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जय श्री कृष्ण घर पर रहे-सुरक्षित रहे
🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸 ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼ 🚩 *"सनातन परिवार"* 🚩 *की प्रस्तुति* 🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴 🚩 *" शारदीय नवरात्रि " पर विशेष* 🚩 🌻☘🌻☘🌻☘🌻☘🌻☘🌻 *इस सृष्टि का मूल कही जाने वाली नारी के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करते हुए हम नवरात्र के पाँचवे दिन में प्रवेश कर गये हैं | नवरात्र का पाँचवा दिन भगवती "स्कन्दमाता" को समर्पित है | नवरात्रि की नौ देवियों में ही नारी का सम्पूर्ण जीवन निहित है | गर्भधारण करके जो "कूष्माण्डा" कहलाती है वही पुत्र को जन्म देकर "स्कन्दमाता" हो जाती है , जो मातृत्व का अवतार है | लोग बहुत प्रेम से माता स्कन्दमाता का पूजन करके सुख - समृद्धि की कामना करता है | माता वह शब्द है जिसके बिना संसार की परिकल्पना करना ही व्यर्थ है | एक मां अपने पुत्र को गर्भधारण करने से लेकर जन्म देने तक कितने कष्ट उठाती है यह एक माँ ही समझ सकती है | फिर पुत्र का लालन पालन करना भी किसी तपस्या से कम नहीं होता | एक माँ की सबसे बड़ी कामना होती है कि वह अपने पुत्र का विवाह करे और एक चाँद सी बहू घर में पदार्पण करे | वह शुभ समय जब उसके जीवन में आता है तो स्वयं को धन्य मानती है और बड़े हर्षोल्लास से बहू का स्वागत करती है, आरती उतारकर घर में प्रवेश कराती है | परन्तु माँ के स्वप्नों पर तुषारापात तब होता है जब वही बहू उसे कुछ भी नहीं समझती और बात बात में झगड़ने लगने लगती है | और एक माँ स्वयं को तब मरा हुआ मान लेती जब उसका वह पुत्र (जिसके लिए उसने रात रात भर जाग व्यतीत किया होता है ) भी पत्नी की ही बात मानकर अपने माँ का ही दोष देने लगता है | और फिर प्रारम्भ होता है एक माँ का नारकीय जीवन | पग पग पर तिरस्कृत होती हुई भी वह अपने पुत्र के लिए मंगलकामना ही करती रहती है | कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि, कुमाता न भवति" ---- पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माता कभी कुमाता नहीं होती है |* *आज भी यदि समाज में दृष्टि दौड़ाई जाय तो यही देखने को मिलता है कि पुत्र कितना भी कष्ट दे , अपमान करे परन्तु माता कभी अपने पुत्र का अनिष्ट सोंच भी नहीं सकती है | एक दिन ऐसा भी आता है जब बहू कह देती है कि मैं इनके साथ नहीं रह पाऊँगी , और पुत्र माँ को वृद्धाश्रम पहुँचा देता है | वह मूर्ख यह भी नहीं सोंच पाता कि यही वह शक्ति है जिसकी तपस्या स्वरूप उसने इस संसार का दर्शन पाया है | अपनी माता को घर से निष्कासित करके वह जब मन्दिर पहुँचकर "स्कन्दमाता" का पूजन करता है तो उसकी मूर्खता पर अनायास हंसी ही लगती है | लोग कहते हैं कि माँ के चरणों के नीचे स्वर्ग होता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" पूंछना चाहता हूँ कि अपने स्वर्ग जाने के स्रोत को तिरस्कृत करके जब मनुष्य स्कन्दमाता का पूजन करके स्वर्ग की कामना करता है तो सोंचो कि भगवती आपकी कितनी विनती स्वीकार करेंगी | आप उन्ही के अंश मातृशक्ति को अनदेखा करके उन्हीं से कृपा की कामना करेंगे तो क्या वह आपकी कामना पूरी करेंगी ?? कदापि नहीं | क्योंकि जब एक माँ के हृदय में आपने शूल चुभा दिया तो वह शूल सीधा आदिशक्ति भवानी के ही हृदय को भेदता है | फिर सुख कहाँ से पाओगे | यदि माँ स्कन्दमाता की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको सबसे पहले अपनी माँ का सम्मान करना होगा | यदि वह कराहती रहे और आप उसे एक सूखी रोटी न देकर भगवती को पंचमेवे -मिष्ठान्नों का भोग लगायेंगे तो माँ प्रसन्न न होकरके आप पर कुपित ही होगी |* *अत: प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि अपनी जन्मदात्री माँ की पूजा न कर पायें तो सम्मान तो कर ही सकते हैं , यह संकल्प आज सबको लेना ही पड़ेगा अन्यथा पूजन करना व्यर्थ ही है |* 🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺 🔥🌳🔥🌳🔥🌳🔥🌳🔥🌳🔥 सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना*🙏🏻🙏🏻🌹 ♻🏵♻🏵♻🏵♻🏵♻🏵♻️ *सनातन धर्म से जुड़े किसी भी विषय पर चर्चा (सतसंग) करने के लिए हमारे व्हाट्सऐप समूह----* *‼ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼ से जुड़ें या सम्पर्क करें---* आचार्य अर्जुन तिवारी प्रवक्ता श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा संरक्षक संकटमोचन हनुमानमंदिर बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी (उत्तर-प्रदेश) 9935328830 🍀🌟🍀🌟🍀🌟🍀🌟🍀🌟🍀 #🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🙏देवी स्कंदमाता 🪔
🙏शुभ नवरात्रि💐 - नवरात्रिटत्सव" या देवी सर्वभूतेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || 27/9/25 शूभशनिवार मातादी জ সাপ যমীকী शारदीय नवरात्रि पर माँ आदिशक्ति के षष्ठम् स्वरुप ೮ಗೆ कुॉत्यायनी पूजन दिवस ` delicocjlbud eeteploioil" संकट कटे मिटे सब पीरा जो सुमिरे हनुमत बलबीरा। | । | जय हनुमान जी | | नवरात्रिटत्सव" या देवी सर्वभूतेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || 27/9/25 शूभशनिवार मातादी জ সাপ যমীকী शारदीय नवरात्रि पर माँ आदिशक्ति के षष्ठम् स्वरुप ೮ಗೆ कुॉत्यायनी पूजन दिवस ` delicocjlbud eeteploioil" संकट कटे मिटे सब पीरा जो सुमिरे हनुमत बलबीरा। | । | जय हनुमान जी | | - ShareChat
प्रभु श्री राम की शरण में जाते हुए आकाश मार्ग में विभीषण मन में मनोरथ कर रहा है कि मुझ अपात्र को भी प्रभु की अकारण कृपा वश आज उन दिव्य चरणों के दर्शन प्राप्त होंगे जिनकी महिमा अपरंपार है, जो भरत जी बिना राम जी को साथ लिए वापस अयोध्या कभी नहीं लौटते वो भी प्रभु के चरणों के स्पर्श से पवित्र हुई चरण पादुकाओं को अपने मस्तक पर विराजमान करके वापस लौट गए व अपने हृदय में प्रभु के चरणकमलों की छवि को स्थायी रूप से बसा लिया। । राम राम जी। ##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
#सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - दोहा जिन्ह पापन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ। ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नपनन्हि अब जाइ | I४२ | |  जिन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी लगा रखा से देखूँगा | I४२ ।। जाकर इन नेत्रों  सदरकाण्द  दोहा जिन्ह पापन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ। ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नपनन्हि अब जाइ | I४२ | |  जिन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी लगा रखा से देखूँगा | I४२ ।। जाकर इन नेत्रों  सदरकाण्द - ShareChat
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸 -------------------------------- 🙏 जय श्री कृष्ण 🙏 -------------------------------- ---*⚜*--- रोहिणी पञ्चवर्षा च षड्‌वर्षा कालिका स्मृत। कालिकां शत्रुनाशार्थं पूजयेद्‌भक्तिपूर्वकम्। रोहिणीं रोगनाशाय पूजयेद्विधिवन्नरः।। देवीभागवत ३/२६/४२,४८,५१ "नवरात्र में कन्यापूजन में पाँच वर्ष की कन्या 'रोहिणी' कहलाती है, रोग नाश के निमित्त रोहिणी की विधिवत आराधना करनी चाहिए। छः वर्ष की 'कालिका' कहलाती है, शत्रुओं का नाश करने के लिए भक्ति पूर्वक 'कालिका' कन्या का पूजन करना चाहिए ।" ---*⚜*--- सुखिना राम कर्तव्यं नवरात्रव्रतं शुभम् । विशेषेण च कर्तव्यं पुंसा कष्टगतेन वै ।। देवीभागवत ०३/३०/२२ ‘‘नारदजी श्रीरामजी से कहते है- सुखी मनुष्य को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये और कष्ट में पडे हुए मनुष्य को तो यह व्रत विशेष रूप से करना चाहिये ।‘‘ ---*⚜*--- 🙏 जय माता दी 🙏 ०००००००००००००००० 🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸 #🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #🕉️सनातन धर्म🚩
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#🙏शुभ नवरात्रि💐 #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏देवी स्कंदमाता 🪔 #🙏देवी कुष्मांडा ⭐ श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण) (पंचमोध्याय) ।।ॐ नमश्चण्डिकायै।। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ पञ्चमोऽध्यायः देवताओं द्वारा देवी की स्तुति, चण्ड-मुण्ड के मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना विनियोगः ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रुद्र ऋषि:, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप् छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्, महासरस्वती प्रीत्यर्थे उत्तरचरित्र पाठे विनियोगः। ॐ इस उत्तरचरित्र के रुद्र ऋषि हैं, महासरस्वती देवता हैं, अनुष्टुप् छन्द है, भीमा शक्ति है, भ्रामरी बीज है, सूर्य त्त्व है और सामवेद स्वरूप है। महासरस्वती की प्रसन्नता के लिये उत्तरचरित्र के पाठ में इसका विनियोग किया जाता है। ध्यानम् ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्। गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा- पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम् ॥ जो अपने करकमलों में घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र,धनुष और बाण धारण करती हैं, शरद्ऋतु के शोभासम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली हैं तथा गौरी के शरीर से जिनका प्राकट्य हुआ है, उन महासरस्वती देवी का मैं निरन्तर भजन करता हूँ। ॐ क्लीं' ऋषिरुवाच॥ १॥ ऋषि कहते हैं-॥ १ ॥ पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः । त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात्॥ २॥ पूर्वकालमें शुम्भ और निशुम्भ नामक असुर ने अपने बल के घमंड में आकर शचीपति इन्द्र के हाथ से तीनों लोकों का राज्य और यज्ञभाग छीन लिये॥ २ ॥ तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम् कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥ ३॥ तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वहिनकर्म च * । ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिता:॥ ४ ॥ हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः। महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम् ॥ ५ ॥ तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः । भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः ॥ ६॥ वे ही दोनों सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, यम और वरुण के अधिकार का भी उपयोग करने लगे। वायु और अग्नि का कार्य भी वे ही करने लगे। उन दोनों ने सब देवताओं को अपमानित, राज्यभ्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन करके स्वर्ग से निकाल दिया। उन दोनों महान् असुरों से तिरस्कृत देवताओं ने अपराजिता देवी का स्मरण किया और सोचा-'जगदम्बा ने हम- लोगों को वर दिया था कि आपत्तिकाल में स्मरण करने पर मैं तुम्हारी सब आपत्तियों का तत्काल नाश कर दूँगी'॥ ३- ६ ॥ इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्वरम् । जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥ ७॥ यह विचारकर देवता गिरिराज हिमालयपर गये और वहाँ भगवती विष्णुमायाकी स्तुति करने लगे॥ ७ ॥ देवा ऊचुः॥ ८॥ देवता बोले-॥८॥ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः । नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्म ताम् ॥ ९ ॥ देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हम लोग नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते हैं॥ ९॥ रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः । ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥ १०॥ रौद्रा को नमस्कार है । नित्या, गौरी एवं धात्री को बारंबार नमस्कार है। ज्योत्स्नामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है॥ १० ॥ कल्याण्यै प्रणतां * वृद्धयै सिद्ध्यै कुर्मों नमो नमः । नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥ ११ ॥ शरणागतों का कल्याण करने वाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को हम बारंबार नमस्कार करते हैं । नैर्रती (राक्षसों की लक्ष्मी), राजाओं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी) -स्वरूपा आप जगदम्बा को बार-बार नमस्कार है॥ ११ ॥ दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै । दन्दी ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥ १२ ॥ दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट से पार उतारने वाली), सारा (सब की सारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रादेवी को सर्वदा नमस्कार है ॥ १२ ॥ अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः । नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥ १३॥ अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा देवीको हम नमस्कार करते हैं, उन्हें हमारा बारंबार प्रणाम है। जगत् की आधारभूता कृतिदेवी को बारंबार नमस्कार है ॥ १३ ॥ या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता। नमस्तस्यै॥१४॥ नमस्तस्यै ॥१५ ॥नमस्तस्यै नमो नमः ॥ १६ ॥ जो देवी सब प्राणियों में विष्णुमाया के नाम से कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ १४-१६॥ या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते। नमस्तस्यै॥ १७॥ नमस्तस्यै ॥ १८ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ १९ ॥ जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ १७- १९॥ या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै॥ २० ॥ नमस्तस्यै ॥ २१ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ २२ ॥ जो देवी सब प्राणियों में बुद्धि रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ २०-२२॥ या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥ २३ ॥ नमस्तस्यै ॥ २४ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ २५ ॥ जो देवी सब प्राणियों में निद्रारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ २३- २५ ॥ या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै ॥ २६ ॥ नमस्तस्यै। ॥ २७ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ २८ ॥ जो देवी सब प्राणियों में क्षुधारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ २६-२८॥ देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै ॥ २९ ॥ नमस्तस्यै ॥ ३० ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ३१ ॥ जो देवी सब प्राणियों में छायारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ॥ २९- ३१ ॥ देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै ॥ ३२ ॥ नमस्तस्यै॥ ३३ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ३४॥ जो देवी सब प्राणियों में शक्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ३२- ३४॥ देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥ ३५ ॥ नमस्तस्यै ॥ ३६ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ३७ ॥ जो देवी सब प्राणियों में तृष्णारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ॥ ३५-३७ ॥ या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥ ३८॥ नमस्तस्यै॥ ३९॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ४० ॥ जो देवी सब प्राणियों में क्षान्ति (क्षमा)-रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ३८-४०॥ या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै॥ ४१ ॥ नमस्तस्यै ॥ ४२ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ४३ ॥ जो देवी सब प्राणियों में जातिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥४१-४३॥ या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै॥४४॥ नमस्तस्यै ॥ ४५ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ४६ ॥ जो देवी सब प्राणियों में लज्जारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ४४-४६॥ या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै॥४७ ॥ नमस्तस्यै ॥ ४८ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ४९ ॥ जो देवी सब प्राणियों में शान्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ४७-४९ ॥ या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥५०॥ नमस्तस्यै ॥ ५१ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५२ ॥ जो देवी सब प्राणियों में श्रद्धारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ॥ ५०- ५२॥ या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै॥ ५३॥ नमस्तस्यै ॥ ५४ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५५॥ जो देवी सब प्राणियों में कान्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ५३-५५॥ या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै॥५६॥ नमस्तस्यै॥ ५७॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५८ ॥ जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मीरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ॥ ५६-५८॥ या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥ ५९॥ नमस्तस्यै ॥ ६० ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ६१ ॥ जो देवी सब प्राणियों में वृत्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ५९-६१॥ या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥ ६२॥ नमस्तस्यै ॥ ६३ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ६४ ॥ जो देवी सब प्राणियों में स्मृतिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ६२-६४॥ देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥ ६५॥ नमस्तस्यै ॥ ६६ ॥नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ६७॥ जो देवी सब प्राणियों में दयारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ॥ ६५ -६७॥ देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥ ६८ ॥ नमस्तस्यै ॥ ६९ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ७० ॥ जो देवी सब प्राणियों में तुष्टिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ६८-७० ॥ या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै॥ ७१ ॥ नमस्तस्यै ॥ ७२ ॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ७३ ॥ जो देवी सब प्राणियों में मातारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ७१- ७३ ॥ या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै ॥ ७४॥ नमस्तस्यै ॥ ७५॥ नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ७६॥ जो देवी सब प्राणियों में भ्रान्तिरूप से स्थित हैं,उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ७४-७६॥ इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः ॥ ७७ ॥ जो जीवों के इन्द्रियवर्ग की अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियों में सदा व्याप्त रहने वाली हैं, उन व्याप्ति देवी को बारंबार नमस्कार है॥ ७७ ॥ चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत् । नमस्तस्यै ॥ ७८॥नमस्तस्यै ॥ ७९ ॥नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ८० ॥ जो देवी चैतन्य रूप से इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥ ७८- ८०॥ स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रया- त्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता। करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ॥ ८१॥ पूर्वकाल में अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्रने बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मंगल करे तथा सारी आपत्तियोंका नाश कर डाले ॥ ८१ ॥ या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै- रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते। या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥८२॥ उद्दण्ड दैत्यों से सताये हुए हम सभी देवता जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति से विनम्र पुरुषों द्वारा स्मरण की जानेपर तत्काल ही सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें ॥ ८२ ॥ ऋषिरुवाच॥ ८३॥ ऋषि कहते हैं॥ ८३ ॥ एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती। स्नातुमभ्याययौ तोये जाहनव्या नृपनन्दन॥ ८४॥ राजन्! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वतीदेवी गंगाजीके जलमें स्नान करनेके लिये वहाँ आयीं॥ ८४॥ साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्धिः स्तूयतेऽत्र का। शरीरकोशतश्चास्याः समुद्धूताब्रवीच्छिवा ॥ ८५॥ उन सुन्दर भौंहों वाली भगवती ने देवताओं से पूछा- ' आपलोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं?' तब उन्हींके शरीरकोश से प्रकट हुई शिवादेवी बोलीं- ॥८५॥ स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः। देवैः समेतै:' समरे निशुम्भेन पराजितैः॥ ८६॥ 'शुम्भ दैत्य से तिरस्कृत और युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता यह मेरी ही स्तुति कर रहे हैं'॥ ८६ ॥ शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या नि:सृताम्बिका। कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते ॥ ८७ ॥ पार्वतीजी के शरीरकोश से अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिये वे समस्त लोकों में 'कौशिकी' कही जाती हैं॥ ८७ ॥ तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती। कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥ ८८॥ कौशिकी के प्रकट होने के बाद पार्वतीदेवी का शरीर काले रंग का हो गया, अत: वे हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से विख्यात हुईं॥ ८८ ॥ ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम् । ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ८९॥ तदनन्तर शुम्भ-निशुम्भ के भृत्य चण्ड-मुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप धारण करने वाली अम्बिकादेवी को देखा ॥ ८९ ॥ ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा। काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम् ॥ ९० ॥ फिर वे शुम्भ के पास जाकरबोले-'महाराज! एक अत्यन्त मनोहर स्त्री है, जो अपनी दिव्य कान्ति से हिमालय को प्रकाशित कर रही है । ९० ॥ नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम् । ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर ॥ ९१॥ वैसा उत्तम रूप कहीं किसी ने भी नहीं देखा होगा। असुरेश्वर! पता लगाइये, वह देवी कौन है और उसे ले लीजिये ॥ ९१ ॥ स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा। सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति ॥ ९२ ॥ स्त्रियों में तो वह रत्न है, उसका प्रत्येक अंग बहुत ही सुन्दर है तथा वह अपने श्रीअंगों की प्रभा से सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फैला रही है । दैत्यराज ! अभी वह हिमालय-पर ही मौजूद है, आप उसे देख सकते हैं ॥ ९२ ॥ यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो। त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥ ९३ ॥ प्रभो ! तीनों लोकों में मणि, हाथी और घोड़े आदि जितने भी रत्न हैं, वे सब इस समय आपके घर में शोभा पाते हैं॥ ९३ ॥ ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्। पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः ॥ ९४॥ हाथियों में रत्नभूत ऐरावत यह पारिजात का वृक्ष और यह उच्चै:श्रवा घोड़ा-यह सब आपने इन्द्र से ले लिया है॥ ९४॥ विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे। रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसो ऽद्भुतम् ॥ ९५॥ हंसों से जुता हुआ यह विमान भी आपके आगनमें शोभा पाता है। यह रत्नभूत अद्भुत विमान, जो पहले ब्रह्माजी के पास था, अब आपके यहाँ लाया गया है॥ ९५ ॥ निधिरेष महापद्म: समानीतो धनेश्वरात् । किञ्जल्किनीं दरदौ चाब्धिमर्मालामम्लानपङ्कजाम् ॥ ९६॥ यह महापद्म नामक निधि आप कुबेर से छीन लाये हैं। समुद्र ने भी आपको किंजल्किनी नाम की माला भेंट की है, जो केसरों से सुशोभित है और जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं ॥ ९६ ॥ छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्त्रावि तिष्ठति। तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः ॥ ९७ ॥ सुवर्ण की वर्षा करने वाला वरुण का छत्र भी आपके घर में शोभा पाता है तथा यह श्रेष्ठ रथ, जो पहले प्रजापति के अधिकारमें था, अब आपके पास मौजूद है ॥ ९७ ॥ मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता। पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥ ९८ ॥ निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः । वहिनरपि ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी ॥ ९९ ॥ दैत्येश्वर! मृत्यु की उत्क्रान्तिदा नामवाली शक्ति भी आपने छीन ली है तथा वरुण का पाश और समुद्र में होने वाले सब प्रकार के रत्न आपके भाई निशुम्भ के अधिकार में हैं। अग्नि ने भी स्वत: शुद्ध किये हुए दो वस्त्र आपकी सेवा में अर्पित किये हैं॥ ९८-९९ ॥ एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते । स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥ १०० ॥ दैत्यराज ! इस प्रकार सभी रत्न आपने एकत्र कर लिये हैं। फिर जो यह स्त्रियों में रत्नरूप कल्याणमयी देवी है, इसे आप क्यों नहीं अपने अधिकार में कर लेते ?' ॥ १०० ॥ ऋषिरुवाच॥ १०१ ॥ ऋषि कहते हैं-॥ १०१ ॥ निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः। प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्' ॥ १०२॥ इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम। यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु॥ १०३ ॥ चण्ड-मुण्ड का यह वचन सुनकर शुम्भ ने महादैत्य सुग्रीव को दूत बनाकर देवी के पास भेजा और कहा- 'तुम मेरी आज्ञा से उसके सामने ये-ये बातें कहना और ऐसा उपाय करना, जिससे प्रसन्न होकर वह शीघ्र ही यहाँ आ जाय' ॥ १०२-१०३ ॥ स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने । सा देवी तां ततः प्राह श्लक्ष्णं मधुरया गिरा॥ १०४॥ वह दूत पर्वत के अत्यन्त रमणीय प्रदेश में, जहाँ देवी मौजूद थीं, गया और मधुर वाणी में कोमल वचन बोला।॥ १०४॥ दूत उवाच॥ १०५ ॥ दूत बोला-॥ १०५ ॥ देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः । दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः ॥ १०६ ॥ देवि! दैत्यराज शुम्भ इस समय तीनों लोकों के परमेश्वर हैं। मैं उन्हींका भेजा हुआ दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ॥ १०६ ॥ अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु। निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह शृणुष्व तत् । १०७॥ उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वरसे मानते हैं। कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। वे सम्पूर्ण देवताओं को परास्त कर चुके हैं। उन्होंने तुम्हारे लिये जो संदेश दिया है, उसे सुनो- ॥ १०७॥ मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः। यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक् ॥ १०८ ॥ 'सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरेअधिकारमें है। देवता भी मेरी आज्ञा के अधीन चलते हैं । सम्पूर्ण यज्ञों के भागों को मैं ही पृथक्-पृथक् भोगता हूँ॥ १०८॥ त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः । तथैव गजरत्नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम् ॥ १०९॥ तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं, वे सब मेरे अधिकार में हैं। देवराज इन्द्र का वाहन ऐरावत, जो हाथियों में रत्न के समान है, मैंने छीन लिया है॥ १०९ ॥ क्षीरोदमथनोद्धूतमश्वरत्ं ममामरैः । उच्चै: श्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम् ॥ ११० ॥ क्षीरसागर का मन्थन करने से जो अश्वरत्न उच्चै:श्रवा प्रकट हुआ था, उसे देवताओं ने मेरे पैरों पर पड़कर समर्पित किया है॥ ११० ॥ यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च। रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने ॥ १११॥ सुन्दरी! उनके सिवा और भी जितने रत्नभूत पदार्थ देवताओं, गन्धर्वों और नागों के पास थे, वे सब मेरे ही पास आ गये हैं ॥ १११ ॥ स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम् | सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजों वयम् ॥ ११२॥ देवि! हमलोग तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानते हैं, अत: तुम हमारे पास आ जाओ; क्योंकि रत्नों का उपभोग करने वाले हम ही हैं ॥ ११२ ॥ मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्। भज त्वं चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः ॥ ११३॥ चंचल कटाक्षों वाली सुन्दरी! तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवामें आ जाओ; क्योंकि तुम रत्नस्वरूपा हो ॥ ११३ ॥ परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्। एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥ ११४॥ मेरा वरण करने से तुम्हें तुलनारहित महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी। अपनी बुद्धि से यह विचारकर तुम मेरी पत्नी बन जाओ'॥ ११४॥ ऋषिरुवाच॥ ११५ ॥ ऋषि कहते हैं- ॥ ११५ ॥ इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्त:स्मिता जगौ। दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत् ॥ ११६॥ दूत के यों कहने पर कल्याणमयी भगवती दुर्गादेवी, जो इस जगत् को धारण करती हैं, मन-ही-मन गम्भीरभाव से मुसकरायीं और इस प्रकार बोलीं- ॥ ११६ ॥ देव्युवाच॥ ११७॥ देवीने कहा-॥ ११७॥ सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम् । त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः॥ ११८ ॥ दूत! तुमने सत्य कहा है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। शुम्भ तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसी के समान पराक्रमी है॥११८ ॥ किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्। श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥ ११९॥ किंतु इस विषय में मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे मिथ्या कैसे करूँ? मैंने अपनी अल्पबुद्धि के कारण पहले से जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे सुनो- ॥ ११९॥ यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति । यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति ॥ १२० ॥ 'जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, जो मेरे अभिमान को चूर्ण कर देगा तथा संसार में जो मेरे समान बलवान् होगा, वही मेरा स्वामी होगा'॥ १२० ॥ तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः। मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणि गृह्णतु मे लघु।। १२१ ॥ इसलिये शुम्भ अथवा महादैत्य निशुम्भ स्वयं ही यहाँ पधारें और मुझे जीतकर शीघ्र ही मेरा पाणिग्रहण कर लें, इसमें विलम्ब की क्या आवश्यकता है?॥ १२१ ॥ दूत उवाच॥ १२२॥ दूत बोला-॥ १२२ ॥ अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रुहि ममाग्रतः । त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः ॥ १२३॥। देवि! तुम घमंड में भरी हो, मेरे सामने ऐसी बातें न करो। तीनों लोकों में कौन ऐसा पुरुष है, जो शुम्भ-निशुम्भ के सामने खड़ा हो सके॥ १२३ ॥ अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि। तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका।॥ १२४ ॥ देवि! अन्य दैत्योंके सामने भी सारे देवता युद्धमें नहीं ठहर सकते, फिर तुम अकेली स्त्री होकर कैसे ठहर सकती हो ॥ १२४॥ इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे। शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम् ॥ १२५॥ जिन शुम्भ आदि दैत्यों के सामने इन्द्र आदि सब देवता भी युद्ध में खड़े नहीं हुए, उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाओगी॥ १२५ ॥ सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पाश्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः । केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि ॥ १२६॥ इसलिये तुम मेरे ही कहने से शुम्भ-निशुम्भ के पास चली चलो। ऐसा करनेसे तुम्हारे गौरव की रक्षा होगी; अन्यथा जब वे केश पकड़कर घसीटेंगे, तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा ॥ १२६ ॥ देव्युवाच॥ १२७॥ देवीने कहा-॥ १२७॥ एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चातिवीर्यवान्। किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा ॥ १२८ ॥ तुम्हारा कहना ठीक है, शुम्भ बलवान् हैं और निशुम्भ भी बड़े पराक्रमी हैं; किंतु क्या करूँ? मैंने पहले बिना सोचे समझे प्रतिज्ञा कर ली है॥ १२८ ॥ स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः। तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु त् * ॥ ॐ ॥ १२९॥ अत: अब तुम जाओ; मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब दैत्यराज से आदरपूर्वक कहना। फिर वे जो उचित जान पड़े, करें ॥ १२९ ॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥ ५॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'देवी-दूत-संवाद' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।॥ ५॥ क्रमशः.... अगले लेख में षष्ठ अध्याय जय माता जी की। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
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#🙏शुभ नवरात्रि💐 #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏जय माता दी📿 #🙏देवी स्कंदमाता 🪔 #🙏देवी कुष्मांडा ⭐ श्री दुर्गा सप्तशती भाषा 〰️〰️🔸〰️🔸〰️〰️ (हिन्दी पाठ) पाँचवा अध्याय 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ ऊँ नमश्चण्डिकायै नम: अथः ध्यानम घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम् । गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा- पूर्वामत्रसरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम् ।। (देवताओं द्वारा देवी की स्तुति) महर्षि मेधा ने कहा-पूर्वकाल में शुम्भ निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के मद से इन्द्र का त्रिलोकी का राज्य और यज्ञों के भाग छीन लिये और वह दोनों इसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, धर्मराज और वरुण के अधिकार भी छीन कर स्वयं ही उनका उपयोग करने लगे। वायु और अग्नि का कार्य भी वही करने लगे और इसके पश्चात उन्होंने जिन देवताओं का राज्य छीना था, उनको अपने-अपने स्थान से निकाल दिया। इस तरह से अधिकार छिने हुए दैत्यों तथा दैत्यों द्वारा निकाले हुए देवता अपराजिता देवी का स्मरण करने लगे कि देवी ने हमको वर दिया था कि मैं तुम्हारी सम्पूर्ण विपत्तियों को नष्ट कर के रक्षा करूँगी। ऎसा विचार कर सब देवता हिमालय पर गये और भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे। देवताओं ने कहा-देवी को नमस्कार है, शिव को नमस्कार है। प्रकृति और भद्रा को नमस्कार है। हम लोग रौद्र, नित्या और गौरी को नमस्कार करते हैं। ज्योत्सनामयी, चन्द्ररूपिणी व सुख रूपा देवी को निरन्तर नमस्कार है, शरणागतों का कल्याण करने वाली, वृद्धि और सिद्धिरूपा देवी को हम बार-2 नमस्कार करते हैं और नैरऋति, राजाओं की लक्ष्मी तथा सर्वाणी को नमस्कार है, दुर्गा को, दुर्ग स्थलों को पार करने वाली दुर्गपारा को, सारा, सर्वकारिणी, ख्याति कृष्ण और घूम्रदेवी को सदैव नमस्कार है। अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा को हम नमस्कार करते हैं। उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है। जगत की आधारभूत कृति देवी को बार-बार नमस्कार करते हैं। जिस देवी को प्राणीमात्र विष्णुमाया कहते हैं उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में चेतना कहलाती है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में निद्रा रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में क्षुधा रुप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में छाया रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है। जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में तृष्णा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शांति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में जातिरुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में लज्जा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है। जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में श्रद्धा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जजो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में कान्ति रूप से स्थित है, जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में वृत्ति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में स्मृति रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में दयारूप से स्थित है व, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में तुष्टि रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है। जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में मातृरुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में भ्रान्ति रुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य व्याप्त रहती है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी चैतन्य रूप से इस सम्पूर्ण संसार को व्याप्त कर के स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है। पूर्वकाल में देवताओं ने अपने अभीष्ट फल पाने के लिए जिसकी स्तुति की है और देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिसका सेवन किया है वह कल्याण की साधनाभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मंगल करे तथा सारी विपत्तियों को नष्ट कर डाले, असुरों के सताये हुए हम सम्पूर्ण देवता उस परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति पूर्वक स्मरण किए जाने पर तुरन्त ही सब विपत्तियों को नष्ट कर देती है वह जगदम्बा इस समय भी हमारा मंगल कर के हमारी समस्त विपत्तियों को दूर करें। महर्षि मेधा ने कहा-हे राजन्! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे तो उसी समय पार्वती देवी गंगा में स्नान करने के लिए आई, तब उनके शरीर से प्रकट होकर शिवादेवी बोली-शुम्भ दैत्य के द्वारा स्वर्ग से निकले हुए और निशुम्भ से हारे हुए यह देवता मेरी स्तुति कर रहे हैं। पार्वती के शरीर से अम्बिका निकली थी, इसलिए उसको सम्पूर्ण लोक में कौशिकी कहते हैं। कौशिकी के प्रकट होने के पश्चात पार्वती देवी के शरीर का रंग काला हो गया और वह हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से प्रसिद्ध हुई। फिर शुम्भ और निशुम्भ के दूत चण्डमुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप वाली अम्बिका देवी को देखा। फिर वह शुम्भ के पास जाकर बोले-महाराज! एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री हिमालय को प्रकाशित कर रही है, वैसा रंग रूप आज तक हमने किसी स्त्री में नहीं देखा, हे असुरेश्वर! आप यह पता लगाएँ कि वह कौन है और उसको ग्रहण कर ले। वह स्त्री स्त्रियों में रत्न है, वह अपनी कान्ति से दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई वहाँ स्थित है, इसलिए आपका उसको देखना उचित है। हे प्रभो! तीनों लोकों के हाथी, घोड़े और मणि इत्यादि जितने रत्न हैं वह सब इस समय आपके घर में शोभायमान हैं। हाथियों में रत्न रूप ऎरावत हाथी और उच्चैश्रवा नामक घोड़ा तो आप इन्द्र से ले आये हैं, हंसों द्वारा जुता हुआ विमान जो कि ब्रह्माजी के पास था, अब भी आपके पास है और यह महापद्म नामक खजाना आपने कुबेर से छीना है, समुद्र ने आपको सदा खिले हुए फूलों की किंजल्किनी नामक माला दी है, वरुण का कंचन की वर्षा करने वाला छत्र आपके पास है, रथों में श्रेष्ठ प्रजापति का रथ भी आपके पास ही है, हे दैत्येन्द्र! मृत्यु से उत्क्रांतिका नामक शक्ति भी आपने छीन ली है और वरुण का पाश भी आपके भ्राता निशुम्भ के अधिकार में है और जो अग्नि में न जल सकें, ऎसे दो वस्त्र भी अग्निदेव ने आपको दिये हैं। हे दैत्यराज! इस प्रकार सारी रत्नरूपी वस्तुएँ आप संग्रह कर चुके हैं तो फिर आप यह कल्याणकारी स्त्रियों में रत्नरूप अनुपम स्त्री आप क्यों नहीं ग्रहण करते? महर्षि मेधा बोले-चण्ड मुण्ड का यह वचन सुनकर शुम्भ ने विचारा कि सुग्रीव को अपना दूत बना कर देवी के पास भेजा जाये। प्रथम उसको सब कुछ समझा दिया और कहा कि वहाँ जाकर तुम उसको अच्छी तरह से समझाना और ऎसा उपाय करना जिससे वह प्रसन्न होकर तुरन्त मेरे पास चली आये, भली प्रकार समझाकर कहना। दूत सुग्रीव, पर्वत के उस रमणीय भाग में पहुँचा जहाँ देवी रहती थी। दूत ने कहा-हे देवी! दैत्यों का राजा शुम्भ जो इस समय तीनों लोकों का स्वामी है, मैं उसका दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ। सम्पूर्ण देवता उसकी आज्ञा एक स्वर से मानते हैं। अब जो कुछ उसने कहला भेजा है, वह सुनो। उसने कहा है, इस समय सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे वश में है और सम्पूर्ण यज्ञो के भाग को पृथक-पृथक मैं ही लेता हूँ और तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं वह सब मेरे पास हैं, देवराज इन्द्र का वाहन ऎरावत मेरे पास है जो मैंने छीन लिया है, उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा जो क्षीरसागर मंथन करने से प्रकट हुआ था उसे देवताओं ने मुझे समर्पित किया है। हे सुन्दरी! इनके अतिरिक्त और भी जो रत्न भूषण पदार्थ देवताओं के पास थे वह सब मेरे पास हैं। हे देवी! मैं तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानता हूँ क्योंकि रत्नों का उपभोग करने वाला मैं ही हूँ। हे चंचल कटा़ओं वाली सुन्दरी! अब यह मैं तुझ पर छोड़ता हूँ कि तू मेरे या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाये। यदि तू मुझे वरेगीतो तुझे अतुल महान ऎश्वर्य की प्राप्ति होगी, अत: तुम अपनी बुद्धि से यह विचार कर मेरे पास चली आओ। महर्षि मेधा ने कहा-दूत के ऎसा कहने पर सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने वाली भगवती दुर्गा मन ही मन मुस्कुराई और इस प्रकार कहने लगी। देवी ने कहा-हे दूत! तू जो कुछ कह रहा है वह सत्य है और इसमें किंचित्मात्र भी झूठ नहीं है शुम्भ इस समय तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसी की तरह पराक्रमी है किन्तु इसके संबंध में मैं जो प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ उसे मैं कैसे झुठला सकती हूँ? अत: तू, मैंने जो प्रतिज्ञा की है उसे सुन। जो मुझे युद्ध में जीत लेगा और मेरे अभिमान को खण्डित करेगा तथा बल में मेरे समान होगा, वही मेरा स्वामी होगा। इसलिए शुम्भ अथवा निशुम्भ यहाँ आवे और युद्ध में जीतकर मुझसे विवाह कर ले, इसमें भला देर की क्या आवश्यकता है! दूत ने कहा-हे देवी! तुम अभिमान में भरी हुई हो, मेरे सामने तुम ऎसी बात न करो। इस त्रिलोकी में मुझे तो ऎसा कोई दिखाई नहीं देता जो कि शुम्भ और निशुम्भ के सामने ठहर सके। हे देवी! जब अन्य देवताओं में से कोई शुम्भ व निशुम्भ के समान युद्ध में ठहर नहीं सकता तो तुम जैसी स्त्री उनके सामने रणभूमि में ठहर सकेगी? जिन शुम्भ आदि असुरों के सामने इन्द्र आदि देवता नहीं ठहर सके तो फिर तुम अकेली स्त्री उनके सामने कैसे ठहर सकेगी? अत: तुम मेरा कहना मानकर उनके पास चली जाओ नहीं तो जब वह तुम्हें केश पकड़कर घसीटते हुए ले जाएंगे तो तुम्हारा गौरव नष्ट हो जाएगा इसलिए मेरी बात मान लो। देवी ने कहा-जो कुछ तुमने कहा ठीक है। शुम्भ और निशुम्भ बड़े बलवान है लेकिन मैं क्या कर सकती हूँ क्योंकि मैं बिना विचारे प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ इसलिए तुम जाओ और मैंने जो कुछ भी कहा है वह सब आदरपूर्वक असुरेन्द्र से कह दो, इसके पश्चात जो वह उचित समझे करें। श्रीदुर्गा सप्तशती पाँचवा अध्याय समाप्त साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
🙏शुभ नवरात्रि💐 - सप्तशती भाषा 91 दुर्गा (हिन्दी पाठ) पाँचवा अध्याय सप्तशती भाषा 91 दुर्गा (हिन्दी पाठ) पाँचवा अध्याय - ShareChat
🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸 ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼ 🚩 *"सनातन परिवार"* 🚩 *की प्रस्तुति* 🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴 🚩 *" शारदीय नवरात्रि " पर विशेष* 🚩 🌻☘🌻☘🌻☘🌻☘🌻☘🌻 *सनातन धर्म ने नारी को सदैव सृष्टि का मूल माना है क्योंकि नारी के बिना सृष्टि की संकल्पना ही नहीं की जा सकती | एक नारी अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कई रूप धारण करती है उनके इन स्वरूपों का अवलोकन करने के लिए नवरात्र की नौ देवियों का दर्शन एवं मनन करने की आवश्यकता है | जहाँ प्रथम तीन दिन में शैलपुत्री , ब्रह्मचारिणी एवं चन्द्रघण्टा के दिव्य स्वरूप का दर्शन होता है वहीं नवरात्र के चतुर्थ दिवस महामाया कूष्माण्डा का पूजन किया जाता है | "कूष्माण्डेति चतुर्थकम्" | कूष्माण्डा का अर्थ है :-- कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा – त्रिविधतापयुतः संसारः, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्याः स कूष्माण्डा – अर्थात् :- त्रिविध तापयुक्त संसार जिनके उदर में स्थित है वे देवी कूष्माण्डा कहलाती हैं | सृष्टि के सबसे ज्वलनशील सूर्य ग्रह के अंतस्थल में निवास करने वाली महामाया का नाम कूष्माण्डा है , जिसका अर्थ है कि :- जिनके स्मित हास्य से ब्रहाण्ड की उत्पत्ति हुई है वही है - "कूष्माण्डा" | ऐसा पुराणों का मानना है कि जब सृष्टि नहीं थी चारों ओर अंधकार व्याप्त था महामाया कूष्माण्डा ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी इसीलिए इनको आदि स्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है | प्रथम स्वरूप "शैलपुत्री" के बाद विकासक्रम में "ब्रह्मचारिणी" एवं "चन्द्रघण्टा" के बाद महामाया के चौथे स्वरूप "कूष्माण्डा" का पूजन करने का अर्थ यही है कि बिना कूष्माण्डा माँ के सृष्टि की कल्पना करना ही व्यर्थ है | क्योंकि बिना इनकी कृपा से प्रजनन नहीं हो सकता इसी विशेषता के कारण महामाया को जगतजननी कहा जाता है | अष्टभुजा धारी कूष्माण्डा माता के दाहिने प्रथम हाथ में कुंभ (घड़ा) है जिसे महामाया ने अपनी कोख से लगा रखा है , यह गर्भावस्था का प्रतीक है | यह सिंह पर सवार शांत मुद्रा में रहने वाली भक्तवत्सला हैं |* *आज भी यदि लोग चाहें तो कूष्माण्डा माता का दर्शन कर सकते हैं | आवश्यकता है भावना की , विकृत मानसिकता से उबरने की | कूष्माण्डा का अर्थ हुआ जन्मदात्री | प्रत्येक नारी कन्यारूप में जन्म लेकर "शैलपुत्री" के रूप में जीवन प्रारम्भ करके विवाहोपरान्त गर्भधारण करके कूष्माण्डा माता के रूप में पूजनीय होती है | आज पुरुष समाज बड़े प्रेम से दुर्गापूजा महोत्सव में भागीदारी करता हुआ देखा जा सकता है परंतु घर में बैठी महालक्ष्मी का सम्मान नहीं कर पाता | विचार कीजिए कि यदि नारी गर्भ धारण न करे तो क्या परिवार या समाज वृद्धि कर सकता है ? परंतु आज पुरुष वर्ग स्वयं को श्रेष्ठ मानकर गर्भवती नारी का यथोचित सम्मान नहीं दे पाता है ! मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि जो लोग घर की नारी का सम्मान न करके उन्हें उपेक्षित या तिरस्कृत करते रहते हैं उनके द्वारा भगवती का पूजन किया जाय तो यह निश्चित है कि वह फलदायी नहीं हो सकता | नारी का सम्मान करने का अर्थ यह नहीं हुआ कि पुरुष अपनी पत्नी की सेवा करे ! नारी को उसका यथोचित स्थान एवं मान देना ही नारी का सम्मान है | यदि सूक्ष्मता से देखा जाय तो प्रत्येक नारी अपने जीवनकाल में भगवती के नौ रूपों को प्राप्त होती है | प्रत्येक मनुष्य को एक नारी कूष्माण्डा बनकर जन्म देती है | जीवन भर विभिन्न रूपों में पुरुष वर्ग को समर्पित रहने वाली नारी का दुर्भाग्य ही है वह पुरुष से हार जाती है | पुरुष वर्ग एक नारी पर शासन करके गौरवान्वित भले हो ले परंतु यह उसका गौरव नहीं कहा जा सकता | नारी सदैव से सम्माननीय रही है , नारी का सम्मान करना ही चाहिए |* *एक नारी जब तक कूष्माण्डा (गर्भ धारण करने वाली) नहीं बनती तब तक सृष्टि का सृजन नहीं हो सकता ! अत: नारी सम्मान करते रहें |* 🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺 🔥🌳🔥🌳🔥🌳🔥🌳🔥🌳🔥 सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना*🙏🏻🙏🏻🌹 ♻🏵♻🏵♻🏵♻🏵♻🏵♻️ *सनातन धर्म से जुड़े किसी भी विषय पर चर्चा (सतसंग) करने के लिए हमारे व्हाट्सऐप समूह----* *‼ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼ से जुड़ें या सम्पर्क करें---* आचार्य अर्जुन तिवारी प्रवक्ता श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा संरक्षक संकटमोचन हनुमानमंदिर बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी (उत्तर-प्रदेश) 9935328830 🍀🌟🍀🌟🍀🌟🍀🌟🍀🌟🍀 #स्कंदमाता
स्कंदमाता - शारदीय नवरात्रि - पांचवा दिन माँ स्कंदमाना बुद्धिमता की देवी माँ स्कंदमाता आपका कल्याण करें। Il ऊँ ऐंहींक्लीं स्कन्दमातायै नमः ।। owe शारदीय नवरात्रि - पांचवा दिन माँ स्कंदमाना बुद्धिमता की देवी माँ स्कंदमाता आपका कल्याण करें। Il ऊँ ऐंहींक्लीं स्कन्दमातायै नमः ।। owe - ShareChat
#स्कंदमाता 🪷 || माँ स्कंदमाता नमोऽस्‍तुते || 🪷 माँ स्कंदमाता का स्वरूप कल्याणकारी एवं अति प्रेरणा दायक है। नवरात्रि के पांचवे दिन माँ स्कन्दमाता की आराधना की जाती है। कार्तिकेय जी को ही स्कन्द जी के नाम से जाना जाता है इसी कारण माँ को स्कन्दमाता भी कहा जाता है। कार्तिकेय जी को पुरुषार्थ का स्वरूप बताया गया है। निरंतर अपने कर्म में संलग्न रहने वाला मनुष्य ही जीवन में ऊंचाइयों को प्राप्त करता है व प्रत्येक ऐच्छिक वस्तु उसे प्राप्त हो जाती है। माँ हिंसक सिंह पर सवार रहती हैं, इसका अर्थ ही यही है, कि उन्होनें चुनौतियों से मुख मोड़ा नहीं, अपितु उन्हें स्वीकार करते हुए परास्त भी किया है। चुनौतियाँ केवल बाहुबल के दम पर नहीं अपितु आत्मबल के दम पर जीती जाती हैं। आत्मबल के धनी समस्या रुपी शेर की सवारी करते हैं अर्थात समस्या को अपने अनुकूल बना लेते हैं तो वहीं कमजोर लोग समस्या का शिकार हो जाते हैं। पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करने वाले माँ के इस स्वरूप को वंदन करते हैं। जय माता दी ========================
स्कंदमाता - नवरात्रि के पंचम दिवस की आपको हार्दिक शुभकामनाएं। माता के पंचम स्वरूप जय माता दी जय माता ढी २६ सितंबर 2025 मॉ स्कँदगाता या देवी सर्वभूतेषु गॉ स्कँदगाता रूपेण संस्थिता। नगस्तस्यै नगस्तस्यै नमस्तस्यै नगो नमः।। सुप्रभात नवरात्रि के पंचम दिवस की आपको हार्दिक शुभकामनाएं। माता के पंचम स्वरूप जय माता दी जय माता ढी २६ सितंबर 2025 मॉ स्कँदगाता या देवी सर्वभूतेषु गॉ स्कँदगाता रूपेण संस्थिता। नगस्तस्यै नगस्तस्यै नमस्तस्यै नगो नमः।। सुप्रभात - ShareChat
विभीषण प्रभु श्री राम की शरण में जाते हुए मन में मनोरथ कर रहा है कि मैं अब धन्यभागी हूँ क्योंकि अब मुझे प्रभु के उन चरणों के दर्शन मिलेंगे जो माया मृग के पीछा करते हुए धरती पर दौड़े थे और जिनको माता जानकी ने अपने हृदय में धारण कर रखा है, जिन चरणों को भगवान शंकर ने अपने हृदय के पावन सरोवर में स्थापित कर रखा है। ।। राम राम जी।। ##सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩
#सुंदरकांड पाठ चौपाई📙🚩 - जे पद जनकसुताँ उर लाए।  कुरंग संग धर धाए। ।  कपट हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्प मैं देखहउँ तेई । l४ | ] जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो (उसे पकडने को) दौडे थे और जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर चरणकमल साक्षात् शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूँगा| I४२-४।। सदरकाण्द  जे पद जनकसुताँ उर लाए।  कुरंग संग धर धाए। ।  कपट हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्प मैं देखहउँ तेई । l४ | ] जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो (उसे पकडने को) दौडे थे और जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर चरणकमल साक्षात् शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूँगा| I४२-४।। सदरकाण्द - ShareChat
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸 -------------------------------- 🙏 जय श्री कृष्ण 🙏 -------------------------------- ---*⚜*--- त्रिमूर्तिश्च त्रिवर्षा च कल्याणी चतुरब्दिका। त्रिमूर्तिपूजनादायुस्त्रिवर्गस्य फलं भवेत् । धनधान्यागमश्चैव पुत्रपौत्रादिवृद्धयः।। त्रिमूर्तिश्च त्रिवर्षा च कल्याणी चतुरब्दिका। देवीभागवत ३/२६/४१,४६,४७ "व्यासजी कहते है- नवरात्र में कन्यापूजन में तीन वर्ष की कन्या 'त्रिमूर्ति' कहलाती है , जिसका पूजन करने से धर्म, अर्थ, काम की पूर्ति होती है, धन-धान्य का आगमन होता है और पुत्र-पुत्र आदि की वृद्धि होती है । चार वर्ष की कन्या 'कल्याणी' कहलाती है, जो विद्या, विजय, राज्य तथा सुख की कामना करता है , उसे सभी कामनाएं प्रदान करने वाली है 'कल्याणी ' नामक कन्या का नित्य पूजन करना चाहिए ।" ---*⚜*--- ज्ञानदं मोक्षदं चैव सुखसन्तानवर्धनम् । शत्रुनाशकरं कामं नवरात्रव्रतं सदा ।। देवीभागवतपुराण ०३/२७/४८ ‘‘नवरात्र व्रत सर्वदा ज्ञान तथा मोक्ष को देने वाला, सुख तथा सन्तान की वृद्धि करने वाला एवं शत्रुओं का पूर्ण रूप से विनाश करने वाला है ।‘‘ 🙏 जय माता दी 🙏 ०००००००००००००००० 🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸 #🙏शुभ नवरात्रि💐
🙏शुभ नवरात्रि💐 - जय माता दा माता रानी कीकृषा से आष का दिनशुभएव मंगलमय रहे gigglar शभ शक्रवार जय माता दा माता रानी कीकृषा से आष का दिनशुभएव मंगलमय रहे gigglar शभ शक्रवार - ShareChat
#🙏शुभ नवरात्रि💐 #🙏जय माता दी📿 #📖नवरात्रि की पौराणिक कथाएं 📿 #🙏देवी कुष्मांडा ⭐ श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण) (चतुर्थोध्याय) ।।ॐ नमश्चण्डिकायै।। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ चतुर्थोऽध्यायः इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति ध्यानम् ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैरिकुलभयदां मौलिबद्धन्दुरेखां। शङ्कं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्। सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं ध्यायेद् दुर्गा जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥ सिद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते हैं तथा देवता जिन्हें सब ओर से घेरे रहते हैं, उन 'जया' नामवाली दुर्गादेवी का ध्यान करे। उनके श्रीअंगों की आभा काले मेघ के समान श्याम है। वे अपने कटाक्षों से शत्रुसमूह को भय प्रदान करती हैं। उनके मस्तक पर आबद्ध चन्द्रमा की रेखा शोभा पाती है। वे अपने हाथों में शंख, चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे सिंह के कंधे पर चढ़ी हुई हैं और अपने तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण कर रही हैं। ॐ' ऋषिरुवाच ॥ १ ॥ ऋषि कहते हैं-॥ १ ॥ शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या । तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा। वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः ॥ २॥ अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्य-सेना के देवी के हाथ से मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता प्रणाम के लिये गर्दन तथा कंधे झुकाकर उन भगवती दुर्गा का उत्तम वचनों द्वारा स्तवन करने लगे । उस समय उनके सुन्दर अंगों में अत्यन्त हर्ष के कारण रोमांच हो आया था॥ १-२ ॥ देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूत्या तामम्बिकामखिलदेवमह्र्षिपूज्यां भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥ ३ ॥ देवता बोले 'सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति-पूर्वक नमस्कार करते हैं । वे हम लोगों का कल्याण करें ॥ ३ ॥ यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च। सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥ ४ ॥ जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेव जी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करनेका विचार करें ॥ ४ ॥ या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः। श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्॥ ५॥ जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मी रूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूपसे, शुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुषों के हृदय में बुद्धि रूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जा रूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं । देवि ! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये ॥ ५ ॥ किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत् किं चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि। किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु॥ ६॥ देवि ! आपके इस अचिन्त्य रूप का, असुरों का नाश करने वाले भारी पराक्रम का तथा समस्त देवताओं और दैत्यों के समक्ष युद्ध में प्रकट किये हुए आपके अद्भुत चरित्रों का हम किस प्रकार वर्णन करें ॥ ६ ॥ हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषै- र्न ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा । सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत- मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ॥ ७ ॥ आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति में कारण हैं। आप में सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये तीनों गुण मौजूद हैं; तो भी दोषों के साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता। भगवान् विष्णु और महादेवजी आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है; क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं॥ ७॥ यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि । स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु- रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च॥ ८॥ देवि! सम्पूर्ण यज्ञों में जिसके उच्चारण से सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह स्वाहा आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आप पितरों की भी तृप्ति का कारण हैं, अतएव सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं ८॥ या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्व- मभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः । मोक्षार्थिभर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै- र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ॥ ९ ॥ देवि! जो मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, अचिन्त्य महाव्रतस्वरूपा है, समस्त दोषों से रहित, जितेन्द्रिय, तत्त्वको ही सार वस्तु मानने वाले तथा मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं, वह भगवती परा विद्या आप ही हैं॥ ९॥ शब्दात्मिका सुविमलग्ग्यजुषां निधान- मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् । देवी त्रयी भगवती भवभावनाय वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥ १०॥ आप शब्दस्वरूपा हैं, अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठ से युक्त सामवेद का भी आधार आप ही हैं। आप देवी, त्रयी (तीनों वेद) और भगवती (छहों ऐश्वर्यों से युक्त) हैं । इस विश्व की उत्पत्ति एवं पालन के लिये आप ही वार्ता (खेती एवं आजीविका) -के रूप में प्रकट हुई हैं। आप सम्पूर्ण जगत् की घोर पीड़ा का नाश करने वाली हैं ॥ १० ॥ मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा। श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ॥ ११ ॥ देवि! जिससे समस्त शास्त्रों के सार का ज्ञान होता है, वह मेधाशक्ति आप ही हैं। दुर्गम भवसागर से पार उतारने वाली नौका रूप दुर्गादेवी भी आप ही हैं। आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है । कैटभ के शत्रु भगवान् विष्णु के वक्ष:स्थल में एकमात्र निवास करने वाली भगवती लक्ष्मी तथा भगवान् चन्द्रशेखर द्वारा सम्मानित गौरी देवी भी आप ही हैं ॥ ११ ॥ ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र- बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम्। अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण॥ १२॥ आपका मुख मन्द मुसकान से सुशोभित, निर्मल, पूर्ण चन्द्रमा के बिम्ब का अनुकरण करने वाला और उत्तम सुवर्ण की मनोहर कान्ति से कमनीय है; तो भी उसे देखकर महिषासुर को क्रोध हुआ और सहसा उसने उसपर प्रहार कर दिया, यह बड़े आश्चर्यकी बात है॥ १२ ॥ दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल- मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः। प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन॥ १३ ॥ देवि! वही मुख जब क्रोध से युक्त होने पर उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति लाल और तनी हुई भौंहों के कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर जो महिषासुर के प्राण तुरंत नहीं निकल गये, यह उससे भी बढ़कर आश्चर्य की बात है; क्योंकि क्रोध में भरे हुए यमराज को देखकर भला, कौन जीवित रह सकता है? ॥ १३॥ देवि प्रसीद परमा भवती भवाय सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि। विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत- नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य ॥ १४॥ देवि ! आप प्रसन्न हों। परमात्म स्वरूपा आपके प्रसन्न होने पर जगत् का अभ्युदय होता है और क्रोध में भर जाने पर आप तत्काल ही.. कितने कुलों का सर्वनाश कर डालती हैं, यह बात अभी अनुभव में आयी है; क्योंकि महिषासुर की यह विशाल सेना क्षणभर में आपके कोप से नष्ट हो गयी है॥ १४॥ ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः । धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥ १५॥ सदा अभ्युदय प्रदान करने वाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं, उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है, उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं । १५ ॥ धम्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा- ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति। स्वर्गं प्रयाति च ततो भवतीप्रसादा- ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन॥ १६॥ देवि! आपकी ही कृपा से पुण्यात्मा पुरुष प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सदा सब प्रकार के धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभाव से स्वर्गलोक में जाता है; इसलिये आप तीनों लोकों में निश्चय ही मनोवांछित फल देनेवाली हैं ॥ १६ ॥ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽद्द्रचित्ता ॥ १७॥ माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करनेके लिये सदा ही दयाद्द्र रहता हो ॥ १७ ॥ एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्। संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि ॥ १८ ॥ देवि! इन राक्षसों के मारने से संसार को सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकाल तक नरक में रहने के लिये भले ही पाप करते रहे हों, इस समय संग्राम में मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्गलोक में जायँ- निश्चय ही यही सोचकर आप शत्रुओं का वध करती हैं॥ १८॥ दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्। लोकान् प्रयान्तु रिपर्वोऽपि हि शस्त्रपूता इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी ॥ १९ ॥ आप शत्रुओं पर शस्त्रों का प्रहार क्यों करती हैं? समस्त असुरों को दृष्टिपात मात्र से ही भस्म क्यों नहीं कर देतीं? इसमें एक रहस्य है। ये शत्रु भी हमारे शस्त्रों से पवित्र होकर उत्तम लोकों में जायँ- इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उत्तम रहता है॥ १९॥ खङ्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम् । यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड- योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत्॥ २०॥ खड्ग के तेज:पुंज की भयंकर दीप्ति से तथा आपके त्रिशूल के अग्रभाग की घनीभूत प्रभा से चौंधियाकर जो असुरों की आँखें फूट नहीं गयीं, उसमें कारण यही था कि वे मनोहर रश्मियों से युक्त चन्द्रमा के समान आनन्द प्रदान करने वाले आपके इस सुन्दर मुख का दर्शन करते थे॥ २०॥ दुर्वृत्तवृत्तशमनं तवदेवि शीलं रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः । वीर्यं च हन्तु हृतदेवपराक्रमाणां वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् ॥ २१ ॥ देवि! आपका शील दुराचारियों के बुरे बर्ताव को दूर करने वाला है। साथ ही यह रूप ऐसा है, जो कभी चिन्तन में भी नहीं आ सकता और जिसकी कभी दूसरों से तुलना भी नहीं हो सकती; तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्यों का भी नाश करने वाला है, जो कभी देवताओं के पराक्रम को भी नष्ट कर चुके थे। इस प्रकार आपने शत्रुओं पर भी अपनी दया ही प्रकट की है॥ २१ ॥ केनोपमा भवत् तेऽस्य पराक्रमस्य रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र । चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि ॥ २२।॥ वरदायिनी देवि ! आपके इस पराक्रम की किसके साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओं को भय देने वाला एवं अत्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ है? हृदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता- ये दोनों बातें तीनों लोकों के भीतर केवल आप में ही देखी गयी हैं॥ २२ ॥ त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन वा गदृटा त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा। नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्त- मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ॥ २३॥ मातः! आपनेशत्रुओं का नाश करके इस समस्त त्रिलोकी की रक्षा की है। उन शत्रुओं को भी युद्धभूमि में मारकर स्वर्गलोक में पहुँचाया है तथा उन्मत्त दैत्यों से प्राप्त होने वाले हमलोगों के भय को भी दूर कर दिया है, आपको हमारा नमस्कार है ॥ २३॥ शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ॥ २४॥ देवि! आप शूलसे हमारी रक्षा करें। अम्बिके ! आप खड्गसे भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें ॥ २४ ॥ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे । भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ॥ २५॥ चण्डिके! पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में आप हमारी रक्षा करें तथा ईश्वरि! अपने त्रिशूल को घुमाकर आप उत्तर दिशा में भी हमारी रक्षा करें ॥ २५ ॥ सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते । यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ॥ २६॥ तीनों लोकों में आपके जो परम सुन्दर एवं अत्यन्त भयंकर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोक की रक्षा करें ॥ २६ ॥ खङ्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके । करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः ॥ २७॥ अम्बिके ! आपके कर- पल्लवों में शोभा पाने वाले खड्ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों, उन सबके द्वारा आप सब ओरसे हमलोगोंकी रक्षा करें ॥ २७ ॥ ऋषिरुवाच॥ २८॥ ऋषि कहते हैं-॥ २८॥ एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः । अर्चिता जगतां धात्री तथा गरन्धानुलेपनैः ॥ २९ ॥ भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैस्तु * धूपिता । प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान् ॥ ३० ॥ इस प्रकार जब देवताओं ने जगन्माता दुर्गा की स्तुति की और नन्दन-वन के दिव्य पुष्पों एवं गन्ध-चन्दन आदि के द्वारा उनका पूजन किया, फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपों की सुगन्ध निवेदन की, तब देवी ने प्रसन्नवदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओं से कहा - ॥२९-३० ॥ देव्युवाच॥ ३१ ॥ देवी बोलीं- ॥ ३१ ॥ व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाज्छितम् * ॥ ३२ ॥ देवताओ! तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो, उसे माँगो ॥ ३२ ॥ देवा ऊचुः॥ ३३॥ देवता बोले ॥ ३३॥ भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते ॥ ३४॥ देवता बोले- कुछ भी बाकी नहीं है॥ ३४॥ यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः । यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि ॥ ३५ ॥ क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया। महेश्वरि! इतने पर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं॥ ३५ ॥ संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः । यश्च मत्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने ॥ ३६॥ तस्य वित्तर्द्द्धविभवैर्धनदारादिसम्पदाम् । वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिवके ॥ ३७ ॥ भगवती ने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी, अब हम जब-जब आपका स्मरण करें, तब-तब आप दर्शन देकर हमलोगों के महान् संकट दूर कर दिया करें तथा प्रसन्नमुखी अम्बिके ! जो मनुष्य इन स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पत्तिको भी बढ़ाने के लिये आप सदा हम पर प्रसन्न रहें॥ ३६-३७॥ ऋषिरुवाच॥ ३८॥ ऋषि कहते हैं-॥ ३८॥ इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः । तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप॥ ३९॥ राजन्! देवताओं ने जब अपने तथा जगत् के कल्याण के लिये भद्रकाली देवी को इस प्रकार प्रसन्न किया, तब वे 'तथास्तु' कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं॥ ३९ ॥ इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा। देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी ॥ ४०॥ भूपाल ! इस प्रकार पूर्वकाल में तीनों लोकों का हित चाहने वाली देवी जिस प्रकार देवताओं के शरीरों से प्रकट हुई थीं; वह सब कथा मैंने कह सुनायी॥ ४०॥ पुनश्च गौरीदेहात्सा समुद्भूता यथाभवत्। वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ४१ ।। रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी । तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते।॥ ह्रीं ॐ॥ ४२॥ अब पुनः देवताओं का उपकार करने वाली वे देवी दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुम्भ का वध करने एवं सब लोकों की रक्षा करने के लिये गौरीदेवी के शरीर से जिस प्रकार प्रकट हुई थीं वह सब प्रसंग मेरे मुँह से सुनो । मैं उसका तुमसे यथावत् वर्णन करता हूँ॥ ४१-४२ ॥ क्रमशः.... अगले लेख में पंचम अध्याय जय माता जी की। साभार~ पं देव शर्मा💐 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
🙏शुभ नवरात्रि💐 - श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित) (चतुर्थोध्याय ) श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित) (चतुर्थोध्याय ) - ShareChat