Jagdish Sharma
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Jagdish Sharma
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यथार्थगीता पढ़ें और पढ़ायें।
।। ॐ ।। ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ अर्जुन ! जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित होकर, श्रद्धाभाव समर्पण से संयुक्त हुए सदा मेरे इस मत के अनुसार बरतते हैं कि 'युद्ध कर', वे पुरुष भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं। योगेश्वर का यह आश्वासन किसी हिन्दू, मुसलमान या ईसाई के लिए नहीं अपितु मानवमात्र के लिए है। उनका मत है कि युद्ध कर! इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह उपदेश युद्धवालों के लिये है। अर्जुन के समक्ष सौभाग्य से विश्वयुद्ध की संरचना थी, आपके सामने तो कोई युद्ध नहीं है, आप गीता के पीछे क्यों पड़े हैं; क्योंकि कर्मों से छूटने का उपाय तो युद्ध करनेवालों के लिये है? किन्तु ऐसा कुछ नहीं है। वस्तुतः यह अन्तर्देश अविद्या का, धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र का संघर्ष है। आप ज्यों-ज्यों ध्यान में चित्त का निरोध करेंगे तो विजातीय प्रवृत्तियाँ बाधा के रूप में प्रत्यक्ष होती हैं, भयंकर आक्रमण करती हैं। उनका शमन करते हुए चित्त का निरोध करते जाना ही युद्ध है। #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🙏गीता ज्ञान🛕 #❤️जीवन की सीख #🧘सदगुरु जी🙏
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।। ॐ ।। मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥ इसलिये अर्जुन ! तू 'अध्यात्मचेतसा'- अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके, ध्यानस्थ होकर, सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। जब चित्त ध्यान में स्थित है, लेशमात्र भी कहीं आशा नहीं, कर्म में ममत्व नहीं है, असफलता का सन्ताप नहीं है तो वह पुरुष कौन-सा युद्ध करेगा? जब सब ओर से चित्त सिमटकर हृदय-देश में निरुद्ध होता जा रहा है तो वह लड़ेगा किसलिये, किससे और वहाँ है कौन? वास्तव में जब आप ध्यान में प्रवेश करेंगे तभी युद्ध का सही स्वरूप खड़ा होता है, तो काम-क्रोध, राग-द्वेष, आशा-तृष्णा इत्यादि विकारों का समूह विजातीय प्रवृत्तियाँ जो 'कुरु' कहलाती हैं, संसार में प्रवृत्ति देती ही रहती हैं। बाधा के रूप में भयंकर आक्रमण करती हैं। बस, इनका पार पाना ही युद्ध है। इनको मिटाते हुए अन्तरात्मा में सिमटते जाना, ध्यानस्थ होते जाना ही यथार्थ युद्ध है। इसी पर पुनः बल देते हैं- #यथार्थ गीता #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख
यथार्थ गीता - 11 3০ 11 जब सब ओर से चित्त सिमटकर हृदय देश में निरुद्ध मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याष्यात्मचेतसा [ होता जा रहा है तो वह लड़ेगा किसलिये, किससे और निराशीर्निर्ममो भूत्वा युष्यस्व विगतज्वरः।  वहाँ है कौन? वास्तव में जब आप ध्यान में प्रवेश करेंगे तभी युद्ध का सही स्वरूप खडा होता है, तो इसलिये अर्जुन ! तू अध्यात्मचेतसा  अन्तरात्म काम-क्रोध, राग ्द्वेष, आशान्तृष्णा इत्यादि विकारों में चित्त का निरोध करके, थ्यानस्थ होकर, सम्पूर्ण  समूह विजातीय प्रवृत्तियाँ जो 'कुरु' कहलाती हैं, का कर्मो को अर्पण करके आशारहित मुझ्में  संसार में प्रवृत्ति देती ही रहती हैं। बाधा के रूप में ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। भयंकर आक्रमण करती हैं। बस, इनका पार पाना ही जब चित्त ध्यान में स्थित है॰ लेशमात्र भी कहीं  युद्ध है। इनको मिटाते हुए अन्तरात्मा में सिमटते आशा नहीं, कर्म में ममत्व नहीं है॰ असफलता का जाना, ध्यानस्थ होते जाना ही यथार्थ युद्ध है।  नहीं है तो वह पुरुष कौन सा युद्ध करेगा ? सन्ताप 11 3০ 11 जब सब ओर से चित्त सिमटकर हृदय देश में निरुद्ध मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याष्यात्मचेतसा [ होता जा रहा है तो वह लड़ेगा किसलिये, किससे और निराशीर्निर्ममो भूत्वा युष्यस्व विगतज्वरः।  वहाँ है कौन? वास्तव में जब आप ध्यान में प्रवेश करेंगे तभी युद्ध का सही स्वरूप खडा होता है, तो इसलिये अर्जुन ! तू अध्यात्मचेतसा  अन्तरात्म काम-क्रोध, राग ्द्वेष, आशान्तृष्णा इत्यादि विकारों में चित्त का निरोध करके, थ्यानस्थ होकर, सम्पूर्ण  समूह विजातीय प्रवृत्तियाँ जो 'कुरु' कहलाती हैं, का कर्मो को अर्पण करके आशारहित मुझ्में  संसार में प्रवृत्ति देती ही रहती हैं। बाधा के रूप में ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। भयंकर आक्रमण करती हैं। बस, इनका पार पाना ही जब चित्त ध्यान में स्थित है॰ लेशमात्र भी कहीं  युद्ध है। इनको मिटाते हुए अन्तरात्मा में सिमटते आशा नहीं, कर्म में ममत्व नहीं है॰ असफलता का जाना, ध्यानस्थ होते जाना ही यथार्थ युद्ध है।  नहीं है तो वह पुरुष कौन सा युद्ध करेगा ? सन्ताप - ShareChat
।। ॐ ।। प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु। तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में क्रमशः निर्मल गुणों की ओर उन्नति देखकर उनमें आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझनेवाले 'मन्दान्' - शिथिल प्रयत्नवालों को अच्छी प्रकार जाननेवाला ज्ञानी चलायमान न करे। उन्हें हतोत्साहित न करे बल्कि प्रोत्साहन दे; क्योंकि कर्म करके ही उन्हें परम नैष्कर्म्य की स्थिति को पाना है। अपनी शक्ति और स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत्त होनेवाले ज्ञानमार्गी साधकों को चाहिये कि कर्म को गुणों की देन मानें, अपने को कर्त्ता मानकर अहंकारी न बन जायें, निर्मल गुणों के प्राप्त होने पर भा उनम जासक्त न हा। किन्तु निष्काम कमयागा को कर्म और गुणों के विश्लेषण में समय देने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे तो बस समर्पण के साथ कर्म करते जाना है। कौन गुण आ-जा रहा है, यह देखना इष्ट की जिम्मेदारी हो जाती है। गुणों का परिवर्तन और क्रम-क्रम से उत्थान वह इष्ट की ही देन मानता है और कर्म होने को भी उन्हीं की देन मानता है। अतः कर्त्तापन का अहंकार या गुणों में आसक्ति होने की समस्या उसके लिये नहीं #🙏गीता ज्ञान🛕 #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🧘सदगुरु जी🙏 #❤️जीवन की सीख
🙏गीता ज्ञान🛕 - 11 3ా 11 विन्त निष्काम कमपागा को कर्म ओर गुर्णों वे विष्लेपण र्मे समप देने की कोई आवरपकता प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु। नर्ही हे। उसे तो बस नमर्पण के साप कर्म करते तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।। जाना हे। कौन गुण आ॰्जा रहा हे॰ पह देखना  दष की जिम्मेदारी हो जाती हे। गुर्णों का प्रकृति के गुर्णों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में परिवर्तन ओरकग कम से उत्यान वह दट की हा क्रमशः निर्मल गुर्णों की ओर उन्नति देखकर उनमें देन मानता हे ओर कर्म होने कोभीउरन्हीकीदेन अहकार पा गुर्णों मे॰ नानता ह। अतः कर्त्तापन का आसक्त होते है। उन अच्छी प्रकार न समझनेवाले आसल्ति होने की समस्पा उसके लिपे नर्ही रहती  मन्दान - शिथिल प्रयत्नवार्लों को अच्छी प्रकार जवकि अनवरत लगा रहता हे। दसी पर आर जाननेवाला ज्ञानी चलायमान न करे। उन्हे हतोत्साहित न साप ही पुद्ध का स्वरूप बताते हुए श्रीकृष्ण * करे बल्कि प्रोत्साहन देः क्योकि कर्म करके ही उन्हे परम 55 नैष्कर्म्य की स्थिति को पाना है। अपनी शक्ति ओर स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत्त होनेवाले ज्ञानमार्गी साधर्कों को चाहिये कि कर्म को गुर्णों की देन मानें, अपने को कर्त्ता मानकर अहंकारी न बन जार्यें, निर्मल गुर्णों के प्राप्त होने पर भा उनम आसक्त नहा। {೯ 11 3ా 11 विन्त निष्काम कमपागा को कर्म ओर गुर्णों वे विष्लेपण र्मे समप देने की कोई आवरपकता प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु। नर्ही हे। उसे तो बस नमर्पण के साप कर्म करते तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।। जाना हे। कौन गुण आ॰्जा रहा हे॰ पह देखना  दष की जिम्मेदारी हो जाती हे। गुर्णों का प्रकृति के गुर्णों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में परिवर्तन ओरकग कम से उत्यान वह दट की हा क्रमशः निर्मल गुर्णों की ओर उन्नति देखकर उनमें देन मानता हे ओर कर्म होने कोभीउरन्हीकीदेन अहकार पा गुर्णों मे॰ नानता ह। अतः कर्त्तापन का आसक्त होते है। उन अच्छी प्रकार न समझनेवाले आसल्ति होने की समस्पा उसके लिपे नर्ही रहती  मन्दान - शिथिल प्रयत्नवार्लों को अच्छी प्रकार जवकि अनवरत लगा रहता हे। दसी पर आर जाननेवाला ज्ञानी चलायमान न करे। उन्हे हतोत्साहित न साप ही पुद्ध का स्वरूप बताते हुए श्रीकृष्ण * करे बल्कि प्रोत्साहन देः क्योकि कर्म करके ही उन्हे परम 55 नैष्कर्म्य की स्थिति को पाना है। अपनी शक्ति ओर स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत्त होनेवाले ज्ञानमार्गी साधर्कों को चाहिये कि कर्म को गुर्णों की देन मानें, अपने को कर्त्ता मानकर अहंकारी न बन जार्यें, निर्मल गुर्णों के प्राप्त होने पर भा उनम आसक्त नहा। {೯ - ShareChat
।। ॐ ।। तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग को 'तत्त्ववित्' - परमतत्त्व परमात्मा की जानकारीवाले महापुरुषों ने देखा और सम्पूर्ण गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर वे गुण और कर्मों के कर्त्तापन में आसक्त नहीं होते। यहाँ तत्त्व का अर्थ परमतत्त्व परमात्मा है, न कि पाँच या पचीस तत्त्व जैसा कि लोग गणना करते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तत्त्व एकमात्र परमात्मा है, अन्य कोई तत्त्व है ही नहीं। गुणों को पार करके परमतत्त्व परमात्मा में स्थित महापुरुष गुण के अनुसार कर्मों का विभाजन देख पाते हैं। तामसी गुण रहेगा तो उसका कार्य होगा- आलस्य, निद्रा, प्रमाद, कर्म में प्रवृत्त न होने का स्वभाव। राजसी गुण रहेंगे तो आराधना से पीछे न हटने का स्वभाव, शौर्य, स्वामिभाव से कर्म होगा और सात्त्विक गुण कार्यरत होने पर ध्यान, समाधि, अनुभवी उपलब्धि, धारावाहिक चिन्तन, सरलता स्वभाव में होगी। गुण परिवर्तनशील हैं। प्रत्यक्षदर्शी ज्ञानी ही देख पाता है कि गुणों के अनुरूप कर्मों का उत्कर्ष-अपकर्ष होता है। गुण अपना कार्य करा लेते हैं। #यथार्थ गीता #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख
यथार्थ गीता - f ٢[ 17&179 11 39 11 >' तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः  3াডেন ५५ गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते II हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग को तत्त्ववित् परमतत्त्व परमात्मा की ने देखा और जानकारीवाले सम्पूर्ण  महापुरुषों  aTuT गुण गुणों में बरत रहे हें ऐसा मानकर  और कर्मों के कर्त्तापन में आसक्त नहीं होते। यहाँ तत्त्व का अर्थ परमतत्त्व परमात्मा हे॰न कि पाँच या पचीस तत्त्व जेसा कि लोग गणना करते हें। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तत्त्व एकमात्र परमात्मा है॰ अन्य कोई तत्त्व हैही नहीं। श्री श्री १००८ श्री स्वामी परमानन्दजी महाराज परमहंसजी ) जन्म : शुभ सम्वत् विक्रम १९६८ ( सन् १९११ ई० ) ज्येष्ठ शुक्ल ७, वि॰सं॰ २०२६, दिनांक २३/०५/१९६९ ई०  महाप्रयाण चित्रकूट  परमहंस आश्रम अनुसुइया , f ٢[ 17&179 11 39 11 >' तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः  3াডেন ५५ गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते II हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग को तत्त्ववित् परमतत्त्व परमात्मा की ने देखा और जानकारीवाले सम्पूर्ण  महापुरुषों  aTuT गुण गुणों में बरत रहे हें ऐसा मानकर  और कर्मों के कर्त्तापन में आसक्त नहीं होते। यहाँ तत्त्व का अर्थ परमतत्त्व परमात्मा हे॰न कि पाँच या पचीस तत्त्व जेसा कि लोग गणना करते हें। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तत्त्व एकमात्र परमात्मा है॰ अन्य कोई तत्त्व हैही नहीं। श्री श्री १००८ श्री स्वामी परमानन्दजी महाराज परमहंसजी ) जन्म : शुभ सम्वत् विक्रम १९६८ ( सन् १९११ ई० ) ज्येष्ठ शुक्ल ७, वि॰सं॰ २०२६, दिनांक २३/०५/१९६९ ई०  महाप्रयाण चित्रकूट  परमहंस आश्रम अनुसुइया , - ShareChat
https://youtu.be/snZE_gPO5H4?si=y7xjwVeVACJAQxw6 #यथार्थ गीता #🙏गीता ज्ञान🛕 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🧘सदगुरु जी🙏 #❤️जीवन की सीख
यथार्थ गीता - हिताय जगत् मोक्षार्थ 11 39 11 >* तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः  आत्मने ५५ गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते II हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग को तत्त्ववित् परमतत्त्व परमात्मा की जानकारीवाले ने देखा और सम्पूर्ण  महापुरुषों  aTuT गुण गुणों में बरत रहे हें ऐसा मानकर और कर्मों के कर्त्तापन में आसक्त नहीं होते। यहाँ तत्त्व का अर्थ परमतत्त्व परमात्मा हे॰ न कि पाँच या पचीस तत्त्व जैेसा कि लोग गणना करते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तत्त्व एकमात्र परमात्मा है॰ अन्य कोई तत्त्व हैही नहीं। श्री श्री १००८ श्री स्वामी परमानन्दजी महाराज परमहंसजी ) जन्म : शुभ सम्वत् विक्रम १९६८ ( सन् १९११ ई० ) ज्येष्ठ शुक्ल ७, वि॰सं॰ २०२६, दिनांक २३/०५/१९६९ ई०  महाप्रयाण चित्रकूट  परमहंस आश्रम अनुसुइया , हिताय जगत् मोक्षार्थ 11 39 11 >* तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः  आत्मने ५५ गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते II हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग को तत्त्ववित् परमतत्त्व परमात्मा की जानकारीवाले ने देखा और सम्पूर्ण  महापुरुषों  aTuT गुण गुणों में बरत रहे हें ऐसा मानकर और कर्मों के कर्त्तापन में आसक्त नहीं होते। यहाँ तत्त्व का अर्थ परमतत्त्व परमात्मा हे॰ न कि पाँच या पचीस तत्त्व जैेसा कि लोग गणना करते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तत्त्व एकमात्र परमात्मा है॰ अन्य कोई तत्त्व हैही नहीं। श्री श्री १००८ श्री स्वामी परमानन्दजी महाराज परमहंसजी ) जन्म : शुभ सम्वत् विक्रम १९६८ ( सन् १९११ ई० ) ज्येष्ठ शुक्ल ७, वि॰सं॰ २०२६, दिनांक २३/०५/१९६९ ई०  महाप्रयाण चित्रकूट  परमहंस आश्रम अनुसुइया , - ShareChat
।। ॐ ।। प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अह‌ङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ आरम्भ से पूर्तिपर्यन्त कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं फिर भी अहंकार से विशेष मूढ़ पुरुष 'मैं कर्त्ता हूँ'- ऐसा मान लेता है। यह कैसे माना जाय कि आराधना प्रकृति के गुणों द्वारा होती है? ऐसा किसने देखा? इस पर कहते हैं- #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏गीता ज्ञान🛕 #❤️जीवन की सीख
यथार्थ गीता - // 35 | 1 क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |  प्रकृतेः अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।   पूर्तिपर्यन्त कर्म प्रकृति के आरम्भ से गुणों RT किये जाते हैं फिर भी अहंकार से विशेष मूढ़ पुरुष ' मैं कर्त्ता हूँ  ऐसा मान लेता है। यह Sa कैसे माना जाय कि आराधना के गुणों प्रकृति द्वारा होती है? ऐसा किसने देखा? इस पर कहते हैं- // 35 | 1 क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |  प्रकृतेः अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।   पूर्तिपर्यन्त कर्म प्रकृति के आरम्भ से गुणों RT किये जाते हैं फिर भी अहंकार से विशेष मूढ़ पुरुष ' मैं कर्त्ता हूँ  ऐसा मान लेता है। यह Sa कैसे माना जाय कि आराधना के गुणों प्रकृति द्वारा होती है? ऐसा किसने देखा? इस पर कहते हैं- - ShareChat
यही कारण था कि 'पूज्य महाराज जी' वृद्धावस्था में भी रात के दो बजे ही उठकर बैठ जायँ, खाँसने लगें। तीन बजे बोलने लगें- "उठो मिट्टी के पुतलो!" सब उठकर चिन्तन में लग जायँ, तो स्वयं थोड़ा लेट जायँ। कुछ देर बाद फिर उठकर बैठ जायँ। कहें-"तुम लोग सोचते हो कि महाराज सो रहे हैं; किन्तु मैं सोता नहीं, श्वास में लगा हूँ। वृद्धावस्था का शरीर है, बैठने में कष्ट होता है इसी से मैं पड़ा रहता हूँ, लेकिन तुम्हें तो स्थिर और सीधे बैठकर चिन्तन में लगना है। जब तक तैलधारा के सदृश श्वास की डोरी न लग जाय, क्रम न टूटे, अन्य संकल्प बीच में व्यवधान उत्पन्न न कर सकें, तब तक सतत लगे रहना साधक का धर्म है। मेरी श्वास तो बाँस की तरह स्थिर खड़ी है।" यही कारण है कि अनुयायियों से कराने के लिये वह महापुरुष भली प्रकार कर्म में बरतता है। 'जिस गुन को सिखावै, उसे करके दिखावै।' इस प्रकार स्वरूपस्थ महापुरुष को भी चाहिये कि स्वयं कर्म करता हुआ साधकों को भी आराधना में लगाये रहे। साधक भी श्रद्धापूर्वक आराधना में लगें। किन्तु चाहे ज्ञानयोगी हो अथवा समर्पण भाववाला निष्काम कर्मयोगी हो, साधक में साधना का अहंकार नहीं आना चाहिये। #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख #यथार्थ गीता #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏गीता ज्ञान🛕
🙏🏻आध्यात्मिकता😇 - I3 |l न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।  ज्ञानी पुरुषों को चाहिये कि कर्मों में आसक्तिवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम न पैदा करें अर्थात् स्वरूपस्थ महापुरुष ध्यान दें कि उनके किसी आचरण से पीछेवालों के मन में कर्म के प्रति अश्रद्धा न उत्पन्न हो जाय। परमात्मतत्त्व से संयुक्त महापुरुष को भी चाहिये कि स्वयं भली प्रकार नियत कर्म करता हुआ उनसे करावे।  I3 |l न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।  ज्ञानी पुरुषों को चाहिये कि कर्मों में आसक्तिवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम न पैदा करें अर्थात् स्वरूपस्थ महापुरुष ध्यान दें कि उनके किसी आचरण से पीछेवालों के मन में कर्म के प्रति अश्रद्धा न उत्पन्न हो जाय। परमात्मतत्त्व से संयुक्त महापुरुष को भी चाहिये कि स्वयं भली प्रकार नियत कर्म करता हुआ उनसे करावे। - ShareChat
।। ॐ ।। सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम्॥ हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान्, पूर्णज्ञाता भी लोक-हृदय में प्रेरणा और कल्याण-संग्रह चाहता हुआ कर्म करे। यज्ञ की विधि जानते और करते हुए भी हम अज्ञानी हैं। ज्ञान का अर्थ है प्रत्यक्ष जानकारी। जब तक लेशमात्र भी हम अलग हैं, आराध्य अलग है तब तक अज्ञान विद्यमान है। जब तक अज्ञान है, तब तक कर्म में आसक्ति रहती है। अज्ञानी जितनी आसक्ति से आराधना करता है, उसी प्रकार अनासक्त। जिसे कर्मों से प्रयोजन नहीं है तो आसक्ति क्यों होगी? ऐसा पूर्णज्ञाता महापुरुष भी लोकहित के लिये कर्म करे, दैवी सम्पद् का उत्कर्ष करे, जिससे समाज उस पर चल सके। #यथार्थ गीता #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🙏गीता ज्ञान🛕 #❤️जीवन की सीख #🧘सदगुरु जी🙏
यथार्थ गीता - 30  कुर्वन्ति भारत कर्मण्यविद्वांसो यथा सक्ता 184d Tdl कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीपुरलीकसङ्गहमा भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते  aa हैं वैसे ही अनासक्त हुआ भी पूर्णज्ञाता लोक हृदय में प्रेरणा और कल्याण संग्रह चाहता हुआ कर्म करे। यज्ञ की विधि जानते और करते हुए भी हम  अज्ञानी ह। ज्ञान का अर्थ है प्रत्यक्ष जानकारी। जबतक भी हम लेशमात्र अलग हेः आराध्य अलग है तवतक अज्ञान विद्यमान है। जव तक अज्ञान है॰ तबतक कर्म मे आसक्ति रहती है। अज्ञानी जितनी आसक्ति से आराधना  करता है॰ उसी प्रकार अनासक्ता जिसे कर्मीसे प्रयोजन नहीं है तो आसक्ति क्यों होगी ? ऐसा  पूर्णज्ञाता महापुरुष भी लोकहित केलिये कर्म करे दैवी सम्पद का उत्कर्ष करे, जिससे समाज उस परचल सके 30  कुर्वन्ति भारत कर्मण्यविद्वांसो यथा सक्ता 184d Tdl कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीपुरलीकसङ्गहमा भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते  aa हैं वैसे ही अनासक्त हुआ भी पूर्णज्ञाता लोक हृदय में प्रेरणा और कल्याण संग्रह चाहता हुआ कर्म करे। यज्ञ की विधि जानते और करते हुए भी हम  अज्ञानी ह। ज्ञान का अर्थ है प्रत्यक्ष जानकारी। जबतक भी हम लेशमात्र अलग हेः आराध्य अलग है तवतक अज्ञान विद्यमान है। जव तक अज्ञान है॰ तबतक कर्म मे आसक्ति रहती है। अज्ञानी जितनी आसक्ति से आराधना  करता है॰ उसी प्रकार अनासक्ता जिसे कर्मीसे प्रयोजन नहीं है तो आसक्ति क्यों होगी ? ऐसा  पूर्णज्ञाता महापुरुष भी लोकहित केलिये कर्म करे दैवी सम्पद का उत्कर्ष करे, जिससे समाज उस परचल सके - ShareChat
।। ॐ ।। विश्वमानव धर्मशास्त्र- "यथार्थ गीता" के प्रणेता विश्वगुरु परमहंस स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी महाराज की गीतोक्त साधना से लौकिक एवं पारलौकिक सुखों की प्राप्ति होती हैं। #यथार्थ गीता #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏 #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #❤️जीवन की सीख
यथार्थ गीता - 3০ विश्वमानव धर्मशास्त्र  "यथार्थ गीता" के प्रणेता विश्वगुरु परमहंस स्वामी श्री 35( अड़गड़ानंद जी महाराज की गीतोक्त साधना से लौकिक एवं की प्राप्ति पारलौकिक re होती हैं। नययार्य गीता 3০ विश्वमानव धर्मशास्त्र  "यथार्थ गीता" के प्रणेता विश्वगुरु परमहंस स्वामी श्री 35( अड़गड़ानंद जी महाराज की गीतोक्त साधना से लौकिक एवं की प्राप्ति पारलौकिक re होती हैं। नययार्य गीता - ShareChat
।। ॐ ।। यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥ क्योंकि यदि मैं सावधान होकर कदाचित् कर्म में न बरनूँ तो मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बरतने लग जायेंगे। तो क्या आपका अनुकरण भी बुरा है? श्रीकृष्ण कहते हैं- हाँ! #🙏🏻आध्यात्मिकता😇 #🙏गीता ज्ञान🛕 #🧘सदगुरु जी🙏 #यथार्थ गीता #❤️जीवन की सीख
🙏🏻आध्यात्मिकता😇 - [1 35 11 यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |  वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।  मम क्योंकि यदि मैं सावधान होकर कदाचित् कर्म में न बरनूँ तो मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बरतने लग जायेंगे। तो क्या भी बुरा  श्रीकृष्ण  8? आपका अनुकरण ೫೯d೯- ೯! 7972777 گ 2 "  ~20 5_ | [1 35 11 यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |  वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।  मम क्योंकि यदि मैं सावधान होकर कदाचित् कर्म में न बरनूँ तो मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बरतने लग जायेंगे। तो क्या भी बुरा  श्रीकृष्ण  8? आपका अनुकरण ೫೯d೯- ೯! 7972777 گ 2 "  ~20 5_ | - ShareChat