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जय श्री कृष्ण घर पर रहे-सुरक्षित रहे
श्री दुर्गा सप्तशती भाषा 〰️〰️🌼〰️🌼〰️〰️ (हिन्दी पाठ) अध्याय 9 〰️〰️〰️ नवम अध्याय 〰️〰️〰️〰️ ऊँ नमश्चण्डिकायै नम: (निशुम्भ वध) ध्यानम् ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्दैः। बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र- मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि।। राजा ने कहा-हे ऋषिराज! आपने रक्तबीज के वध से संबंध रखने वाला वृतान्त मुझे सुनाया। अब मैं रक्तबीज के मरने के पश्चात क्रोध में भरे हुए शुम्भ व निशुम्भ ने जो कर्म किया, वह सुनना चाहता हूँ। महर्षि मेधा ने कहा-रक्तबीज के मारे जाने पर शुम्भ और निशुम्भ को बड़ा क्रोध आया और अपनी बहुत बड़ी सेना का इस प्रकार सर्वनाश होते देखकर निशुम्भ देवी पर आक्रमण करने के लिए दौड़ा, उसके साथ बहुत से बड़े-बड़े असुर देवी को मारने के वास्ते दौड़े और महापराक्रमी शुम्भ अपनी सेना सहित चण्डिका को मारने के लिए बढ़ा, फिर शुम्भ और निशुम्भ का देवी से घोर युद्ध होने लगा और वह दोनो असुर इस प्रकार देवी पर बाण फेंकने लगे जैसे मेघों से वर्षा हो रही हो, उन दोनो के चलाए हुए बाणों को देवी ने अपने बाणों से काट डाला और अपने शस्त्रों की वर्षा से उन दोनो दैत्यों को चोट पहुँचाई, निशुम्भ ने तीक्ष्ण तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवी के सिंह पर आक्रमण किया, अपने वाहन को चोट पहुँची देखकर देवी ने अपने क्षुरप्र नामक बाण से निशुम्भ की तलवार व ढाल दोनो को ही काट डाला। तलवार और ढाल कट जाने पर निशुम्भ ने देवी पर शक्ति से प्रहार किया। देवी ने अपने चक्र से उसके दो टुकड़े कर दिए। फिर क्या था दैत्य मारे क्रोध के जल भुन गया और उसने देवी को मारने के लिए उसकी ओर शूल फेंका, किन्तु देवी ने अपने मुक्के से उसको चूर-चूर कर डाला, फिर उसने देवी पर गदा से प्रहार किया, देवी ने त्रिशूल से गदा को भस्म कर डाला, इसके पश्चात वह फरसा हाथ में लेकर देवी की ओर लपका। देवी ने अपने तीखे वाणों से उसे धरती पर सुला दिया। अपने पराक्रमी भाई निशुम्भ के इस प्रकार से मरने पर शुम्भ क्रोध में भरकर देवी को मारने के लिये दौड़ा। वह रथ में बैठा हुआ उत्तम आयुधों से सुशोभित अपनी आठ बड़ी-बड़ी भुजाओं से सारे आकाश को ढके हुए था। शुम्भ को आते देख कर देवी ने अपना शंख बजाया और धनुष की टंकोर का भी अत्यन्त दुस्सह शब्द किया, साथ ही अपने घण्टे के शब्द से जो कि सम्पूर्ण दैत्य सेना के तेज को नष्ट करने वाला था सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त कर दिया। इसके पश्चात देवी के सिंह ने भी अपनी दहाड़ से जिसे सुन बड़े-बड़े बलवानों ला मद चूर-चूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाओं को पूरित कर दिया, फिर आकाश में उछलकर काली ने अपने दाँतों तथा हाथों को पृथ्वी पर पटका, उसके ऎसा करने से ऎसा शब्द हुआ, जिससे कि उससे पहले के सारे शब्द शान्त हो गये, इसके पश्चात शिवदूती ने असुरों के लिए भय उत्पन्न करने वाला अट्टहास किया जिसे सुनकर दैत्य थर्रा उठे और शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ, फिर अम्बिका ने उसे अरे दुष्ट! खड़ा रह!!, खड़ा रह!!! कहा तो आकाश से सभी देवता ‘जय हो, जय हो’बोल उठे। शुम्भ ने वहाँ आकर ज्वालाओं से युक्त एक अत्यन्त भयंकर शक्ति छोड़ी जिसे आते देखकर देवी ने अपनी महोल्का नामक शक्ति से काट डाला। हे राजन्! फिर शुम्भ के सिंहनाद से तीनों लोक व्याप्त हो गये और उसकी प्रतिध्वनि से ऎसा घोर शब्द हुआ, जिसने इससे पहले के सब शब्दों को जीत लिया। शुम्भ के छोड़े बाणों को देवी ने और देवी के छोड़े बाणों को शुम्भ ने अपने बाणों से काट सैकड़ो और हजारों टुकड़ो में परिवर्तित कर दिया। इसके पश्चात जब चण्डीका ने क्रोध में भर शुम्भ को त्रिशूल से मारा तो वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, जब उसकी मूर्छा दुर हुई तो वह धनुष लेकर आया और अपने बाणों से उसने देवी काली तथा सिंह को घायल कर दिया, फिर उस राक्षस ने दस हजार भुजाएँ धारण करके चक्रादि आयुधों से देवी को आच्छादित कर दिया, तब भगवती दुर्गा ने कुपित होकर अपने बाणों से उन चक्रों तथा बाणों को काट डाला, यह देखकर निशुम्भ हाथ में गदा लेकर चण्डिका को मारने के लिए दौडा, उसके आते ही देवी ने तीक्ष्ण धार वाले ख्ड्ग से उसकी गदा को काट डाला। उसने फिर त्रिशूल हाथ में ले लिया, देवताओं को दुखी करने वाले निशुम्भ त्रिशूल हाथ में लिए हुए आता देखकर चण्डिका ने अपने शूल से उसकी छाती पर प्रहार किया और उसकी छाती को चीर डाला, शूल विदीर्ण हो जाने पर उसकी छाती में से एक उस जैसा ही महा पराक्रमी दैत्य ठहर जा! ठहर जा!! कहता हुआ निकला। उसको देखकर देवी ने बड़े जोर से ठहाका लगाया। अभी वह निकलने भी न पाया था किन उसका सिर अपनी तलवार से काट डाला। सिर के कटने के साथ ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदनन्तर सिंह दहाड़-दहाड़ कर असुरों का भक्षण करने लगा और काली शिवदूती भी राक्षसों का रक्त पीने लगी। कौमारी की शक्ति से कितने ही महादैत्य नष्ट हो गए। ब्रह्माजी के कमण्डल के जल से कितने ही असुर समाप्त हो गये। कई दैत्य माहेश्वरी के त्रिशूल से विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और बाराही के प्रहारों से छिन्न-भिन्न होकर धराशायी हो गये। वैष्णवी ने भी अपने चक्र से बड़े-बड़े महा पराक्रमियों का कचमूर निकालकर उन्हें यमलोक भेज दिया और ऎन्द्री से कितने ही महाबली राक्षस टुकड़े-2 हो गये। कई दैत्य मारे गए, कई भाग गए, कितने ही काली शिवदूती और सिंह ने भक्षण कर लिए। नवम अध्याय सम्पूर्ण 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏शुभ नवरात्रि💐 #🌺महाअष्टमी 🙏 #🙏महागौरी🌷 #🙏जय माता दी📿
📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 - श्री दुर्गां सप्तशती हिन्दी पाठ नवम अष्याय श्री दुर्गां सप्तशती हिन्दी पाठ नवम अष्याय - ShareChat
#🔱शक्तिपीठ 🛕 51 शक्तिपीठ पौराणिक कथा एवं विवरण 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में जरूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं। ज्ञातव्य है की इन 51 शक्तिपीठों में भारत-विभाजन के बाद 5 और भी कम हो गए और आज के भारत में 42 शक्ति पीठ रह गए है। 1 शक्तिपीठ पाकिस्तान में चला गया और 4 बांग्लादेश में। शेष 4 पीठो में 1 श्रीलंका में, 1 तिब्बत में तथा 2 नेपाल में है। या देवी सर्व भुतेशु शक्ति रुपेन सस्मिथा नम: तस्ये नम: तस्ये नम: तस्ये नमो नम:|| देश-विदेश में स्थित इन 51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है, वह यह है कि राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने सती के रूप में जन्म लिया था और भगवान शिव से विवाह किया। एक बार मुनियों का एक समूह यज्ञ करवा रहा था। यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था। जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए। भगवान शिव दक्ष के दामाद थे। यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए। दक्ष अपने दामाद शिव को हमेशा निरादर भाव से देखते थे। सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व / ब्रिहासनी' नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ मेंब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता और सती के पति भगवान शिव को इस यज्ञ में शामिल होने के लिए निमन्त्रण नहीं भेजा था। जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए। नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा। सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। 'तंत्र-चूड़ामणि' के अनुसार इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र याआभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या करशिव को पुन: पति रूप में प्राप्त किया। शक्तिपीठों का विवरण 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ किरीट कात्यायनी शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित है किरीट शक्तिपीठ, जहां सती माता का किरीट यानी शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं। कात्यायनी शक्तिपीठ👉 वृन्दावन, मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरा था। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी हैं। करवीर शक्तिपीठ👉 महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है। श्री पर्वत शक्तिपीठ👉 इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतान्तर है कुछ विद्वानों का मानना है कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ का मानना है कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती का दक्षिण तल्प यानी कनपटी गिरा था। यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं। विशालाक्षी शक्तिपीठ👉 उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं। गोदावरी तट शक्तिपीठ👉 आंध्रप्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं। शुचीन्द्रम शक्तिपीठ👉 तमिलनाडु, कन्याकुमारी के त्रिासागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुची शक्तिपीठ, जहां सती के उफध्र्वदन्त (मतान्तर से पृष्ठ भागद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं। पंच सागर शक्तिपीठ👉 इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता का नीचे के दान्त गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं। ज्वालामुखी शक्तिपीठ👉 हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती का जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं। भैरव पर्वत शक्तिपीठ👉 इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतदभेद है। कुछ गुजरात के गिरिनार के निकट भैरव पर्वत को तो कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षीप्रा नदी तट पर वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं, जहां माता का उफध्र्व ओष्ठ गिरा है। यहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण हैं। अट्टहास शक्तिपीठ👉 अट्टहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। जहां माता का अध्रोष्ठ यानी नीचे का होंठ गिरा था। यहां की शक्ति पफुल्लरा तथा भैरव विश्वेश हैं। जनस्थान शक्तिपीठ👉 महाराष्ट्र नासिक के पंचवटी में स्थित है जनस्थान शक्तिपीठ जहां माता का ठुड्डी गिरी थी। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव विकृताक्ष हैं। कश्मीर शक्तिपीठ👉 जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का कण्ठ गिरा था। यहां की शक्ति महामाया तथा भैरव त्रिसंध्येश्वर हैं। नन्दीपुर शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है यह पीठ, जहां देवी की देह का कण्ठहार गिरा था। यहां कि शक्ति निन्दनी और भैरव निन्दकेश्वर हैं। श्री शैल शक्तिपीठ👉 आंध्रप्रदेश के कुर्नूल के पास है श्री शैल का शक्तिपीठ, जहां माता का ग्रीवा गिरा था। यहां की शक्ति महालक्ष्मी तथा भैरव संवरानन्द अथव ईश्वरानन्द हैं। नलहरी शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है नलहरी शक्तिपीठ, जहां माता का उदरनली गिरी थी। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव योगीश हैं।. मिथिला शक्तिपीठ👉 इसका निश्चित स्थान अज्ञात है। स्थान को लेकर मन्तारतर है तीन स्थानों पर मिथिला शक्तिपीठ को माना जाता है, वह है नेपाल के जनकपुर, बिहार के समस्तीपुर और सहरसा, जहां माता का वाम स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति उमा या महादेवी तथा भैरव महोदर हैं। रत्नावली शक्तिपीठ👉 इसका निश्चित स्थान अज्ञात है, बंगाज पंजिका के अनुसार यह तमिलनाडु के चेन्नई में कहीं स्थित है रत्नावली शक्तिपीठ जहां माता का दक्षिण स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति कुमारी तथा भैरव शिव हैं। अम्बाजी शक्तिपीठ, प्रभास पीठ👉 गुजरात गूना गढ़ के गिरनार पर्वत के प्रथत शिखर पर देवी अिम्बका का भव्य विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। यहां की शक्ति चन्द्रभागा तथा भैरव वक्रतुण्ड है। ऐसी भी मान्यता है कि गिरिनार पर्वत के निकट ही सती का उध्र्वोष्ठ गिरा था, जहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण है। जालंधर शक्तिपीठ 👉 पंजाब के जालंधर में स्थित है माता का जालंधर शक्तिपीठ जहां माता का वामस्तन गिरा था। यहां की शक्ति त्रिपुरमालिनी तथा भैरव भीषण हैं। रामागरि शक्तिपीठ👉 इस शक्ति पीठ की स्थिति को लेकर भी विद्वानों में मतान्तर है। कुछ उत्तर प्रदेश के चित्राकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। यहा की शक्ति शिवानी तथा भैरव चण्ड हैं। वैद्यनाथ का हार्द शक्तिपीठ👉 झारखण्ड के गिरिडीह, देवघर स्थित है वैद्यनाथ हार्द शक्तिपीठ, जहां माता का हृदय गिरा था। यहां की शक्ति जयदुर्गा तथा भैरव वैद्यनाथ है। एक मान्यतानुसार यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था। वक्त्रोश्वर शक्तिपीठ👉 माता का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैिन्थया में स्थित है जहां माता का मन गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव वक्त्रानाथ हैं। कण्यकाश्रम कन्याकुमारी शक्तिपीठ👉 तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ीद्ध के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता का पीठ मतान्तर से उध्र्वदन्त गिरा था। यहां की शक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमषि या स्थाणु हैं। बहुला शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता का वाम बाहु गिरा था। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं। उज्जयिनी शक्तिपीठ👉 मध्य प्रदेश के उज्जैन के पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ। जहां माता का कुहनी गिरा था। यहां की शक्ति मंगल चण्डिका तथा भैरव मांगल्य कपिलांबर हैं। मणिवेदिका शक्तिपीठ👉 राजस्थान के पुष्कर में स्थित है मणिदेविका शक्तिपीठ, जिसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है यहीं माता की कलाइयां गिरी थीं। यहां की शक्ति गायत्री तथा भैरव शर्वानन्द हैं। प्रयाग शक्तिपीठ👉 उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित है। यहां माता की हाथ की अंगुलियां गिरी थी। लेकिन, स्थानों को लेकर मतभेद इसे यहां अक्षयवट, मीरापुर और अलोपी स्थानों गिरा माना जाता है। तीनों शक्तिपीठ की शक्ति ललिता हैं।विरजाक्षेत्रा, उत्कल शक्तिपीठ👉 उड़ीसा के पुरी और याजपुर में माना जाता है जहां माता की नाभि गिरा था। यहां की शक्ति विमला तथा भैरव जगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं। कांची शक्तिपीठ👉 तमिलनाडु के कांचीवरम् में स्थित है माता का कांची शक्तिपीठ, जहां माता का कंकाल गिरा था। यहां की शक्ति देवगर्भा तथा भैरव रुरु हैं। कालमाध्व शक्तिपीठ👉 इस शक्तिपीठ के बारे कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है। परन्तु, यहां माता का वाम नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति काली तथा भैरव असितांग हैं। शोण शक्तिपीठ👉 मध्य प्रदेश के अमरकंटक के नर्मदा मन्दिर शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। एक दूसरी मान्यता यह है कि बिहार के सासाराम का ताराचण्डी मन्दिर ही शोण तटस्था शक्तिपीठ है। यहां सती का दायां नेत्रा गिरा था ऐसा माना जाता है। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी तथा भैरव भद्रसेन हैं। कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ👉 कामगिरिअसम गुवाहाटी के कामगिरि पर्वत पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का योनि गिरा था। यहां की शक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानन्द हैं। जयन्ती शक्तिपीठ👉 जयन्ती शक्तिपीठ मेघालय के जयन्तिया पहाडी पर स्थित है, जहां माता का वाम जंघा गिरा था। यहां की शक्ति जयन्ती तथा भैरव क्रमदीश्वर हैं। मगध् शक्तिपीठ👉 बिहार की राजधनी पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है जहां माता का दाहिना जंघा गिरा था। यहां की शक्ति सर्वानन्दकरी तथा भैरव व्योमकेश हैं। त्रिस्तोता शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के शालवाड़ी गांव में तीस्ता नदी पर स्थित है त्रिस्तोता शक्तिपीठ, जहां माता का वामपाद गिरा था। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव ईश्वर हैं। त्रिपुरी सुन्दरी शक्तित्रिपुरी पीठ👉 त्रिपुरा के राध किशोर ग्राम में स्थित है त्रिपुरे सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुर सुन्दरी तथा भैरव त्रिपुरेश हैं। विभाष शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक ग्रााम में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। यहां की शक्ति कापालिनी, भीमरूपा तथा भैरव सर्वानन्द हैं। देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र (शक्तिपीठ)👉 हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे श्रीदेवीकूप(भद्रकाली पीठ के नाम से मान्य है। माता का दहिने चरण (गुल्पफद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति सावित्री तथा भैरव स्थाणु हैं। युगाद्या शक्तिपीठ (क्षीरग्राम शक्तिपीठ)👉 पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले के क्षीरग्राम में स्थित है युगाद्या शक्तिपीठ, यहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था। विराट का अम्बिका शक्तिपीठ👉 राजस्थान के गुलाबी नगरी जयपुर के वैराटग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहाँ सती के 'दायें पाँव की उँगलियाँ' गिरी थीं।। यहां की शक्ति अंबिका तथा भैरव अमृत हैं। काली शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल, कोलकाता के कालीघाट में कालीमन्दिर के नाम से प्रसिध यह शक्तिपीठ, जहां माता के दाएं पांव की अंगूठा छोड़ 4 अन्य अंगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव नकुलेश हैं। मानस शक्तिपीठ👉 तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना हथेली का निपात हुआ था। यहां की शक्ति की दाक्षायणी तथा भैरव अमर हैं। लंका शक्तिपीठ👉 श्रीलंका में स्थित है लंका शक्तिपीठ, जहां माता का नूपुर गिरा था। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं। लेकिन, उस स्थान ज्ञात नहीं है कि श्रीलंका के किस स्थान पर गिरे थे। गण्डकी शक्तिपीठ👉 नेपाल में गण्डकी नदी के उद्गम पर स्थित है गण्डकी शक्तिपीठ, जहां सती के दक्षिणगण्ड(कपोल) गिरा था। यहां शक्ति `गण्डकी´ तथा भैरव `चक्रपाणि´ हैं। गुह्येश्वरी शक्तिपीठ 👉 नेपाल के काठमाण्डू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुह्येश्वरी शक्तिपीठ है, जहां माता सती के दोनों जानु (घुटने) गिरे थे। यहां की शक्ति `महामाया´ और भैरव `कपाल´ हैं। हिंगलाज शक्तिपीठ👉 पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रान्त में स्थित है माता हिंगलाज शक्तिपीठ, जहां माता का ब्रह्मरन्ध्र गिरा था। सुगंध शक्तिपीठ👉 बांग्लादेश के खुलना में सुगंध नदी के तट पर स्थित है उग्रतारा देवी का शक्तिपीठ, जहां माता का नासिका गिरा था। यहां की देवी सुनन्दा है तथा भैरव त्रयम्बक हैं। करतोयाघाट शक्तिपीठ👉 बंग्लादेश भवानीपुर के बेगड़ा में करतोया नदी के तट पर स्थित है करतोयाघाट शक्तिपीठ, जहां माता का वाम तल्प गिरा था। यहां देवी अपर्णा रूप में तथा शिव वामन भैरव रूप में वास करते हैं। चट्टल शक्तिपीठ 👉 बंग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना बाहु यानी भुजा गिरा था। यहां की शक्ति भवानी तथा भेरव चन्द्रशेखर हैं। यशोरेश्वरी शक्तिपीठ👉 बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का प्रसि( यशोरेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता का बायीं हथेली गिरा था। यहां शक्ति यशोरेश्वरी तथा भैरव चन्द्र हैं। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
🔱शक्तिपीठ 🛕 - -0 ಕ46 कगवतीकैेछ० शक्तिपीठ -0 ಕ46 कगवतीकैेछ० शक्तिपीठ - ShareChat
#🌺महाअष्टमी 🙏 #🙏शुभ नवरात्रि💐 #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏महागौरी🌷 #🙏जय माता दी📿 श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण) (नवमोध्याय) ।।ॐ नमश्चण्डिकायै।। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ नवमोऽध्यायः निशुम्भ-वध ध्यानम् ॐ बन्धूककाञ्चननिरभं रुचिराक्षमालां पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः । बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र- मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि ॥ मैं अर्धनारीश्वर के श्रीविग्रहबकी निरन्तर शरण लेता हूँ। उसका वर्ण बन्धूक पुष्प और सुवर्ण के समान रक्त-पीतमिश्रित है। वह अपनी भुजाओं में सुन्दर अक्षमाला, पाश, अंकुश और वरद-मुद्रा धारण करता है; अर्धचन्द्र उसका आभूषण है तथा वह तीन नेत्रोंसे सुशोभित है । ॐ' राजोवाच ॥ १॥ राजा ने कहा-॥१॥ विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम। देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम् ॥ २॥ भगवन्! आपने रक्तबीज के वध से सम्बन्ध रखने-वाला देवी-चरित्र का यह अद्भुत माहात्म्य मुझे बतलाया ॥ २ ॥ भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते। चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः ॥ ३ ॥ अब रक्तबीज के मारे जाने पर अत्यन्त क्रोध में भरे हुए शुम्भ और निशुम्भने जो कर्म किया, उसे में सुनना चाहता हूँ॥ ३॥ ऋषिरुवाच॥ ४॥ ऋषि कहते हैं-॥४॥ चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते। शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे ॥ ५ ॥ राजन् ! युद्ध में रक्तबीज तथा अन्य दैत्यों के मारे जाने पर शुम्भ और निशुम्भ के क्रोधकी सीमा न रही।॥ ५ ॥ हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्गहन्। अभ्यधावन्नि शुम्भोऽथ मुख्यासुरसेनया ॥ ६ ॥ अपनी विशाल सेना इस प्रकार मारी जाती देख निशुम्भ अमर्में भरकर देवी की ओर दौड़ा। उसके साथ असुरों की प्रधान सेना थी॥ ६॥ तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुराः। संदष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः॥ ७ ॥ उसके आगे, पीछे तथा पार्श्व भाग में बड़े-बड़े असुर थे, जो क्रोध से ओठ चबाते हुए देवी को मार डालने के लिये आये॥ ७ ॥ आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः । निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः ॥ ८ ॥ महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना के साथ मातृगणों से युद्ध करके क्रोधवश चण्डिका को मारने के लिये आ पहुँचा॥ ८॥ ततो युद्धमतीवासीद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः । शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः ॥ ९ ॥ तब देवी के साथ शुम्भ और निशुम्भ का घोर संग्राम छिड़ गया। वे दोनों दैत्य मेघों की भाँति बाणों की भयंकर वृष्टि कर रहे थे ॥ ९ ॥ चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः । ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ ॥ १० ॥ उन दोनों के चलाये हुए बाणों को चण्डिका ने अपने बाणों के समूह से तुरंत काट डाला और शस्त्रसमूहों की वर्षा करके उन दोनों दैत्यपतियों के अंगों में भी चोट पहुँचायी॥ १० ॥ निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चादाय सुप्रभम्। अताडयन्मूर्धिनि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम् ॥ ११ ॥ निशुम्भ ने तीखी तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवी के श्रेष्ठ वाहन सिंह के मस्तक पर प्रहार किया॥ ११ ॥ ताड़िते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुक्तमम्। निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्ट चन्द्रकम्॥ १२ ॥ अपने वाहन को चोट पहुँचने पर देवी ने क्षुरप्र नामक बाण से निशुम्भ की श्रेष्ठ तलवार तुरंत ही काट डाली और उसकी ढाल को भी, जिसमें आठ चाँद जड़े थे, खण्ड-खण्ड कर दिया॥ १२॥ छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः । तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभि मुखागताम्॥ १३॥ ढाल और तलवार के कट जाने पर उस असुर ने शक्ति चलायी, किंतु सामने आने पर देवी ने चक्र से उसके भी दो टुकड़े कर दिये॥ १३ ॥ कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः। आयात मुष्टिपातेन देवी तच्चाण्यचूर्णयत् ॥ १४ ॥ अब तो निशुम्भ क्रोध से जल उठा और उस दानव ने देवी को मारने के लिये शूल उठाया; किंतु देवी ने समीप आने पर उसे भी मुक्के से मारकर चूर्ण कर दिया॥ १४॥ आविध्यार्थ गरदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति। सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता ॥ १५ ॥ तब उसने गदा घुमाकर चण्डी के ऊपर चलायी, परंतु वह भी देवी के त्रिशूल से कटकर भस्म हो गयी ॥ १५॥ ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्गवम्। आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले ॥ १६॥ तदनन्तर दैत्यराज निशुम्भ को फरसा हाथ में लेकर आते देख देवी ने बाणसमूहों से घायलकर धरती पर सुला दिया॥ १६ ॥ तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे। भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम् ॥ १७॥ उस भयंकर पराक्रमी भाई निशुम्भ के धराशायी हो जाने पर शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ और अम्बिका का वध करने के लिये वह आगे बढ़ा ॥ १७ ॥ रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः । भुजैरष्टाभिरतुलैव्र्याप्याशेषं बभौ नभः ॥ १८॥ रथपर बैठे-बैठे ही उत्तम आयुधों से सुशोभित अपनी बड़ी-बड़ी आठ अनुपम भुजाओं से समूचे आकाश को ढककर वह अद्भुत शोभा पाने लगा ॥ १८॥ तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत्। ज्याशब्दं चापि धनुषश्चकारातीव दुःसहम् ॥ १९॥ उसे आते देख देवी ने शंख बजाया और धनुष की प्रत्यंचाका भी अत्यन्त दुस्सह शब्द किया॥ १९॥ पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च। समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना ॥ २०॥ साथ ही अपने घण्टे के शब्द से, जो समस्त दैत्यसैनिकों का तेज नष्ट करने वाला था, सम्पूर्ण दिशाओं को व्याप्त कर दिया॥ २०॥ ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः । पूरयामास गगनं गां तथैव * दिशो दश॥ २१ ॥ तदनन्तर सिंह ने भी अपनी दहाड़ से, जिसे सुनकर बड़े-बड़े गजराजों का महान् मद दूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाओं को गुँजा दिया॥ २१ ॥ ततः काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत् । कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः॥ २२ ॥ फिर काली ने आकाश में उछलकर अपने दोनों हाथों से पृथ्वी पर आघात किया। उससे ऐसा भयंकर शब्द हुआ, जिससे पहले के सभी शब्द शान्त हो गये॥ २२॥ अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह। तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ ॥ २३॥ तत्पश्चात् शिवदूती ने दैत्यों के लिये अमंगल जनक अट्टहास किया, इन शब्दों को सुनकर समस्त असुर थर्रा उठे; किंतु शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ॥ २३ ॥ दूरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा | तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितै: ॥ २४॥ उस समय देवी ने जब शुम्भ को लक्ष्य करके कहा - 'ओ दुरात्मन् ! खड़ा रह, खड़ा रह', तभी आकाश में खड़े हुए देवता बोल उठे - ' जय हो, जय हो' ॥ २४॥ शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा। आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया ॥ २५ ॥ शुम्भ ने वहाँ आकर ज्वालाओं से युक्त अत्यन्त भयानक शक्ति चलायी। अग्निमय पर्वत के समान आती हुई उस शक्ति को देवी ने बड़े भारी लूके से दूर हटा दिया॥ २५ ॥ सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम्। निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते ॥ २६ ॥ उस समय शुम्भ के सिंहनाद से तीनों लोक गूँज उठे। राजन्! उसकी प्रतिध्वनि से वज्रपात के समान भयानक शब्द हुआ, जिसने अन्य सब शब्दों को जीत लिया॥ २६ ॥ शुम्भमुक्ताञ्छरान्देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान् । चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्त्रशः ॥ २७॥ शुम्भ के चलाये हुए बाणों के देवी ने और देवी के चलाये हुए बाणों के शुम्भ ने अपने भयंकर बाणों द्वारा सैकड़ों और हजारों टुकड़े कर दिये॥ २७॥ ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम् । स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह॥ २८॥ तब क्रोध में भरी हुई चण्डिका ने शुम्भ को शूल से मारा। उसके आघात से मूर्च्छित हो वह पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ २८॥ ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः । आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा॥ २९॥ इतने में ही निशुम्भ को चेतना हुई और उसने धनुष हाथ में लेकर बाणों द्वारा देवी, काली तथा सिंह को घायल कर डाला॥ २९ ॥ पुनश्च कृत्वा बाहूनामयुतं दनुजेश्वरः। चक्रायुधेन दितिजश्छादयामास चण्डिकाम् ॥ ३० ॥ फिर उस दैत्यराज ने दस हजार बाँहें बनाकर चक्रों के प्रहार से चण्डिका को आच्छादित कर दिया॥ ३० ॥ ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी। चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैः सायकांश्च तान् ॥ ३१ ॥ तब दुर्गम पीड़ा का नाश करने वाली भगवती दुर्गा ने कुपित होकर अपने बाणों से उन चक्रों तथा बाणों को काट गिराया॥ ३१ ॥ ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम्। अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः ॥ ३२॥ यह देख निशुम्भ दैत्यसेना के साथ चण्डिका का वध करने के लिये हाथ में गदा ले बड़े वेग से दौड़ा॥ ३२ ॥ तस्यापतत एवाशु गरदां चिच्छेद चण्डका । खड्गेन शितधारेण स च शूलं समादे ॥ ३३ ॥ उसके आते ही चण्डी ने तीखी धारवाली तलवार से उसकी गदा को शीघ्र ही काट डाला। तब उसने शूल हाथ में ले लिया॥ ३३ ॥ शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरादनम् । हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका ॥ ३४ |॥ देवताओं को पीड़ा देने वाले निशुम्भ को शूल हाथ में लिये आते देख चण्डिका ने वेग से चलाये हुए अपने शूल से उसकी छाती छेद डाली॥ ३४॥ भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोऽपरः । महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन् ॥ ३५ ॥ शूल से विदीर्ण हो जाने पर उसकी छाती से एक दूसरा महाबली एवं महापराक्रमी पुरुष 'खड़ी रह, खड़ी रह ' कहता हुआ निकला॥ ३५ ॥ तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः । शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसावपतद्धुवि ॥ ३६ ॥ उस निकलते हुए पुरुष की बात सुनकर देवी ठठाकर हँस पड़ीं और खड्ग से उन्होंने उसका मस्तक काट डाला। फिर तो वह पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ३६॥ ततः सिंहश्चखादोग्र दंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान् । असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान् ॥ ३७॥ तदनन्तर सिंह अपनी दाढ़ों से असुरों की गर्दन कुचलकर खाने लगा, यह बड़ा भयंकर दृश्य था। उधर काली तथा शिवदूती ने भी अन्यान्य दैत्यों का भक्षण आरम्भ किया॥ ३७ ॥ कौमारीशक्तिनिर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः । ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृता: ॥ ३८॥ कौमारी की शक्ति से विदीर्ण होकर कितने ही महादैत्य नष्ट हो गये ब्रह्माणी के मन्त्रपूत जल से निस्तेज होकर कितने ही भाग खड़े हुए॥ ३८॥ माहेश्वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे। वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णीकृता भुवि ॥ ३९॥ कितने ही दैत्य माहेश्वरी के त्रिशूल से छिन्न-भिन्न हो धराशायी हो गये वाराही के थूथुन के आघात से कितनों का पृथ्वी पर कचूमर निकल गया ॥ ३९ ॥ खण्ड खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः। वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे ॥ ४०॥ वैष्णवी ने भी अपने चक्र से दानवों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। ऐन्द्री के हाथ से छूटे हुए वज्र से भी कितने ही प्राणों से हाथ धो बैठे ॥ ४० ॥ केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात्। भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः ॥ ॐ ॥ ४१ ॥ कुछ असुर नष्ट हो गये, कुछ उस महायुद्ध से भाग गये तथा कितने ही काली, शिवदूती तथा सिंह के ग्रास बन गये॥ ४१ ॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः॥ ९॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सारवर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'निशुम्भ-वध' नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ।॥९ ॥ क्रमशः.... अगले लेख में दशम अध्याय जय माता जी की। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
🌺महाअष्टमी 🙏 - श्री दुर्गासप्तशती पाठ (नवमोध्याय ) श्री दुर्गासप्तशती पाठ (नवमोध्याय ) - ShareChat
⚜️🌹🪷🙏🏻🪷🌹⚜️ ।। ॐ देवी महा गौर्यै नम:।। पूर्णेन्दुनिभां गौरीं सोमचक्रस्थिताम् अष्टमदुर्गां त्रिनेत्राम्। वराभीतिकरां त्रिशूलडमरूधरां महागौरीं भजेऽहम्॥ 🙏🏻🪷🌹मैं देवी महागौरी की पूजा करता हूँ, जो सोम चक्र की अधिष्ठात्री हैं, पूर्ण चंद्रमा के समान तेजस्वी हैं, दुर्गा का आठवां रूप हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, वर और अभय प्रदान करती हैं, त्रिशूल और डमरू धारण करती हैं। 🙏🏻🪷🌹🦚 #🙏महागौरी🌷
🙏महागौरी🌷 - ३ँ देवी महागौर्यै नमः पूर्णेन्दुनिभां गौरीं सोमचक्रस्थिताम् अष्टमूदुर्गां त्रिनेत्राम्। भजेडहम्।। वराभीतिकरां त्रिशूलडमरूधरां ' महागौरीं नबदर्गास्तति :।८ |ध्यानम।२ ಹಾಾಞಗೆಕಕ मैं देवी महागौरी की पूजा करता जो सोम चक्र की अधिष्ठात्री हैं, पूर्ण चंद्रमा के समान ؟f का आठवां रूप हैं ೯ त्रिशूल तीन नेत्रों वाली हैं॰ वर और अभय प्रदान करती और डमरू धारण करती हैं। Mz2l2dc" ٢ ٥؟؟   ٢ ٨ ٢ ३ँ देवी महागौर्यै नमः पूर्णेन्दुनिभां गौरीं सोमचक्रस्थिताम् अष्टमूदुर्गां त्रिनेत्राम्। भजेडहम्।। वराभीतिकरां त्रिशूलडमरूधरां ' महागौरीं नबदर्गास्तति :।८ |ध्यानम।२ ಹಾಾಞಗೆಕಕ मैं देवी महागौरी की पूजा करता जो सोम चक्र की अधिष्ठात्री हैं, पूर्ण चंद्रमा के समान ؟f का आठवां रूप हैं ೯ त्रिशूल तीन नेत्रों वाली हैं॰ वर और अभय प्रदान करती और डमरू धारण करती हैं। Mz2l2dc" ٢ ٥؟؟   ٢ ٨ ٢ - ShareChat
प्रभु श्री राम वनराधीश सुग्रीव द्वार विभीषण के आगमन की बात सुन कर सुग्रीव के मन की दशा जानने हेतु कहते हैं कि हे सुग्रीव तुम मेरे मित्र हो, मेरे हितैषी हो, अब तुम ही कुछ सलाह दो की क्या करना चाहिये ; सुग्रीव कहता है कि करोगे तो आप वो ही जो आपके मन भायेगा क्योंकि आप नर रूप में नारायण हो पर मेरे मन की बात मैं कह देता हूँ कि ये राक्षशों की छल कपट की नीति बहुत खतरनाक है, ये कामादि मनोरोगों से पीड़ित राक्षस जाने क्या कुटिल योजना बना कर भक्त रूप में आये हैं ये आप ही जान सकते हो प्रभु। ।। राम राम जी।। ##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
#सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - कह प्रभु सखा बूझिए काहा | कहड कपीस सुनहु नरनाहा | [ जानि न जाइ निसाचर माया | केहि कामरूप 6 3IIII3II -प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मिन्र! तुम क्या ೩ समझते  (तुम्हारी क्या राय है) ? वानरराज ने कहा- हे महाराज! ತಾಾ' सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है।।४३-३। | सदरकाण्द  कह प्रभु सखा बूझिए काहा | कहड कपीस सुनहु नरनाहा | [ जानि न जाइ निसाचर माया | केहि कामरूप 6 3IIII3II -प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मिन्र! तुम क्या ೩ समझते  (तुम्हारी क्या राय है) ? वानरराज ने कहा- हे महाराज! ತಾಾ' सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है।।४३-३। | सदरकाण्द - ShareChat
#🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏महागौरी🌷 #🌺महाअष्टमी 🙏 #🕉️सनातन धर्म🚩 🪷 || माँ महागौरी नमोऽस्तुते || 🪷 नवरात्रि का पर्व नारी के सम्मान का ही पर्व है। सनातन संस्कृति में नारी को देवी स्वरूपा माना गया है इसलिए नवरात्रि में पूरे नौ दिन नारी के देवी अथवा शक्ति रूप का ही पूजन किया जाता है। नवरात्र का अष्टम दिवस माँ महागौरी को समर्पित है। नवरात्रि पर्व हिंदू सनातन संस्कृति की विराटता का प्रतीक है। महागौरी की पूजा करने वाले देश में आज गर्भ के भीतर गौरी को मारा जा रहा है। पुत्र की चाह में उसकी निर्ममता से हत्या की जा रही है। आज गौरी स्वरूपा बेटी न गर्भ के भीतर सुरक्षित है और न ही गर्भ के बाहर। बेटी, बहन, पत्नी, माता, दादी न जाने कितने रूपों में हमें एक नारी संभालती है। इन नवरात्रियों में कन्याओं का पूजन करते समय दो संकल्प अवश्य ले लेना। पहला ये कि गर्भ के भीतर किसी गौरी की हत्या नहीं करेंगे और न करने देंगे व स्त्री के प्रति सदैव सम्मान की दृष्टि रखेंगे एवं जीवन के किसी भी सम्बन्ध में नारी हमारे कारण दुःख न पावे, यही वास्तविक महागौरी पूजा होगी। जय माता दी =========================
🙏शुभ नवरात्रि💐 - महागौरी HI YA ३ ऐं हीं क्लीं महागौर्ये नमः महागौरी HI YA ३ ऐं हीं क्लीं महागौर्ये नमः - ShareChat
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸 -------------------------------- 🙏 जय श्री कृष्ण 🙏 -------------------------------- ---*⚜*--- नववर्षा भवेद्‌दुर्गा सुभद्रा दशवार्षिकी। क्रूरशत्रुविनाशार्थं तथोग्रकर्मसाधने।। दुर्गाञ्च पूजयेद्‌भक्त्या परलोकसुखाय च।। वाञ्छितार्थस्य सिद्ध्यर्थं सुभद्रां पूजयेत्सदा। देवीभागवत ३/२६/४३,५०,५१ "नवरात्र में कन्यापूजन में नव वर्ष की कन्या 'दुर्गा' कहलाती है, क्रूर शत्रु के विनाश एवं उग्र कर्म की साधना के निमित्त, परलोक में सुख पाने के लिए 'दुर्गा' नामक कन्या की भक्ति पूर्वक आराधना करनी चाहिए । दस वर्ष की कन्या 'सुभद्रा' कहलाती है, मनुष्य को अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए सुभद्रा की सदा पूजा करनी चाहिए।" ---*⚜*--- 🙏 जय माता दी🙏 ०००००००००००००००० 🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸 #🙏महागौरी🌷 #🌺महा अष्टमी 🙏 #🙏शुभ नवरात्रि💐
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#📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏देवी कालरात्री🙏 #🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🕉️सनातन धर्म🚩 श्री दुर्गा सप्तशती भाषा 〰️〰️🌼〰️🌼〰️〰️ आठवां अध्याय 〰️〰️〰️〰️〰️ ऊँ नमश्चण्डिकायै नम: (रक्तबीज वध) ॐ अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम्। अणिमादिभिरावृतां मयूखैरहमित्येव विभावये भवानीम्।। महर्षि मेधा ने कहा-चण्ड और मुण्ड नामक असुरों के मारे जाने से और बहुत सी सेना के नष्ट हो जाने से असुरों के राजा, प्रतापी शम्भु ने क्रोध युक्त होकर अपनी सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा दी। उसने कहा-अब उदायुध नामक छियासी असुर सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये जायें और कम्बू नामक चौरासी सेनापति भी युद्ध के लिये जाएँ और कोटि वीर्य नामक पचास सेनापति और धौम्रकुल नाम के सौ सेनापति प्रस्थान करें, कालक, दौहृद, मौर्य और कालकेय यह दैत्य भी मेरी आज्ञा से सजकर युद्ध के लिए कूच करें, भयानक शासन करने वाला असुरों का स्वामी शुम्भ इस प्रकार आज्ञा देकर बहुत बड़ी सेना के साथ युद्ध के लिए चला। उसकी सेना को अपनी ओर आता देखकर चण्डिका ने अपनी धनुष की टंकोर से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुँजा दिया। हे राजन्! इसके पश्चात देवी के सिंह ने दहाड़ना आरम्भ कर दिअय और अम्बिका के घंटे के शब्दों ने उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया, धनुष की टंकोर, शेर की दहाड़ और घण्टे के शब्द से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गूँज उठा और इसके साथ ही देवी ने अपने मुख को और भी भयानक बना लिया। ऎसे भयंकर शब्द को सुनकर राक्षसी सेना ने देवी तथा सिंह को चारों ओर से घेर लिया। हे राजन्! उस समय दैत्यों के नाश के लिए और देवताओं के हित के लिए ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ जो अत्यंत पराक्रम और बल से सम्पन्न थी, उनके शरीर से निकल कर उसी रूप में चण्डिका देवी के पास गई। जिस देवता का जैसा रूप था, जैसे आभूषण थे और जैसा वाहन था, वैसा ही रूप, आभूषण और वाहन लेकर उन देवताओं की शक्तियाँ दैत्यों से युद्ध करने के लिए आई। हंस युक्त विमान में बैठकर और रुद्राक्ष की माला तथा कमण्डलु धारण कर के ब्रह्माजी की शक्ति आई, वृषभ पर सवार होकर, हाथ में त्रिशूल लेकर, महानाग का कंकण पहन कर और चन्द्ररेखा से भूषित होकर भगवान शंकर की शक्ति माहेश्वरी आई और मोर पर आरूढ़ होकर, हाथ में शक्ति लिये दैत्यों से युद्ध करने के लिये कार्तिकेय जी की शक्ति उन्हीं का रूप धारण करके आई। भगवान विष्णु की शक्ति गरुड़ पर सवार होकर शंख, चक्र, श्रांग गदा, धनुष तथा खंड्ग हाथ में लिये हुए आई। श्रीहरि की शक्ति वाराही, वाराह का शरीर धारण करके आई और नृसिंह के समान शरीर धारण करके उनकी शक्ति नारसिंही भी आई, उसकी गर्दन के झटकों से आकाश के तारे टूट पड़ते थे और इसी प्रकार देवराज इन्द्र की शक्ति ऎंन्द्री भी ऎरावत के ऊपर सवार होकर आई, पश्चात इन देव शक्तियों से घिरे हुए भगवान शंकर ने चंडिका से कहा-मेरी प्रसन्नता के लिये तुम शीघ्र ही इन असुरों को मारो। इसके पश्चात देवी के शरीर में से अत्यन्त उग्र रूप वाली और सैकड़ों गीदड़ियों के समान आवाज करने वाली चण्डिका शक्ति प्रकट हुई, उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटा वाले भगवान श्रीशंकर जी से कहा-हे प्रभो! आप मेरी ओर से दूत बनकर शुम्भ और निशुम्भ के पास जाइए और उन अत्यन्त गर्वीले दैत्यों से कहिये तथा उनके अतिरिक्त और भी जो दैत्य वहाँ युद्ध के लिए उपस्थित हों, उनसे भी कहिये-जो तुम्हें अपने जीवित रहने की इच्छा हो तो त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दे दो, देवताओं को उनका यज्ञ भाग मिलना आरम्भ हो जाये और तुम पाताल को लौट जाओ, किन्तु यदि बल के गर्व से तुम्हारी लड़ने की इच्छा हो तो फिर आ जाओ, तुम्हारे माँस से मेरी योगिनियाँ तृप्त होंगी, चूँकि उस देवी ने भगवान शंकर को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह संसार में शिवदूती के नाम से विख्यात हुई। भगवान शंकर से देवी का सन्देश पाकर उन दैत्यों के क्रोध का कोई आर-पार न रहा और वह जिस स्थान पर देवी विराजमान थी वहाँ पहुँचे, और जाने के साथ ही उस पर बाणों और शक्तियों की वर्षा करने लगे। देवी ने उनके फेंके हुए बाणों, शक्तियों, त्रिशूल और फरसों को अपने वाणों से काट डाला और काली देवी उस देवी के साथ आगे खड़ी होकर शत्रुओं को त्रिशूल से विदीर्ण करने लगी और खटवांग से कुचलने लगी, ब्राह्मणी जिस तरफ दौड़ती थी, उसी तरफ अपने कमण्डलु का जल छिड़क कर दैत्यों के वीर्य व बल को नष्ट कर देती थी और इसी प्रकार माहेश्वरी त्रिशूल से, वैष्णवी चक्र से और अत्यन्त कोपवाली कौमारी शक्ति द्वारा असुरों को मार रही थी और ऎन्द्री के बाजू के प्रहार से सैकड़ों दैत्य रक्त की नदियाँ बहाते हुये पृथ्वी पर सो गये। वाराही ने कितने ही राक्षसों को अपनी थूथन द्वारा मृत्यु के घाट उतार दिया, दाढ़ो के अग्रभाग से कितने ही राक्षसों की छाती को चीर डाला और चक्र की चोट से कितनों ही को विदीर्ण करके धरती पर डाल दिया। बड़े-2 राक्षसों को नारसिंही अपने नखों से विदीर्ण करकेव भक्षण कर रही थी और सिंहनाद से चारों दिशाओं को गुंजाती हुई रणभूमि में विचर रही थी, शिवदूती के प्रचण्ड अट्टहास से कितने ही दैत्य भयभीत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और उनके गिरते ही वह उनको भक्षण कर गई। इस तरह क्रोध में भरे हुए मातृगणों द्वारा नाना प्रकार के उपायों से बड़े-बड़े असुरों को मरते हुए देखकर राक्षसी सेना भाग खड़ी हुई और उनको इस प्रकार भागता देखकर रक्तबीज नामक महा पराक्रमी राक्षस क्रोध में भरकर युद्ध के लिये आगे बढ़ा। उसके शरीर से रक्त की बूँदे पृथ्वी पर जैसे ही गिरती थी तुरंत वैसे ही शरीर वाला तथा वैसा ही बलवान दैत्य पृथ्वी से उत्पन्न हो जाता था। रक्तबीज गदा हाथ में लेकर ऎन्द्री के साथ युद्ध करने लगा, जब ऎन्द्रीशक्ति ने अपने वज्र से उसको मारा तो घायल होने के कारण उसके शरीर से बहुत सा रक्त बहने लगा और उसकी प्रत्येक बूँद से उसके समान ही बलवान तथा महा पराक्रमी अनेकों दैत्य भयंकर रूप से प्रकट हो गये, वह सबके सब दैत्य बीज के समान ही बलवान तेज वाले थे, वह भी भयंकर अस्त्र-शस्त्र लेकर देवियों के साथ लड़ने लगे। जब ऎन्द्री के वज्र प्रहार से उसके मस्तक पर चोट लगी और रक्त बहने लगा तो उसमें से हजारों ही पुरूष उत्पन्न हो गये। वैष्णवी ने चक्र से और ऎन्द्री ने गदा से रक्तबीज को चोट पहुँचाई और वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर उसके शरीर से जो रक्त बहा, उससे हजारों महा असुर उत्पन्न हुए, जिनके द्वारा यह जगत व्याप्त हो गया, कौमारी ने शक्ति से, वाराही ने खड्ग से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से उसको घायल किया। इस प्रकार क्रोध में भरकर उस महादैत्य ने सब मातृ शक्तियों पर पृथक-पृथक गदा से प्रहार किया, और माताओं ने शक्ति तथा शूल इत्यादि से उसको बार-बार घायल किया, उससे सैकडो़ माहदैत्य उत्पन हुए और इस प्रकार उस रक्रबीज के रुधिर से उत्पन्न हुए असुरों से सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो गया जिससे देवताओं को भय हुआ, देवताओं को भयभीत देखकर चंडिका ने काली से कहा-हे चामुण्डे! अपने मुख को बड़ा करो और मेरे शस्त्रघात से उत्पन्न हुए रक्त बिन्दुओं तथा रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न हुए महा असुरों को तुम अपने इस मुख से भक्षण करती जाओ। इस प्रकार रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न हुए महादैत्यों को भक्षण करती हुई तुम रण भूमि में विचरो। इस प्रकार रक्त क्षीण होने से यह दैत्य नष्ट हो जाएगा, तुम्हारे भक्षण करने के कारण अन्य दैत्य नहीं होगे। काली से इस प्रकार कहकर चण्डिका देवी ने रक्तबीज पर अपने त्रिशूल से प्रहार किया और काली देवी ने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया, तब उसने गदा से चण्डिका पर प्रहार किया, प्रहार से चंडिका को तनिक भी कष्ट न हुआ, किंतु रक्तबीज के शरीर से बहुत सा रक्त बहने लगा, लेकिन उसके गिरने के साथ ही काली ने उसको अपने मुख में ले लिया। काली के मुख में उस रक्त से जो असुर उत्पन्न हुए, उनको उसने भक्षण कर लिया और रक्त को पीती गई, तदनन्तर देवी ने रक्तबीज को जिसका कि खून काली ने पिया था, चण्डिका ने उस दैत्य को बज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि इत्यादि से मार डाला। हे राजन्! अनेक प्रकार के शस्त्रों से मारा हुआ और खून से वंचित वह महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा। हे राजन्! उसके गिरने से देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और माताएँ उन असुरों का रक्त पीने के पश्चात उद्धत होकर नृत्य करने लगी। आठवां अध्याय सम्पूर्ण👏🏻 साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 - श्री दुर्गा सप्तशती आठवां अध्याय (हिन्दी) श्री दुर्गा सप्तशती आठवां अध्याय (हिन्दी) - ShareChat
#🙏शुभ नवरात्रि💐 #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏देवी कालरात्री🙏 श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण) (अष्टमोध्याय) ।।ॐ नमश्चण्डिकायै।। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ अष्टमोऽध्यायः रक्तबीज-वध ध्यानम् अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम् अणिमादिभिरावृतां मयूखै- रहमित्येव विभावये भवानीम्॥ मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणों से आवृत भवानी का ध्यान करता हूँ। उनके शरीर का रंग लाल है, नेत्रों में करुणा लहरा रही है तथा हाथों में पाश, अंकुश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं। ॐ' ऋषिरुवाच॥ १॥ ऋषि कहते हैं-॥ १॥ चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते। बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः ॥ २ ॥ ततः कोपपराधीनचेता: शुम्भः प्रतापवान्। उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह ॥ ३ ॥ चण्ड और मुण्ड नामक दैत्यों के मारे जाने तथा बहुत-सी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यों के राजा प्रतापी शुम्भ के मन में बड़ा क्रोध हुआ और उसने दैत्यों की सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिये कूच करने की आज्ञा दी॥ २-३॥ अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः । कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्या्न्तु स्वबलैर्वृताः॥ ४॥ वह बोला-'आज उदायुध नाम के छियासी दैत्य-सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये प्रस्थान करें । कम्बु नाम वाले दैत्यों के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे हुए यात्रा करें ॥ ४ ॥ कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै।र शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया ॥ ५ ॥ पचास कोटिवीर्य-कुल के और सौ धौम्र-कुल के असुर सेनापति मेरी आज्ञा से सेना सहित कूच करें ॥ ५ ॥ कालका दौर्हदा मौर्याः कालकेयास्तथासुराः । युद्धाय सज्जा निय्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम ॥ ६ ॥ कालक, दौर्हृद, मौर्य और कालकेय असुर भी युद्ध के लिये तैयार हो मेरी आज्ञा से तुरंत प्रस्थान करें' ॥ ६ ॥ इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः । निर्जगाम महासैन्यसहस्त्रैर्बहुभिर्वृतः ॥ ७ ॥ भयानक शासन करने वाला असुरराज शुम्भ इस प्रकार आज्ञा दे सहस्रों बड़ी-बड़ी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये प्रस्थित हुआ॥ ७॥ आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा तत्सैन्यमतिभीषणम् । ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम्॥ ८ ॥ उसकी अत्यन्त भयंकर सेना आती देख चण्डिका ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुँजा दिया॥ ८॥ ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप। घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका चोपबृंहयत् ॥ ९ ॥ राजन् ! तदनन्तर देवी के सिंह ने भी बड़े जोर-जोर से दहाड़ना आरम्भ किया, फिर अम्बिका ने घण्टे के शब्द से उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया॥ ९ ॥ धनुज्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मुखा । निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना ॥ १० ॥ धनुष की टंकार, सिंह की दहाड़ और घण्टे की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठीं । उस भयंकर शब्द से काली ने अपने विकराल मुख को और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयिनी हुईं॥ १० ॥ तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम् । देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः॥ ११॥ उस तुमुल नाद को सुनकर दैत्यों की सेनाओं ने चारों ओर से आकर चण्डिका देवी, सिंह तथा कालीदेवी को क्रोधपूर्वक घेर लिया ॥ ११ ॥ एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम् । भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः ॥ १२॥ ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः। शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः ॥ १३ ॥ राजन्! इसी बीच में असुरों के विनाश तथा देवताओं के अभ्युदय के लिये ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ, जो अत्यन्त पराक्रम और बल से सम्पन्न थीं, उनके शरीरों से निकलकर उन्हीं के रूपमें चण्डिकादेवी के पास गयीं॥ १२- १३॥ यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम् । तद्वदेव हि तच्छत्तिरसुरान् योद्धुमाययौ ॥ १४॥ जिस देवता का जैसा रूप, जैसी वेश- भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही साधनों से सम्पन्न हो उसकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिये आयी॥ १४॥ हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः। आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते ॥ १५॥ सबसे पहले हंसयुक्त विमान पर बैठी हुई अक्षसूत्र और कमण्डलु से सुशोभित ब्रह्माजी की शक्ति उपस्थित हुई, जिसे 'ब्रह्माणी' कहते हैं॥ १५ ॥ माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी। महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा ॥ १६॥ महादेवजी की शक्ति वृषभ पर आरूढ़ हो हाथों में श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किये महानाग का कंकण पहने, मस्तक में चन्द्रेखा से विभूषित हो वहाँ आ पहुँची॥ १६ ॥ कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना। योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी ॥ १७ ॥ कार्तिकेयजी की शक्ति रूपा जगदम्बिका उन्हीं का रूप धारण किये श्रेष्ठ मयूर पर आरूढ़ हो हाथ में शक्ति लिये दैत्यों से युद्ध करने के लिये आयीं ॥ १७॥ तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता। शङ्खचक्रगदाशाङ्गखड्गहस्ताभ्युपाययौ ॥१८॥ इसी प्रकार भगवान् विष्णु की शक्ति गरुड़ पर विराजमान हो शंख, चक्र, गदा, शाङ्ग्गधनुष तथा खड्ग हाथ में लिये वहाँ आयी॥ १८॥ यज्ञवाराहमतुलं रूपं या बिभ्रतो' हरेः। शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम्।॥ १९ ॥ अनुपम यज्ञवाराह का रूप धारण करने वाले श्रीहरि की जो शक्ति है, वह भी वाराह-शरीर धारण करके वहाँ उपस्थित हुई॥ १९ ॥ नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः । प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः ॥ २०॥ नारसिंही शक्ति भी नृसिंह के समान शरीर धारण करके वहाँ आयी। उसकी गर्दन के बालों के झटके से आकाश के तारे बिखरे पड़ते थे ॥ २० ॥ वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता । प्राप्ता सहस्त्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा ॥ २१ ॥ इसी प्रकार इन्द्र की शक्ति वज्र हाथ में लिये गजराज ऐरावत पर बैठकर आयी। उसके भी सहस्त्र नेत्र थे। इन्द्र का जैसा रूप है, वैसा ही उसका भी था ॥ २१ ॥ ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभि: । हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याऽऽह चण्डिकाम् ॥ २२ ॥ तदनन्तर उन देव-शक्तियों से घिरे हुए महादेवजी ने चण्डिकाबसे कहा- 'मेरी प्रसन्नता के लिये तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो' ॥ २२ ॥ ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा। चण्डिकाशक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी ॥ २३ ॥ तब देवी के शरीर से अत्यन्त भयानक और परम उग्र चण्डिका- शक्ति प्रकट हुई। जो सैकड़ों गीदड़ियों की भाँति आवाज करने वाली थी ॥ २३ ॥ चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता। दूत त्वं गच्छ भगवन् पाश्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ २४॥ उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटावाले महादेवजी से कहा- भगवन्! आप शुम्भ-निशुम्भ के पास दूत बनकर जाइये ॥ २४॥ बूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ । ये चान्ये दानवास्त्र युद्धाय समुपस्थिताः॥ २५ ॥ और उन अत्यन्त गवीले दानव शुम्भ एवं निशुम्भ दोनों से कहिये। साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्ध के लिये वहाँ उपस्थित हों उनको भी यह संदेश दीजिये- ॥२५ ॥ त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः । यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ॥ २६॥ 'दैत्यो ! यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो पाताल को लौट जाओ । इन्द्रको त्रिलोकी का राज्य मिल जाय और देवता यज्ञभाग का उपभोग करें॥ २६ ॥ बलावलेपादथ चेद्धवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः । तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः ॥ २७ ॥ यदि बल के घमंड में आकर तुम युद्ध की अभिलाषा रखते हो तो आओ। मेरी शिवाएँ (योगिनियाँ) तुम्हारे कच्चे मांस से तृप्त हों' ॥ २७ ॥ यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम् । शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता ॥ २८ ॥ चूँकि उस देवी ने भगवान् शिव को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिये वह 'शिवदूती' के नाम से संसार में विख्यात हुई।॥ २८ ॥ तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः। अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र* कात्यायनी स्थिता।॥ २९ ॥ वे महादैत्य भी भगवान् शिव के मुँह से देवी के वचन सुनकर क्रोध में भर गये और जहाँ कात्यायनी विराजमान थीं, उस ओर बढ़े॥ २९ ॥ ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः । ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः ॥ ३० ॥ तदनन्तर वे दैत्य अमर्ष में भरकर पहले ही देवी के ऊपर बाण, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्रोंकी वृष्टि करने लगे ॥ ३० ॥ सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान् । चिच्छेद लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः ॥ ३१ ॥ तब देवी ने भी खेल-खेल में ही धनुष की टंकार की और उससे छोड़े हुए बड़े-बड़े बाणों द्वारा दैत्यों के चलाये हुए बाण, शूल, शक्ति और फरसों को काट डाला॥ ३१ ॥ तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्। खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन् कुर्वती व्यचरत्तदा ॥ ३२ ॥ फिर काली उनके आगे होकर शत्रुओं को शूलके प्रहार से विदीर्ण करने लगी और खट्वांग से उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमि में विचरने लगी॥ ३२ ॥ कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः । ब्रह्माणी चाकरोच्छन्रून् येन येन स्म धावति ॥ ३३॥ ब्रह्माणी भी जिस-जिस ओर दौड़ती, उसी-उसी ओर अपने कमण्डलु का जल छिड़ककर शत्रुओं के ओज और पराक्रम को नष्ट कर देती थी॥ ३३ ॥ माहेश्वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी । दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना ॥ ३४॥ माहेश्वरी ने त्रिशूल से तथा वैष्णवी ने चक्र से और अत्यन्त क्रोध में भरी हुई कुमार कार्तिकेय की शक्ति ने शक्ति से दैत्यों का संहार आरम्भ किया॥ ३४॥ ऐन्द्रीकुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः । पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः ॥ ३५॥ इन्द्रशक्ति के वज्रप्रहार से विदीर्ण हो सैकड़ों दैत्य-दानव रक्तकी धारा बहाते हुए पृथ्वी पर सो गये ॥ ३५ ॥ तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः। वाराहमूत्त्या न्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः ॥ ३६ ॥ वाराही शक्ति ने कितनों को अपनी थूथुन की मार से नष्ट किया, दाढ़ों के अग्रभाग से कितनों की छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य उसके चक्र की चोट से विदीर्ण होकर गिर पड़े॥ ३६॥ नखैर्विदारितांश्चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान्। नारसिंही चर्चाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा ॥ ३७|॥ नारसिंही भी दूसरे-दूसरे महादैत्यों को अपने नखों से विदीर्ण करके खाती और सिंहनाद से दिशाओं एवं आकाश को गुँजाती हुई युद्धक्षेत्र में विचरने लगी॥ ३७ ॥ चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः। पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा ॥ ३८ ॥ कितने ही असुर शिवदूती के प्रचण्ड अट्टहास से अत्यन्त भयभीत हो पृथ्वी पर गिर पड़े और गिरने पर उन्हें शिवदूती ने उस समय अपना ग्रास बना लिया॥ ३८॥ इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान् । दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः ॥३९॥ इस प्रकार क्रोध में भरे हुए मातृगणों को नाना प्रकार के उपायों से बड़े- बड़े असुरों का मर्दन करते देख दैत्य सैनिक भाग खड़े हुए॥ ३९ ॥ पलायनपरान् दृष्ट्वा दैत्यान् मातृगणार्दितान् । योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः॥ ४०॥ मातृगणों से पीड़ित दैत्यों को युद्ध से भागते देख रक्तबीज नामक महादैत्य क्रोध में भरकर युद्ध करने के लिये आया॥ ४० ॥ रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः। समुत्पतति मेदिन्यां * तत्प्रमाणस्तदासुरः ॥ ४१ ॥ उसके शरीर से जब रक्त की बूँद पृथ्वी पर गिरती, तब उसी के समान शक्तिशाली एक दूसरा महादैत्य पृथ्वी पर पैदा हो जाता॥ ४१ ॥ ययुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः। ततश्चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत् ॥ ४२ ॥ महासुर रक्तबीज हाथमें गदा लेकर इन्द्र शक्ति के साथ युद्ध करने लगा। तब ऐन्द्री ने अपने वज्र से रक्तबीज को मारा॥ ४२ ॥ कुलिशेनाहतस्याशु बहु * सुख्त्राव शोणितम् । समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्भूपास्तत्पराक्रमाः ॥ ४३॥ वज्र से घायल होने पर उसके शरीर से बहुत-सा रक्त चूने लगा और उससे उसी के समान रूप तथा पराक्रम वाले योद्धा उत्पन्न होने लगे ॥ ४३ ॥ यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः । तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥ ४४॥ उसके शरीर से रक्त की जितनी बूँदें गिरीं, उतने ही पुरुष उत्पन्न हो गये वे सब रक्तबीज के समान ही वीर्यवान्, बलवान् तथा पराक्रमी थे॥ ४४॥ ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः। समं मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम् ॥ ४५| ॥ वे रक्तसे उत्पन्न होने वाले पुरुष भी अत्यन्त भयंकर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए वहाँ मातृगणों के साथ घोर युद्ध करने लगे॥ ४५ ॥ पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा। ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः॥ ४६॥ पुनः वज्र के प्रहार से जब उसका मस्तक घायल हुआ, तब रक्त बहने लगा और उससे हजारों पुरुष उत्पन्न हो गये॥४६॥ वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह । गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम् ॥ ४७॥ वैष्णवी ने युद्धमें रक्तबीज पर चक्रका प्रहार किया तथा ऐन्द्री ने उस दैत्य सेनापति को गदा से चोट पहुँचायी॥ ४७ ॥ वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्त्रावसम्भवैः । सहस्त्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः ॥ ४८ ॥ वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर उसके शरीर से जो रक्त बहा और उससे जो उसी के बराबर आकार वाले सहस्रों महादैत्य प्रकट हुए, उनके द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया॥ ४८ ॥ शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासिना । माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम् ॥४९॥ कौमारी ने शक्ति से, वाराही ने खड्ग से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से महादैत्य रक्तबीज को घायल किया॥ ४९ ॥ स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक् । मातृः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः ॥ ५० ॥ क्रोध में भरे हुए उस महादैत्य रक्तबीज ने भी गदा से सभी मातृ-शक्तियों पर पृथक्-पृथक् प्रहार किया॥ ५०॥ तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि। पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥ ५१ ॥ शक्ति और शूल आदि से अनेक बार घायल होने पर जो उसके शरीर से रक्त की धारा पृथ्वी पर गिरी, उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए॥ ५१ ॥ तैश्चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत् । व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम् ॥ ५२॥ इस प्रकार उस महादैत्य के रक्त से प्रकट हुए असुरों द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया। इससे उन देवताओं को बड़ा भय हुआ॥ ५२ ॥ तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरा। उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्ण* वदनं कुरु ॥ ५३॥ देवताओं को उदास देख चण्डिका ने काली से शीघ्रतापूर्वक कहा-'चामुण्डे! तुम अपना मुख और भी फैलाओ॥ ५३ ॥ मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान। रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना ।॥ ५४ ॥ तथा मेरे शस्त्रपात से गिरने वाले रक्तबिन्दुओं और उनसे उत्पन्न होने वाले महादैत्यों को तुम अपने इस उतावले मुख से खा जाओ ॥ ५४॥ भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्। एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति ॥ ५५॥ इस प्रकार रक्त से उत्पन्न होने वाले महादैत्यों का भक्षण करती हुई तुम रण में विचरती रहो। ऐसा करने से उस दैत्य का सारा रक्त क्षीण हो जाने पर वह स्वयं भी नष्ट हो जायगा॥ ५५॥ भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे । इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम् ॥ ५६॥ उन भयंकर दैत्यों को जब तुम खा जाओगी, तब दूसरे नये दैत्य उत्पन्न नहीं हो सकेंगे।' कालीसे यों कहकर चण्डिकादेवी ने शूल से रक्तबीज को मारा॥ ५६॥ मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम् । ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम्॥५७॥ और काली ने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया। तब उसने वहाँ चण्डिका पर गदा से प्रहार किया॥ ५७॥ न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि। तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्त्राव शोणितम् ॥ ५८॥ किंतु उस गदापात ने देवी को तनिक भी वेदना नहीं पहुँचायी। रक्तबीज के घायल शरीर से बहुत-सा रक्त गिरा॥ ५८॥ यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति। मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः॥ ५९॥ तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्। देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिर्ऋष्टिभिः ॥ ६०॥ जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम् । स पपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः ॥ ६१॥ नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः। ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥ ६२॥ किंतु ज्यों ही वह गिरा त्यों ही चामुण्डा ने उसे अपने मुख में ले लिया। रक्त गिरने से काली के मुख में जो महादैत्य उत्पन्न हुए, उन्हें भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीज का रक्त भी पी लिया। तदनन्तर देवी ने रक्तबीज को, जिसका रक्त चामुण्डा ने पी लिया था, वज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि आदि से मार डाला। राजन्! इस प्रकार शस्त्रोंके समुदायसे आहत एवं रतक्तहीन हुआ महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा। नरेश्वर ! इससे देवताओं को अनुपम हर्ष की प्राप्ति हुई॥ ५९-६२॥ तेषां मातृगणो जातो ननतर्तासृङ्मदोद्धतः ॥ ॐ॥ ६३ ॥ और मातृगण उन असुरों के रक्तपान के मद से उद्धत-सा होकर नृत्य करने लगा॥ ६३॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः॥ ८॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'रक्तबीज-वध' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।॥ ८॥ क्रमशः.... अगले लेख में नवम अध्याय👏🏻 साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
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*शिवलिंग के 7 स्थान कौन से हैं जहां चंदन लगाने से भोलेनाथ होते हैं प्रसन्न! जानिए यहां,?👇* ------------------------------------ ●शिवलिंग की पूजा :- कहा जाता है भगवान शिव भोले हैं, उन्हें मनाना बहुत आसान है. खासतौर से सावन के महीने में. क्योंकि मान्यता है श्रावण मास में भोलेनाथ धरती पर निवास करते हैं. इसलिए शिव भक्त उनकी मन भाव से पूजा अर्चना करते हैं. ताकि भगवान महादेव प्रसन्न होकर उनपर अपना कृपा बरसाएं. इस माह में शिवलिंग की पूजा का विशेष महत्व होता है. सावन के सोमवार के दिन विधि-विधान से पूजा करना और उनको धतुरा,बेलपत्र, दूध, शहद, दही आदि चीजें चढ़ाने और शिवलिंग पर 7 जगह चंदन लगाने से भगावन शिव प्रसन्न होकर भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।ऐसे में आइए जानते हैं ज्योतिषाचार्य अरविंद मिश्र से शिवलिंग के वो सात स्थान जहां लगाया जाता है शिव जी को चंदन। *●शिवलिंग पर कहां-कहां चंदन लगाएं,?* अरविंद मिश्र बताते हैं कि शिवलिंग पर सात स्थानों पर चंदन लगाने की प्रथा है, जो भगवान शिव के परिवार के विभिन्न सदस्यों को समर्पित है. ये स्थान हैं: शिवलिंग, जलाधारी, गणेश जी का स्थान, कार्तिकेय जी का स्थान, अशोक सुंदरी का स्थान, और नंदी के दोनों सींग। ऐसे में आइए जानते हैं ज्योतिषाचार्य अरविंद मिश्र से शिवलिंग के वो सात स्थान जहां लगाया जाता है शिव जी को चंदन। ●यहां उन सात स्थानों का विस्तृत विवरण दिया गया है:-👇 ●1. शिवलिंग: यह भगवान शिव का मुख्य स्थान है और चंदन का लेप शिवलिंग के ऊपर लगाया जाता है. ●2. जलाधारी: यह वह स्थान है जहाँ से जल बहता है और यह स्थान माता पार्वती को समर्पित है. ●3. गणेश जी का स्थान: शिवलिंग के दाईं ओर, जलाधारी के ऊपर का स्थान गणेश जी का माना जाता है. ●4. कार्तिकेय जी का स्थान: शिवलिंग के बाईं ओर, जलाधारी के ऊपर का स्थान कार्तिकेय जी का माना जाता है. ●5. अशोक सुंदरी का स्थान: जलाधारी से बहने वाले जल के रास्ते पर अशोक सुंदरी का स्थान माना जाता है. ●6. नंदी के दोनों सींग: नंदी, जो भगवान शिव के वाहन हैं, उनके दोनों सींगों पर भी चंदन लगाया जाता है. ●7. शिवलिंग के पीछे: शिवलिंग के पीछे का स्थान भी चंदन लगाने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. । ●धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं पर है आधारित: यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये सात स्थान धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं पर आधारित हैं, और विभिन्न परंपराओं में थोड़े भिन्न हो सकते हैं. भगवान शिव जी का पूजन करते समय उपरोक्त सात स्थानों पर चन्दन अवश्य लगाना चाहिए. इससे भगवान शिव के साथ उनका पूरा शिव परिवार प्रसन्न हो कर अपने भक्तों पर कृपा करते हैं.भगवान शिव का परिवार हमें अपने परिवार के साथ सम्मिलित और संगठित होकर रहने की सीख देता है. हर मुसीबत और दुख-सुख में हमारा परिवार ही काम आता है. और जो परिवार साथ रहता है उस पर मुसीबतें भी कम आती है और सुरक्षित रहता है। देवाधिदेव भगवान शिव जहाँ हृदय में विराजमान हों तो वहाँ जीवन स्वयं तप बन जाता है,इसमे कोई संदेह नहीं। भगवान शिव को समर्पित यह मास सभी के जीवन में सुख, समृद्धि, आरोग्य और आध्यात्मिक उन्नति का सृजन करे। जयति जयति जय पुण्य सनातन संस्कृति, जयति जयति जय पुण्य भारतभूमि, मङ्गल कामनाओं के साथ, हर हर महादेव, जय श्रीराम, शुभमस्तु,🙏 #🕉️सनातन धर्म🚩 #ॐ नमः शिवाय
🕉️सनातन धर्म🚩 - II~"शिवलिंग पूजन" ~|| [Bಪಣಔರಹನೆಪನಟೆಷಣದ್ಬ"ದ] II~"शिवलिंग पूजन" ~|| [Bಪಣಔರಹನೆಪನಟೆಷಣದ್ಬ"ದ] - ShareChat