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जय श्री कृष्ण घर पर रहे-सुरक्षित रहे
भृंगराज के फायदे #🌿आयुर्वेदिक नुस्खों पर चर्चा 🔹🔸🔹🔸🔹 1. प्लीहा वृद्धि (तिल्ली) : लगभग 10 मिलीलीटर भांगरे के रस को सुबह और शाम रोगी को देने से तिल्ली का बढ़ना बंद हो जाता है। 2. कान का दर्द : भांगरा का रस 2 बूंद कान में डालने से कान का दर्द ठीक हो जाता है। 3. पेट के कीड़े : भृंगराज को एरंड के तेल के साथ सेवन करने से पेट के कीड़े नष्ट होकर मल के साथ बाहर निकल जाते हैं। 4. पेट में दर्द : भांगरे के पत्तों को पीसकर निकाले हुए रस को 5 ग्राम की मात्रा में 1 ग्राम काला नमक मिलाकर पानी के साथ पीने से पेट का दर्द नष्ट हो जाता है। 5. बालों को काला करने वाली दवा : भृंगराज तेल बालों में डालने से, रस सेवन करने से एवं भृंगराजासव का प्रयोग करने से सफेद बाल काले हो जाते हैं। भृंगराज तेल आयुर्वेदिक तेलों में एक प्रमुख तेल है। 6. बवासीर :भांगरा के पत्ते 3 ग्राम व कालीमिर्च 5 नग दोनों का महीन चूर्ण ताजे पानी से दोनों समय सेवन करने से 7 दिन में ही बहुत लाभ मिलता है। 7. बालों के रोग : बालों को छोटा करके उस स्थान पर जहां पर बाल न हों भांगरा के पत्तों के रस से मालिश करने से कुछ ही दिनों में अच्छे काले बाल निकलते हैं जिनके बाल टूटते हैं या दो मुंहे हो जाते हैं। उन्हें इस प्रयोग को अवश्य ही करना चाहिए। 8. आंखों के रोग : भांगरा के पत्तों की पोटली बनाकर आंखों पर बांधने से आंखों का दर्द नष्ट होता है। 9. कंठमाला : भांगरा के पत्तों को पीसकर टिकिया बनाकर घी में पकाकर कंठमाला की गांठों पर बांधने से तुरन्त ही लाभ मिलता है। 10. मुंह के छाले : भांगरा के 5 ग्राम पत्तों को मुंह में रखकर चबाएं तथा लार थूकते जाएं। दिन में ऐसा कई बार करना से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं। साभार~ पं देव शर्मा💐 🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹
🌿आयुर्वेदिक नुस्खों पर चर्चा - भृंगराज के फायदे आँख कब्ज ٩ पीलिया বুনলানা  सफ़़ेद दाग खराब पेट सफेद बाल काले गूलैनेईं बालों की जड़े इंफेक्शन बालों में रूसी इंफेक्शन फेफड़ो में इंफेक्शन - मानसिक तनाव भृंगराज के फायदे आँख कब्ज ٩ पीलिया বুনলানা  सफ़़ेद दाग खराब पेट सफेद बाल काले गूलैनेईं बालों की जड़े इंफेक्शन बालों में रूसी इंफेक्शन फेफड़ो में इंफेक्शन - मानसिक तनाव - ShareChat
💕_*।। भगवद्गीता और धर्म ।।*_❤️🚩 ( भगवद्गीता ने धार्मिक होने के छह लक्षण गिनाए हैं ) धर्म शब्द के अर्थ को लेकर इतनी भिन्नता है कि लगभग अराजकता जैसी स्थिति है। अपनी अपनी मर्जी को उस अर्थ पर थोप देते हैं कि यही धर्म का अर्थ है। लोकमन में धर्म शब्द का अर्थ संकीर्ण होता तो वह उसे क्यों मान लेता? धर्म शब्द बोल देना कितना आसान है! किन्तु भगवद्गीता ने किस प्रकार के मनुष्य की प्रतिष्ठा की है ? इस मनुष्य की नित-नित प्रणम्य परिकल्पना भी असाधारण है। गीता ने धार्मिक होने के छह लक्षण गिनाए हैं जो इस प्रकार से है - *1* - *अद्वेष्टा सर्वभूतानां* - किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष-भाव न हो। *2* - *मैत्र: करुण एव च* - द्वेष न होना ही काफी नहीं है, सभी के प्रति मैत्रीभाव हो और निर्बल के प्रति दया हो। *3* - *निर्ममो - निरहंकार:* - मेरा पन न हो, अभिमान भी न हो। *4* - *समदु:ख:सुखक्षमी* - सुखदुख में समान क्षमता से युक्त हो। *5* - *यस्मान्नोद्विजते लोको* - जिससे लोक को उद्विग्नता न हो। *लोकान्नोद्विजते च य:* - उसे स्वयं भी लोक से उद्वेग न हो। *6* - *सम: शत्रौ च मित्रेषु तथा मानापमानयो:* - मान हो या अपमान, शत्रु हो या मित्र समान दृष्टि वाला हो। *🙏जय श्रीमन्नारायण🙏* #गीता ज्ञान
गीता ज्ञान - ShareChat
#🕉️सनातन धर्म🚩 लक्ष्मी हिंदू धर्म में धन, समृद्धि, और सौभाग्य की देवी मानी जाती हैं। वे भगवान विष्णु की पत्नी हैं और संसार में सुख-समृद्धि लाने वाली देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। दिवाली के त्योहार पर, विशेष रूप से लक्ष्मी पूजन किया जाता है ताकि घर और परिवार में सुख-समृद्धि और धन का वास हो। लक्ष्मी देवी का वर्णन सुंदरता, शांति और ऐश्वर्य के प्रतीक के रूप में किया जाता है। उन्हें चार हाथों वाली देवी के रूप में दर्शाया जाता है, जिनमें से एक हाथ से वे आशीर्वाद देती हैं और अन्य हाथों से सोने के सिक्के बरसाते हुए दिखाई देती हैं। उनके साथ कमल का फूल भी जुड़ा हुआ है, जो शुद्धता और उन्नति का प्रतीक है। लक्ष्मी की उपासना से भक्तों को आर्थिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समृद्धि प्राप्त होती है। उन्हें "श्री" भी कहा जाता है, जो कीर्ति, सौभाग्य और वैभव का प्रतीक है।
🕉️सनातन धर्म🚩 - परमात्ाका स्वरुष सम्रुह परमात्ाका स्वरुष सम्रुह - ShareChat
#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩 🌿🌼 *अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे* 🌼🌿 सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना। रोना, माया का धर्म है। सगुण परमात्मा की लीला में माया का धर्म भले ही दृष्टिगोचर हो परन्तु वे माया-रहित शुद्ध ब्रह्म हैं। ईश्वर ही हैं। सतीजी को आश्चर्य हुआ। परमात्मा श्रीरामचन्द्र के अनेक स्वरूपों का वर्णन ग्रन्थों में हुआ है। परमात्मा सगुण-साकार हैं और परमात्मा निर्गुण-निराकार भी हैं। सगुण- साकार परमात्मा के साथ प्रेम होता है। जो निर्गुण-निराकार हैं उन ईश्वर के साथ प्रेम होता नहीं। ज्ञानी पुरुष ब्रह्म-चिंतन करते हैं, परन्तु घंटे-आधा घंटे बाद उनको थकान होने लगती है। निराकार निष्क्रिय ब्रह्म का चिंतन करते हुए आनन्द तो आता है परन्तु पीछे मन भटक जाता है। जो परमात्मा हिलता नहीं, चलता नहीं, बोलता नहीं, उस प्रभु का ध्यान करते हुए मन थक जाता है। वैष्णवजन निष्क्रिय ब्रह्म का चिंतन करते नहीं, परन्तु लीला-विशिष्ट ब्रह्म का ध्यान करते हैं। वैष्णवों का ब्रह्म तो बोलता है, चलता है, हँसता है, खेलता है, नाचता है, प्रेम करता है। घूम-घूम करते हुए कन्हैया जिस प्रकार चलता है ऐसा चलना किसी को भी आता नहीं, वैष्णवजन अष्टयाम सेवा का चिन्तन करते हैं। सुबह कन्हैया उठते हैं, यशोदा माँ कन्हैया का सुन्दर श्रृंगार करती हैं, माताजी लाल को माखन-मिश्री आरोगवाती हैं, कन्हैया गायों को लेकर आते हैं, गायों की सेवा करते हैं। प्रातः काल से रात्रि तक जब तक रासलीला होती है, तब तक एक-एक लीला का वैष्णव लोग अत्यन्त प्रेम से चिंतन करते हैं। सगुण- साकार परमात्मा के साथ प्रेम होता है; निर्गुण-निराकार ईश्वर का बुद्धि में अनुभव होता है। निराकार ब्रह्म बस 'है' केवल इतना ही है, परन्तु इन निराकार ब्रह्म का अपने को अधिक उपयोग नहीं है। लकड़ी में अग्नि होती है। सभी जानते हैं कि लकड़ी के एक-एक कण में अग्नि है, परन्तु जिस समय अत्यन्त ठंड लग रही हो और उस समय कोई लकड़ी का स्पर्श करे तो लकड़ी में रहनेवाली अग्नि क्या गर्मी देती है? लकड़ी में अग्नि है, मात्र इतना ही जाना जाता है, लकड़ी के अणु-परमाणु में अग्नि है, दूध के एक-एक कण में माखन है, परन्तु वह निराकार रूप में है। निराकार ईश्वर सर्वव्यापक है, परन्तु किसी को दिखाई देता नहीं। बुद्धि से ही उसका अनुभव होता है। सगुण के साथ प्रेम करो और निर्गुण-निराकार ईश्वर सबमें विराजमान है, ऐसा सर्वकाल में अनुभव करो। परमात्मा सभी में है, ऐसा हर समय जो समझता है उसको पाप करने की जगह मिलती नहीं। जो लोग ऐसा मानते हैं कि भगवान् वैकुण्ठ में और मन्दिर में ही बैठे हैं, उनके हाथों से पाप हो जाता है। तुम जहाँ हो, वहीं ईश्वर है। जगत् में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ भगवान् न विराजते हों।परमात्मा सर्वव्यापक हैं। राजा राजमहल में रहता है परन्तु राजा की सत्ता उसके राज्य में सभी जगह होती है, राज्य के अणु-परमाणु में भी व्याप्त रहती है। सत्ता का कोई आकार नहीं होता, कोई रंग नहीं होता। सत्ता काली, सफेद या पीली नहीं होती। राजा भले ही राजमहल में रहे, परन्तु सत्तारूप से राजा सबमें होता है। राजा में सत्ता न रहे तो राजा का अस्तित्व ही न रहे। कल्पना करो कि एक अतिशय श्रीमंत की मोटर सड़क पर जा रही है। श्रीमंत को बहुत ही महत्त्व का काम है इसलिये मोटर बहुत वेग से चली जा रही है। फिर भी मार्ग पर वाहन के नियमों का पालन कराने के लिये खड़ा हुआ सिपाही यदि हाथ ऊँचा करे तो श्रीमंत को भी मोटर खड़ी रखनी पड़ेगी। यह सम्मान सिपाही के लिये नहीं, राज्य-सत्ता के लिये होता है। श्रीमान् के मन में कदाचित् घमण्ड होवे कि ऐसे अनेक सिपाहियों को तो मैं घर में नौकर रख सकता है। तो बात तो यह सत्य है, परन्तु उस राज-सिपाही में राजसत्ता है। सत्ता का कोई रंग नहीं, सत्ता का कोई आकार नहीं, परन्तु सत्ता है। यह बात सत्य है। निर्गुण-निराकार ईश्वर सभी के अन्दर सर्वकाल में विराजमान है। निर्गुण और सगुण, भगवान् के इन दो स्वरूपों का वर्णन ग्रन्थों में आता है। वेद में अनेक स्थानों पर ऐसा वर्णन आता है कि ईश्वर का कोई आकार नहीं, ईश्वर निराकार है, तेजोमय है। ईश्वर का आकार नहीं, इसका अर्थ यह है कि ईश्वर का कोई एक आकार नहीं है। अरे! शंख, चक्र, गदा, पद्म हाथ में हो, उसी को ईश्वर कहते हैं क्या? हाथ में त्रिशूल धारण करनेवाला ईश्वर नहीं है क्या? धनुष, बाण हाथ में हो, वह ईश्वर नहीं है क्या? ईश्वर का कोई एक स्वरूप निश्चित नहीं किया गया है कि अमुक स्वरूप में जो दिखाई देता है, वही ईश्वर कहलाएगा। जगत् में जितने रूप दिखाई देते हैं, वे तत्त्व से परमात्मा के ही स्वरूप हैं। अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे। आकार भले ही भिन्न दिखाई दे, परन्तु उन सब प्रकार के आकारों में ईश्वर-तत्त्व एक ही है। माला में फूल अनेक हैं, अनेक प्रकार के हैं, परन्तु धागा एक ही है। गीताजी में भगवान् ने आज्ञा की है- मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥ आकार भिन्न-भिन्न हैं परन्तु सबमें रहने वाला ईश्वर तत्त्व एक ही है। गाय काली हो, धौरी हो अथवा लाल हो, उसका दूध सफेद ही होता है। रूप-रंग अथवा आकार का महत्त्व नहीं होता; आकार में रहनेवाले परमात्म-तत्त्व का महत्त्व है। नरसिंह मेहता ने कहा है- अखिल ब्रह्माण्ड में एक तू श्रीहरि, जूजवे रूपे अनन्त भासे॥ वेद तो एय वदे, श्रुति-स्मृति शौखदे, कनक कुण्डल विशे भेद न होये। घाट घडिया पछी नाम रूप जूजवाँ, अंते तो हेमनुं हेम होय॥ सुवर्ण के आभूषण अनेक होते हैं, अनेक प्रकार के आकार के होते हैं परन्तुइन सब आभूषणों में एक ही सुवर्ण होता है। तुम बाजार में चन्द्रहार लेकर जाओ तो चन्द्रहार की कीमत मिलती है क्या? नहीं! कीमत सोने की ही मिलती है। सोना यदि दस तोला होगा तो दस तोले सोने का ही मूल्य मिलेगा। चन्द्रहार की कीमत मिलेगी नहीं। आकार की कीमत नहीं। कीमत सुवर्ण की है। एक महात्मा के पास सुवर्ण के गणपति और सुवर्ण का चूहा था। शरीर वृद्ध हुआ। काल समीप आया जानकर महात्मा ने विचार किया कि मेरे जाने के बाद ये शिष्य लोग मूर्ति के लिए झगड़ा करेंगे। इसलिये उचित यही है कि मूर्ति को बेच दिया जाय और उस मूल्य से भंडारा करा दिया जाय। महात्मा मूर्ति बेचने गये। गणपति की मूर्ति दस तोले की बैठी और मूषक की ग्यारह तोले की। स्वर्णकार ने कहा-गणपति का मूल्य चार हजार रूपया और मूषक का मूल्य चार हजार चार सौ है। महात्मा ने कहा-अरे गणपति तो मालिक हैं। उनका मूल्य कम क्यों देते हो? सुवर्णकार ने कहा- मैं तो सुवर्ण की कीमत देता हूँ, मालिक की नहीं। आकार की कीमत अधिक नहीं होती। परमात्मा निराकार है, ऐसा जहाँ वर्णन किया है, वहाँ उसका अर्थ यही है कि ईश्वर का कोई एक आकार निश्चित नहीं है। जगत् में जितने आकार दिखाई देते हैं, वे सभी तत्त्वदृ‌ष्टि से भगवान् के ही आकार हैं। सुवर्णाज्जायमानस्य सुवर्णत्वं च शाश्वतम्। ब्रह्मणो जायमानस्य ब्रह्मत्वं च तथा भवेत्॥ सुवर्ण में से बने हुए आभूषणों में सुवर्ण-तत्त्व जिस प्रकार एक ही है, उसी प्रकार ईश्वर से उत्पन्न हुए इस सृष्टि के सब जीवों में ही क्या, सब पदार्थों में ईश्वर-तत्त्व एक ही है। ईश्वर सर्वाकार है। ईश्वर का कोई एक आकार निश्चित नहीं। इसलिए भगवान् को निराकार कहते हैं। भगवान विश्वनाथ और माँ भवानी की जय 🙏🌷 आनन्दरूप सीयावर रामचंद्र की जय 🙏🌷 श्री हनुमान की जय 🙏🌷 - परम पूज्य संत श्री रामचंद्र केशव डोंग्रेजी महाराज के दिव्य प्रवचनों से 🙏
☝अनमोल ज्ञान - परमात्माका स्वरुप समुह परमात्माका स्वरुप समुह - ShareChat
#🕉️सनातन धर्म🚩 🌿🌼 *एक ही परमात्मा अनेक प्रकार की लीला करने के लिये अनेक स्वरूप धारण करता है* 🌼🌿 अपने सनातन धर्म में देव अनेक हैं, परन्तु ईश्वर अनेक नहीं। एक ही ईश्वर अनेक स्वरूप धारण करता है। हाथ में जब धनुष-बाण धारण करता है तो लोग कहते हैं कि 'ये श्रीरामजी विराज रहे हैं;' और वही परमात्मा बाँसुरी हाथ में धारण करते हैं तो लोग कहते हैं कि 'ये मुरलीमनोहर श्रीकृष्ण हैं।' ठाकुरजी को नित्य पीताम्बर धारण करने में बोझा लगता है, इसलिये कन्हैयाजी कभी-कभी माँ यशोदा से कहते हैं कि माँ! आज तो मुझे बाघम्बर ओढ़कर साधु बनकर बैठना है। लाला को तो नित्य नयी-नयी बात सुहाती है न! कन्हैया पीताम्बर फेंककर और बाघम्बर ओढ़कर जब बैठ जाते हैं, उस समय लोग कहते है कि 'ये शंकर भगवान् बैठे हैं'। गर्गसंहिता में एक कथा आती है। श्रीराधाजी व्रत कर रही थीं श्रीकृष्ण से मिलने के लिए। श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए राधाजी का यह व्रत था। तुलसीजी में श्रीबालकृष्णलाल को पधराकर श्रीबालकृष्णलाल की सेवा करती, परिक्रमा करतीं परन्तु राधाजी के पिता वृषभानुजी ने ऐसी व्यवस्था की हुई थी कि श्रीराधाजी के महल में किसी पुरुष का प्रवेश हो नहीं सकता था, राधाजी से कोई मिल नहीं सकता था। श्रीराधाजी के महल में पहरा भी था परन्तु था सखियों का ही। तुम बरसाना गये होगे। बरसाने में श्रीराधिकाजी का महल है। वहाँ सखियों का ही पहरा है। श्रीराधाजी को अत्यन्त आतुरता हुई कि 'मुझे श्रीकृष्ण से मिलना है, श्रीकृष्ण के दर्शन करने हैं।' इस ओर लाला को भी दर्शन-मिलन की आतुरता जागी। लाला ने विचार किया कि मैं पीताम्बर पहिनकर जाऊँ तो मुझे कोई अन्दर जाने देगा नहीं जब कि मुझे अन्दर जाना ही है। उस समय चन्द्रावली सखी से प्रभु ने कहा-आज अपना समस्त श्रृंगार तू मुझे धारण करा। चन्द्रावली ने लाला को सखी का सभस्त श्रृंगार धारण करके सजा दिया। श्रीकृष्ण सखी का रूप धारण करके वहाँ गये। वृषभानुजी वहाँ विराजे हुए थे। उन्होंने समझा कि राधा से मिलने उसकी कोई सखी आई है। श्रीकृष्ण अन्दर गये और राधिका जी से मिले। भगवान् साड़ी पहिन लेते हैं, उस समय लोग कहने लगते हैं कि 'ये माताजी हैं। श्रीकृष्ण, श्रीराम अनेक स्वरूप धारण करते हैं, परन्तु ये सभी स्वरूप, तत्त्व से एक ही हैं। देव अनेक हैं, परमात्मा एक है। एक ही परमात्मा अनेक स्वरूप धारण करते हैं। अरे! एक मनुष्य भी दिन में कई बार कपड़ा बदलता है, घर में अँगोछा पहिनकर फिरता है, बाहर जाना हो तो बढ़िया कपड़े पहिन लेता है। तब कपड़ा बदल लेने से क्या व्यक्ति बदल जाता है? एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति । एकं सत्यं बहुधा समुपयन्ति ॥ एक ही परमात्मा अनेक प्रकार की लीला करने के लिये अनेक स्वरूप धारण करता है। परमात्मा निर्गुण-निराकार है और परमात्मा सगुण-साकार भी है। निराकार का अर्थ यही है कि उसका कोई एक आकार निश्चित नहीं। वह तो तेजोमय है, जैसा स्वरूप धारण करने की इच्छा होती है, वैसा ही स्वरूप प्रकट करते हैं। भगवान् कहते हैं कि मेरा कोई आकार नहीं और मेरा कोई श्रृंगार भी नहीं। मेरे भक्तों को जो आकार और श्रृंगार सुहाता है वैसा ही स्वरूप और वैसा ही श्रृंगार मैं धारण कर लेता हूँ। ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मैं अपने भक्तों के अधीन हूँ। तत्त्व-दृष्टि से विचार किया जाय तो सगुण और निर्गुण एक ही है, जिस प्रकार राजा और राजा की सत्ता- ये दोनों एक ही है। सत्ता न रहे तो फिर वह राजा किसका? परन्तु वह निराकार सत्ता कोई कार्य करे तो साकार स्वरूप धारण करके ही करती है। आँख में जो देखने की शक्ति है, वह निराकार है। आँख साकार है। निराकार और साकार एक बनते हैं तभी कोई क्रिया हो पाती है। निराकार की क्रिया कोई नहीं। आँख में जो शक्ति है उस शक्ति का कोई आकार नहीं है, आँख का आकार है। यह फूल साकार है, परन्तु इसमें जो सुगंध है, वह निराकार है। निराकार और साकार-दोनों के मिलने पर क्रिया होती है। श्रीराम निर्गुण-निराकार हैं, श्रीराम सगुण-साकार हैं। तत्त्व-दृष्टि से दोनों पृथक् नहीं। निर्गुण-निराकार ब्रह्म और सगुण-साकार परमात्मा एक ही हैं। निराकार-निर्विकार ब्रह्म परमात्मा सबके अन्दर विराजे हुए हैं। वे प्रकाशमय हैं। वे स्वरूप को छिपाते हैं। वे आँखों द्वारा दिखाई पड़ते नहीं, केवल बुद्धि-ग्राह्य हैं। निराकार ब्रह्म सर्वव्यापक हैं। किसी का आकर्षण करते नहीं, निग्रह अथवा अनुग्रह भी करते नहीं। मारते भी नहीं तथा तारते भी नहीं। मारना तथा तारना-यह लीला तो श्रीराम करते हैं, श्रीकृष्ण करते हैं, लीला के निमित्त निराकार ब्रह्म ही साकार स्वरूप धारण करते हैं। निर्गुण ब्रह्म ही सगुण लीलातनु धारण करते हैं और अनेक प्रकार की लीला करते हैं। आनन्दस्वरूप परमात्मा की ऐसी दिव्य लीला देखकर शिवजी को तनिक भी मोह नहीं हुआ। शिवजी को तो दृढ़ विश्वास था कि 'श्रीराम ईश्वर ही हैं। परन्तु सतीजी के मन में थोड़ा विकल्प हुआ और सतीजी परीक्षा करने गयीं। अन्त में सतीजी को विश्वास हो गया कि 'ये परमात्मा ही हैं'। अपनी भूल उनको समझ में आ गयी। सतीजी वापस लौटने लगीं। मार्ग में उनको श्रीराम, लक्ष्मण, जानकीजी के दर्शन हुए। करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश था। श्रीरामजी के दाहिनी ओर लक्ष्मणजी तथा बायीं ओर श्रीसीताजी थीं। श्रीसीतारामजी का नित्य संयोग है। रावण सीताजी को ले ही नहीं गया था। ऐसा दर्शन करके सतीजी ने अपना मार्ग बदला। बदले हुए मार्ग पर भी वही दर्शन हुए। ब्रह्मादिक देवता रामजी की स्तुति कर रहे थे। सतीजी ने फिर तीसरा मार्ग बदला। पुनः उनको प्रत्यक्ष दर्शन हुए। सतीजी घबराने लगीं। उन्होंने नेत्र मूँद लिये। तदनन्तर रामजी ने लीला-संवरण कर लिया। सतीजी शिवजी के पास आयीं। शिवजी ने पूछा-हमारे रामजी की परीक्षा कर ली? सतीजी ने कहा- मैं प्रभु के समीप जाकर दर्शन कर आई, आपने तो दूर से दर्शन किया था। मैं तो पास से उनके दर्शन करके आयी हूँ। परन्तु शंकर भगवान् से क्या छिपा हुआ रह सकता था, वे तो 'ईश्वरः सर्वभूतानाम्' हैं। शिवजी ने मन से सतीजी का त्याग किया। सोचा कि 'अब ये मेरी माँ है।' इन्होंने सीताजी का स्वरूप जो धारण कर लिया था। एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥ शिवजी ने सतीजी का त्याग कर दिया। भगवान् शंकर नन्दिकेश्वर पर विराजे हुए थे। नन्दिकेश्वर धर्म के स्वरूप हैं। मन से ज्यों ही सतीजी का त्याग किया कि आकाश से पुष्पवृष्टि हुई। देवता लोग शंकर भगवान् की जय-जयकार करने लगे। सतीजी को आश्चर्य हुआ। वे शिवजी से कुछ भी न पूछ सकीं एवं लज्जित हो गयीं। वहाँ से दोनों कैलासधाम पधारे। सतीजी कुछ भी पूछें, उसके पूर्व ही रामजी का ध्यान करते हुए शिवजी की समाधि लग गई। पाप करने वाले को शान्ति मिलती नहीं; फिर भले ही वह देव, दानव अथवा मनुष्य हो। सतीजी घबरा गईं। उसी समय दक्षप्रजापति ने यज्ञ-अनुष्ठान किया। दक्षप्रजापति शिवजी के स्वरूप को जानते नहीं, शिव-तत्त्व को सही रूप से समझते नहीं। भगवान विश्वनाथ और माँ भवानी की जय 🙏🌷 आनन्दरूप सीयावर रामचंद्र की जय 🙏🌷 श्री हनुमान की जय 🙏🌷 - परम पूज्य संत श्री रामचंद्र केशव डोंग्रेजी महाराज के दिव्य प्रवचनों से 🙏
🕉️सनातन धर्म🚩 - परमात्मा का 456 स्वरुप परमात्मा का 456 स्वरुप - ShareChat
#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩 ।। भक्तप्रवर प्रह्लाद और ध्रुव ।। विश्व के भक्तों में भक्तप्रवर श्रीप्रह्लाद और ध्रुव की भक्ति, प्रेम, सहिष्णुता अत्यन्त ही अलौकिक थी। दोनों प्रातःस्मरणीय भक्त श्रीभगवान्‌ के विलक्षण प्रेमी थे। प्रह्लादजी के निष्काम भाव की महिमा कही नहीं जा सकती। आरंभ से ही इनमें पूर्ण निष्काम भाव था। जब भगवान्‌ नृसिंहदेव ने इनसे वर मांगने को कहा तब इन्होंने जवाब दिया कि, ‘नाथ! मैं क्या लेन देन करनेवाला व्यापारी हूं? मैं तो आपका सेवक हूं, सेवक का काम मांगना नहीं है और स्वामी का कुछ दे दिलाकर सेवक को टाल देना नहीं है।’ परन्तु जब भगवान्‌ ने फिर आग्रह किया तो प्रह्लाद ने एक वरदान तो यह मांगा कि ‘मेरे पिता ने आपसे द्वेष करके आपकी भक्ति में बाधा पहुंचाने के लिये मुझपर जो अत्याचार किये, हे प्रभो! आपकी कृपा से मेरे पिता उस दुष्कर्म से उत्पन्न हुए पाप से अभी छूट जायं।’ ‘स्वत्प्रसादात्‌ प्रभो सद्यस्तेन मुच्यते मे पिता।’ कितनी महानता है! दूसरा वरदान यह मांगा कि ‘प्रभो! यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यह दीजिये कि मेरे मन में कभी कुछ मांगने की अभिलाषा ही न हो।’ कितनी अद्भुत निष्कामता और दृढ़ता है। पिता ने कितना कष्ट दिया, परन्तु प्रह्लादजी सब कष्ट सुखपूर्वक सहते रहे, पिता से कभी द्वेष नहीं किया, और अन्त में महान्‌ निष्कामी होने पर भी पिता का अपराध क्षमा करने के लिये भगवान्‌ से प्रार्थना की! भक्तवर ध्रुवजी में एक बात की और विशेषता है, उनमें अपनी सौतेली माता सुरुचिजी के लिये भगवान्‌ से यह कहा कि ‘नाथ! मेरी माता ने यदि मेरा तिरस्कार न किया होता तो आज आपके दुर्लभ दर्शन का अलभ्य लाभ मुझे कैसे मिलता? माता ने बड़ा ही उपकार किया है।’ इस तरह दोष में उल्टा गुण का आरोप कर उन्होंने भगवान्‌ से सौतेली माँ के लिये मुक्ति का वरदान मांगा। कितने महत्व की बात है! पर इससे यह नहीं समझना चाहिये, कि भक्तवर प्रह्लादजी ने पिता में दोषारोपण कर भगवान्‌ के सामने उसे अपराधी बतलाया, इससे उनका भाव नीचा है। ध्रुवजी की सौतेली माता ने ध्रुव से द्वेष किया था, उनके इष्टदेव भगवान्‌ से नहीं, परन्तु प्रह्लादजी के पिता हिरण्यकशिपु ने तो प्रह्लाद के इष्टदेव भगवान्‌ से द्वेष किया था। अपने प्रति किया हुआ दोष तो भक्त मानते ही नहीं, फिर माता-पिता द्वारा किया हुआ तिरस्कार तो उत्तम फल का कारण होता है। इसलिये ध्रुवजी का माता में गुण का आरोप करना उचित ही था। परन्तु प्रह्लादजी के तो इष्टदेव का तिरस्कार था। प्रह्लादजी ने अपने को कष्ट देनेवाला जानकर पिता को दोषी नहीं बतलाया, उन्होंने भगवान्‌ से उनका अपराध करने के लिये क्षमा मांगकर पिता का उद्धार चाहा। बहुत सी बातों में एक से होने पर भी प्रह्लादजी में निष्काम भाव की विशेषता थी और ध्रुवजी में सौतेली माता के प्रति गुणारोप कर उसके लिये मुक्ति मांगने की ! वास्तव में दोनों ही विलक्षण भक्त थे। भगवान्‌ का दर्शन करने के लिये दोनों की ही प्रतिज्ञा अटल थी, दोनों ने उसको बड़ी ही दृढ़ता और तत्परता से पूरा किया। प्रह्लादजी ने घर में पिता के द्वारा दिये हुए कष्ट प्रसन्न मन से सहे, तो ध्रुवजी ने वन में अनेक कष्टों को सानन्द सहन किया। नियमों से कोई किसी प्रकार भी नहीं हटे, अपने सिद्धान्त पर दृढ़ता से डटे रहे, कोई भी भय या प्रलोभन उन्हें तनिक सा भी नहीं झुका सका। वास्तव में दोनों ही परम आदर्श और वन्दनीय हैं, हमें दोनों ही के जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। ।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
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#🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा क्यों ? 〰️〰️🌼〰️〰️〰️🌼〰️〰️ श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को भगवान का रूप बताया है और उसी की पूजा करने के लिए सभी को प्रेरित किया था। आज भी गोवर्धन पर्वत चमत्कारी है और गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने वाले हर व्यक्ति को जीवन में कभी भी पैसों की कमी नहीं होती है। . एक कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लेने के पूर्व राधाजी से भी साथ चलने का निवेदन किया। इस पर राधाजी ने कहा कि मेरा मन पृथ्वी पर वृंदावन, यमुना और गोवर्धन पर्वत के बिना नहीं लगेगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने अपने हृदय की ओर दृष्टि डाली जिससे एक तेज निकल कर रास भूमि पर जा गिरा। यही तेज पर्वत के रूप में परिवर्तित हो गया। . शास्त्रों के अनुसार यह पर्वत रत्नमय, झरनों, कदम्ब आदि वृक्षों से भरा हुआ था एवं कई अन्य सामग्री भी इसमें उपलब्ध थी। इसे देखकर राधाजी प्रसन्न हुई तथा श्रीकृष्ण के साथ उन्होंने भी पृथ्वी पर अवतार धारण किया। . कभी विचार किया है कि हम श्री गिरिराज जी की परिक्रमा क्यों करते हैं? अज्ञानता अथवा अनभिज्ञता से किया हुआ अलौकिक कार्य भी सुन्दर फल का ही दाता है, तो यदि उसका स्वरूप एवं भाव समझकर हम कोई अलौकिक कार्य करें, तो उसके बाह्याभ्यान्तर फल कितना सुन्दर होगा, यह विचारणीय है। . परिक्रमा का भाव समझिये। हम जिसकी परिक्रमा कर रहें हों, उसके चारों ओर घूमते हैं। जब किसी वस्तु पर मन को केन्द्रित करना होता है, तो उसे मध्य में रखा जाता है, वही केन्द्र बिन्दु होता है। अर्थात् जब हम श्री गिरिराज जी की परिक्रमा करते हैं तो हम उन्हें मध्य में रखकर यह बताते हैं कि हमारे ध्यान का पूरा केन्द्र आप ही हैं और हमारे चित्त की वृत्ति आप में ही है और सदा रहे। दूसरा भावात्मक पक्ष यह भी है कि जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसके चारों ओर घूमना हमें अच्छा लगता है, सुखकारी लगता है। . श्री गिरिराज जी के चारों ओर घूमकर हम उनके प्रति अपने प्रेम और समर्पण का भी प्रदर्शन करते हैं। परिक्रमा का एक कारण यह भी है कि श्री गिरिराज जी के चारों ओर सभी स्थलों पर श्रीठाकुरजी ने अनेक लीलायें की हैं जिनका भ्रमण करने से हमें उनकी लीलाओं का अनुसंधान रहता है। . परिक्रमा के चार मुख्य नियम होते हैं जिनका पालन करने से परिक्रमा अधिक फलकारी बनती है। . “मुखे भग्वन्नामः, हृदि भगवद्रूपम्, हस्तौ अगलितं फलम्, नवमासगर्भवतीवत् चलनम्” . अर्थात्, मुख में सतत् भगवत्-नाम, हृदय में प्रभु के स्वरूप का ही चिंतन, दोनों हाथों में प्रभु को समर्पित करने योग्य ताजा फल, और नौ मास का गर्भ धारण किये हुई स्त्री जैसी चाल, ताकि अधिक से अधिक समय हम प्रभु की टहल और चिंतन में व्यतीत कर सकें। . श्री गिरिराज जी पाँच स्वरूप से हमें अनुभव करा सकते हैं, दर्शन देते हैं। पर्वत रूप में, सफेद सर्प के रूप में, सात बरस के ग्वाल/बालक के रूप में, गाय के रूप में और सिंह के रूप में। . श्री गिरिराज जी का ऐसा सुन्दर और अद्भुत स्वरूप है कि इसे जानने के बाद कौन यह नहीं गाना चाहेगा कि “गोवर्धन की रहिये तरहटी श्री गोवर्धन की रहिये…”। . श्री श्रीनाथजी व् श्री गिरिराजी दोनों एक ही है। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
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#🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान भगवान विष्णु के परमभक्त शेषनाग जी के रहस्य ? 〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰 *सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥ सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥ भावार्थ:-जो हजार सिर वाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें॥ हमारे हिन्दू सनातन धर्म में भगवान विष्णु को पालनकर्ता कहा गया है, जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु के दो रूप कहे गए है एक तो उनका सहज एवं सरल स्वभाव है तथा अपने दूसरे रूप में भगवान विष्णु कालस्वरूप शेषनाग के ऊपर बैठे है। भगवान विष्णु का यह स्वरूप थोड़ा भयामह अवश्य है परन्तु भगवान विष्णु की लीलाएं अपरम्पार है। भगवान विष्णु अनेक शक्तिशाली शक्तियों के स्वामी है उनके इन्ही में से एक अत्यधिक शक्तिशाली शक्ति है शेषनाग। आज हम आपको शेषनाग और नागो से जुड़े अनेक ऐसे रहस्यों के बारे में बताने जा रहे है जो सायद ही अपने पहले कभी सुने हो। नागराज अनन्त को ही शेषनाग कहा गया है। शेषनाग भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है तथा उन्हें उनका भगवत्स्वरूप कहा जाता है. प्रलयकाल के दौरान जब नई सृष्टि का निर्माण होता है तो उसमे जो शेष अवक्त शेष रह जाता है, हिंदू धर्मकोश के अनुसार वे उसी के प्रतीक माने गए हैं। भविष्य पुराण में इनका वर्णन एक हजार फन वाले सर्प के रूप में किया गया है. ये जीव तत्व के अधिष्ठाता हैं और ज्ञान व बल नाम के गुणों की इनमें प्रधानता होती है। इनका आवास पाताल लोक के मूल में माना गया है, प्रलयकाल में इन्हीं के मुखों से भयंकर अग्नि प्रकट होकर पूरे संसार को भस्म करती है। ये भगवान विष्णु के पलंग के रूप में क्षीर सागर में रहते हैं और अपने हजार मुखों से भगवान का गुणानुवाद करते हैं.भक्तों के सहायक और जीव को भगवान की शरण में ले जाने वाले भी शेष ही हैं। क्योंकि इनके बल, पराक्रम और प्रभाव को गंधर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग आदि भी नही जान पाते, इसलिए इन्हें अनंत भी कहा गया है। ये पंचविष ज्योति सिद्धांत के प्रवर्तक माने गए हैं. भगवान के निवास शैया, आसन, पादुका, वस्त्र, पाद पीठ, तकिया और छत्र के रूप में शेष यानी अंगीभूत होने के कारण् इन्हें शेष कहा गया है. लक्ष्मण और बलराम इन्हीं के अवतार हैं जो राम व कृष्ण लीला में भगवान के परम सहायक बने। हमारे जीवन का हर क्षण अनेको जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों को अपने अंदर समेटे हुए है, तथा सबसे अत्यधिक एवं महत्वपूर्ण दायित्व जो मनुष्य का होता है वह है अपने परिवार तथा समाज के प्रति। एक वास्तविकता यह भी है की इन जिम्मेदारियों को पूरा करने में हमें अनेको परशानियों का सामना करना पड़ता है और शेषनाग रूपी परेशानियों को अपने कैद में कर भगवान सम्पूर्ण समाज को यही संदेश देना चाहते है की चाहे परिस्थितियां कैसी भी हो परन्तु हमें सदैव अपने परेशनियों को वश में कर सरल एवं प्रसन्न रहना चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रीश्वेतवाराह कल्प में सृष्टि सृजन के आरंभ में ही एकबार किसी कारणवश ब्रह्मा जी को बड़ा क्रोध आया जिनके परिणामस्वरूप उनके आंसुओं की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिरीं और उनकी परिणति नागों के रूप में हुई। इन नागों में प्रमुख रूप से अनन्त, कुलिक, वासुकि, तक्षक, काक्रोटम, महापद्य्म,पद्द्य्म, शंखपाल है। पना पुत्र मानते हुए ब्रह्मा जी ने इन्हें ग्रहों के बराबर ही शक्तिशाली बनाया. इनमें अनंतनाग सूर्य के, वासुकि चंद्रमा के, तक्षक मंगल के, कर्कोटक बुध के, पद्म बृहस्पति के, महापद्म शुक्र के, कुलिक और शंखपाल शनि ग्रह के रूप हैं ! ये सभी नाग भी सृष्टि संचालन में ग्रहों के समान ही भूमिका निभाते हैं. इनसे गणेश और रूद्र यज्ञोपवीत के रूप में, महादेव श्रृंगार के रूप में तथा विष्णु जी शैय्या रूप में सेवा लेते हैं। ये शेषनाग रूप में स्वयं पृथ्वी को अपने फन पर धारण करते हैं. वैदिक ज्योतिष में राहु को काल और केतु को सर्प माना गया है। अतः नागों की पूजा करने से मनुष्य की जन्म कुंडली में राहु-केतु जन्य सभी दोष तो शांत होते ही हैं, इनकी पूजा से कालसर्प दोष और विषधारी जीवो के दंश का भय नहीं रहता। परिवार में वंश वृद्धि, सुख-शांति के लिए नए घर का निर्माण करते समय नींव में चांदी का बना नाग-नागिन का जोड़ा रखा जाता है। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
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#🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान क्यो महर्षि नारद को बनना पड़ा था बन्दर ? 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥ गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥ श्री नारद बड़े ही तपस्वी और ज्ञानी ऋषि हुए जिनके ज्ञान और तप की माता पार्वती भी प्रशंसक थीं। तब ही एक दिन माता पार्वती श्री शिव से नारद मुनि के ज्ञान की तारीफ करने लगीं। शिव ने पार्वती जी को बताया कि नारद बड़े ही ज्ञानी हैं। लेकिन किसी भी चीज का अंहकार अच्छा नहीं होता है। एक बार नारद को इसी अहंकार (घमंड) के कारण बंदर बनना पड़ा था। यह सुनकर माता पार्वती को बहुत आश्चर्य हुआ । उन्होंने श्री शिव भगवान से पूरा कारण जानना चाहा। तब श्री शिव ने बतलाया। इस संसार में कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, लेकिन श्री हरि जो चाहते हैं वो उसे बनना ही पड़ता है। नारद को एक बार अपने इसी तप और बुद्धि का अहंकार (घमंड) हो गया था । इसलिए नारद को सबक सिखाने के लिए श्री विष्णु को एक युक्ति सूझी। हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उस गुफा के निकट ही गंगा जी बहती थीं। वह परम पवित्र गुफा नारद जी को अत्यन्त सुहावनी लगी। वहां पर के पर्वत, नदी और वन को देख कर उनके हृदय में श्री हरि विष्णु की भक्ति अत्यन्त बलवती हो उठी और वे वहीं बैठ कर तपस्या में लीन हो गए । नारद मुनि की इस तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए कि कहीं देवर्षि नारद अपने तप के बल से उनका स्वर्ग नहीं छीन लें। इंद्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहां पहुंच कर कामदेव ने अपनी माया से वसंत ऋतु को उत्पन्न कर दिया। पेड़ और पत्ते पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए कोयले कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल.मंद.सुगंध सुहावनी हवा चलने लगी। रंभा आदि अप्सराएं नाचने लगीं। किन्तु कामदेव की किसी भी माया का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को डर सताने लगा कि कहीं नारद मुझे शाप न दे दें। इसलिए उन्होंने श्री नारद से क्षमा मांगी। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया। कामदेव वापस अपने लोक में चले गए। कामदेव के चले जाने पर नारद मुनि के मन में अहंकार (घमंड) हो गया कि मैंने कामदेव को जीत लिया। वहां से वे शिव जी के पास चले गए और उन्हें अपने कामदेव को हारने का हाल कह सुनाया। भगवान शिव समझ गए कि नारद को अहंकार हो गया है। शंकरजी ने सोचा कि यदि इनके अहंकार की बात विष्णु जी जान गए तो नारद के लिए अच्छा नहीं होगा। इसलिए उन्होंने नारद से कहा कि तुमने जो बात मुझे बताई है उसे श्री हरि को मत बताना। नारद जी को शिव जी की यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने सोचा कि आज तो मैने कामदेव को हराया है और ये भी किसी को नहीं बताऊं । नारद जी क्षीरसागर पह़ुंचे गए और शिव जी के मना करने के बाद भी सारी कथा उन्हें सुना दी। भगवान विष्णु समझ गए कि आज तो नारद को अहंकार (घमंड) ने घेर लिया है। अपने भक्त के अहंकार को वे सह नहीं पाते इसलिए उन्होंने अपने मन में सोचा कि मैं ऐसा उपाय करूंगा कि नारद का घमंड भी दूर हो जाए और मेरी लीला भी चलती रहे। नारद जी जब श्री विष्णु से विदा होकर चले तो उनका अभिमान और भी बढ़ गया। इधर श्री हरि ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में एक बड़े ही सुन्दर नगर को बना दिया । उस नगर में शीलनिधि नाम का वैभवशाली राजा रहता था। उस राजा की विश्व मोहिनी नाम की बहुत ही सुंदर बेटी थी, जिसके रूप को देख कर लक्ष्मी भी मोहित हो जाएं। विश्व मोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिए कईं राजा उस नगर में आए हुए थे। नारद जी उस नगर के राजा के यहां पहुंचे तो राजा ने उनका पूजन कर के उन्हें आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गए और उसे देखते ही रह गए। उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो विवाह करेगा वह अमर हो जाएगा, उसे संसार में कोई भी जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त जीव उसकी सेवा करेंगे। यह बात नारद मुनि ने राजा को नहीं बताईं और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ और अच्छी बातें कह दी। अब नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए कि यह कन्या मुझसे ही विवाह करे। ऐसा सोचकर नारद जी ने श्री हरि को याद किया और भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हो गए। नारद जी ने उन्हें सारी बात बताई और कहने लगे, हे नाथ आप मुझे अपना सुंदर रूप दे दो, ताकि मैं उस कन्या से विवाह कर सकूं। भगवान हरि ने कहा हे नारद! हम वही करेंगे जिसमें तुम्हारी भलाई हो। यह सारी विष्णु जी की ही माया थी । विष्णु जी ने अपनी माया से नारद जी को बंदर का रूप दे दिया । नारद जी को यह बात समझ में नहीं आई। वो समझे कि मैं बहुत सुंदर लग रहा हूं। वहां पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया। ऋषिराज नारद तत्काल विश्व मोहिनी के स्वयंवर में पहुंच गए और साथ ही शिव जी के वे दोनों गण भी ब्राह्मण का रूप बना कर वहां पहुंच गए। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर कहने लगे कि भगवान ने इन्हें इतना सुंदर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही रीझेगी। उनकी बातों से नारद जी मन ही मन बहुत खुश हुए। स्वयं भगवान विष्णु भी उस स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गए। विश्व मोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजा रूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी। मोह के कारण नारद मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी । राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरमाला डालते देख वे परेशान हो उठे। उसी समय शिव जी के गणों ने ताना कसते हुए नारद जी से कहा – जरा दर्पण में अपना मुंह तो देखिए। मुनि ने जल में झांक कर अपना मुंह देखा और अपनी कुरूपता देख कर गुस्सा हो उठें। गुस्से में आकर उन्होंने शिव जी के उन दोनों गणों को राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में अपना मुंह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से मिल चुका था। नारद जी को अपना असली रूप वापस मिल गया था। लेकिन भगवान विष्णु पर उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था, क्योंकि विष्णु के कारण ही उनकी बहुत ही हंसी हुई थी। वे उसी समय विष्णु जी से मिलने के लिए चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्व मोहिनी भी थीं, से हो गई। उन्हें देखते ही नारद जी ने कहा आप दूसरों की खुशियां देख ही नहीं सकते। आपके भीतर तो ईर्ष्या और कपट ही भरा हुआ है। समुद्र- मंथन के समय आपने श्री शिव को बावला बना कर विष और राक्षसों को मदिरा पिला दिया और स्वयं लक्ष्मी जी और कौस्तुभ मणि को ले लिया। आप बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। हमेशा कपट का व्यवहार करते हो। हमारे साथ जो किया है उसका फल जरूर पाओगे। आपने मनुष्य रूप धारण करके विश्व मोहिनी को प्राप्त किया है, इसलिए मैं आपको शाप देता हूं कि आपको मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा । आपने हमें स्त्री से दूर किया है, इसलिए आपको भी स्त्री से दूरी का दुख सहना पड़ेगा और आपने मुझको बंदर का रूप दिया इसलिए आपको बंदरों से ही मदद लेना पड़े। नारद के शाप को श्री विष्णु ने पूरी तरह स्वीकार कर लिया और उन पर से अपनी माया को हटा लिया। माया के हट जाने से अपने द्वारा दिए शाप को याद कर के नारद जी को बहुत दुख हुआ किन्तु दिया गया शाप वापस नहीं हो सकता था। इसीलिए श्री विष्णु को श्री राम के रूप में मनुष्य बन कर अवतरित होना पड़ा। शिव जी के उन दोनों गणों ने जब देखा कि नारद अब माया से मुक्त हो चुके हैं तो उन्होंने नारद जी के पास आकर और उनके चरणों में गिरकर कहा हे मुनिराज! हम दोनों शिव जी के गण हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया है जिसके कारण हमें आपसे शाप मिल चुका है। अब हमें अपने शाप से मुक्त करने की कृपा करें । नारद जी बोलें मेरा शाप झूठा नहीं हो सकता इसलिए तुम दोनों रावण और कुंभ कर्ण के रूप में महान ऐश्वर्यशाली बलवान तथा तेजवान राक्षस बनोगे और अपनी भुजाओं के बल से पूरे विश्व पर विजय प्राप्त करोगे। उसी समय भगवान विष्णु राम के रूप में मनुष्य शरीर धारण करेंगे। युद्ध में तुम दोनों उनके हाथों से मारे जाओगे और तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
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#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩 सुबह उठकर बिस्तर से नीचे पैर रखने से पहले के नियम 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ सुबह की शुरूवात जैसी होती है बाकि दिन भी उसी अनुसार बीतता है ऐसे में जरूरी है कि सुबह को बेहतर बनाया जाया .. शास्त्रों में सुबह के समय उठते ही कुछ विशेष कार्य करने की सलाह ही दी गई है। मान्यता है कि अगर सुबह उठकर जमीन पर पैर रखने से पहले आप ये कार्य कर लें तो आपका पूरा दिन बन जाएगा और हर काम-काज में सफलता मिलेगी ।आज हम आपको इसी के बारे में बताने जा रहे हैं ताकि आप भी उसका अनुसरण कर जीवन में सफलता और सुख-समृद्धी पा सकें। प्राचीन शास्त्र भले ही आज से कई वर्षों पहले लिखे गए हों पर उनमें कही गई बातें आज भी हमारे लिए उतनी ही उपयोगी हैं.. जो कि हमे आदर्श जीवन जीन की सीख देते हैं और व्यक्ति को हर कार्य करने की उचित विधि बतलाते हैं। ऐसे में अगर हम शास्त्रों में बताए उन नियमों और आदर्शों का पालन करें तो हमारा जीवन बेहतर और सफल हो सकता है। विशेषकर अगर हम अपने दिन की शुरूवात शास्त्रों के नियमानुसार करें तो हम हमेशा सुखी रह सकते हैं। तो चलिए जानते हैं सुबह के लिए शास्त्रों में क्या नियम और आदर्श बताए गए हैं। दरअसल शास्त्रों के अनुसार सुबह उठकर बिस्तर से जमीन पर अपने पैर रखने से पहले व्यक्ति को धरती को प्रणाम करने की बात कही गई । क्योकि शास्त्रों में भूमि को भी देवी मां माना गया है और ऐसे में जब हम धरती पर पैर रखते हैं तो उससे हमें दोष लगता है। इसलिए हमें इस दोष को दूर करने के लिए धरती को प्रणाम कर उनसे क्षमा मांगनी चाहिए और जब हम इस तरह धरती का सम्मान करते हैं तो धरती मां की कृपा हमारे घर-परिवार पर बरसती है और हमारे जीवन की मुसीबतें कम होती हैं।कराग्रे वसते लक्ष्मी:, करमध्ये सरस्वती। कर मूले तु गोविन्द:, प्रभाते करदर्शनम॥ १॥ भावार्थ हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती तथा मूल में गोविन्द (परमात्मा ) का वास होता है। प्रातः काल में (पुरुषार्थ के प्रतीक) हाथों का दर्शन करें॥१॥ समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमंड्ले। विष्णुपत्नि! नमस्तुभ्यं पाद्स्पर्श्म क्षमस्वे॥ २॥ भावार्थ समुद्ररूपी वस्त्रोवाली, पर्वतरूपी स्तनवाली और विष्णु भगवान की पत्नी हे पृथ्वी देवी ! तुम्हे नमस्कार करता हूँ ! तुम्हे मेरे पैरों का स्पर्श होता है इसलिए क्षमायाचना करता हूँ॥ २॥ ब्रह्मा मुरारीस्त्रिपुरांतकारी भानु: शाशी भूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्र: शनि-राहु-केतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम॥ ३॥ भावार्थ ब्रह्मा, मुरारि (विष्णु) और त्रिपुर-नाशक शिव (अर्थात तीनों देवता) तथा सूर्य, चन्द्रमा, भूमिपुत्र (मंगल), बुध, बृहस्पति, शुक्र्र, शनि, राहु और केतु ये नवग्रह, सभी मेरे प्रभात को शुभ एवं मंगलमय करें। सनत्कुमार: सनक: सन्दन: सनात्नोप्याsसुरिपिंलग्लौ च। सप्त स्वरा: सप्त रसातलनि कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम॥ ४॥ भावार्थ (ब्रह्मा के मानसपुत्र बाल ऋषि) सनतकुमार, सनक, सनन्दन और सनातन तथा (सांख्य-दर्शन के प्रर्वतक कपिल मुनि के शिष्य) आसुरि एवं छन्दों का ज्ञान कराने वाले मुनि पिंगल मेरे इस प्रभात को मंगलमय करें। साथ ही (नाद-ब्रह्म के विवर्तरूप षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद) ये सातों स्वर और (हमारी पृथ्वी से नीचे स्थित) सातों रसातल (अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल, और पाताल) मेरे लिए सुप्रभात करें। सप्तार्णवा: सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम॥ ५॥ भावार्थ सप्त समुद्र (अर्थात भूमण्डल के लवणाब्धि, इक्षुसागर, सुरार्णव, आज्यसागर, दधिसमुद्र, क्षीरसागर और स्वादुजल रूपी सातों सलिल-तत्व) सप्त पर्वत (महेन्द्र, मलय, सह्याद्रि, शुक्तिमान्, ऋक्षवान, विन्ध्य और पारियात्र), सप्त ऋषि (कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ, और विश्वामित्र), सातों द्वीप (जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौच, शाक, और पुष्कर), सातों वन (दण्डकारण्य, खण्डकारण्य, चम्पकारण्य, वेदारण्य, नैमिषारण्य, ब्रह्मारण्य और धर्मारण्य), भूलोक आदि सातों भूवन (भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य) सभी मेरे प्रभात को मंगलमय करें। पृथ्वी सगंधा सरसास्तापथाप: स्पर्शी च वायु ज्वर्लनम च तेज: नभ: सशब्दम महता सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम॥ ६॥ भावार्थ अपने गुणरूपी गंध से युक्त पृथ्वी, रस से युक्त जल, स्पर्श से युक्त वायु, ज्वलनशील तेज, तथा शब्द रूपी गुण से युक्त आकाश महत् तत्व बुद्धि के साथ मेरे प्रभात को मंगलमय करें अर्थात पांचों बुद्धि-तत्व कल्याण हों। प्रातः स्मरणमेतद यो विदित्वाssदरत: पठेत। स सम्यग धर्मनिष्ठ: स्यात् संस्मृताsअखंड भारत:॥७॥ भावार्थ इन श्लोको का प्रातः स्मरण भली प्रकार से ज्ञान करके आदरपूर्वक पढ़ना चाहिए। ठीक-ठीक धर्म में निष्ठा रखकर अखण्ड भारत का स्मरण करना चाहिए। आपको बता दें इस शास्त्रीय मान्यता के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथ्य भी हैं.. जैसे कि उठते ही जमीन में पैर रखने से सेहत पर बुरा असर पड़ता है.. इसलिए जागने के साथ ही सीधे अपने पैर जमीन में नहीं रखना चाहिए.. इसकी वजह ये है कि जब हम सुबह के समय उठते हैं तो हमारे शरीर का तापमान और कमरे के तापमान में बहुत अंतर होता है। ऐसे में अगर हम उठते ही अपने गर्म पैर ठंडी जमीन पर रख देंगे तो इससे सेहत को नुकसान हो सकता है और सर्दी-जुकाम जैसी समस्या हो सकती है। इसीलिए सुबह उठने के बाद तुरंत बिस्तर से उतरने की बजाए कुछ देर बर बिस्तर पर ही बैठने की सलाह दी जाती है जिससे कि आपके शरीर का तापमान सामान्य हो सके और फिर जमीन पर पैर रखें । इसके साथ ही शास्त्रों में पूरे दिन को बेहतर बनाने के लिए सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठने की सलाह दी गई। ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय से ठीक पहले का समय होता है और अगर आपके लिए ये संभव ना हो तो अधिक से अधिक 6 से 7 बजे तक जरूर उठ जाना चाहिए। ऐसा करने से धर्म लाभ के साथ ही स्वास्थ्य लाभ मिलता है।धर्म लाभ की बात करें तो देवी-देवता इस काल में विचरण कर रहे होते हैं और इस समय सत्व गुणों की प्रधानता रहती है.. इसीलिए प्रमुख मंदिरों के द्वार भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल जाते हैं और भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाते है। इसलिए अगर आप इस उठकर स्नान ध्यान कर लेत हैं तो आप इस समय दिव्य वातावरण का लाभ उठा पाते हैं। वहीं अगर स्वास्थ्य लाभ की बात करें तो ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। विज्ञान भी कहता है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायुमंडल प्रदूषणरहित होता है और इसी वक्त वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा सबसे अधिक होती है, जो कि फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है।साथ ही ऐसी शुद्ध वायु से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है। इसीलिए शास्त्रों में ब्रह्म मुहूर्त में बहने वाली वायु को अमृततुल्य माना गया है और कहा गया है कि ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
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