कजलियां
28 Posts • 38K views
Irfan shaikh
2K views 2 months ago
कजलियां, जिसे कुछ जगहों पर भुजरिया या भुजलिया भी कहते हैं, मुख्य रूप से बुंदेलखंड, बघेलखंड और महाकौशल क्षेत्रों में मनाया जाने वाला एक पारंपरिक पर्व है। यह त्योहार रक्षाबंधन के अगले दिन मनाया जाता है और इसका संबंध प्रकृति, प्रेम और खुशहाली से है। कजलियां पर्व का महत्व कृषि और समृद्धि: कजलियां का त्योहार नई फसल के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। लोग इस दिन अच्छी बारिश और समृद्ध फसल की कामना करते हैं। भाईचारा और प्रेम: इस दिन लोग एक-दूसरे से गले मिलकर पुरानी कड़वाहट को भूल जाते हैं। बड़े, छोटों के कानों में कजलियां लगाकर उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। कजलियां कैसे मनाई जाती हैं? इस पर्व की तैयारियां कई दिन पहले से शुरू हो जाती हैं: जौ या गेहूं बोना: सावन माह की नवमी को, बांस की छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी बिछाकर उसमें जौ या गेहूं के दाने बोए जाते हैं। इन्हें रोज पानी और गोबर की खाद दी जाती है। विसर्जन: रक्षाबंधन के अगले दिन इन टोकरियों को महिलाएं अपने सिर पर रखकर, पारंपरिक लोकगीत गाते हुए तालाब या नदी में विसर्जित करती हैं। शुभकामनाएँ: विसर्जन के बाद, लोग एक-दूसरे से मिलते हैं और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को कजलियां भेंट करते हैं। इस दौरान वे खुशहाल जीवन और धन-धान्य की कामना करते हैं। कजलियां से जुड़ी लोककथा कजलियां का पर्व राजा आल्हा-ऊदल की वीरगाथा से भी जुड़ा हुआ है। एक लोककथा के अनुसार, जब दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर हमला किया था, तो महोबा के राजा परमाल की बेटी राजकुमारी चंद्रावली अपनी सहेलियों के साथ तालाब में कजलियां विसर्जित करने गई थीं। आल्हा और ऊदल ने वीरता से लड़कर राजकुमारी की रक्षा की। इस जीत के बाद से महोबा में कजलियां का त्योहार विजयोत्सव के रूप में भी मनाया जाने लगा। #कजलियां #🗞️10 अगस्त के अपडेट 🔴 #🗞️🗞️Latest Hindi News🗞️🗞️ #🗞breaking news🗞 #aaj ki taaja khabar
44 likes
2 comments 123 shares
Irfan shaikh
16K views 2 months ago
कजलियां, जिसे कुछ जगहों पर भुजरिया या भुजलिया भी कहते हैं, मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में मनाया जाने वाला एक पारंपरिक पर्व है. यह त्यौहार सुख-समृद्धि, प्रकृति प्रेम और नई फसल की खुशहाली से जुड़ा है. कजलियां पर्व से जुड़ी खास बातें समय: यह पर्व रक्षाबंधन के ठीक अगले दिन मनाया जाता है. इसकी तैयारी नागपंचमी के आसपास शुरू हो जाती है. प्रक्रिया: नागपंचमी या उसके कुछ दिन बाद, बांस की छोटी टोकरियों या मिट्टी के बर्तनों में साफ मिट्टी डालकर उसमें गेहूं या जौ के दाने बोए जाते हैं. इन बीजों को प्रतिदिन पानी और खाद दी जाती है, जिससे ये धीरे-धीरे अंकुरित होकर हरे-भरे पौधे बन जाते हैं, जिन्हें कजलियां या जवारे कहते हैं. रक्षाबंधन के अगले दिन, इन कजलियों को सिर पर रखकर या हाथ में लेकर पारंपरिक गीत गाते हुए नदियों, तालाबों या कुओं में विसर्जित किया जाता है. पौराणिक महत्व: इस पर्व का संबंध आल्हा-ऊदल की वीर गाथाओं से भी माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि जब आल्हा की बहन चंदा मायके आई थीं, तब नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था. एक अन्य कथा के अनुसार, महोबा के राजा परमाल की बेटी चंद्रावली को बचाने के लिए हुए युद्ध में मिली जीत का जश्न भी कजलियां विसर्जन के रूप में मनाया गया था. पर्व का महत्व कजलियां का पर्व सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह आपसी भाईचारे और प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक भी है. इस दिन लोग एक-दूसरे को गले मिलकर शुभकामनाएं देते हैं. बड़े-बुजुर्ग, छोटों के कान में कजलियां लगाकर उन्हें सुख-समृद्धि और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद देते हैं. इस तरह यह पर्व नई फसल के स्वागत के साथ-साथ रिश्तों में प्यार और सद्भाव बढ़ाने का भी एक जरिया है. #कजलियां #🗞️10 अगस्त के अपडेट 🔴 #🗞️🗞️Latest Hindi News🗞️🗞️ #🗞breaking news🗞 #aaj ki taaja khabar
111 likes
1 comment 257 shares