###श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण२०२५
#श्रीमद्वाल्मिकी_रामायण_पोस्ट_क्रमांक०२९
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायण
बालकाण्ड
चौबीसवाँ सर्ग
श्रीराम और लक्ष्मणका गंगापार होते समय विश्वामित्रजीसे जलमें उठती हुई तुमुलध्वनिके विषयमें प्रश्न करना, विश्वामित्रजीका उन्हें इसका कारण बताना तथा मलद, करूष एवं ताटका वनका परिचय देते हुए इन्हें ताटकावधके लिये आज्ञा प्रदान करना
तदनन्तर निर्मल प्रभातकालमें नित्यकर्मसे निवृत्त हुए विश्वामित्रजीको आगे करके शत्रुदमन वीर श्रीराम और लक्ष्मण गंगानदी के तटपर आये॥१॥
उस समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन पुण्याश्रमनिवासी महात्मा मुनियोंने एक सुन्दर नाव मँगवाकर विश्वामित्रजीसे कहा—॥२॥
'महर्षे! आप इन राजकुमारोंको आगे करके इस नावपर बैठ जाइये और मार्गको निर्विघ्नतापूर्वक तै कीजिये, जिससे विलम्ब न हो'॥३॥
विश्वामित्रजीने 'बहुत अच्छा' कहकर उन महर्षियोंकी सराहना की और वे श्रीराम तथा लक्ष्मणके साथ समुद्र-गामिनी गंगानदीको पार करने लगे॥४॥
गंगाकी बीच धारामें आनेपर छोटे भाईसहित महातेजस्वी श्रीरामको दो जलोंके टकरानेकी बड़ी भारी आवाज सुनायी देने लगी। 'यह कैसी आवाज है? क्यों तथा कहाँसे आ रही है?' इस बातको निश्चितरूपसे जाननेकी इच्छा उनके भीतर जाग उठी॥५½॥
तब श्रीरामने नदीके मध्यभागमें मुनिवर विश्वामित्रसे पूछा—'जलके परस्पर मिलनेसे यहाँ ऐसी तुमुलध्वनि क्यों हो रही है?'॥६½॥
श्रीरामचन्द्रजीके वचनमें इस रहस्यको जाननेकी उत्कण्ठा भरी हुई थी। उसे सुनकर धर्मात्मा विश्वामित्रने उस महान् शब्द (तुमुलध्वनि) का सुनिश्चित कारण बताते हुए कहा—॥७½॥
'नरश्रेष्ठ राम! कैलासपर्वतपर एक सुन्दर सरोवर है। उसे ब्रह्माजीने अपने मानसिक संकल्पसे प्रकट किया था। मनके द्वारा प्रकट होनेसे ही वह उत्तम सरोवर 'मानस' कहलाता है॥८½॥
'उस सरोवरसे एक नदी निकली है, जो अयोध्यापुरीसे सटकर बहती है। ब्रह्मसरसे निकलनेके कारण वह पवित्र नदी सरयूके नामसे विख्यात है॥९½॥
'उसीका जल गंगाजीमें मिल रहा है। दो नदियोंके जलोंके संघर्षसे ही यह भारी आवाज हो रही है; जिसकी कहीं तुलना नहीं है। राम! तुम अपने मनको संयममें रखकर इस संगमके जलको प्रणाम करो'॥१०½॥
यह सुनकर उन दोनों अत्यन्त धर्मात्मा भाइयोंने उन दोनों नदियोंको प्रणाम किया और गंगाके दक्षिण किनारेपर उतरकर वे दोनों बन्धु जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चलने लगे॥११½॥
उस समय इक्ष्वाकुनन्दन राजकुमार श्रीरामने अपने सामने एक भयङ्कर वन देखा, जिसमें मनुष्योंके आने-जानेका कोई चिह्न नहीं था। उसे देखकर उन्होंने मुनिवर विश्वामित्रसे पूछा—॥१२½॥
'गुरुदेव! यह वन तो बड़ा ही अद्भुत एवं दुर्गम है। यहाँ चारों ओर झिल्लियोंकी झनकार सुनायी देती है। भयानक हिंसक जन्तु भरे हुए हैं। भयङ्कर बोली बोलनेवाले पक्षी सब ओर फैले हुए हैं। नाना प्रकारके विहंगम भीषण स्वरमें चहचहा रहे हैं॥१३-१४॥
'सिंह, व्याघ्र, सूअर और हाथी भी इस जंगलकी शोभा बढ़ा रहे हैं। धव (धौरा), अश्वकर्ण (एक प्रकारके शालवृक्ष), ककुभ (अर्जुन), बेल, तिन्दुक (तेन्दू), पाटल (पाड़र) तथा बेरके वृक्षोंसे भरा हुआ यह भयङ्कर वन क्या है?—इसका क्या नाम है?'॥१५½॥
तब महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्रने उनसे कहा—'वत्स! ककुत्स्थनन्दन! यह भयङ्कर वन जिसके अधिकारमें रहा है, उसका परिचय सुनो॥१६½॥
'नरश्रेष्ठ! पूर्वकालमें यहाँ दो समृद्धिशाली जनपद थे—मलद और करूष। ये दोनों देश देवताओंके प्रयत्नसे निर्मित हुए थे॥१७½॥
'राम! पहलेकी बात है वृत्रासुरका वध करनेके पश्चात् देवराज इन्द्र मलसे लिप्त हो गये। क्षुधाने भी उन्हें धर दबाया और उनके भीतर ब्रह्महत्या प्रविष्ट हो गयी॥१८½॥
'तब देवताओं तथा तपोधन ऋषियोंने मलिन इन्द्रको यहाँ गंगाजलसे भरे हुए कलशोंद्वारा नहलाया तथा उनके मल (और कारूष—क्षुधा) को छुड़ा दिया॥१९½॥
इस भूभागमें देवराज इन्द्रके शरीरसे उत्पन्न हुए मल और कारूषको देकर देवतालोग बड़े प्रसन्न हुए॥२०½॥
'इन्द्र पूर्ववत् निर्मल, निष्करूष (क्षुधाहीन) एवं शुद्ध हो गये। तब उन्होंने प्रसन्न होकर इस देशको यह उत्तम वर प्रदान किया—'ये दो जनपद लोकमें मलद और करूष नामसे विख्यात होंगे। मेरे अंगजनित मलको धारण करनेवाले ये दोनों देश बड़े समृद्धिशाली होंगे'॥२१-२२½॥
'बुद्धिमान् इन्द्रके द्वारा की गयी उस देशकी वह पूजा देखकर देवताओंने पाकशासनको बारम्बार साधुवाद दिया॥२३½॥
'शत्रुदमन! मलद और करूष—ये दोनों जनपद दीर्घकालतक समृद्धिशाली, धन-धान्यसे सम्पन्न तथा सुखी रहे हैं॥२४½॥
'कुछ कालके अनन्तर यहाँ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली एक यक्षिणी आयी, जो अपने शरीरमें एक हजार हाथियोंका बल धारण करती है॥२५½॥
'उसका नाम ताटका है। वह बुद्धिमान् सुन्द नामक दैत्यकी पत्नी है। तुम्हारा कल्याण हो। मारीच नामक राक्षस, जो इन्द्रके समान पराक्रमी है, उस ताटकाका ही पुत्र है। उसकी भुजाएँ गोल, मस्तक बहुत बड़ा, मुँह फैला हुआ और शरीर विशाल है॥२६-२७॥
'वह भयानक आकारवाला राक्षस यहाँकी प्रजाको सदा ही त्रास पहुँचाता रहता है। रघुनन्दन! वह दुराचारिणी ताटका भी सदा मलद और करूष—इन दोनों जनपदोंका विनाश करती रहती है॥२८½॥
'वह यक्षिणी डेढ़ योजन (छः कोस) तकके मार्गको घेरकर इस वनमें रहती है; अतः हमलोगोंको जिस ओर ताटकावन है, उधर ही चलना चाहिये। तुम अपने बाहुबलका सहारा लेकर इस दुराचारिणीको मार डालो॥२९-३०॥
'मेरी आज्ञासे इस देशको पुनः निष्कण्टक बना दो। यह देश ऐसा रमणीय है तो भी इस समय कोई यहाँ आ नहीं सकता है॥३१॥
'राम! उस असह्य एवं भयानक यक्षिणीने इस देशको उजाड़ कर डाला है। यह वन ऐसा भयङ्कर क्यों है, यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। उस यक्षिणीने ही इस सारे देशको उजाड़ दिया है और वह आज भी अपने उस क्रूर कर्मसे निवृत्त नहीं हुई है'॥३२॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२४॥*
(((( त्रिभंग मुरलीधर ))))
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एक बाबा जी नंदग्राम में यशोदा कुंड के पीछे निष्किंचन भाव से एक गुफा में बहुत काल से वास करते थे,
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दिन में केवल एक बार संध्या के समय गुफा से बाहर शौचादि और मधुकरी के लिए निकलते थे. वृद्ध हो गए थे, इसलिए नंदग्राम छोड़कर कही नहीं जाते थे.
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एक बार हठ करके बहुत से बाबा जी श्री गोवर्धन में नाम 'यज्ञ महोत्सव' में ले गए.
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तीन दिन बाद जब संध्याकाल में लौटे तो अन्धकार हो गया था, गुफा में जब घुसे, तब वहाँ करुण कंठ से किसी को कहते सुना - ओं बाबा जी महाशय ! पिछले दो दिन से मुझे कुछ भी आहार न मिला.
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बाबा जी आश्चर्य चकित हो बोले - तुम कौन हो ?
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उत्तर मिला आप जिस कूकर को प्रतिदिन एक टूक मधुकरी का देते थे, मै वही हूँ.
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बाबा जी अप्राकृत धाम के अद्भुत अनुभव से विस्मृत हो बोले - आप कृपा करके अपने स्वरुप का परिचय दीजिये,
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वह कूकर कहने लगा - बाबा ! मै बड़ा दुर्भागा जीव हूँ, पूर्वजन्म में, मै इसी नन्दीश्वर मंदिर का पुजारी था
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एक दिन एक बड़ा लड्डू भोग के निमित्त आया मैंने लोभवश उसका भोग न लगाया और स्वयं खा गया, उस अपराध के कारण मुझे यह भूत योनि मिली है.
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आप निष्किंचन वैष्णव है आपकी उचिछ्ष्ट मधुकरी का टूक खाकर मेरी ऊर्ध्वगति होगी, इस लोभ से नित्यप्रति आपके यहाँ आता हूँ तब परस्पर यह वार्ता हुई.
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बाबा बोले - आप तो अप्राकृत धाम के भूत है आपको तो निश्चय ही श्री युगल किशोर के दर्शन होते होगे, उनकी लीलादी प्रत्यक्ष देखते होगे.
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भूत - दर्शन तो होते है, लीला भी देखता हूँ, लेकिन जिस प्रकार उसका आप आस्वादन करते है, मुझे इस देह में आस्वादन नहीं होता क्योकि इसमें वह योग्यता नहीं है
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बाबा - तब तो मुझे भी एक बार दर्शन करा दो ?
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भूत - यह मेरे अधिकार के बाहर की बात है.
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बाबा - अच्छा कोई युक्ति ही बता दो जिससे मुझे दर्शन हो ?
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भूत - हाँ ! यह मै बता सकता हूँ, कल शाम् के समय यशोदा कुंड पर जाना,
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संध्या समय जब ग्वालबाल गोष्ठ में वन से गौए फेर कर लायेगे, तो इन ग्वाल बालों में सबसे पीछे जो बालक होगा वह है - 'श्री कृष्ण". इतना बताकर वह कूकररूपी भूत अन्तहित हो गया.
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अब क्या था उन्मत्त की तरह बाबा इधर-उधर फिरने लगे, वक्त काटना मुश्किल हो गया. कभी रोते, कभी हँसते, कभी नृत्य करते, अधीर थे,
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बड़ी मुश्किल से वह लंबी रात्रि कटी प्रातः होते ही यशोदा कुंड के प्रान्त भाग में एक झाड़ी में छिपकर शाम कि प्रतीक्षा करने लगे, कभी भाव उठता में तो महान अयोग्य हूँ मुझे दर्शन मिलाना असंभव है ? यह विचार कर रोते रोते रज में लोट जाते.
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फिर सावधान हो जब ध्यान आता कि श्री कृष्ण तो करुणासागर है मुझ दीन-हीन पर अवश्य ही वे कृपा करेगे, तो आनन्द मगन हो, नृत्य करने लगते
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ऐसे करते शाम हो गई गोधुलि रंजित आकाश देख बड़े प्रसन्न हुए, देखा कि एक-एक दो-दो ग्वालबाल अपने-अपने गौओ के यूथो को हाँकते चले आ रहे है.
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जब सब निकल गए तो सबके पीछे एक ग्वाल बाल आ रहा था, कृष्णवर्ण कई जगह से शरीर को टेढ़ा करके चल रहा है, इन्होने मन में जान लिया यही है
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जल्दी से बाहर निकल आये उनको सादर दंडवत प्रणाम कर उनके चरणारविन्द को द्रढता से पकड़ लिया तब परस्पर वार्ता शुरू हुई.
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बालक - रे बाबा ! मै बनिए का लाला हूँ, मुझे अपराध होगा, तु मेरा पैर छोड़ दे ! मैया मरेगी ! मधूकारी दूँगा और जो माँगेगा दूँगा, मेरा पैर छोड़ दे.
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बाबा - (सब सुनी अनसुनी कर विनय करने लगे) हे प्रियतम ! एक बार दर्शन देकर मेरे तापित प्राणों को शीतल करो, हे कृष्ण ! अब छल चातुरी मत करो ! मुझे अपने अभय चरणारविन्द में स्थान दो !
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इस तरह तर्क-वितर्क करते-करते जब भक्त और भक्त वस्तल भगवान के बीच आधी रात हो गई और जब बाबा जी ने किसी तरह चरण न छोड़े, तो
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श्री कृष्ण बोले - अच्छा बाबा मेरा स्वरुप देख ! श्री कृष्ण ने त्रिभंग मुरलीधर रूप में बाबा जी को दर्शन दिए.
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तब बाबा जी ने कहा - में केवल मात्र आपका ही तो ध्यान नहीं करता, मै तो युगल रूप का उपासक हूँ,
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अत: हे कृपामय ! एक बार सपरिकर दर्शन देकर मेरे प्राण बचाओ !
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तब श्री श्यामसुंदर, श्री राधा जी और सखिगण परिकर के संग यमुना पुलिन पर अलौकिक प्रकाश करते प्रकट हो गए.
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बाबा जी नयन मन सार्थक करते उस रूप माधुरी में डूब गए उनकी चिर दिन की पोषित वांछा पूर्ण हुई और तीन चार दिन पश्चात ही बाबा अप्रकट हो गए.
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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#☝अनमोल ज्ञान #🕉️सनातन धर्म🚩
#☝अनमोल ज्ञान
दूसरों के हिस्से का भोजन न खाएं
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महाभारत के महानायक भीम को भोजन बेहद पसंद था। महाभारत की यह कहानी कौरव और पांडव के बचपन की है। तब सभी साथ रहते थे। लेकिन जब भोजन होता तो भीम, सबसे ज्यादा भोजन करते थे। इस बात को लेकर दुर्योधन और उनके भाई नाराज रहते थे। क्योंकि भाम उनके हिस्से का भी भोजन खा जाया करते थे।
एक दिन की बात है दुर्योधन ने चुपके से भीम के भोजन में जहर मिला दिया। और उन्हें अपने साथ नदी किनारे घुमाने ले गए। जब भीम मूर्छित हो गए तो उन्हें नदी में फेंक दिया। नदी में एक नाग रहता था। उसने भीम का औषधि से इलाज किया और उन्हें स्वस्थ कर पुनः नदी के किनारे छोड़ दिया।
भीम, अपने घर यानी हस्तिनापुर के राजमहल में पहुंचे। जब भीम वापिस आते हैं तो हस्तिनापुर में शोक सभा हो रही होती है। सबको ये सग रहा था कि भीम मर गये हैं। उनके लिए श्राद्ध का आयोजन उसी दिन रखा गया। भीम, महल में पहुंचे जहां कई तरह की सब्जियां और फल कटे हुए रखे थे।
भीम ने इन सभी सब्जियों और फलों को देख उसका एक व्यंजन बनाया। वर्तमान में तमिल लोग 'अवियल' नामक व्यंजन बनाते हैं, इसका इजाद करने का श्रेय भीम को ही जाता है।
ठीक इसी तरह, जब भीम अज्ञातवास में होते हैं तो राजा विराट के यहां वह बाबर्ची का कार्य करते हैं। वह खाना बनाते हैं, परोसते हैं लेकिन उसे सभी के खाने के बाद ही खा सकते हैं। उनके लिए एक तरह से यह दंड था। क्योंकि भीम जिंदगी भर दूसरों के भाग का भी खाना खा लिया करते थे।
और आखिर में भीम के अंत समय यानी जब वह स्वर्गारोहण पर अपनी माता और भाइयों के साथ जा रहे थे। तो वह बर्फीली चट्टान से गिर गए। उन्हें दूसरों के भाग का खाने के कारण नर्क मिलता लेकिन, उन्होंने जीव कल्याण के भी कार्य किए थे, इसलिए उन्हें स्वर्ग में जगह मिली।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#जय श्री कृष्ण
भगवान कृष्ण का माता जसोदा को अपने विराट रूप का दर्शन देना।
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*देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने माता जसोदा को अपना अखंड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं॥
एक बार बलराम सहित ग्वाल-बाल खेलते-खेलते यशोदा के पास पहुँचे और यशोदाजी से कहा- माँ! कृष्ण ने तो आज मिट्टी खाई है।
यशोदा ने कृष्ण के हाथों को पकड़ लिया और धमकाने लगी कि तुमने मिट्टी क्यों खाई है। यशोदा को यह भय था कि मिट्टी खाने से इसको कोई रोग न लग जाए। कृष्ण तो इतने भयभीत हो गए थे कि वे माँ की ओर आँख भी नहीं उठा पा रहे थे।
तब यशोदा ने कहा- नटखट तूने एकान्त में मिट्टी क्यों खाई। बलराम सहित और भी ग्वाल इस बात को कह रहे हैं। कृष्ण ने कहा- मिट्टी मैंने नहीं खाई है। ये सभी लोग मिथ्या कह रहे हैं।
यदि आप उन्हें सच्चा मान रही हैं तो स्वयं मेरा मुख देख ले। माँ ने कहा यदि ऐसा है तो तू अपना मुख खोल। लीला करने के लिए उस छोटे बालरूप धारी सर्वेश्वर सम्पन्न श्रीकृष्ण ने अपना मुख माँ के समक्ष खोल दिया।
यशोदा ने जब मुख के अंदर झाँका तब उन्हें उसमें चर-अचर संपूर्ण विश्व दिखाई पड़ने लगा।
अंतरिक्ष, दिशाएँ, द्वीप, पर्वत, समुद्र सहित सारी पृथ्वी प्रवह नामक वायु, विद्युत, तारा सहित स्वर्गलोक, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अपने अधिष्ठाताओं एवं शब्द आदि विषयों के साथ दसों इंद्रियाँ सत्व, रज, तम इन तीनों तथा मन, जीव, काल, स्वभाव, कर्म, वासना आदि से लिंग शरीरों का अर्थात चराचर शरीरों का जिससे विचित्र विश्व एक ही काल में दिख पड़ा।
इतना ही नहीं, यशोदा ने उनके मुख में ब्रज के साथ स्वयं अपने आपको भी देखा।
इन बातों से उन्हें तरह-तरह के तर्क-वितर्क होने लगे। यह क्या मैं स्वप्न देख रही हूँ या देवताओं की कोई माया है अथवा मेरी बुद्धि ही व्यामोह है अथवा इस मेरे बच्चे का ही कोई स्वाभाविक अपना प्रभावपूर्ण चमत्कार है।
अन्त में उन्होंने यही दृढ़ निश्चय किया कि अवश्य ही इसी का चमत्कार है और निश्चय ही ईश्वर इसके रूप में आए हैं। तब उन्होंने कृष्ण की स्तुति की जो चित्त, मन, कर्म, वचन तथा तर्क की पहुँच से परे इस सारे ब्रह्मांड का आश्रय है।
जिसके द्वारा बुद्धि वृत्ति में अभिव्यक्त प्रकाश से इसकी प्रतीति होती है। उस अचिन्त्य शक्ति परब्रह्म को मैं नमस्कार करती हूँ।
*अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥
भावार्थ:-(माता से) स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना। श्री कृष्ण ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं॥
कृष्ण ने जब देखा कि माता यशोदा ने मेरा तत्व पूर्णतः समझ लिया है तब उन्होंने तुरंत पुत्र स्नेहमयी अपनी शक्ति रूप माया विस्तृत कर दी जिससे यशोदा क्षण में ही सबकुछ भूल गई।
उन्होंने कृष्ण को उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया। उनके हृदय में पूर्व की भाँति पुनः अपार वात्सल्य का रस उमड़ गया।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#ज्योतिष
जो ज्योतिष से भ्रमित है, ये लेख उनके लिए .....
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ज्योतिष एक वैदिक विषय है । इस विषय को कितनी भी सरल भाषा में लिखने का प्रयास किया जाए , उसे साधारण लोग नहीं समझ पाते । अतः बड़े ही सरल सूत्र सरल ही भाषा में लिख रहा हूँ। जिनसे आपका ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान भी बढ़ेगा। और ज्योतिष के नाम पर भ्रमित होने से बच भी जाओगे। क्योंकि ये साधारण सी बातें भी जान लेने पर , आपको ज्ञान हो जाएगा ।
सबसे पहले तो ये जानें कि आपकीं जन्म कुंडली में चंद्रमा जिस राशि मे बैठा हो , वही आपकीं जन्म राशि होती है ।
गोचर के ग्रह आपकीं जन्म राशि से ही आप पर प्रभाव डालते हैं न कि उस राशि से जो आपका बोलते नाम की होती है।
जन्म कुंडली के ग्रहों की दशा अंतर्दशा या उनकी जन्म कुंडली मे स्थित ग्रहों के आधार पर , अथवा गोचर ( वर्तमान ) में ग्रहों की स्थिति के आधार पर ही रत्न धारण करने का सुझाव दिया जाता है।
जो ज्योतिषी केवल नाम राशि , चाहे वो जन्म की हो या आपके प्रसिद्ध नाम की , इस आधार पर ही रत्न धारण करने का सुझाव दे उसे न मानें और जान भी लें कि उसे आता जाता कुछ नहीं।
मांगलिक दोष विचार, सबसे भयानक इसे बताने वाले कितने ही ज्योतिषी मैंने देखे हैं जिन्हें खुद नही पता होता कि माँगलिक योग होता क्या है। यूँ तो यह एक बड़ा विषय है और अनेकों अन्य ग्रह स्थिति से अक्सर ही यह योग खत्म भी हो जाता है। वो लिखूंगा तो आप नहीं समझ पाएँगे ।
पर एक सरल से सूत्र अवश्य समझ लें कुंडली में लग्न अर्थात प्रथम भाव , चौथा ,सातवें , आठवें या बारहवें भाव मे मङ्गल हो तो माँगलिक जाने। किंतु इन ही भावों में कही शनि भी उपस्थित हो तो माँगलिक योग खत्म हुआ जानें। और हाँ एक बात और बता दूँ , कुछ ज्योतिषी आपने ये कहते भी सुने होंगे कि आँशिक मंगली दोष है , असत्य है ये बात। थोड़ा ज़्यादा कुछ नहीं, या मंगली होता है या नहीं ही होता ।
कथित महाभयानक बदनाम कालसर्प दोष
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मित्रो जब राहु और केतु के मध्य कोई ग्रह कुंडली में न बैठा हो तो कालसर्प दोष जानें
अब इस विषय पर मेरा अनुभव भी जानें । सर्वप्रथम तो ये बता दूँ की ज्योतिष के प्राचीन ग्रन्थों में जिसे " कालसर्प योग" कहा गया है इसे अब " कालसर्प दोष" बना कर प्रचारित किया जा रहा है।
वास्तव में 12 प्रकार से कालसर्प योग बनता है और जिसकी कुंडली मे ये योग हो वो गौर से कुंडली को देखें। राहु , केतु मध्य जो खाने होते हैं , एक इधर एक उधर , तो आकृति सर्पाकार सी दिखती है तो सर्प + काल अर्थात उस समय काल (ग्रह स्थिति ) ऐसी थी तो कालसर्प नाम दिया गया। आजकल ऐसे एक भय बना कर पेश किया जा रहा है। कालसर्प योग 12 प्रकार का होता है। जो ज्योतिषी कालसर्प योग का भय दिखाये उसे पूछना 12 में से कौन सा है। 99% तो नाम भी नहीं गिना पाएँगे। और न ही उनके अलग अलग प्रभाव।
इस विषय मे मेरा अनुभव अवश्य बताऊंगा। खुद मेरी कुंडली मे भी यह योग है।
सुनें इस योग वाले सुंदर होते हैं। अच्छा खाने पीने के शौकीन। बढ़िया कपड़ों के शौकीन। मस्तमौला। लापरवाह । घूमने फिरने के शौकीन। भावुक , खर्चीले और दिलेर इतने की इनकी जेब में पैसे होने चाहिए तो आपको नहीं खर्चने देंगे , खुद उड़ाएंगे। दिल के साफ इत्यादि।
जिनकी कुंडली मे ये योग हो वो स्वयम जाँच लें। अब इसे दोष कहें या योग। इसका निर्णय आप खुद कर लें। हाँ यह भी अवश्य कहूँगा की गुणों / अवगुणों की अधिकता भी उचित नहीं। तो छोटा सा उपाय तो कर ही लेना चाहिए। वो है एक नाग का जोड़ा शिवलिंग पर चढ़ा अर्पण कर एक अभिषेक और राहु केतु के वैदिक जप निर्दिष्ट संख्या 18 और 17 हजार कर लेना। बड़े झमेले में फँसने की आवश्यकता नहीं। अपने लिए भी हमने यही किया है।
अपने अनुभव के आधार पर.....
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#🕉️सनातन धर्म🚩 #☝अनमोल ज्ञान
पितरों का संबंध चंद्रमा से...?
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चंद्रमा की पृथिवी से दूरी 3,85,000 km है
हम जिस समय पितृपक्ष मनाते हैं
यानी कि आश्विन महीने के पितृपक्ष में
उस समय पंद्रह दिनों तक चंद्रमा पृथिवी के सर्वाधिक निकट यानी कि लगभग 3,81,000 km पर ही रहता है उसका परिक्रमापथ ही ऐसा है कि वह इस समय पृथिवी के सर्वाधिक निकट होता है।
इसलिए कहा जाता है कि पितर हमारे निकट आ जाते हैं.
शतपथ ब्रह्मण में कहा है -
"विभु: उध्र्वभागे पितरो वसन्ति"
यानी विभु अर्थात् चंद्रमा के दूसरे हिस्से में
पितरों का निवास है।
चंद्रमा का एक पक्ष हमारे सामने होता है जिसे हम देखते हैं परंतु चंद्रमा का दूसरा पक्ष हम कभी देख नहीं पाते इस समय चंद्रमा दक्षिण दिशा में होता है दक्षिण दिशा को यम का घर माना गया है।
आज हम यदि आकाश को देखें तो दक्षिण दिशा में दो बड़े सूर्य हैं जिनसे विकिरण निकलता रहता है हमारे ऋषियों ने उसे श्वान प्राण से चिह्नित किया है।
शास्त्रों में इनका उल्लेख लघु श्वान और वृहद श्वान के नाम से हैं इसे ही आज के विज्ञान ने
केनिस माइनर और केनिस मेजर के नाम से पहचाना है।
इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी आता है
वहाँ कहा है👉
"श्यामश्च त्वा न सबलश्च प्रेषितौ यमश्च यौ पथिरक्षु श्वान" अथर्ववेद 8/1/19 के इस मंत्र में
इन्हीं दोनों सूर्यों की चर्चा की गई है।
श्राद्ध में हम एक प्रकार से उसे ही हवि देते हैं
कि पितरों को उनके विकिरणों से कष्ट न हो इस प्रकार से देखा जाए तो पितृपक्ष और श्राद्ध में हम न केवल अपने पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहे हैं बल्कि पूरा खगोलशास्त्र भी समझ ले रहे हैं।
श्रद्धा और विज्ञान का यह एक अद्भुत मेल है
जो हमारे ऋषियों द्वारा बनाया गया है।
आज समाज के कई वर्ग श्राद्ध के इस वैज्ञानिक पक्ष को न जानने के कारण इसे ठीक से नहीं करते कुछ लोग तीन दिन में और कुछ लोग चार दिन में ही सारी प्रक्रियाएं पूरी कर डालते हैं यह न केवल अशास्त्रीय है बल्कि हमारे पितरों के लिए अपमानजनक भी है।
जिन पितरों के कारण हमारा अस्तित्व है
उनके निर्विघ्न परलोक यात्रा की हम व्यवस्था न करें !! यह हमारी कृतघ्नता ही कहलाएगी
पितर का अर्थ होता है पालन या रक्षण करने वाला पितर शब्द पा रक्षणे धातु से बना है
इसका अर्थ होता है पालन और रक्षण करने वाला एकवचन में इसका प्रयोग करने से इसका अर्थ जन्म देने वाला पिता होता है और बहुवचन में प्रयोग करने से पितर यानी सभी पूर्वज होता है।
इसलिए पितर पक्ष का अर्थ यही है
कि हम सभी सातों पितरों का स्मरण करें
इसलिए इसमें सात पिंडों की व्यवस्था की जाती है।
इन पिंडों को बाद में मिला दिया जाता है
ये पिंड भी पितरों की वृद्धावस्था के अनुसार क्रमश: घटते आकार में बनाए जाते थे
लेकिन आज इस पर ध्यान नहीं दिया जाता
उम्मीद है उपरोक्त जानकारी होने के बाद
जानकारी के अभाव में की गई/हुई गलतियों से हम बचने का प्रयास करेंगे।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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#उत्पन्ना एकादशी #🙏🙏 उत्पन्ना एकादशी 🙏🙏 #वैष्णव उत्पन्ना एकादशी #उत्पन्ना एकादशी 🪷✨😍🥰
🌷 श्री उत्पन्ना/उत्पत्ति एकादशी व्रत*श 🌷
{ कल 15 नवंबर 2025, शनिवार }
{ *एकादशी माता का प्रागटय दिन* }
[प्रभु श्री हरि विष्णु का अंश]
*मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष* ( *गुजरात एवं महाराष्ट्र के अनुसार कार्तिक कृष्णपक्ष* ) एकादशी को ' *उत्पत्ति एकादशी* ' कहते हैं ..जो इस बार *15 नवंबर 2025, शनिवार के दिन है🙏*
👉 *एकादशी तिथि प्रारंभ* 👇
14 नवंबर 2025,शुक्रवार दोपहर 2:19 मिनट से
👉 *एकादशी तिथि समापन* 👇
15 नवंबर 2025,शनिवार शाम 4:07 पर
👉 *एकादशी तिथि पारण*👇
16 नवंबर 2025, रविवार सुबह 7:17 से 9:13 तक.
*विशेष :*
*एकादशी का व्रत सूर्योदय तिथि 15 नवंबर 2025,शनिवार के दिन ही रखें* 🙏 शुक्रवार दोपहर एवं शनिवार व्रत के दिन खाने में चावल या चावल से बनी हुए चीज वस्तुओं का प्रयोग बिल्कुल भी ना करें🙏 अगर आप व्रत नहीं रखते हैं तो भी🙏
{ *कोई कोई जगह पर 16 नवंबर 2025, रविवार के दिन पक्ष वर्धिनी महाद्वादशी होने के कारण द्वादशी का व्रत रखा जाएगा}*
👉 *आईए जानते हैं उत्पन्ना एकादशी नाम कैसे पड़ा❓❓... माता एकादशी का प्रागटय कैसे हुआ* ❓❓👇
*प्रभु श्री हरि विष्णु जी के शरीर से एक स्त्री/देवी उत्पन्न हुई* और यही स्त्री ने मुरु नाम के राक्षस का वध कर दिया और वह दिन एकादशी तिथि थी इसलिए इस तिथि को *उत्पन्ना/उत्पत्ति एकादशी तिथि कहते हैं* ... जो भी कोई *नए भक्त गण* एकादशी तिथि का व्रत शुरु करना चाहते हैं वह भक्तगण को *इसी एकादशी के दिन से सभी एकादशी तिथि का व्रत करने की शुरुआत करनी चाहिए ऐसी मान्यता है.🙏*
👉 *सूतजी कहने लगे* - हे ऋषियों! उत्पत्ति एकादशी व्रत का वृत्तांत और उत्पत्ति प्राचीनकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त युधिष्ठिर से कही थी। वही मैं तुमसे कहता हूँ
एक समय युधिष्ठिर ने भगवान से पूछा था कि एकादशी व्रत किस विधि से किया जाता है❓ और उसका क्या फल प्राप्त होता है🙏 उपवास के दिन जो क्रिया की जाती है आप कृपा करके मुझसे कहिए🙏 यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे- हे युधिष्ठिर! मैं तुमसे एकादशी के व्रत का माहात्म्य कहता हूँ। सुनो।
👉 *एकादशी माहात्म्य* 👇
जो मनुष्य विधिपूर्वक एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के भी समान नहीं है। व्यतिपात के दिन दान देने का लाख गुना फ़ल होता है। संक्रांति से चार लाख गुना तथा सूर्य-चंद्र ग्रहण में स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है *वही पुण्य एकादशी के दिन व्रत करने से मिलता है।*
अश्वमेध यज्ञ करने से सौ गुना तथा एक लाख तपस्वियों को साठ वर्ष तक भोजन कराने से दस गुना, दस ब्राह्मणों अथवा सौ ब्रह्मचारियों को भोजन कराने से हजार गुना पुण्य भूमिदान करने से होता है। उससे हजार गुना पुण्य कन्यादान से प्राप्त होता है। इससे भी दस गुना पुण्य विद्यादान करने से होता है। *विद्यादान से दस गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है। अन्नदान के समान इस संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिससे देवता और पितर दोनों तृप्त होते हों परंतु एकादशी के व्रत का पुण्य सबसे अधिक होता है* 🚩
हजार यज्ञों से भी अधिक इसका फ़ल होता है। इस व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है। *रात्रि को फ़लाहार करने वाले को* उपवास का आधा फ़ल मिलता है और *दिन में एक बार फ़लाहार करने वाले को भी आधा ही फल प्राप्त होता है।* जबकि *निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते* 🙏
👉 *एकादशी व्रत विधि* 👇
सर्वप्रथम हेमंत ऋतु में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी से इस व्रत को प्रारंभ किया जाता है। दशमी को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश मुँह में रह न जाए। रात्रि को भोजन कदापि न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन प्रात: उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात न करे🙏
स्नान के पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान का पूजन करें और रात को दीपदान करें। रात्रि में सोना नहीं चाहिए🙏 सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए🙏 जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए🙏 धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए।
🙏 *ओम नमो नारायणाय* 🙏
#तुलसी
तुलसी माला की महिमा
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हिंदू धर्म में तुलसी को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है तुलसी की माला पहनने से कई बीमारियां ठीक हो होती हैं, तुलसी को शास्त्रों में व् ज्योतिष के अनुसार उल्लेख है कि भगवान विष्णु ने शालिग्राम का रूप इसलिए ही लिया था ताकि वे तुलसी के चरणों में रह सकें। इस लिए भगवान विष्णु को रमप्रिया मानी जाती है। और तुलसी खुद को भगवान की सेविका मानती हैं और उन्हें शालिग्राम के रूप मे हमेशा अपने छांव में रखती हैं। तुलसी के पौधे में कई औषधीय गुण भी पाए जाते हैं जो की बीमारियों और दवाइयों में इस्तमाल किया जाता है।
इसे वैज्ञानिक तौर पर विशिष्ट महत्व देते हैं। चाहे पौधा हरा भरा हो या सूखा हुआ इसमें चमत्कारिक रूप से कई गुण हमेशा मौजूद रहेते हैं जो कि हमें हर तरफ से स्वास्थ्य लाभ देते हैं।
हिंदू धर्म में तुलसी को पवित्र माना गया है अक्सर घरों में परिवार की सुख-समृद्धि के लिए इसकी पूजा भी की जाती है। और तुलसी की माला को भी धारण करना अच्छा माना जाता है। ज्योतिष के मुताबिक, माना जाता है कि तुलसी की माला पहनने से बुध और गुरु ग्रह बलवान होते हैं। लेकिन इसे धारण करने के लिए कुछ नियम हैं। आइए आपको बताते हैं कि इस माला को धारण करने के लिए मुख्य नियम क्या है
तुलसी की माला के नियम
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हिंदू धर्म में तुलसी को पवित्र माना जाता है। महिलाएं परिवार में सुख-समृद्धि लाने के लिए तुलसी की पूजा करती हैं। इसी तरह तुलसी की माला भी धारण करना अच्छा माना जाता है। भगवान विष्णु और कृष्ण के भक्त तुलसी की माला को धारण करते हैं। कहा जाता है कि तुलसी की माला पहनने से मन और आत्मा पवित्र होती है। यह भी कहा जाता है कि इसके कई औषधिए गुण भी हैं। उसी तरह तुलसी की माला को भी धारण करना अच्छा माना जाता है। लेकिन इसे धारण करने के लिए कुछ नियम हैं।
1👉 शास्त्रों में तुलसी को बहुत पवित्र माना गया है। जिस घर में तुलसी होती है उस घर से बीमारियां कोसों दूर रहती हैं, इसे आयुर्वेदिक औषधि बनाने के काम में भी लिया जाता है।
इसमें एक विशेष प्रकार की विधुत शक्ति होती है, जो पहनने वालों में आकर्षण उत्त्पन्न करती है।
2👉 शालिग्राम पुराण के अनुसार अगर तुलसी की माला भोजन ग्रहण करते समय व्यक्ति के शरीर पर हो तो इससे व्यक्ति को कई यज्ञ करने का पुण्य प्राप्त होता है, इसी कारण बुजुर्ग इसे अपने गले में पहनते हैं।
3👉 इसे पहनने से यश, कीर्ति और समृद्धि में वृद्धि होती है। इसमें औषधिय गुण होने के कारण पहनने वाले को सिरदर्द, जुखाम, बुखार, त्वचा संबंधी रोग नहीं होते हैं।
4👉 इसे पहनने से पहले गंगाजल डालकर फिर से शुद्ध कर लेना चाहिए और धूप दिखानी चाहिए। इस धारण करने से पहले भगवान श्रीहरि की स्तुति करनी चाहिए।
5👉 तुलसी की माला को धारण करने वाले को लहसुन-प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए। जो भी व्यक्ति तुलसी की माला को धारण करता है उसे मांस व मदिरा से भी दूर रहना चाहिए
ज्योतिष और शास्त्रो में बताया गया है कि तुलसी की माला पहनने से पहले इसे गंगा जल और धूप दिखाना चाहिए।इसे तुलसी की माला को धारण करने पर बुध और गुरु ग्रह बलवान होते हैं और सुख-समृद्धि भी दुगनी हो जाती है।
तुलसी की माला पहनने से पहले मंदिर में जाकर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए। इसे भगवान विष्णु का आशीर्वाद आप पर सदेव बना रहेता है।
तुलसी की माला को धारण करने वाले को लहसुन-प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए। इससे तुलसी की माला का अनादर होता है जो भी व्यक्ति तुलसी की माला को धारण करता है उसे मांस व मदिरा से भी दूर रहना चाहिए।
क्या महिलाये तुलसी माला धारण कर सकती है ??
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हिंदू धर्म में महिलाएं सुख-समृद्धि लाने के लिए तुलसी की पूजा करती हैं। इसी तरह तुलसी की माला भी धारण करना अच्छा माना जाता है। जो सज्जन भगवान विष्णु और कृष्ण के में आस्था विश्वास रखते है वो तुलसी की माला को धारण करते हैं। कहा जाता है कि इस माला को पहनने से ही आत्मा और मन की शुद्धि होती है। इतना ही नहीं भगवान कृष्ण के भक्त मानते हैं कि इस माला से जप करने से भगवान उनके और करीब आते हैं। और उन की सारी मनोकामना पूरी करते है |
तुलसी की माला कब पहने
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तुलसी की वैसे तो आप कभी भी धारण कर सकते है लेकिन अगर आप इसे किसी शुभ मुहूर्त पर पहनते है तो आपको इस का दुगना फ़ायदा होता है और आप को हर तरफ से सफलता मिलती है तुलसी की माला को आप गुरुवार के दिन धारण करें।
तुलसी माला की पहचान
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तुलसी की माला वैसे तो आपको कभी भी कही भी मिल जाएगी लेकिन कौन सी असली है यह जाना बहुत जरुरी हो जाता है हम द्वारा आपको बता दे की इस की पहचान करना काफी सरल है अगर आप तुलसी की माला को 30 मिनट तक पानी में दाल कर रख दे तो आप पहचान सकते है अगर इस का कलर निकला तो वो असली नही है।
तुलसी की माला के लाभ
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तुलसी की माला पहनने से बुध और गुरू ग्रह को बल मिलता है। ज्योतिष में ऐसा बताया गया है। बुरी नजर से बचाने के लिए भी इस माला को लोग बच्चों को धारण कराते हैं। इसके धारण मात्र से प्रभु की प्राप्ति होती है जिससे सभी प्रकार के सुख मिलते हैं। इस पवित्र माला को धारण करने से पहले गंगाजल से इसे धोना चाहिए। इसके बाद धूप-दीप देनी चाहिए। मंदिर में जाकर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए।
तुलसी माला कथा
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तुलसी के बीजों की माला बहुत ही लाभदायक होती है। तुलसी मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है। श्यामा तुलसी और रामा तुलसी।
श्यामा तुलसी अपने नाम के अनुसार ही श्याम वर्ण की होती है तथा रामा तुलसी हलके भूरे या हरित वर्ण की होती है।
तुलसी और चंदन की माला विष्णु, राम और कृष्ण से संबंधित जपों की सिद्धि के लिए उपयोग में लाई जाती है।
मंत्र :– इसके लिए मंत्र ‘ॐ विष्णवै नम:’ का जप श्रेष्ठ माना गया है।
मांसाहार आदि तामसिक वस्तुओं का सेवन करने वाले लोगों को तुलसी की माला धारण नहीं करनी चाहिए।
श्यामा तुलसी
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श्यामा तुलसी की माला धारण करने से विशेष रूप से मानसिक शांति प्राप्त होती है, ईश्वर के प्रति श्रद्धा-भक्ति बढ़ती है, मन में सकारात्मक भावना का विकास होता है, आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही पारिवारिक तथा भौतिक उन्नति होती है। इस माला को शुभ वार, सोम, बुध, बृहस्पतिवार को गंगाजल से शुद्ध करके धारण करना चाहिए।
रामा तुलसी माला
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इस माला को धारण करने से व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास में वृद्धि तथा सात्विक भावनाएं जागृत होती हैं। अपने कर्तव्यपालन के प्रति मदद मिलती है। इस माला को शुभ वार, सोम, गुरु, बुध को गंगाजल से शुद्ध करके धारण करना चाहिए।
तुलसी की माला में विद्युत शक्ति होती है। इस माला को पहनने से यश, कीर्ति और सौभाग्य बढ़ता है। शालिग्राम पुराण में कहा गया है कि तुलसी की माला भोजन करते समय शरीर पर होने से अनेक यज्ञों का पुण्य मिलता है। जो भी कोई तुलसी की माला पहनकर नहाता है, उसे सारी नदियों में नहाने का पुण्य मिलता है।
तुलसी की माला पहनने से बुखार, जुकाम, सिरदर्द, चमड़ी के रोगों में भी लाभ मिलता है। संक्रामक बीमारी और अकाल मौत भी नहीं होती। ऐसी धार्मिक मान्यता है , तुलसी माला पहनने से व्यक्ति की पाचन शक्ति, तेज बुखार, दिमाग की बीमारियों एवं वायु संबंधित अनेक रोगों में लाभ मिलता है। इसे पहनने से बुरी नजर के प्रभाव से बचा जा सकता है। इस माला को धारण करने वाले व्यक्ति को जीवन में किसी प्रकार का दुख और भय नहीं सताता।
साभार~ पं देव शर्मा💐
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*🙏सादर वन्दे🙏*
*🚩धर्मयात्रा🚩*
*🌱हनुमानजी का जन्म स्थान , हम्पी , किष्किंधा ,पम्पा सरोवर , शबरी गुफा और मतंगवन 🌱*
*हम्पी*
*पौराणिक मत के अनुसार हम्पी वही जगह है , जहाँ भगवान हनुमानजी का जन्म हुआ था।* हनुमानजी की जन्मस्थली हम्पी में भगवान राम का भी भव्य मन्दिर है।हम्पी में घाटियों और टीलों के बीच लगभग 500 से भी अधिक स्मारक चिन्ह हैं। इनमें मन्दिर , महल , तहख़ाने , खंडहर , पुराने बाज़ार , शाही मंडप , गढ़ , चबूतरे , राजकोष ऐसी असंख्य इमारतें हैं।
हम्पी जाने का सही समय है नवंबर से फरवरी तक। यहाँ फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी की जा सकती है।
हम्पी के पास ही तुंगभ्रदा नदी बहती है। जहाँ ब्रह्माजी का बनाया हुआ पम्पा सरोवर , हनुमानजी की जन्मस्थली आंजनाद्रि पर्वत , बाली की गुफा और ऋषम्यूक पर्वत भी स्थित है।
हम्पी से करीब तीन कि.मी. की दूरी पर अंजनी ( हनुमानजी की माताजी ) के नाम से एक आन्जनेय पर्वत है और इससे कुछ ही दूरी पर ऋष्यमूक पर्वत स्थित है , जिसे घेरकर तुंगभद्रा नदी बहती है ।
यहाँ कन्नड़ भाषा बोली जाती है।
*हम्पी कैसे जाएँ :---* सड़क मार्ग से जाने पर हुबली से हास्पेट 150 कि.मी.एवं हास्पेट से हम्पी 13 कि.मी.दूर है । कुर्नूल से आने पर , कुर्नूल से बेल्लारी 150 कि.मी एवं बेल्लारी से हम्पी 61 कि.मी.है ।हम्पी से आप इन स्थानों की यात्रा पर जा सकते हैं ।
*किष्किंधा*
हास्पेट से 13 कि.मी.दूर हम्पी है , और हम्पी में विजय विठ्ठल मन्दिर के दर्शन करने के बाद , तुंगभद्रा नदी को पार करने पर , ग्राम अनेगुंदी ( किष्किंधा ) है। पम्पा सरोवर एवं
हंपी के निकट बसा ग्राम अनेगुंदी ही किष्किंधा है।
*वर्तमान समय में कर्नाटक राज्य के बेल्लारी जिले में ही किष्किंधा नगरी है।*
बेल्लारी जिले के हम्पी नामक नगर में एक हनुमान मन्दिर स्थापित है। इस मन्दिर में प्रतिष्ठित हनुमानजी को यंत्रोद्धारक हनुमान कहा जाता है। विद्वानों के मतानुसार यही क्षेत्र प्राचीन “ किष्किंधा नगरी ” है जो कि हम्पी से चार कि.मी. की दूरी पर स्थित है ।
रामायण काल में " किष्किन्धा " वानर राज बालि का राज्य था। किष्किन्धा संभवत: " ऋष्यमूक " की भाँति ही पर्वत था।रामायण के अनुसार किष्किंधा में बालि और तदुपरान्त सुग्रीव ने राज्य किया था। तदुपरान्त माल्यवान तथा प्रस्त्रवणगिरि पर जो किष्किंधा में विरूपाक्ष के मन्दिर से 6 कि.मी. दूर है , इसी स्थान पर श्रीराम ने वर्षा के चार मास व्यतीत किए थे ।ऋष्यमूक पर्वत तथा तुंगभद्रा के घेरे को “चक्रतीर्थ” कहते हैं।
किष्किंधा से प्रायः डेढ़ कि.मी .पश्चिम में पंपासर नामक ताल है , जिसके तट पर राम और लक्ष्मण कुछ समय के लिए ठहरे थे। पास ही स्थित सुरोवन नामक स्थान को शबरी का आश्रम माना जाता है।
*पम्पा सरोवर*
पम्पा सरोवर । सरोवर का अर्थ झील हैं। हम यहाँ पंपा सरोवर की संक्षिप्त जानकारी आज दे रहे हैं ।
पंपा सरोवर , बंगलुरु के पास हॉस्पेट से तैरह कि.मी.दूर हम्पी के पास है। पंपा सरोवर का महत्व कैलाश मानसरोवर जैसा है। तुंगभद्रा नदी को पार करने पर अनेगुंदी जाते समय मुख्य मार्ग से कुछ हटकर बाईं ओर पश्चिम दिशा में पंपा सरोवर स्थित है।
शोधानुसार माना जाता है कि रामायण में वर्णित विशाल पंपा सरोवर यही है ।
*शबरी की गुफा*
पंपा सरोवर के पास पश्चिम में पर्वत के ऊपर कई जीर्ण-शीर्ण मन्दिर दिखाई पड़ते हैं। यहीं पर एक पर्वत है , जहाँ एक गुफा है जिसे शबरी की गुफा कहा जाता है।
*मतंगवन*
हास्पेट से हम्पी जाकर जब आप तुंगभद्रा नदी पार करते हैं तो हनुमनहल्ली गाँव की ओर जाते हुए आपको शबरी की गुफा , पंपा सरोवर और वह स्थान जहाँ , शबरी राम को बेर खिला रही थी , मिलते है । इसी के पास शबरी के गुरु मतंग ऋषि के नाम पर प्रसिद्ध ' मतंगवन ' था।
*आप भी धर्मयात्रा🚩 हेतु जुड़ सकते हैं :*
*धर्मयात्रा में दी गई ये जानकारियाँ , मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है। यहाँ यह बताना जरूरी है कि , धर्मयात्रा किसी भी तरह की मान्यता , जानकारी की पुष्टि नहीं करता है ।*
*🙏शिव🙏9993339605*
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#मंदिर दर्शन








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