उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाये।
एकै हरि के नाम बिन, बाँधे जमपुरि जाये।।
साहब कबीर कहते हैं—
तुमने उजले, आधुनिक, कलात्मक और कीमती वस्त्र धारण कर लिए हैं!
क्योंकि तुम दुनिया को दिखाना चाहते हो कि तुम कितने पवित्र, सात्विक, धनवान और श्रेष्ठ हो। यह सफेद वस्त्र तुम्हारी आंतरिक निर्मलता का नहीं, तुम्हारे गहरे अहंकार का प्रतीक बन गया है।
तुम घोषणा कर रहे हो— “देखो, मैं कितना शुद्ध हूँ!”
तुम पान चबा रहे हो, महफिलों में बैठे हो, स्वयं को 'प्रतिष्ठित' और 'रईस' समझ रहे हो। पर यह सब क्या है?
यह सब बाहरी सजावट है—व्यक्तित्व को सजाने का प्रयास, अस्तित्व को नहीं। तुम अपने मुखौटे को चमका रहे हो, आत्मा को नहीं।
साहब कबीर कहते हैं—यह सब व्यर्थ है, यह सब माया का जाल है।
सच्ची साधना का अर्थ है, हरि के नाम में डूबना—परंतु नाम जपना तोते की तरह नहीं, बल्कि पूर्ण जागरूकता और चेतना के साथ।
‘हरि के नाम’ का अर्थ है—अपने अंतर में उस परम सत्ता का सुमिरन करना, उसे अनुभव करना, उसी में विलीन हो जाना।
तुम भले ही सफेद वस्त्र पहन लो, किंतु यदि भीतर क्रोध, लोभ और वासना की ज्वालाएँ सुलग रही हैं, तो वह वस्त्र तुम्हें शुद्ध नहीं कर सकते।
तुम पान चबाते हुए भी भीतर नर्क की पीड़ा में जल सकते हो।
तुम्हारी यह बाहरी चमक तुम्हारे भीतर के अंधकार को तनिक भी कम नहीं कर सकती।
और याद रखो—यमपुरी कोई स्थान नहीं है, जहाँ तुम मृत्यु के बाद जाओगे।
तुम तो अभी वहीं हो।
जो व्यक्ति अचेतन है, जो स्वयं में जागा नहीं है—वह इसी क्षण नर्क में जी रहा है।
चिंता, भय, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा—यही यमपुरी है।
तुम अपने ही मन के बंधनों में बँधे हो; वही तुम्हारा यम है, वही तुम्हारा कारागार।
तुम्हारे मंहगे वस्त्र, तुम्हारी सामाजिक प्रतिष्ठा, तुम्हारे पद—इनमें से कोई भी तुम्हें इस भीतरी नर्क से मुक्त नहीं कर सकता।
मुक्ति का मार्ग बाहरी आडंबर में नहीं, आंतरिक जागृति में है।
जिस क्षण तुम यह सारा दिखावा, यह सजी हुई झूठी छवि छोड़कर अपने भीतर के परमात्मा के प्रति जागरूक हो जाते हो—
उसी क्षण ‘हरि के नाम’ का फूल खिलता है,
उसी क्षण रूपांतरण घटित होता है।
अन्यथा, तुम बस एक सुंदर सजा हुआ मुखौटा हो, जो यमपुरी की ओर अग्रसर है।
जागो!
इस पाखंड से, इस नींद से, इस भ्रम से—
जागो!
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