तो नित्य नयी-नयी बात सुहाती है न! कन्हैया पीताम्बर फेंककर और बाघम्बर ओढ़कर जब बैठ जाते हैं, उस समय लोग कहते है कि 'ये शंकर भगवान् बैठे हैं'।
गर्गसंहिता में एक कथा आती है। श्रीराधाजी व्रत कर रही थीं श्रीकृष्ण से मिलने के लिए। श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए राधाजी का यह व्रत था। तुलसीजी में श्रीबालकृष्णलाल को पधराकर श्रीबालकृष्णलाल की सेवा करती, परिक्रमा करतीं परन्तु राधाजी के पिता वृषभानुजी ने ऐसी व्यवस्था की हुई थी कि श्रीराधाजी के महल में किसी पुरुष का प्रवेश हो नहीं सकता था, राधाजी से कोई मिल नहीं सकता था। श्रीराधाजी के महल में पहरा भी था परन्तु था सखियों का ही। तुम बरसाना गये होगे। बरसाने में श्रीराधिकाजी का महल है। वहाँ सखियों का ही पहरा है।
श्रीराधाजी को अत्यन्त आतुरता हुई कि 'मुझे श्रीकृष्ण से मिलना है, श्रीकृष्ण के दर्शन करने हैं।' इस ओर लाला को भी दर्शन-मिलन की आतुरता जागी। लाला ने विचार किया कि मैं पीताम्बर पहिनकर जाऊँ तो मुझे कोई अन्दर जाने देगा नहीं जब कि मुझे अन्दर जाना ही है। उस समय चन्द्रावली सखी से प्रभु ने कहा-आज अपना समस्त श्रृंगार तू मुझे धारण करा। चन्द्रावली ने लाला को सखी का सभस्त श्रृंगार धारण करके सजा दिया। श्रीकृष्ण सखी का रूप धारण करके वहाँ गये। वृषभानुजी वहाँ विराजे हुए थे। उन्होंने समझा कि राधा से मिलने उसकी कोई सखी आई है। श्रीकृष्ण अन्दर गये और राधिका जी से मिले।
भगवान् साड़ी पहिन लेते हैं, उस समय लोग कहने लगते हैं कि 'ये माताजी हैं। श्रीकृष्ण, श्रीराम अनेक स्वरूप धारण करते हैं, परन्तु ये सभी स्वरूप, तत्त्व से एक ही हैं। देव अनेक हैं, परमात्मा एक है। एक ही परमात्मा अनेक स्वरूप धारण करते हैं। अरे! एक मनुष्य भी दिन में कई बार कपड़ा बदलता है, घर में अँगोछा पहिनकर फिरता है, बाहर जाना हो तो बढ़िया कपड़े पहिन लेता है। तब कपड़ा बदल लेने से क्या व्यक्ति बदल जाता है?
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति । एकं सत्यं बहुधा समुपयन्ति ॥
एक ही परमात्मा अनेक प्रकार की लीला करने के लिये अनेक स्वरूप धारण करता है। परमात्मा निर्गुण-निराकार है और परमात्मा सगुण-साकार भी है। निराकार का अर्थ यही है कि उसका कोई एक आकार निश्चित नहीं। वह तो तेजोमय है, जैसा स्वरूप धारण करने की इच्छा होती है, वैसा ही स्वरूप प्रकट करते हैं। भगवान् कहते हैं कि मेरा कोई आकार नहीं और मेरा कोई श्रृंगार भी नहीं। मेरे भक्तों को जो आकार और श्रृंगार सुहाता है वैसा ही स्वरूप और वैसा ही श्रृंगार मैं धारण कर लेता हूँ।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मैं अपने भक्तों के अधीन हूँ। तत्त्व-दृष्टि से विचार किया जाय तो सगुण और निर्गुण एक ही है, जिस प्रकार राजा और राजा की सत्ता- ये दोनों एक ही है। सत्ता न रहे तो फिर वह राजा किसका? परन्तु वह निराकार सत्ता कोई कार्य करे तो साकार स्वरूप धारण करके ही करती है। आँख में जो देखने की शक्ति है, वह निराकार है। आँख साकार है। निराकार और साकार एक बनते हैं तभी कोई क्रिया हो पाती है। निराकार की क्रिया कोई नहीं। आँख में जो शक्ति है उस शक्ति का कोई आकार नहीं है, आँख का आकार है। यह फूल साकार है, परन्तु इसमें जो सुगंध है, वह निराकार है। निराकार और साकार-दोनों के मिलने पर क्रिया होती है।
श्रीराम निर्गुण-निराकार हैं, श्रीराम सगुण-साकार हैं। तत्त्व-दृष्टि से दोनों पृथक् नहीं। निर्गुण-निराकार ब्रह्म और सगुण-साकार परमात्मा एक ही हैं। निराकार-निर्विकार ब्रह्म परमात्मा सबके अन्दर विराजे हुए हैं। वे प्रकाशमय हैं। वे स्वरूप को छिपाते हैं। वे आँखों द्वारा दिखाई पड़ते नहीं, केवल बुद्धि-ग्राह्य हैं। निराकार ब्रह्म सर्वव्यापक हैं। किसी का आकर्षण करते नहीं, निग्रह अथवा अनुग्रह भी करते नहीं। मारते भी नहीं तथा तारते भी नहीं। मारना तथा तारना-यह लीला तो श्रीराम करते हैं, श्रीकृष्ण करते हैं, लीला के निमित्त निराकार ब्रह्म ही साकार स्वरूप धारण करते हैं। निर्गुण ब्रह्म ही सगुण लीलातनु धारण करते हैं और अनेक प्रकार की लीला करते हैं।
आनन्दस्वरूप परमात्मा की ऐसी दिव्य लीला देखकर शिवजी को तनिक भी मोह नहीं हुआ। शिवजी को तो दृढ़ विश्वास था कि 'श्रीराम ईश्वर ही हैं। परन्तु सतीजी के मन में थोड़ा विकल्प हुआ और सतीजी परीक्षा करने गयीं। अन्त में सतीजी को विश्वास हो गया कि 'ये परमात्मा ही हैं'। अपनी भूल उनको समझ में आ गयी।
सतीजी वापस लौटने लगीं। मार्ग में उनको श्रीराम, लक्ष्मण, जानकीजी के दर्शन हुए। करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश था। श्रीरामजी के दाहिनी ओर लक्ष्मणजी तथा बायीं ओर श्रीसीताजी थीं। श्रीसीतारामजी का नित्य संयोग है। रावण सीताजी को ले ही नहीं गया था। ऐसा दर्शन करके सतीजी ने अपना मार्ग बदला। बदले हुए मार्ग पर भी वही दर्शन हुए। ब्रह्मादिक देवता रामजी की स्तुति कर रहे थे।
सतीजी ने फिर तीसरा मार्ग बदला। पुनः उनको प्रत्यक्ष दर्शन हुए। सतीजी घबराने लगीं। उन्होंने नेत्र मूँद लिये। तदनन्तर रामजी ने लीला-संवरण कर लिया। सतीजी शिवजी के पास आयीं। शिवजी ने पूछा-हमारे रामजी की परीक्षा कर ली? सतीजी ने कहा- मैं प्रभु के समीप जाकर दर्शन कर आई, आपने तो दूर से दर्शन किया था। मैं तो पास से उनके दर्शन करके आयी हूँ। परन्तु शंकर भगवान् से क्या छिपा हुआ रह सकता था, वे तो 'ईश्वरः सर्वभूतानाम्' हैं। शिवजी ने मन से सतीजी का त्याग किया। सोचा कि 'अब ये मेरी माँ है।' इन्होंने सीताजी का स्वरूप जो धारण कर लिया था।
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥
शिवजी ने सतीजी का त्याग कर दिया। भगवान् शंकर नन्दिकेश्वर पर विराजे हुए थे। नन्दिकेश्वर धर्म के स्वरूप हैं। मन से ज्यों ही सतीजी का त्याग किया कि आकाश से पुष्पवृष्टि हुई। देवता लोग शंकर भगवान् की जय-जयकार करने लगे। सतीजी को आश्चर्य हुआ। वे शिवजी से कुछ भी न पूछ सकीं एवं लज्जित हो गयीं। वहाँ से दोनों कैलासधाम पधारे। सतीजी कुछ भी पूछें, उसके पूर्व ही रामजी का ध्यान करते हुए शिवजी की समाधि लग गई। पाप करने वाले को शान्ति मिलती नहीं; फिर भले ही वह देव, दानव अथवा मनुष्य हो। सतीजी घबरा गईं। उसी समय दक्षप्रजापति ने यज्ञ-अनुष्ठान किया। दक्षप्रजापति शिवजी के स्वरूप को जानते नहीं, शिव-तत्त्व को सही रूप से समझते नहीं।
भगवान विश्वनाथ और माँ भवानी की जय 🙏🌷
आनन्दरूप सीयावर रामचंद्र की जय 🙏🌷
श्री हनुमान की जय 🙏🌷
- परम पूज्य संत श्री रामचंद्र केशव डोंग्रेजी महाराज के दिव्य प्रवचनों से 🙏







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